ऑस्ट्रेलिया-इंडिया इंस्टीट्यूट (AII) के 13 अध्येताओं ने मोदी सरकार पर हस्तक्षेप का इल्ज़ाम लगाते हुए इस्तीफा दिया
मेलबॉर्न यूनिवर्सिटी में ऑस्ट्रेलिया इंडिया इंस्टीट्यूट (एआईआई) के 13 फैलो ने इस्तीफा दे दिया है। यह इस्तीफा कथित तौर पर भारतीय उच्चायोग के संस्थन के काम और शोध में हस्तक्षेप करने और ऐसे विचारों को प्रकाशित करने में नाकामयाबी के चलते दिया गया है, जो भारत की छवि के लिए "अनाकर्षक" लगते हों।
ऑस्ट्रेलियाई अख़बार द एज के मुताबिक़, उप कुलपित (वाइस चांसलर) को 29 मार्च को भेजे गए खत में इन 13 फैलो ने कहा है कि भारतीय उच्चायोग एआईआई की गतिविधियों और टिप्पणियों में हस्तक्षेप करता है और भारत के ऊपर आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों, जिन्हें विवादित माना जाता है, उन्हें करने से हतोत्साहित किया जाता है।
एआईआई को 2009 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए स्थापित किया गया था, तब ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हमले की खबरों ने दोनों देशों के संबंधों को प्रभावित किया था। तत्कालीन केविन रड सरकार ने संस्थान को स्थापित के लिए 80 लाख डॉलर का अनुदान दिया था, तबसे इस संस्थान का वित्तपोषण ऑस्ट्रेलिया और विक्टोरिया राज्य की सरकार द्वारा किया जाता है।
अलग-अलग विषयों और यूनिवर्सिटीज़ में काम करने वाले विद्वानों ने कहा, "भारत से जुड़े कुछ कार्यक्रमों को इस आधार पर हतोत्साहित किया जाता है या उन्हें समर्थन नहीं दिया जाता कि इन कार्यक्रमों को विवादित माना जाएगा". इन शोधार्थियों ने लिखा कि एआईआई के आधिकारिक कार्यक्रम "प्रोपगेंडा का स्वाद लिए होते हैं."
ख़त में कहा गया, "भारत पर विशेषज्ञ होने के नाते हमें शक है कि संस्थान का अर्द्ध-कूटनीतिक ध्यान, यूनिवर्सिटी के मिशन के साथ सहकार में है या इसे आगे बढ़ाता है."
संस्थान में कम होती अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उदाहरण देते हुए, नाम ना छापने की शर्त पर एक हस्ताक्षरकर्ता ने द एज को बताया कि "कीवर्ड्स फॉर इंडिया: वॉयलेंस" नाम के एक कार्यक्रम में मुस्लिमों और दूसरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ हिंदुत्व समूहों की हिंसा पर चर्चा की जानी थी, लेकिन इस कार्यक्रम एक निजी, सिर्फ न्योते के आधार पर हिस्सा ले सकने वाला वेबिनार बना दिया गया।
पिछले कुछ महीनों में मुस्लिमों को लगातार पूरे भारत में निशाना बनाया जा रहा है। इसकी शुरुआत कर्नाटक में हिज़ाब पर प्रतिबंध के साथ हुई थी, जो आगे चलकर बीजेपी शासित राज्य में मंदिरों के आसपास मुस्लिमों व्यापारियों पर प्रतिबंध लगाए जाने पर पहुंच गई। हाल में दिल्ली के बुराड़ी में कुछ मुस्लिम पत्रकारों पर चुन-चुनकर हमले हुए और हलाल मीट को भी बॉयकॉट करने की मुहिम चलाई गई।
ख़त के मुताबिक, जब एआईआई के दो अध्येताओं ने मेलबॉर्न में महात्मा गांधी की मूर्ति का सिर तोड़े जाने पर विमर्श के लिए दस्तावेज़ तैयार किया, तो एआईआई ने इसे प्रकाशित करने से इंकार कर दिया, जबकि यूनिवर्सिटी के ही एक दूसरे कॉलेज ने इसे दिसंबर, 2021 में अपने जर्नल- परश्यूट में प्रकाशित कर दिया। एआईआई ने इन्हीं दो अध्येताओं का "ईयर टू एशिया" का वह पॉडकास्ट भी अपने वेबसाइट पर अपलोड नहीं किया, जिसका शीर्षक था, "कास्ट एंड द कॉरपोरेशन इन इंडिया एंड अब्रॉड"।
हस्ताक्षरकर्ताओं ने लिखा, "हमें लगता है कि सर्वोच्चतावादियों समूहों की नफ़रत के बावजूद भी जो लोग इस तरह की आलोचनात्मक अध्ययन का काम करते हैं, उन्हें चुप कराने के बजाए, उनका समर्थन किया जाना चाहिए। इस पृष्ठभूमि में एआईआई द्वारा अध्येताओं को समर्थन ना देना चिंताजनक है."
भारत की स्याह राजनीतिक स्थिति की तरफ ध्यान दिलाते हुए वारविक यूनिवर्सिटी में भारतीय अध्ययन के शोधार्थी गोल्डी ओसुरी ने द एज से कहा, "अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिमों के खिलाफ़ खुलेआम माहौल बनाया जा रहा है। फ्रीडम हाउस, 2021 की रिपोर्ट में भारत को 'इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी' बताया गया है."
ख़त में यह आरोप भी लगाया गया है कि संस्थान में अनुभवी अध्येताओं में "विविधता की बहुत कमी" है। इनमें ज़्यादातर श्वेत पुरुष ही हैं, कुल 11 उत्कृष्ट अध्येताओं में सिर्फ़ 2 ही महिलाएं हैं। इन 13 शोधार्थियों के मुताबिक़, एआईआई दक्षिण एशिया में लंबा अनुभव रखने वाले अध्येताओं को बर्दाश्त नहीं कर पाता।
ऑस्ट्रेलियाई मीडिया स्टार्टअप साउथ एशियन टुडे द्वारा एक और रिपोर्ट में बताया गया है कि एआईआई की सीईओ के तौर पर ऑस्ट्रेलियाई सांसद लीसा सिंह को नियुक्त करते वक़्त भी उनसे सलाह-मशविरा नहीं किया गया। बताया गया कि अध्येताओं ने गहन विमर्श के बाद अंतिम दो नामों पर रजामंदी जताई थी, लेकिन अचानक बिना विमर्श के लीसा सिंह को नियुक्ति दे दी गई, जबकि वे इस पद के लिए शुरुआती दावेदार भी नहीं थीं।
जब इस नियुक्ति के बाद मार्च में एआईआई की वेबसाइट को फिर से लॉन्च किया गया, तब इससे कुछ अध्येताओं के नाम भी हटा दिए गए। साउथ एशियन टुडे ने बताया कि एआईआई ने अध्येता को बताया कि अब संस्थान नहीं चाहता कि उन्हें, उनके साथ जोड़ा जाए।
हस्ताक्षरकर्ताओं ने लिखा, "एआईआई को यह जरूरी नहीं लगता कि वह साथी अध्येताओं को यह बताए कि उन्हें उनकी वेबसाइट से हटाया जा रहा है। यह एआईआई का शोधार्थियों और उनके काम के प्रति सम्मान, पेशेवर रवैये और सामूहिकता की कमी को दिखाता है।"
साउथ एशियन टुडे के मुताबिक़, ईयान वुलफोर्ड, जो संस्थान के पूर्व अध्येता और ख़त पर हस्ताक्षर करने वालों में से एक हैं, उन्होंने भी भारत बढ़ती हिंदुवादी कट्टरता पर चिंता जताई है। डिप्टी वीसी माइकल वीसली ने वुलफोर्ड को इस मामले पर जवाब (जिसे ऑस्ट्रेलियन फॉरेन अफेयर्स के 14 फरवरी के अंक, दोनों के बीच हुई सार्वजनिक बातचीत के तौर पर छापा गया है) भी दिया है। "ऑस्ट्रेलिया कब मानवाधिकारों या लोकतंत्र को कब अपनी विदेश नीति का मुख्य केंद्र बनाएगा, इसे देखने के लिए वुलफोर्ड को लंबा इंतज़ार करना पड़ेगा। अगर संबंधित देश के साथ स्थिर और सकारात्मक संबंध बनाना ऑस्ट्रेलिया के हित में है, तो ऑस्ट्रेलिया की विदेश नीति में सबसे निरंतर तत्वों में विदेशी सत्ता की दुर्बलताओं से परे देखने का गुण शामिल है।"
ऑस्ट्रेलियन फॉरेन अफेयर्स के 13वें संस्करण में भारत पर चर्चा करने वाला वीसली के लेख "अवर नेक्स्ट ग्रेट एंड पॉवरफुल फ्रेंड?" छपा है। इसमें भारत में 190 मिलियन डॉलर के निवेश करने के ऑस्ट्रेलियाई वायदे पर भी चर्चा की गई है। दोंनों देशों ने 2 अप्रैल को "ऑस्ट्रेलिया-भारत आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौते" पर भी हस्ताक्षर किए हैं, जिससे भारत और ऑस्ट्रेलियाई माल पर आयात शुल्क में कटौती की जाएगी।
हस्ताक्षरकर्ताओं ने गंभीर चिंता जताते हुए कहा कि एआईआई खुद को दोनों देशों के बीच बढ़ रहे सरकारी और आर्थिक संबंधों से परे जाकर नहीं देख पाता है। "शोध व्यवसायीकरण, शोध व्यवहार, शोध प्रभाव, सभी तब सफल होते हैं, जब कोशिशों के केंद्र में शोध होता है। लेकिन एआईआई के काम में ऐसा नहीं झलकता।"
शोधार्थियों द्वारा ऐसे विषयों पर काम करना जो मोदी सरकार को खराब लग सकते हैं, वहां एआईआई का द्विपक्षीय संबंधों पर केंद्रित रहना शोधार्थियों के काम में आड़े आ रहा है। इन्हीं चिंताओं को संबोधित वीसली को 2020 में एक और ख़त लिखा गया था। खत में कहा गया कि एआईआई का दायरा "तत्कालीन सरकारों के द्विपक्षीय संबंधों" के परे होना चाहिए, बल्कि इसे आधिकारिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए काम करने वाले थिंक टैंक की तरह काम करना चाहिए।
2020 के ख़त में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने और बिना सबूत पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व अध्येताओं को जेल में भेजने के लिए देशद्रोह के कानून के लगातार उपयोग का भी जिक्र किया गया था। इस कानून के तहत जेल भेजे जाने वालों को जमानत मिलने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
द एज की रिपोर्ट में आगे बताया गया, "यूनिवर्सिटी का तर्क है अध्येताओं के काम पर लगाए गए प्रतिबंध "अकादमिक स्वतंत्रता पर लगाए गए प्रतिबंध नहीं हैं, बल्कि यह संपादकीय फ़ैसले के आधार पर की गई कार्रवाई है, जो हर अकादमिक संस्थान में हर कहीं की जाती है।"
"अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" और दोनों देशों के बीच "बढ़ते द्विपक्षीय संबंधों" के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताते हुए यूनिवर्सिटी ने कहा, "मेलबॉर्न यूनिवर्सिटी अकादमिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है। यह हमारे मूल्यों और पहचान के मूल में है। पिछले दो सालों से इस क्षेत्र की नीतियों को मजबूत करने के लिए यूनिवर्सिटी काम कर रही है और किसी भी तरह के आरोपों को बहुत गंभीरता से लिया जाता है।"
द एज ने रिपोर्ट में आगे बताया, "वहीं भारतीय उच्चायोग का कहना है कि यह मामला ऐसा नहीं है जिस पर भारतीय उच्चायोग टिप्पणी करे।"
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
13 Australia India Institute Academics Quit Citing ‘Interference’ by Modi Govt
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