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सरकारी दमन और जन-प्रतिरोध का साक्षी रहा 2022

इस साल भी किसान-मज़दूर आंदोलन की तमाम हलचल रही और नफ़रती बुलडोज़र-राज के विरुद्ध तीखा जन प्रतिरोध भी देखने को मिला।
Rakesh Tikait
उत्तर प्रदेश के जनपद सम्भल में आयोजित किसान/मजदूर महापंचायत। फ़ोटो : ट्विटर/@RakeshTikaitBKU

 

2022 सरकार द्वारा MSP की कानूनी गारंटी समेत किसानों से किये गए तमाम वायदों से मुकरने और विश्वासघात का साल रहा। किसानों की आंख में धूल झोंकने के लिए  अन्य मुद्दों के साथ MSP को जोड़कर बनाई गई कमेटी में कृषि कानूनों के समर्थक कथित किसान नेताओं, नौकरशाहों तथा कारपोरेट लाबी के विशेषज्ञों को रखा गया।

किसान वर्ष भर पूरे देश में MSP और भूमि-अधिग्रहण समेत अपने तमाम सवालों पर स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय राजधानी तक जोरशोर से दस्तक देते रहे, बेशक कई बार अलग-अलग मंचों से। यह इस सच्चाई का ही reflection है कि अब एक स्वायत्त आंदोलन के बतौर किसान आंदोलन का राष्ट्रीय रंगमंच पर उदय हो चुका है और यह हमारे सामाजिक जीवन की अब एक स्थायी परिघटना बन चुका है।

संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में किसान मोदी सरकार की वायदाखिलाफ़ी के विरुद्ध आंदोलन के अगले चरण की तैयारी में लगे रहे। तमाम किसान नेता पूरे देश में दौरे करके माहौल गरमाने में लगे रहे। उन्होंने 18-19 अगस्त को मोदी सरकार के गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी की मंत्रिमंडल से बर्खास्तगी तथा वहाँ जेल में बंद किसानों की रिहाई को लेकर लखीमपुर में दो दिनों के महापड़ाव का आयोजन किया जिसमें भारी तादाद में किसान उमड़े। 26 नवम्बर को आंदोलन के दो वर्ष पूरे होने के अवसर पर चंडीगढ़, लखनऊ, पटना, जयपुर समेत तमाम राज्यों की राजधानियों में उन्होंने बड़ी बड़ी रैलियां और राजभवन मार्च आयोजित किये। पर सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी।

अब संयुक्त किसान मोर्चा ने मार्च में  बजट सत्र के दौरान रामलीला मैदान में अपनी महापंचायत तथा संसद-मार्च की घोषणा करके 2023 को MSP की कानूनी गारंटी का साल बनाने के अपने फौलादी इरादों का ऐलान कर दिया है। इसके पूर्व 26 जनवरी 2023 को किसान पूरे देश में ट्रैक्टर रैली करेंगे और 2 वर्ष पूर्व इसी दिन उनके आन्दोलन के ख़िलाफ़ मोदी सरकार के षड्यंत्र और दमन की किसानों को याद दिलाएंगे, साथ ही उसी दिन हरियाणा के जिंन्द में किसान महापंचायत करके मार्च में होने वाले संसद-मार्च के कार्यक्रम का ऐलान करेंगे।

किसानों के अंदर अपनी जीवन स्थितियों को लेकर चौतरफा बेचैनी है, और उन्हें जुबान मिल चुकी है, अब वे चुप रहने वाले नहीं हैं, साथ ही, उन्होंने 13 महीने के आंदोलन में दिल्ली का रास्ता देख लिया है और उन्हें यह समझ में आ गया है कि उनके संकट के मूल में दिल्ली से बनने वाली नीतियां हैं। शायद यह उनके ऐतिहासिक आंदोलन का सबसे बड़ा अवदान है।

किसानों की गहरी बेचैनी और आने वाले दिनों में इसके राजनीतिक निहितार्थों को  भाँपकर RSS से जुड़े राष्ट्रीय किसान संघ को अभी हाल ही में रामलीला मैदान में रैली करके सरकार को "चेतावनी" देनी पड़ी। सरकार के आखिरी पूर्ण बजट के पूर्व रैली करके संघ ने  PM-सम्मान निधि 6 हजार से बढ़ाकर 12 हजार करने तथा कृषि लागत सामग्री पर GST कम करने का एजेंडा सरकार के सामने पेश किया। साफ है यह 2023 में किसान आंदोलन की चुनौती का मुकाबला करने और उसके पुनर्जीवन की संभावना को pre-empt करने की सरकारी  रणनीति का हिस्सा है।

संघ-भाजपा तथा मोदी सरकार की रणनीति का मुकाबला करने और अपनी लड़ाई को सफलता की मंजिल तक पहुंचाने के लिए किसान-आंदोलन को अपने बिखराव पर काबू पाना होगा तथा अपनी लौह एकता को पुनर्स्थापित करना होगा, साथ ही आंदोलन की लोकतान्त्रिक राजनीतिक परिणति हो, इस दिशा में सैद्धांतिक गतिरोध भंग (breakthrough ) करना होगा। 2023 में  एकजुट होकर उन्हें आंदोलन और राजनीति दोनों को साधना होगा।

मजदूर विरोधी लेबर-कोड, निजीकरण तथा महंगाई के खिलाफ मजदूर-कर्मचारी पूरे साल लड़ते रहे। 28-29 मार्च को केंद्र सरकार की " श्रमिक विरोधी, जनविरोधी व राष्ट्रविरोधी " नीतियों के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी हड़ताल उनकी लड़ाई का बड़ा मुकाम थी जिसमें असंगठित क्षेत्र के मजदूरों से लेकर बैंक, बीमा, कोयला, इस्पात, दूरसंचार आदि  क्षेत्रों के लाखों श्रमिकों ने भाग लिया। रेलवे और रक्षा विभाग के कर्मचारी भी जगह-जगह उनके समर्थन में लामबंद हुए। 

बहरहाल, तमाम लड़ाईयों के बावजूद, श्रमिक आंदोलन के लिए यह गहरे आत्ममंथन का विषय है कि उनकी लड़ाई क्यों कोई राजनीतिक असर नहीं छोड़ पाती,

सरकार के लिए कोई बड़ी राजनीतिक चुनौती खड़ी कर पाने में क्यों वे नाकाम रहते हैं?

इस वर्ष इसमें एक स्वागत योग्य बदलाव पुरानी पेंशन (OPS ) के सवाल पर दिखा जो अब चुनावों में राजनीतिक मुद्दा बन रही है। हिमाचल में भाजपा की विदाई में इसकी भी भूमिका मानी जा रही है। यहां तक कि उत्तर प्रदेश में भी पोस्टल बैलट में, जो कर्मचारियों का ही मत था, विपक्ष का वोट भाजपा से अधिक था।

उम्मीद है 2023 में श्रमिक आंदोलन मोदी सरकार के विरुद्ध अपनी लड़ाई को स्पष्ट वैचारिक दिशा देते हुए आज के दौर में अपनी अपेक्षित राजनीतिक भूमिका के निर्वाह की ओर बढ़ेगा।

आसमान छूती महंगाई, बेरोजगारी तथा छात्र-युवा-मेहनतकश तबकों के स्वतःस्फूर्त आंदोलनों से भयभीत संघ-भाजपा तथा उनके सत्ता प्रतिष्ठान ने इस वर्ष  दमन और नफरत के अभियान को नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया।

हरिद्वार, रायपुर से लेकर जंतर मंतर तक, देश के कई शहरों में कथित धर्म-संसदों में खुले आम जनसंहार का आह्वान किया गया। bulli deals app पर सामाजिक जीवन में सक्रिय मुस्लिम महिलाओं की ऑनलाइन sale/auction जैसी हरकतों के माध्यम से भयानक मुस्लिम विरोधी नफरत भड़काई गयी। बनारस के 84 घाटों पर “ गैर हिन्दू प्रवेश प्रतिबंधित" होने की चेतावनी वाले पोस्टर लगा दिये गए।

रामनवमी और हनुमान जयंती के अवसर पर शोभा-यात्रा के दौरान साम्प्रदायिक उन्माद और हिंसक माहौल को चरम पर पहुंचा दिया गया। दिल्ली, गुजरात, UP, राजस्थान, मध्य प्रदेश समेत अनेक राज्यों में हिंसक झड़पें हुईं। पूरा देश सकते में आ गया। 

कथित दंगाइयों/पत्थरबाजों के PFI से जुड़े होने की कहानी गढ़ते हुए, उन्हें सजा देने के नाम पर मुस्लिम बस्तियों तथा चुनिंदा मुस्लिम शख़्सियतों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के घरों-दुकानों तक बुलडोजर पहुंच गए और उन्हें जमींदोज कर दिया गया तमाम लोगों को जेलों में डाल दिया गया।

इस नग्न फासीवादी हमले के खिलाफ नागरिक समाज और जनवादी ताकतें पूरे देश में स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध में उतर पड़ीं।  देश में बढ़ती मुस्लिम विरोधी हिंसा के खिलाफ 16 अप्रैल को दिल्ली में नागरिक विजिल का आयोजन हुआ। 13 जून को भाजपा के बुलडोजर राज के खिलाफ जंतर-मंतर पर प्रदर्शन हुआ। जहांगीरपुरी में बुलडोजर के सामने मुट्ठी तान कर खड़े वामपंथी नेताओं वृंदा करात, रवि राय और जनसमुदाय का visual जनता के अदम्य प्रतिरोध की spirit का प्रतीक बन गया।

सांस्कृतिक संगठन इप्टा द्वारा 9 से 22 अप्रैल तक देश के कई राज्यों से गुजरने वाली " ढाई आखर प्रेम " यात्रा भी इस नफरती माहौल के खिलाफ महत्वपूर्ण हस्तक्षेप थी।

बेशक, उस बेहद नाजुक दौर में विपक्षी दलों की अवसरवादी चुप्पी बेहद निराशाजनक और आत्मघाती थी।

चरम नफरती अभियान और बुलडोजर राज से पूरे समाज में दहशत का माहौल बनाने  की मुहिम का ही हिस्सा था कि विपक्ष के नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, नागरिक समाज की हस्तियां, असहमत पत्रकार, संस्कृतिकर्मी, छात्र-युवा, मजदूर-किसान नेता, हाशिये के तबके- सब साल भर सरकार के निशाने पर रहे।

विपक्षी नेताओं के खिलाफ ED के छापे और interrogation चलते रहे। सोनिया गांधी और फिर राहुल गांधी से (सम्भवतः भारत जोड़ो यात्रा को प्रभावित करने के लिए)  कई दिनों तक चलने वाली ED की पूछताछ, तथा महाराष्ट्र में vocal शिवसेना नेता संजय राउत की गिरफ्तारी उल्लेखनीय रही, जिन्हें रिहा करते हुए कोर्ट ने बेहद कड़ी टिप्पणी में इसे "witch-hunt " करार देते हुए उनकी गिरफ्तारी को गैरकानूनी और अकारण की गई कार्रवाई बताया।

नागरिक समाज की नामचीन हस्तियों को डराने और उन्हें चुप करा देने का अभियान साल भर जारी रहा।

तीस्ता सेतलवाड़ की गिरफ्तारी और उसके ख़िलाफ़ नागरिक समाज का जबरदस्त प्रतिवाद इस वर्ष का उल्लेखनीय घटनाक्रम था। 2002 के post- गोधरा मुस्लिम विरोधी हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलाने की लंबी लड़ाई, जिसके केंद्र में बेशक राज्य के तत्कालीन मुखिया मोदी जी स्वयं  थे, के  "अपराध"  में तीस्ता लंबे समय से सत्ता प्रतिष्ठान के निशाने पर थीं। उन्हें फ़र्ज़ी आरोपों में गिरफ्तार करके 2 महीने जेल में रखा गया। मोदी जी को सर्वोच्च न्यायालय से क्लीन चिट भले मिल गयी हो, बिलकिस बानो प्रकरण में बलात्कारियों और हत्यारों की गुजरात चुनाव से ठीक पूर्व रिहाई से साफ है कि उस दौर का घटनाक्रम न सिर्फ अतीत बल्कि वर्तमान और सम्भवतः भविष्य में भी भाजपा के लिये दुधारू गाय बना रहेगा, जिसका दोहन कर गुजरात में चुनाव लड़े जाते रहेंगे।

तीस्ता सेतलवाड़ की गिरफ्तारी के ख़िलाफ़  देश के विभन्न शहरों से लेकर जंतर मंतर तक जोरदार प्रतिवाद हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार  शाखा ने भी भारत सरकार से कड़ी आपत्ति जताई और उनकी रिहाई की मांग की।

इसी तरह जनांदोलनों की प्रमुख हस्ती मेधा पाटकर के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ और उनके सर पर गिरफ्तारी की तलवार लटकती रही। बाद में भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ उनके शामिल होने को गुजरात चुनाव में स्वयं मोदी जी ने मुद्दा बनाया।

हिंदुत्व के खिलाफ मुखर दलित बुद्धिजीवियों पर हमले भी इस साल का उल्लेखनीय घटनाक्रम रहे। चर्चित दलित नेता, गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवानी को मोदी जी के खिलाफ किसी बयान के आरोप में असम की पुलिस गिरफ्तार करके ले गयी और उन्हें जेल में रखा गया, उनके ऊपर वहां महिला पुलिसकर्मी से छेड़खानी जैसा बिल्कुल बेबुनियाद फ़र्ज़ी आरोप तक मढ़ दिया गया। बाद में वे बेल पर रिहा हुए।

डॉ. आंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करते समय ली गयी प्रतिज्ञा दुहराने के आरोप में, दिल्ली सरकार में मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम के खिलाफ संघ-भाजपा ने जबरदस्त हमला बोल दिया। अंततः हिंदुत्व की ही पिच पर भाजपा से चुनावी प्रतिस्पर्धा में उतरी AAP पार्टी ने उन्हें मंत्रिपद से हटा दिया। ज्ञानवापी प्रकरण में बयान को लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. रतन लाल को जेल में डाला गया और लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रो. रविकांत चंदन के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ और सत्ता से जुड़े छात्र संगठन ने उनके खिलाफ हल्ला बोल दिया। एक दलित नौजवान की केवल इसलिए हत्या कर दी गयी कि उनका मूंछ रखना हत्यारों को बर्दाश्त नहीं था।

Alt news के मो. ज़ुबैर की फ़र्ज़ी मामले में गिरफ्तारी, सिद्दीक कप्पन की 2 साल से जारी जेल यातना और रवीश कुमार की छुट्टी के लिए NDTV के take-over के साथ मीडिया पर हमला भी नई ऊंचाई पर पहुंच गया। बलिया में  परीक्षा में पेपर लीक और फर्जीवाड़े का खुलासा करने वाले पत्रकारों की गिरफ्तारी और उसके खिलाफ चला जोरदार आंदोलन भी उल्लेखनीय रहे।

आज जब स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा तथा इंसाफ के सारे संवैधानिक मूल्य और आदर्श तथा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आरक्षण, अभिव्यक्ति और विरोध की आज़ादी जैसे संविधान प्रदत्त सारे नागरिक लोकतान्त्रिक अधिकार दांव पर लगे हैं, आने वाला साल 2023 इस देश की सारी लोकतान्त्रिक इंसाफ पसंद ताकतों तथा विपक्ष के पास हमारे लोकतन्त्र, संविधान और देश को बचाने का आखिरी अवसर है।

किसान-मजदूर-छात्र-युवा आंदोलनों, संस्कृतिकर्मियों, नागरिक समाज, सामाजिक आंदोलनों, महिला, दलित मुक्ति और सच्चे सामाजिक न्याय के योद्धाओं तथा भाजपा विरोधी विपक्ष को कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के खिलाफ अपनी पूरी ताकत केंद्रित करनी होगी।

उम्मीद है, फासीवादी दमन और लोकतान्त्रिक प्रगति की ताकतों के बीच 2022 में  जारी घमासान 2023 में निर्णायक मोड़ पर पहुंचेगा और देश मोहब्बत, खुशहाली और आज़ादी के एक नए दौर की ओर बढ़ेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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