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युद्ध के लिए 2 ट्रिलियन डॉलर और धरती को बचाने के लिए सिर्फ 100 अरब डॉलर?

ऐसा जान पड़ता है कि पश्चिमी देश जलवायु आपदा की चुनौती को संबोधित करने के बजाय सैन्यीकरण पर सार्वजनिक धन को खर्च करने पर अधिक ध्यान दे रहा है।
climate change

अप्रैल के अंत और मई माह के शुरूआती दिनों के दौरान इस बार दक्षिण एशिया को ग्लोबल वार्मिंग के भयानक प्रभावों से दो-चार होना पड़ा है। इस क्षेत्र में कुछ शहरों में तापमान लगभग 50 डिग्री सेल्सियस (122 फारेनहाइट) तक पहुँच गया था। उच्च तापमान के साथ-साथ पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश को इस वर्ष बाढ़ के खतरनाक स्तर का सामना करना पड़ा है। नदियों ने अपने तटबंधों को तोड़ दिया और बांग्लादेश के सिलहट में सुनामगंज जैसे स्थानों पर फ़्लैश फ्लड जैसे हालात देखने को मिले हैं।

इंटरनेशनल सेंटर ऑफ़ क्लाइमेट चेंज एंड डेवलपमेंट के निदेशक, सलीम हक़ बांग्लादेश से हैं। आप संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन वार्ता के मामलों के दिग्गज रहे हैं। हक़ ने संयुक्त राष्ट्र की अनुकूलन कमेटी के सह-अध्यक्ष मैरियन कार्ल्सन के एक ट्वीट को पढ़ा, जिसमें नुकसान और वित्तीय क्षति पर चल रही बातचीत का जिक्र करते हुए कहा गया था कि “इस पर आम सहमति पर पहुँचने के लिए कुछ और वक्त दिए जाने की जरूरत है।” इसके जवाब में उन्होंने ट्वीट किया: “पहली बात तो यह है कि वार्ता के लिए हमारे पास अब समय नहीं बचा है! जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों से हम पहले से ही प्रभावित हैं। अमीर लोगों के उत्सर्जन के चलते गरीब लोगों को भारी नुकसान और क्षति हो रही है। कार्यवाई (धन) के स्थान पर बातचीत अब स्वीकार्य विकल्प नहीं बचा रह गया है। कार्ल्सन की यह टिप्पणी नवंबर 2022 में मिश्र के सर्म एल-शेख में होने जा रही कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज या सीओपी27 बैठक के समझौते पर पहुँचने बेहद धीमी प्रगति के आलोक में की गई थी।

2009 में सीओपी15 की बैठक में दुनिया के विकसित देशों ने वार्षिक अनुकूलन सहयोग कोष के लिए 100 अरब डॉलर की राशि पर सहमति व्यक्त की थी, जिसे 2020 तक भुगतान कर दिया जाना था। इस फण्ड का मकसद वैश्विक दक्षिण में स्थित देशों को मदद पहुंचाना था, जिनको कार्बन पर अपनी निर्भरता को कम कर उर्जा के नवीनीकृत स्रोतों को अपनाना था और जलवायु विनाश की वास्तविकताओं के लिए खुद को अनुकूलित करना था। हालाँकि नवंबर 2021 को हुई ग्लासगो सीओपी26 की बैठक के समय तक विकसित देशों के द्वारा इस प्रतिबद्धता को पूरा नहीं किया जा सका। 100 अरब डॉलर की धनराशि एक मामूली राशि लग सकती है, जो कि “ट्रिलियन डॉलर क्लाइमेट फाइनेंस चैलेंज” की तुलना में बेहद मामूली रकम है, जो कि व्यापक जलवायु कार्यवाई को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है। 

पश्चिम के नेतृत्व वाले धनी देशों ने न सिर्फ वित्तीय अनुकूलन को गंभीरता से लेने से इंकार कर दिया है बल्कि वे क्योटो प्रोटोकोल (1997) जैसे मूल समझौतों से भी पीछे हट गये हैं। अमेरिकी कांग्रेस ने इस बेहद महत्वपूर्ण जलवायु संकट से निपटने के लिए उठाये जाने वाले आवश्यक कदमों की पुष्टि करने से इंकार कर दिया है। इसकी बजाय संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने लक्ष्य को मीथेन उत्सर्जन को कम करने पर स्थानांतरित कर दिया है और अमेरिकी सेना के द्वारा बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदारी लेने से साफ मना कर दिया है।

जर्मनी का पैसा जलवायु के बजाय युद्ध के काम आ रहा है 

जर्मनी के द्वारा जलवायु परिवर्तन पर यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन के सचिवालय की मेजबानी का कार्यभार है। जून में, सीओपी27 की प्रस्तावना के तौर पर संयुक्त राष्ट्र ने जलवायु परिवर्तन के मसले पर बॉन में एक सम्मलेन को आयोजित किया। यह बातचीत “क्षति एवं नुकसान” के मसले पर की जाने वाली वित्तीय जिम्मेदारी पर तीखी प्रतिक्रिया के बीच में ही खत्म हो गई थी। यूरोपीय संघ के द्वारा मुआवजे पर चलने वाली बातचीत को लगातार अवरुद्ध किया जा रहा है। क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क, कनाडा की एडी पेरेज़ का इस बारे में कहना था, “अपने संकीर्ण स्वार्थों के वशीभूत होकर, धनी देशों और विशेषकर यूरोपीय संघ के कुछ देश बॉन जलवायु सम्मेलन में अवरोध पैदा करने के इरादे से आये थे। इनका उद्येश्य जीवाश्म ईंधन से पीड़ित लोगों और समुदायों को होने वाली क्षति और नुकसान की भरपाई करने के प्रयासों को अवरुद्ध करने, विलंबित और नजरअंदाज करने पर केंद्रित था।”

वार्ता की मेज पर जर्मनी जैसे देशों का पाखंड मौजूद था, जो इन मुद्दों पर अपनी अगुआई का दावा करता है। लेकिन हकीकत में उसके द्वारा विदेशों से जीवाश्म ईंधनों की तलाश की जाती है और अपनी सेना पर खर्चों में लगातार बढ़ोत्तरी की जा रही है। इसी दौरान इन देशों के द्वारा जलवायु परिवर्तन से उपजने वाले बड़े बड़े समुद्री तूफानों और समुद्र के बढ़ते जलस्तर से होने वाली तबाही का सामना कर रहे विकासशील देशों को सहायता देने से इंकार कर दिया है।

जर्मनी में हाल ही में संपन्न हुए चुनावों के बाद इस बात की उम्मीद जगी थी कि सोशल डेमोक्रेट्स के साथ ग्रीन पार्टी का नया गठबंधन हरित एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम करेगा। हालाँकि, जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज ने सैन्यीकरण के लिए 100 अरब डॉलर खर्च करने का वादा किया है, जो कि “शीत युद्ध के खत्म होने के बाद से देश के सैन्य खर्चों में अब तक की सबसे बड़ी बढ़ोत्तरी है। उनकी ओर से “सेना पर सकल घरेलू उत्पाद के 2 प्रतिशत से भी अधिक [खर्च करने] का भी वादा किया गया है। इसका अर्थ हुआ कि सैन्यीकरण पर और अधिक पैसा खर्च किया जायेगा और जलवायु शमन एवं  हरित परिवर्तन के लिए कम खर्च को प्राथमिकता दी जायेगी।

सैन्यीकरण और जलवायु तबाही

पश्चिमी सैन्य प्रतिष्ठानों के द्वारा जो पैसा निगला जा रहा है, उसके चलते न सिर्फ जलवायु पर होने वाले खर्चों से ही विमुख हुआ जा रहा है बल्कि यह और भी बड़े पैमाने पर जलवायु तबाही को बढ़ावा देने वाला साबित होने जा रहा है। इस धरती पर सबसे बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाने वाली संस्था अमेरिकी सेना है। उदहारण के लिए दुनियाभर में इसके 800 से अधिक सैन्य ठिकानों के रखरखाव का अर्थ है कि अमेरिकी सेना को संचालन हेतु 395,000 गैलन तेल को खर्च करना पड़ता है। 2021 में, दुनियाभर की सरकारों ने हथियारों पर 2 ट्रिलियन डॉलर खर्च किये हैं, जिनमें प्रमुख देश वे हैं जो सबसे धनी हैं ( और साथ ही साथ जलवायु बहस में सबसे अधिक पाखंड करने वाले भी यही देश हैं)। इनके पास युद्ध के लिए धन की कोई कमी नहीं है लेकिन जलवायु आपदा से निपटने के लिए नहीं है।

जिस प्रकार से यूक्रेन संघर्ष में हथियारों की अंधाधुंध आपूर्ति की गई है उससे हममें से कई लोग सकते की स्थिति में हैं। संयुक्तराष्ट्र संघ की संस्थाओं के द्वारा “हंगर हॉटस्पॉट्स” की रिपोर्ट के अनुसार, युद्ध के लंबे खिंच जाने की वजह से 46 देशों में रह रहे 4.9 करोड़ लोग अकाल के संकट की जद में चले गये हैं। इसके पीछे की मुख्य वजह मौसम में अतिशय बदलाव और युद्ध हैं। अफ्रीका और पश्चिमी एशिया में खाद्य असुरक्षा की मुख्य वजह युद्ध और संगठित हिंसा है। विशेष रूप से उत्तरी नाइजीरिया, मध्य साहेल, पूर्वी लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, इथियोपिया, सोमालिया, साउथ सूडान, यमन और सीरिया इससे सबसे बुरी तरह से प्रभावित देश हैं।

यूक्रेन में जारी युद्ध ने कृषि वस्तुओं की कीमत में बेतहाशा वृद्धि को उत्पन्न कर दिया है, जिसकी वजह से खाद्य संकट चरम पर पहुँच गया है। रूस और यूक्रेन मिलकर वैश्विक गेंहू व्यापार के करीब 30 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसे में यूक्रेन युद्ध जितना ज्यादा समय तक खिंचता जायेगा, उतनी ही मात्रा में “हंगर हॉटस्पॉट्स” की संख्या में वृद्धि होगी। यदि यही हाल रहा तो यह खाद्य असुरक्षा सिर्फ अफ्रीका और मध्य पूर्व तक ही सीमित नहीं रहने जा रही है, बल्कि कई अन्य देश भी इसकी चपेट में आ सकते हैं।

जबकि एक सीओपी बैठक पहले ही अफ्रीकी महाद्वीप में हो चुकी है, वहीँ एक अन्य इस वर्ष के अंत में होने जा रही है। पहली बैठक आबिदजान, कोटे डी आइवर में मई में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्म्मेलन की मेजबानी में हो चुकी है, और अब शर्म एल-शेख संयुक्तराष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की मेजबानी करेगा। अफ्रीकी देशों के लिए ये वे प्रमुख मंच हैं जहाँ पर वे जलवायु तबाही की वजह से महाद्वीप के कुछ हिस्सों में हुई भारी नुकसान को वार्ता की मेज पर रख सकते हैं।

नवंबर 2022 को सीओपी27 के सम्मेलन में शामिल होने के लिए जब दुनियाभर के देशों के प्रतिनिधि मिश्र के शर्म-अल शेख में इकट्ठा होंगे, तो उन्हें वहां से पश्चिमी प्रतिनिधियों की ओर से जलवायु परिवर्तन के बारे में तमाम बातें सुनने को मिलेंगी, शपथ लेते हुए सुनेंगे, और इसके बाद उनकी ओर से फिर से तबाही को जारी रखने के लिए हर संभव प्रयासों को जारी रखा जायेगा। बॉन में जो कुछ हमारी निगाहों से गुजरा, शर्म अल-शेख में होने वाली नाकामयाबी की वह एक पूर्व-पीठिका थी।

मुराद कुरैशी लंदन विधानसभा के पूर्व सदस्य और स्टॉप द वॉर कोएलिशन के पूर्व  अध्यक्ष हैं।

इस लेख को मूल रूप से ग्लोबट्राटर के द्वारा निर्मित किया गया था।

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