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क़रीब दो महीने पूरे, 60 ज़िंदगियां गुज़रीं, 9 दौर की बातचीत ख़त्म: प्रदर्शन कर रहे किसान उम्मीद की तस्वीर हैं
एक किसान अपनी टिप्पणी में कहते हैं, "धैर्य और नुकसान उठाने का साहस किसानी करने के लिए बेहद अहम हैं। इसलिए जरूरी है कि सरकार किसानों का धैर्य परखने की कोशिश ना करे।"
तारिक अनवर
16 Jan 2021
किसान

नई दिल्ली: सरकार से कुछ हफ़्तों की तीक्ष्ण बातचीत के बाद भी तीन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ़ चल रहे प्रदर्शन ने उम्मीद नहीं छोड़ी है। सकारात्मक किसान दिल्ली सीमा के पांच प्रवेश केंद्रों पर अपना जमावड़ा लगाए हुए हैं। उनका कहना है कि सत्ताधारियों को होश में आना होगा और इन कानूनों को आज या कल वापस लेना ही होगा।

अपने परिवारों से दूर प्रदर्शन स्थल पर लोहिड़ी मनाने के दो दिन गुजर चुके हैं। अब अगर सरकार पिछले साल सितंबर में पारित किए गए इन कानूनों को वापस नहीं लेती और MSP की कानूनी गारंटी नहीं देती, तो किसान इसी जगह बैशाखी मनाने के इच्छुक भी हैं। MSP भारत सरकार द्वारा किसानों के कृषि उत्पादों की न्यूनतम घोषित कीमत होती है, इसी दर पर सरकार उनसे सीधी खरीद करती है।

लोहिड़ी का त्योहार 13 जनवरी को मनाया जाता है। यह खासतौर पर पंजाब में मनाया जाता है। इस दिन शीतकालीन अयनांत का अंत माना जाता है। बैशाखी आमतौर पर 13 या 14 अप्रैल को मनाई जाती है। यह सौर नववर्ष की शुरुआत भी करती है।

गाजीपुर प्रदर्शन स्थल पर किसानों ने लोहिड़ी के मौके पर कृषि कानूनों की होली जलाई। इस प्रदर्शन स्थल पर स्वयंसेवी के तौर पर अपनी सेवाएं दे रही गुरप्रीत वासी ने न्यूज़क्लिक को बताया, "सरकार हम पर जो थोपना चाह रही है, हम उसे नकार चुके हैं। अब तक सरकार ने जो भी समाधान बताए हैं, वो हमारे पूरे भले की मंशा नहीं रखते और सिर्फ स्वांग हैं। अगर ये सच्चे होते तो किसानों ने उन्हें मान लिया होता। जब वो कहते हैं कि हम कृषि कानूनों में कुछ बदलाव करने के लिए राजी हैं, लेकिन इसे वापस नहीं लेंगे, तो यह उनका घमंड दिखाता है।"

लोहिड़ी के त्योहार पर पूरे देश में 20,000 प्रदर्शन स्थलों पर कृषि कानूनों के गजट नोटिफिकेशन की प्रतियां जलाई गई थीं।

प्रधानमंत्री द्वारा सिख समुदाय को गुरुमुखी में लोहिड़ी की शुभकामनाएं देने पर गुरप्रीत कहती हैं, "मुझे यह कुछ हास्यास्पद लगता है। ऐसा लगता है जैसे वो किसी ऊंची इमारत में रहते हैं और मैदानी सच्चाई से पूरी तरह कटे हुए हैं। वह दुनियाभर में हो रहे घटनाक्रमों पर ट्वीट कर रहे हैं, कैपिटल हिल में फैली अराजकता पर दुख जताते हुए उसके खिलाफ़ बोल रहे हैं, लेकिन वो दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे किसानों पर चुप हैं। ऐसा लगता है जैसे देश में जो भी कुछ हो रहा है, वो उससे दूर हैं।

वासी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार को किसानों की दिक्कतों का गंभीर तरीके से निदान ना करने पर झड़की लगाना, उसके बाद चार सदस्यीय कमेटी बनाना और एक पैनल से दो महीनों के भीतर रिपोर्ट जमा करने के लिए कहना, ताकि कोर्ट समस्या को अच्छे तरीके से समझ सके, यह पूरी कवायद योजनागत तरीके बनाई गई थी। इसके बावजूद वासी कहती हैं कि उन्हें न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है।

वह कहती हैं, "एक नागरिक के तौर पर मेरा न्यायपालिका में भरोसा है। जिस दिन हमारा न्यायपालिका में भरोसा खत्म हो जाएगा, उस दिन हम लोकतंत्र से पूरी तरह निराश हो जाएंगे। इससे पूरे संविधान की ताकत खत्म हो जाएगी। इसलिए हम इंतज़ार करेंगे कि आने वाले दिनों में चीजें किस तरह अपना रूप लेती हैं। हम चाहते हैं लोगों में अक्ल आए...."

वह कहती हैं कि शहरी भारतीयों को प्रदर्शन के बारे में पचास दिन पहले पता चला, जब किसानों ने दिल्ली की तरफ कूच करना शुरू कर दिया। लेकिन यह प्रदर्शन पंजाब में पिछले सितंबर से जारी था। यहां बहुत धैर्य और रणनीति है। किसानों में बहुत आत्मबल है, जो जानते हैं कि यह मुद्दा बहुत जल्द हल होने वाला नहीं है। शहरी भारतीय लोगों के पास धैर्य नहीं है, सरकार को हमारी मांगों को मानना ही होगा।"

वासी सिर्फ अकेली नहीं हैं, दूसरे कई प्रदर्शनकारियों में भी इस बात का पूरा भरोसा और उम्मीद है कि कानूनों को सरकार द्वारा वापस लिया जाएगा। हालांकि अब तक सरकार ने ऐसा कोई भी इशारा नहीं किया है और लगातार कानूनों का बचाव कर रही है।

उत्तराखंड में ऊधम सिंह नगर के रहने वाले हुकुम सिंह कहते हैं, "हम सरकार से अपनी भावनाओं को सम्मान देने के लिए कह रहे हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में सिखों का योगदान कोई छुपी बात नहीं है। अग्रेजों द्वारा जिन 2,621 लोगों को उम्रकैद दी गई थी, उसमें से 2,600 लोग सिख थे। जिन 120 लोगों को मौत की सजा दी गई, उनमें हमारे 96 लोग थे। फिर भी तुम (सरकार) हमारी देशभक्ति पर शक करते हो और हमें देशद्रोही कहते हो? आपने हमें ऐसा कहकर, खुदको हमसे दूर कर लिया। बड़े पैमाने पर विश्वास की कमी के लिए आप लोग जिम्मेदार हो।"

दूसरे लोगों की तरह सिंह ने भी दोहराया कि वे तभी वापस जाएंगे जब कानूनों को वापस ले लिया जाएगा। वह कहते हैं, "कमेटी इसलिए बनाई गई है ताकि किसान अपने गांव वापस लौट सकें। लेकिन ऐसा नहीं होने वाला। जब तक सरकार कानून वापस नहीं ले लेती, प्रदर्शन जारी रहेंगे।"

दूसरे लोगों ने कहा कि प्रक्रिया में देरी कर सरकार उनके धैर्य की परीक्षा ले रही थी, लेकिन इसमें वो बुरे तरीके से असफल रही। वे विश्वास के साथ कहते हैं कि एक दिन आएगा जब सरकार के पास किसानों की मांगें मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाएगा।

उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर के रहने वाले एक किसान जगदीश सिंह कहते हैं, "सत्ताधारियों के अड़ियल रवैये को देखते हुए ऐसा लगता है आगे यह आंदोलन तेज ही होगा। सरकार हमारे धैर्य की परीक्षा ले रही है। इसलिए वह इसे वापस लेने की प्रक्रिया में देर कर रही है। लेकिन वह अपनी कोशिशों में बुरे तरीके से असफल होगी। इस पृथ्वी पर किसान सबसे धैर्यवान लोग हैं। हम अपनी फ़सल बोकर महीनों उसके ऊगने का इंतज़ार करते हैं। यह बिलकुल जुएं की तरह है, जहां आप कभी जीतते हैं, तो कभी हारते हैं। बेहद कड़ी मेहनत और बढ़ी हुई लागत कीमत के बावजूद मौसम आपकी फ़सल खराब कर देता है और हमें बहुत नुकसान होता है। लेकिन इसके बावजूद हम आशा नहीं छोड़ते हैं। हम अगली फ़सल की तैयारी करते हैं और अच्छे से बुवाई करते हैं। किसानी करने का मूलमंत्र धैर्य और नुकसान सहने की क्षमता है। तो सरकार हमारे धैर्य की परीक्षा लेना बंद करे।"

उन्होंने कहा कि सरकार को किसानों की मांगों को मानना ही होगा और इस प्रदर्शनकारियों को "आतंकवादी" करार देकर इस आंदोलन की साख खराब करने की कोशिशें कामयाब नहीं होंगी।

वह कहते हैं, "बांटो और शासन करो बीजेपी सरकार की नीति है। वे (दक्षिणपंथी नेता) हिंदू-मुस्लिम विवाद पैदा करने में उस्ताद हैं। लेकिन इस बार उन्होंने किसानों से झगड़ा मोल लिया है, जो उनके पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं। यह लोग प्रदर्शन की एकता को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन हर कोशिश में नाकामयाब हो रहे हैं। यह लोग इतने ज़्यादा फंस चुके हैं कि उनके लिए अब बाहर आने का रास्ता खोजना मुश्किल हो गया है। हम उन्हें तब तक फंसाकर रखेंगे, जब तक वे हमारी मांगों को मान नहीं लेते। हमारी मांग बिलकुल साधारण है कि इन तीनों कानूनों को खत्म करिए और MSP पर कानून लेकर आइए।"

लखनऊ के रहने वाले सतनाम सिंह सरकार को चेतावनी देते हुए कहते हैं, "एक छोटी सी चिंगारी भी बड़ी आग लगा सकती है, जिसे बुझाना बहुत मुश्किल होगा।" 

शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को हल्के में लेना ठीक नहीं रहेगा। हमारे युवा किसान संगठनों के अनुशासन से बंधे हुए हैं। अगर उन्हें मजबूर किया जाएगा, तो वे अकल्पनीय नुकसान पहुंचा सकते हैं। एक छोटी सी चिंगारी भी उनकी भावनाएं भड़का सकती है और उस आग को बुझाना बहुत मुश्किल होगा।"

पूर्व रक्षाकर्मियों ने जताया समर्थन

राष्ट्रीय राजधानी के अलग-अलग प्रदर्शन स्थलों पर कई पूर्व रक्षाकर्मी भी नजर आ रहे हैं, जो सरकार से नाराज हैं।

विंग कमांडर (रिटायर) अनुमा आचार्य गाजीपुर बॉर्डर पर कई सारे पूर्व सहकर्मियों के साथ डटी हुई हैं। आचार्य सरकार को "तानाशाहों" और "फासिस्टों" का समूह करार देती हैं।

जो लोग सत्ता में हैं, वे खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं। वे खुद के हिसाब से राष्ट्रवादी हो सकते हैं। लेकिन अगर यहां लोकतंत्र है, तो वे कतई राष्ट्रवादी नहीं हैं। वे लोग तानाशाह और फासिस्ट हैं। जब हमें किसी की सच्चाई बयां करनी हो, तो शब्दों को घुमाना-फिराना नहीं चाहिए। अगर सरकार अपने नागरिकों की नहीं सुन रही है, तो वह एक तानाशाह सरकार है। दरअसल किसान अड़ियल नहीं हैं, वे तो बस अपनी मांगों पर अडिग हैं। सरकार अड़ियल है, क्योंकि वह किसानों के नज़रिए से देखने की कोशिश नहीं कर रही है। यहां किसान नहीं, बल्कि सरकार गलत है।"

जब हमने उनसे प्रदर्शन में अलगाववादी तत्वों जैसे खालिस्तानियों के घुस आने की बात कही, तो उन्होंने कहा, "सरकार इस तरीके की साजिश की बातों को फैला रही है, क्योंकि वो अपने नागरिकों का सामना नहीं कर सकती।"

अनुमा आगे कहती हैं, "जो भी कोई उनकी नीतियों के खिलाफ़ होता है, सरकार और उनके समर्थक उन लोगों को खालिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य, यहां तक कि देशद्रोही तक करार देने लगती है। जब हमारे साथ के ही नागरिकों को टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य या खालिस्तानी कहा जाता है, तो इसका मतलब होता है कि सरकार में एक किस्म की हीन भावना है और वह अपने ही लोगों के सामने आने से डर रही है। यहां जो चीज स्थायी तौर पर पवित्र है, वो यह कि हमारा देश लोकतांत्रिक है और यह हमेशा ऐसा ही रहेगा।"

टुकड़े-टुकड़े गैंग एक राजनीतिक मुहावरा है, जिसका इस्तेमाल भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक लोग अपने आलोचकों पर देशद्रोह और अलगाववाद का आरोप लगाने के लिए करते हैं।

वह कहती हैं, "जब यह शब्दावलियां बहुत नई थीं, तब मैं उन्हें बड़ी गंभीरता से लेती थी। लेकिन अब मैं बहुत अच्चे से जानती हूं कि यह उनकी हीन भावना है। मुझे इसके बारे में कुछ भी महसूस नहीं होता। जब उनके पास लोगों के बारे में कुछ भी बोलने को नहीं होता, तो वे इस तरीके के तमगों के साथ आते हैं।"

सूबेदार (रिटायर्ड) गुरचरण सिंह कहते हैं कि"किसानों के बारे में अनाप-शनाप बोलना गाली जैसा है। इनमें वो लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने देश की रक्षा की है। बाहरी आक्रमण से लड़ना सरल लेकिनआंतरिक हमले से जूझना उससे कहीं ज़्यादा कठिन है।"

वह कहते हैं, "सेना में जाने से पहले मैं किसान था, सेना से आने के बाद मैं किसान हूं। तो हमें देशद्रोही बोलने का मतलब बै कि फौज को गाली देना। जो हम पर आरोप लगा रहे हैं, बल्कि वो लोग गद्दार हैं, जो कृषि क्षेत्र को बड़े उद्यमियों को देना चाहते हैं, बिलकुल उसी तरह जैसे एयरपोर्ट, रेलवे जैसी कई राष्ट्रीय संपत्तियों को उनके हवाले कर दिया। यह कानून इन उद्योगपतियों के हितों की सुरक्षा के लिए और हमें हमारे उनकी दया पर छोड़ने के लिए बनाए गए हैं।"

सिंह का कहना है कि सरकार सीमाओं की रक्षा करने गए युवाओं का नैतिक बल कमजोर कर रही हैं, क्योंकि वह उनके बड़े-बूढ़ों को कड़क ठंड में सड़कों पर सोने के लिए मजबूर कर रही है और उन्हें मरने के लिए छोड़ रही है।"

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से इस सरकार के कार्यकाल के पूरा होने तक इस कानून पर रोक लगाने के लिए कहा। वह कहते हैं, "मोदी सरकार के बचे हुए कार्यकाल के लिए इन कानूनों पर रोक लगा दीजिए। तीनों कानूनों के सभी 23 पेजों को भारत की सभी भाषाओं में अनुवादित करवाइए और इसे पूरे देश में बंटवा दीजिए। ताकि लोग पढ़ और समझ सकें, तब इन कानूनों के बारे में राय बना सकें। अपने मेनीफेस्टो में इन कानूनों को लागू करवाने की बात डाल दीजिए। फिर अगला चुनाव बैलेट पेपर से करवाइए। तब नतीजे देखना, मैं शर्त लगाकर कह सकता हूं कि बीजेपी 100 सीटों के भीतर रह जाएगी।"

भारतीय किसान यूनियन का आरोप है कि सरकार प्रदर्शन को हिंसक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है, ताकि उसकी साख खत्म कर प्रदर्शन को खत्म किया जा सके।

बीकेयू के नेता धर्मेंद्र मलिक ने न्यूज़क्लिक से कहा,"हम अब तक शांतिपूर्ण प्रदर्शन को आगे बढ़ाने में कामयाब रहे हैं। सरकार हिंसा करवाना चाहती है। लेकिन उसके सारे कदमों का अबतक भांडाफोड़ हो चुका है।"

जब उनसे आगे के कदमों के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा, "प्यार की भाषा देश की सरकार सुनती नहीं है। सरकार जैसे सुनती है, उसे वैसे ही सुनाना पड़ेगा।" उनका भी कहना है कि सरकार को किसानों की मांग माननी ही होगी,"या फिर नतीज़े भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।"

26 जनवरी की "ट्रैक्टर परेड" के बारे में उन्होंने चीजें साफ़ करते हुए कहा कि किसान संगठनों ने राजपथ पर होने वाली परेड में व्यवधान पहुंचाने के लिए परेड का ऐलान नहीं किया है। उनका कहना है कि प्रदर्शनकारी राजपथ पर ही एक समानांतर परेड का आयोजन करेंगे, जो कानून-व्यवस्था में बिना व्यवधान के आयोजित की जाएगी।

वह कहते हैं, "गणतंत्र दिवस हमारा राष्ट्रीय त्योहार है और इस देश के हर नागरिक को इसे मनाने का अधिकार है। किसान भी पूरे उत्साह के साथ यह त्योहार मनाएंगे। जहां तक दिल्ली में अंदर जाने की बात है तो राष्ट्रीय राजधानी सभी की है। एक स्वतंत्र देश में आप जहां चाहे वहां बिना किसी पास और अनुमति के जा सकते हैं। दिल्ली पुलिस कह रही है कि जिन लोगों के पास बने होंगे, केवल उन्हीं को अंदर आने की अनुमति होगी, यह बिलकुल निंदनीय, बेतुकी और मूर्खतापूर्ण बात है। आधिकारिक परेड में हिस्सा लेन के लिए पास जारी किए जाते हैं, ना कि शहर में भीतर जाने के लिए।"

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

2 Months On, 60 Lives Lost, 9 Rounds of Talks: Protesting Farmers are a Picture of Hope

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