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2020 : सरकार के दमन के बावजूद जन आंदोलनों का साल

यह साल इस सुरक्षा के भाव के साथ बीत रहा है, कि किसान सड़कों पर डटे हुए हैं और सरकार को कड़ी टक्कर देते हुए कह रहे हैं, कि ‘हम पीछे नहीं हटेंगे!’
2020 : सरकार के दमन के बावजूद जन आंदोलनों का साल

मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ देश भर के किसान पिछले कई महीनों से आंदोलन कर रहे हैं। राजधानी दिल्ली में पिछले एक महीने से पंजाब, हरियाणा, यूपी समेत देश के कई राज्यों के हज़ारों-लाखों किसान, सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर, ग़ाज़ीपुर बॉर्डर, शाहजहांपुर बॉर्डर पर जमा हैं। किसानों का यह प्रदर्शन दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है क्योंकि सरकार से कई दौर में हुई बातचीत के बावजूद अभी तक कृषि क़ानून वापस लेने की स्थिति नहीं बनी है।

किसानों का यह प्रदर्शन 2020 के शुरूआत की याद दिलाता है जब देश भर में मोदी सरकार के एक और क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन हो रहे थे। नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ हो रहे आंदोलन का नेतृत्व शाहीन बाग़ की महिलाओं ने किया था। जैसा प्रदर्शन शाहीन बाग़ में 3 महीने से ज़्यादा चला था, वैसा ही अभी सिंघु बॉर्डर और अन्य जगहों पर देखने को मिल रहा है।

साल 2020 एक मायूस करने वाला साल रहा है। सारी दुनिया अभी भी कोरोना वायरस महामारी से जूझ ही रही है। किसी भी महामारी से लड़ते हुए मुश्किलें तब और बढ़ जाती हैं, जब किसी देश की सरकार नागरिकों के बजाय अपना हित सोच रही हो। भारत देश की मोदी सरकार ने इस 'आपदा को अपने लिए अवसर में बदलने का काम किया।'

हम आज नज़र डाल रहे हैं कि राजनीतिक गतिविधियों के मामले में साल 2020 कैसा रहा है।

सरकारी दमन, और जन आंदोलन

इतिहास गवाह है कि कोई भी सरकार बिना विरोध के नहीं चल सकती। भारत में भी 2014 से हर एक साल जन आंदोलन का ही साल रहा है, क्योंकि मोदी सरकार की नई नई नीतियों के ख़िलाफ़ लोगों में लगातार ग़ुस्सा बढ़ा है। चाहे वो नोटबन्दी का सवाल हो, या लेबर क़ानून, या सीएए, या हालिया कृषि क़ानून; समाज के अलग-अलग वर्ग ने लगातार सरकार का विरोध किया है। 2020 की शुरुआत में नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ सारे देश में आंदोलन जारी थे। भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से आंदोलन को ख़त्म करने की कोशिश कर रही थी। सरकारी बयानों, मीडिया चैनलों के माध्यम से उस वक़्त भी विरोध प्रदर्शनों को अमानवीय साबित करने की कोशिश जारी थी। शाहीन बाग़ में आंदोलन कर रही महिलाओं को एक से ज़्यादा बार आतंकवादी, पाकिस्तानी जैसी बातें कहीं गईं। बीजेपी के प्रवेश वर्मा, अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा ने लगातार हेट स्पीच के ज़रिये आंदोलन कर रही जनता पर तरह तरह के हमले किये।

फिर फ़रवरी के महीने में उत्तर-पूर्वी दिल्ली के जाफ़राबाद इलाक़े में कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण हुआ, और फिर वो हुआ जिसकी कोशिश शायद बीजेपी शुरू से ही कर रही थी। कपिल मिश्रा ने फ़रवरी में एक भाषण देते हुए 'धमकी' दी कि अगर पुलिस सड़क ख़ाली नहीं कराएगी तो वो ख़ुद ख़ाली कर देंगे। उसके बाद उत्तर-पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे हुए, जिसमें 50 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई। ज़ाहिर तौर पर इसमें बड़ी संख्या मुसलमानों की ही थी।

कोरोना की आड़ में

22 मार्च को कोरोना वायरस महामारी की वजह से देश भर लॉकडाउन लगा दिया गया। ट्रेन, बस, विमान सब बंद हो गए। इसका सबसे बड़ा खामियाज़ा देश के प्रवासी मज़दूरों को उठाना पड़ा, जो उत्तर भारत के बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से दिल्ली मुम्बई जैसे बड़े शहरों में काम की वजह से रह रहे थे। सरकार ने लॉकडाउन का ऐलान नोटबन्दी स्टाइल में ही किया। प्रधानमंत्री टीवी पर आए, और ऐलानिया भाषण दे दिया। इसके 2 महीने बाद तक बड़े शहरों से प्रवासी मज़दूर पैदल अपने गांव कस्बों तक जाने को मजबूर हुए, और सैकड़ों मज़दूरों की मौत हुई।

जब मज़दूर सड़कों पर थे, तब सरकार पुलिस की मदद से दिल्ली दंगों के मामले में अवैध गिरफ्तारियां कर रही थी। दिल्ली दंगों में यूपी पुलिस-दिल्ली पुलिस की सवालिया भूमिका पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। यूपी पुलिस पर आरोप है कि उसने नागरिकता क़ानून के विरोध के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क़रीब 30 लोगों की जान ली। दिल्ली पुलिस का हिंसक रवैया तो हम 2019 के दिसंबर से ही देख रहे हैं। जब जामिया की लाइब्रेरी में पुलिस ने घुस कर पढ़ाई कर रहे छात्रों पर बेरहमी से वार किया। इसके बाद नए साल में 5 जनवरी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में क़रीब 50 नकाबपोश गुंडों ने हॉस्टल में घुस कर छात्रों पर हमले किये, और दिल्ली पुलिस ने उस मामले में भी कोई कार्रवाई नहीं की। दरियागंज, जामिया, दिल्ली गेट में नागरिकता क़ानून के विरोध के दौरान पुलिस रिहायशी इलाक़ों में घुस कर लोगों को पीट रही थी। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों के दौरान भी पुलिस पर यही इल्ज़ाम लगे कि वह मूक दर्शक बन कर देखती रही। कोरोना वायरस महामारी की आड़ में पुलिस ने छात्रों, शिक्षकों, बुद्धिजीवियों, नेताओं को गिरफ़्तार भी किया और उनके नाम भी चार्जशीट में शामिल किए। उमर ख़ालिद, नताशा नरवाल, ख़ालिद सैफ़ी जैसे दर्जनों छात्र-सामाजिक कार्यकर्ता आज भी जेलों में बंद हैं और पुलिस उनके ख़िलाफ़ कोई भी सबूत पेश करने में नाकाम साबित हुई है।

संसद में क्या हुआ

जब सारा देश कोरोना वायरस महामारी, बेरोज़गारी से जूझ रहा था, तब मोदी सरकार कोरोना की आड़ में संसद में क़ानून पास करवाने में लगी थी। संसदीय कार्य मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार साल 2020 में 40 से ज़्यादा बिल दोनों सदनों में पास किये जा चुके हैं। इन बिलों पर न उचित चर्चा हो सकी, न कोई बहस की गई। इसमें सबसे विवादित बिल तीनों कृषि क़ानून हैं। इन क़ानूनों को पास करते हुए सरकार ने न किसानों से चर्चा की, और न ही सदन में कोई बहस की गई। सरकार विरोध प्रदर्शनों को भी नज़रअंदाज़ करने का ही काम करती रही।

शाहीन बाग़ और किसान आंदोलन

नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे रहा शाहीन बाग़, जिसे सरकार ने, मीडिया ने ‘पाकिस्तान परस्त’ तक कह दिया। वैसा ही कुछ किसान आंदोलन के दौरान देखने को मिला है। प्रदर्शन कर रहे किसानों में सिखों की संख्या ज़्यादा होने की वजह से उन्हें ‘ख़ालिस्तानी’ तक कह दिया गया। मगर यह ओछी राजनीति का नज़ारा भर ही था, जिसे किसानों ने और ज़्यादातर जनता ने सिरे से ख़ारिज कर दिया। आज शाहीन बाग़ की तरह ही, सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर, ग़ाज़ीपुर बॉर्डर और देश भर में जहाँ भी किसान प्रदर्शन कर रहे हैं, वहाँ समाज के हर वर्ग के लोग यानी डॉक्टर, लेखक, कलाकार, शिक्षक आदि वहाँ पहुँच रहे हैं और किसानों के साथ अपनी एकजुटता ज़ाहिर करते हुए कृषि क़ानून वापस लेने की मांग कर रहे हैं।

2020 में कोरोना वायरस महामारी ने जितनी गुंजाइश छोड़ी, उसके हिसाब से सरकार की जन विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध के स्वर लगातार उठे। हालांकि मोदी सरकार की नीतियों को भी इस साल ज़्यादा और ज़्यादा दमनकारी बताया गया। इस साल राम मंदिर की भी नींव रख दी गई, और कोर्ट ने अपने फ़ैसले में बाबरी विध्वंस मामले में बीजेपी के सभी आरोपितों को बरी भी कर दिया।

हमारे देश ने इस साल पुरुष प्रधान होने की सीमा को भी पार कर दिया जब सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद उनकी प्रेमिका रिया चक्रवर्ती पर ‘काला जादू’ करने, सुशांत को ड्रग्स देने के इल्ज़ाम लगाए गए और देश की मीडिया ने घटिया पत्रकारिता के गड्ढे में एक छलांग और लगा ली।

इन सब चीज़ों से आगे बढ़ते हुए आज देश के अन्नदाता किसानों ने अपने कंधे में देश भर के विरोध को अपने विरोध के साथ शामिल किया है, जब वह सिंघु बॉर्डर से आवाज़ उठाते हुए अपने हक़ों के साथ-साथ बेरोज़गारी, साम्प्रदायिकता, अवैध गिरफ़्तारी और मोदी सरकार की तमाम नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं।

यह साल इस सुरक्षा के भाव के साथ बीत रहा है, कि किसान सड़कों पर डटे हुए हैं और सरकार को कड़ी टक्कर देते हुए कह रहे हैं, कि ‘हम पीछे नहीं हटेंगे!’

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