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अयोध्या केस के फैसले का 1045 पेज का ऐसा निचोड़ जिसमें सब कुछ है

बाबरी मस्जिद विवाद का फैसला अंग्रेजी के भारी भरकम शब्दों और क़ानूनी जटिलताओं के साथ 1045 पन्नों में लिखा गया है। पूरा तो नहीं मगर फिर भी यहां पर इस फैसले से जुड़े उतनी बातों का उल्लेख कर दिया जा रहा है। जिससे मोटे तौर पर सारी बातें समझी जा सकें।  
supreme court
Image courtesy: News18

बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे से जुड़े 2.77 एकड़ जमीन के मालिकाना हक का फैसला किया जाना था। साल 1950 में इस पर पहला मुकदमा दायर किया गया और साल 1989 में अंतिम मुकदमा। तकनीकी तौर पर आजाद भारत में सबसे पहले वादी गोपाल विशारद थे, इन्होने पूजा करने का हक माँगा।

साल 1990 में जब इनका देहांत हो गया तो इनके बेटे राजेंद्र सिंह वादी बने। दूसरे वादी परमहंस रामचंद्र दास थे। इन्होंने साल 1990 में अपना मुकदमा वापस ले लिया। तीसरा वादी निर्मोही आखड़ा था। इन्होंने साल 1959 में मुकदमा दायर किया।  लेकिन असल में सबसे पहले वादी यही थी। ये लोग वैरागी महंत रघुवर दास के चेले थे। उसी महंत रघुवर दास के जिन्होंने मस्जिद से जुड़ा पहला केस साल 1885 में किया था।  

चौथे वादी के तौर पर साल 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने मामला दर्ज किया तो सबसे अंत में साल 1989 में राम लला विराजमान की एक न्यायिक व्यक्ति के तौर पर इंट्री हुई। दिलचस्प बात ये हुई कि फैसला सबसे अंतिम वादी के पक्ष में हुआ।

सुप्रीम ने बाबरी मस्जिद केस के 1045 पेज के जजमेंट में पैराग्राफ 795 से लेकर 798 तक के फैसले का सार लिखा है। अर्थ न बदलते हुए हम इन पैरों का संक्षेपण आपके सामने प्रस्तुत का रहे हैं

- संविधान किसी भी धर्म के विश्वास और आस्थाओं के साथ भेदभाव नहीं करता है। सारे धर्म  संविधान की सतह पर बराबर होते हैं। दिक्क्त आने पर जज संविधान की व्याख्या करते हैं। और सरकारें इन व्याख्याओं को लागू करवाती है। लेकिन सबसे ऊपर नागरिक होते हैं जो इनसे जुड़े होते हैं, जिनके जीवन का धर्म अभिन्न हिस्सा होता है।  

-इस मामले में कोर्ट को जमीन के मालिकाना हक का फैसला करना है। कोर्ट जमीन के मालिकाना हक का फैसला दस्तावेज और तथ्यों के आधार पर करता है। आस्थाओं के आधार पर नहीं।  

-इसके साफ सबूत हैं कि साल 1857 में विवादित स्थल के बाहरी प्रांगण में दीवार बना दिए जाने के बाद भी पूजा पाठ हुआ करता था।

-मुस्लिम पक्ष की तरफ से इसका सबूत नहीं दिया गया कि 16 वीं शताब्दी से लेकर 1857 तक मस्जिद के इकलौते मालिक वही थे। 1857 में बाहरी परिसर के लिए दीवार बना दिया गया। तब से लेकर साल 1949 तक मस्जिद के अंदर नमाज और बाहर पूजा-पाठ पाठ चलता रहा। 22- 23 दिसम्बर 1949 की रात को मस्जिद के अंदर हिन्दू मूर्तियां रखीं गयी। इसके बाद बिना कानूनी प्राधिकरण आदेश के मुस्लिमों को मस्जिद छोड़ना पड़ा। उसके बाद से मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया। मुस्लिमों को गलत तरह से एक मस्जिद से वंचित कर दिया गया, जो 450 साल पुराना था।  

- हाई कोर्ट द्वारा विवादित जगह का बंटवारा तीन जगहों पर कर देना सही फैसला नहीं था

- अंतिम फैसला राम लला विराजमान के हक में जाता है और सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी कुछ राहत दी जाती है। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि राम लला विराजमान को कोर्ट ने न्यायिक व्यक्ति के तौर पर माना। यानी श्रीराम खुद एक पक्षकार की भूमिका में थे। इन्होंने साल 1989 में मामला दायर किया था। साल 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने केस दायर किया था। यह केस सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ऑफ वक्फ, उत्तर प्रदेश और अयोध्या के नौ व्यक्तिगत मुसलमानों द्वारा दायर किया गया था, जिनमें से अधिकांश बाद में मर गए।

-हिन्दू पक्ष द्वारा दायर किये गए साक्ष्य मुस्लिम पक्ष से ज्यादा मजबूत हैं। इसलिए हिन्दुओं के दावे को स्वीकार किया जाता है। चूँकि गलत तरीके से उन्हें मस्जिद से बाहर किया गया था इसलिए न्याय और संतुलन बनाये रखने के लिए मुस्लिमों को मस्जिद बनाने के लिए अलग जगह पर जमीन दिए जाने का निर्देश दिया जाता है।  

-हालांकि पूरी विवादित जमीन के मालिकाना हक़ के बारे में हिंदुओं की तरफ से पेश किए गए सबूतों का आधार, मुस्लिम पक्ष की तरफ से पेश किए सबूतों के बनिस्बत ज्यादा मजबूत है।  फिर भी मुसलिम पक्ष को जमीन आवंटित किया जाना जरूरी है। मुस्लिम पक्ष ने मस्जिद पर अपना दावा कभी छोड़ा नहीं। बल्कि 22/23 दिसंबर 1949 को पहले मस्जिद को अपवित्र किया गया और बाद में 6 दिसंबर 1992 को उसे पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया। भारतीय संविधान की अनुच्छेद 142 कहती है कि हर हाल में किसी अपराध का उपचार किया जाए।

मुसलमानों को मस्जिद से जिन तरीकों से मस्जिद से बाहर किया गया वो किसी भी ऐसे देश में जो सेक्युलर और कानून के राज के प्रति वचनबद्ध है, में स्वीकार नहीं किया जाए। अगर यह अदालत इस चीज को नजरअंदाज कर देती है तो यह कानून की जीत नहीं होगी। संविधान सभी धर्मों की समानता को अभिगृहीत करता है। सहिष्णुता और सहअस्तित्व हमारे राष्ट्र और लोगों की धर्मनिरपेक्षता के प्रति वचनबद्धता को मजबूत करता है।

-निर्मोही अखाड़े के दावे को ख़ारिज किया जाता है। लेकिन विवादित जगहों का प्रबंधन निर्मोही अखाड़े द्वारा ऐतिहासिक तौर पर किया जाता रहा है। इसलिए यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि आने वाले समय में भी निर्मोही अखाड़े को मंदिर प्रबंधन में उचित हिस्सेदारी मिले।  

-केंद्र सरकार इस फैसले की तारीख से तीन महीने की अवधि के भीतर, अयोध्या अधिनियम 1993 में निश्चित क्षेत्र के अधिग्रहण के अनुभाग 6 और 7 के तहत इसमें निहित शक्तियों के अनुरूप एक योजना तैयार करेगी। धारा 6 के तहत न्यासी बोर्ड या किसी अन्य उपयुक्त निकाय के साथ एक ट्रस्ट की स्थापना की जाएगी। केंद्र सरकार द्वारा तैयार की जाने वाली योजना ट्रस्ट या निकाय के कामकाज के संबंध में आवश्यक प्रावधान करेगी। ट्रस्ट का प्रबंधन एक मंदिर के निर्माण और सभी आवश्यक आकस्मिक और पूरक मामलों सहित ट्रस्टियों की शक्तियां। मोटे तौर पर समझा जाए तो केंद्र सरकार से तीन महीने के भीतर एक योजना बनाये। इस योजना के तहत विवादित जमीन ट्रस्ट को सौंप दी जाए। ट्रस्ट एक बोर्ड बनाएगी। बोर्ड कुछ नियम कानून बनाएगी जिसके तहत ट्रस्ट काम करेगा।

इस आदेश के अलावा फैसले से जुड़े कुछ और महत्वपूर्ण बिंदुओं को समझते है -

-  अपना फैसला सुनाने में जिनका सहारा सुप्रीम कोर्ट ने सबसे अधिक लिया है। उनमें दो चीजें प्रमुख हैं। पहला 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्देशों पर निर्मित भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट। दूसरा साहित्यिक और आधिकारिक दस्तावेजों का एक समूह है, जिसमें 18 वी सदी के बाद विवादित स्थल से संबंधित यूरोपीय यात्रियों और ब्रिटिश गजेटियर भी शामिल हैं।

- एएसआई की रिपोर्ट से, अदालत ने माना कि मस्जिद के नीचे एक संरचना मौजूद थी। और इन संरचनाओं के अवशेषों से लगता है कि ये हिन्दू मंदिर के संरचना है। हालांकि, इस रिपोर्ट को संदर्भ के रूप में चुना और कहा कि एएसआई ने यह निष्कर्ष नहीं निकाला कि 16 वीं शताब्दी की मस्जिद बनाने के लिए एक मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया था। इसने 12 वीं सदी में मंदिर की तारीख और 1528 में मस्जिद के निर्माण के बीच के लंबे अंतराल का हवाला देते हुए मंदिर की तारीख की ओर इशारा किया। और कहा कि यह 12 वीं सदी से लेकर 1528 तक बहुत बड़ा अंतराल है। इसलिए जमीन का मालिकाना हक एएसआई के रिपोर्ट पर निर्धारित नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा -बारहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच के दौर के संबंध में रिकॉर्ड पर कोई सबूत नहीं है। इसलिए यह निर्धारित करना मुश्किल है कि (i) अंतर्निहित संरचना के विनाश का कारण क्या है और (ii) क्या मस्जिद के निर्माण के लिए पहले से मौजूद ढाँचे को ढहा दिया गया था। इसलिए एएसआई की रिपोर्ट को आधार नहीं बनाया जा सकता है।  

 - यानी सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाने के लिए ऐतिहासिक साहित्यों को ज्यादा तवज्जो दी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने नतीजे पर पहुंचने के लिए जिन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को प्रमुखता दी, उनमें मिथकों की भरमार है। जैसे कि  स्कंद पुराण में बद्रिकाश्रम, अयोध्या, जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, कन्याकुमारी, प्रभास, द्वारका, काशी और कांची जैसे तीर्थों के अलावा गंगा, यमुना, सरस्वती और नर्मदा जैसी नदियों की महत्व की व्याख्या की गई है, कोर्ट में रामलला विराजमान यानी राम लला का पक्ष इसी स्कंद पुराण की दलील दे रहा था, तो सुन्नी वक्फ बोर्ड का पक्ष इन तर्कों के साथ भिड़ रहा था।  

- भगवान राम के बारे में जानकारी का सबसे मुख्य दस्तावेज वाल्मीकि रामायण है। वाल्मीकि रामायण महाभारत और श्रीमद्भागवत गीता से भी पुराना है। वाल्मीकि रामायण क्रिश्चियन दौर से भी पहले लिखी गई थी। वाल्मीकि रामायण यह बात तो बताता है कि भगवान राम का जन्म अयोध्या में ही हुआ था लेकिन वाल्मीकि रामायण ये नहीं बताता है कि राम का जन्म कहां हुआ था। वाल्मीकि रामायण में केवल इस बात का उल्लेख है कि राम अयोध्या में राजा दशरथ के महल में कौशल्या के गर्भ से पैदा हुए थे। इसके साथ कोर्ट ने जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य की बातों भी स्वीकार किया है जो भगवान राम का जन्म अयोध्या में मानते थे।  

-  कोर्ट ने अंतिम हिस्से में गुरुनानक जी का जिक्र किया है। 'जो जन्म साखियां रिकॉर्ड में लाई गई थीं, उनमें गुरु नानक के अयोध्या जाकर भगवान राम के जन्म स्थान के दर्शन करने के बारे में जानकारी थी। ये सच है कि रिकॉर्ड में लाई गईं जन्म साखियों के सार से ऐसी कोई सामग्री नहीं मिली है, जो राम जन्म भूमि की एकदम सटीक जगह की जानकारी दे सके। लेकिन गुरु नानक के अयोध्या जाकर राम जन्म भूमि के दर्शन करने की जानकारी से ये पता चल रहा है कि श्रद्धालु साल 1528 के पहले भी अयोध्या जाकर जन्म भूमि के दर्शन करते थे। गुरु नानक देवजी का साल 1510-11 में अयोध्या जाना और वहां राम जन्म भूमि के दर्शन करना, हिंदुओं की विश्वास और आस्था को बल देता है।'

- इस फैसले में कोर्ट ने हिन्दू धर्म की व्याख्याओं को भी दर्ज किया है। जैसे जस्टिस जे एस वर्मा की बात कि हिन्दू धर्म एक जीवनशैली है। भूतपूर्व राष्ट्रपति राधाकृष्णन द्वारा धर्म की गई व्याख्या आदि जैसी बहुत सारी बाते हैं।

- 30 मार्च, 1946 को फैजाबाद के सिविल जज द्वारा दिए गए निर्णायक फैसले के खिलाफ उत्तर प्रदेश की शिया वक़्फ बोर्ड ने जो स्पेशल लीव पिटीशन (एसएलपी) दाखिल की, उसमें 68 साल की असामान्य देरी हुई। इस देरी की वजहों को सही तरीके से बताया भी नहीं किया गया। ऐसे में ये स्पेशल लीव पिटीशन (एसएलपी) डिसमिस की जाती है।  

चलते-चलते पेज नंबर 215 पर सुप्रीम कोर्ट का एक वाक्य गौर करने लायक है -  यह सच है कि विश्वास और आस्थाओं से जुड़े मसलों पर साक्ष्यों का न होना विश्वासों और आस्थाओं की गैरमौजूदगी साबित नहीं करता।

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