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इजरायली रंगभेद, नवउदारवाद एवं नकबा से इंकार के मुद्दे पर 60 इजरायली तरुणों ने सेना में अपनी सेवा देने से इंकार किया

60 इजरायली सीनियर हाई स्कूल के छात्रों द्वारा एक हस्ताक्षरित पत्र के जरिये, जिसमें उन्होंने इजरायली सेना में अपनी अनिवार्य भर्ती की शर्तों को मानने से इंकार कर दिया था, जो कि अब सार्वजनिक संज्ञान में आ चुका है।  यह अपनेआप में न सिर्फ ऐतिहासिक है बल्कि ऐसा पहली बार हो रहा है जिसमें न सिर्फ 1967 में अधिकृत किये जाने को संबोधित किया गया है, बल्कि 1948 के नकबा और “निरंतर नकबा” के साथ “72 वर्षों” के “हिंसक कब्जे” पर भी सवाल खड़े किये हैं। 
फिलिस्तीन

60 इजरायली सीनियर हाई स्कूल के छात्रों द्वारा एक हस्ताक्षरित पत्र के जरिये, जिसमें उन्होंने इजरायली सेना में अपनी अनिवार्य भर्ती से इंकार कर दिया है, और यह तथ्य अब सार्वजनिक संज्ञान में है। यह अपनेआप में सिर्फ ऐतिहासिक ही नहीं बल्कि ऐसा पहली बार हो रहा है जब न सिर्फ 1967 के अधिकृत को संबोधित किया गया है, बल्कि 1948 के नकबा और “निरंतर नकबा” के साथ ही “72 वर्षों” के “हिंसक कब्जे” पर भी सवाल उठाये गए हैं। यह अपनी दृष्टि और खांचे में 1967 में किये गए कब्जे को समूचे इजरायली प्रयासों के तौर पर देखता है। उदाहरण के लिए इसमें इंगित किया गया है कि: ‘2020 में इजरायली सेना द्वारा की गई कार्रवाई सिवाय नरसंहारों, परिवारों को बेदखल करने, और भूमि की चोरी  कुछ भी नहीं रही हैं। एक ऐसी विरासत जिसने इजराइल राज्य के सत्ता प्रतिष्ठान को सिर्फ यहूदियों के लिए ही एक यथोचित लोकतांत्रिक राज्य के तौर पर उपलब्ध कराने का काम किया है।’ 

इजरायल में इन जैसे ईमानदार आपत्तिकर्ताओं को अक्सर जेल की सलाख़ों के पीछे डाल दिया जाता है। 2003 में पांच पुरुष ईमानदार आपत्तिकर्ताओं को 2 साल की जेल की सजा सुनाई गई थी। महिला ईमानदार आपत्तिकर्ताओं में सबसे लंबी अवधि तक जेल की सजा काटने वालों में हिलेल कामिनेर हैं, जिन्हें 2016 में 150 दिनों बाद जेल से रिहा किया गया था। यह अपने आप में संदेहास्पद है कि जिन लोगों के नाम इस पत्र को संबोधित किया गया है,  वे इससे कुछ खास प्रभावित हों। उनमें से जो सबसे ज्यादा ‘उदारतावादी’ हैं वे संभवतया पूर्व सेनाध्यक्ष बेनी गांट्स हैं, जिन्होंने दो वर्ष पूर्व अपने राजनीति में दाखिले के एक प्रवेश कार्ड के तौर पर गाज़ा को “स्टोन ऐज” में वापस ले जाने का दावा किया था। इजरायल का समाज  “हिसंक, सैन्यवादी,  दमनकारी और अंधराष्ट्रवादी” है। इस सबके बावजूद हममें से कई ऐसे लोग हैं जो बेहद ध्यानपूर्वक उन बात को सुन रहे हैं जो ये नौजवान कह रहे हैं। और यहाँ पर वे एक महत्वपूर्ण आलोचनात्मक बहस को परिभाषित करने का काम कर रहे हैं। 1967 वला कब्जा कोई शुरुआत नहीं है और यह कोई अंत भी नहीं है। यह इजरायल की कब्जे की नाजायज कोशिशों की परियोजना का एक हिस्सा मात्र है; यह अपनी समूची प्रकृति के हिस्से के तौर पर “रंगभेद की नीतियों” को लागू करने वाला राज्य है। “यथोचित लोकतान्त्रिक राज्य” एक क्रूर मजाक है, यह सिर्फ यहूदियों के लिए ही है।

यह रहा पत्र:

हम 18 वर्षीय इजरायली युवाओं का समूह एक अनिर्णय की स्थिति में है। इजरायली राज्य हमसे सेना में भर्ती होने की मांग कर रहा है। कथित तौर पर एक ऐसा सुरक्षा बल, जिसके जिम्मे इजराइल राज्य के अस्तित्व की रक्षा का दायित्व है। लेकिन असल में देखें तो इजरायली सेना का मुख्य लक्ष्य दुश्मन सेनाओं से इसकी रक्षा के बजाय नागरिक आबादी पर नियंत्रण स्थापित करने का है। दूसरे शब्दों में कहें तो इजरायली सेना में हमारी भर्ती के राजनीतिक मायने और अपने निहितार्थ हैं। इसका सबसे पहला और सर्वप्रमुख असर उन फिलिस्तीनी लोगों की जिंदगियों पड़ना है जो पिछले 72 वर्षों से हिंसक कब्जे के तहत जीवन गुजारने के लिए अभिशप्त हैं। दरअसल फिलिस्तीनियों के खिलाफ जारी क्रूर हिंसा और उन्हें उनके अपने ही घरों से बेदखल करने की यह यहूदी नीति 1948 से आरंभ हुई थी और तबसे यह अबाध गति से जारी है। इस कब्जे वाली नीति ने इजरायली समाज को भी विषाक्त बनाने का काम किया है, जिसके चलते यह हिंसक, सैन्यवादी, अत्याचारी और अंधराष्ट्रवादी हो चुकी है। ऐसे में हमारा दायित्व है कि हम इस विनाशकारी हकीकत का अपने संघर्षों को एकताबद्ध कर और इस हिंसक व्यवस्था की सेवा से इंकार करने के जरिये विरोध करें, जिसमें सर्वप्रमुख सेना है। सेना में खुद की भर्ती से इंकार का अर्थ हमारे द्वारा इजरायली समाज से मुहँ मोड़ने का नहीं है। इसके उलट हमारे इंकार का अर्थ है हमारे द्वारा लिए गए निर्णयों एवं संभावित नतीजों के प्रति जिम्मेदारी लेने का एक कार्य है। 

दरअसल सेना न सिर्फ कब्जे की नीति पर अमल कर रही है, बल्कि सेना खुद में ही एक कब्जा है। पायलट, ख़ुफ़िया इकाईयां, नौकरशाही बाबू, लड़ाकू सैनिक ये सभी कब्जे की नीति को अंजाम देने में लगे हैं। कोई इसे कीबोर्ड के जरिये तो दूसरा जांच चौकी पर मशीन गन हाथ में लिए इसे अंजाम देने में जुटा हुआ है। इस सबके बावजूद हम सभी वीर सैनिक के प्रतीकात्मक आदर्श के साए में बड़े हुए हैं। छुट्टियों के दौरान हम उसके लिए भोजन की टोकरी तैयार किया करते थे, जिस टैंक से उसने लड़ा था हम उसे देखने जाते थे, हाई स्कूल में प्री-मिलिट्री कार्यक्रमों के दौरान हम उसके जैसा होने का नाटक करते थे और स्मृति दिवस पर हम उसकी शहादत को सम्मानित करते थे। सच्चाई तो यह है कि हम सभी इस हकीकत से पूरी तरह से वाकिफ हैं और इससे यह कोई अराजनीतिक कवायद नहीं रह जाता। भर्ती भी इससे इंकार करने से किसी भी तरह से कम राजनीतिक कार्य नहीं है।

हम अक्सर इस बात को सुनते हैं कि कब्जे की नीति की आलोचना करना उसी स्थिति में जायज है यदि हमने इसे लागू करने में सक्रिय तौर पर भाग लिया हो। आखिर यह किस प्रकार से विवेकपूर्ण है कि प्रणालीगत हिंसा और नस्लवाद का विरोध करने के लिए हमें उसी अत्याचारी व्यवस्था का अंग बनना चाहिए, जिसकी हम मुखालफत कर रहे हों?

जिस राह को अपनाने के लिए हमें बचपन से ही प्रेरित किया जाता है, वह एक ऐसी शिक्षा है जो हमें हिंसा और भूमि पर अपने दावे का सबक सिखाती है, जो कि 18 वर्ष की उम्र में सेना में दाखिले के साथ अपने शीर्ष पर पहुँच जाती है। हमें आदेशित किया जाता है कि हम खून से सनी मिलिटरी की वर्दी को धारण करें और नकबा और कब्जे की विरासत को अक्षुण बनाए रखें। इजरायली समाज को इन सड़े-गले मूल्यों के आधार पर निर्मित किया गया है और यह जीवन के सभी पहलुओं में नजर आता है: वह चाहे नस्लवाद हो, घृणास्पद राजनीतिक बहस हो, पुलिसिया जुल्म और कई अन्य में नजर आता है। 

यह सैन्य उत्पीड़न के साथ आर्थिक उत्पीड़न का चोली-दामन का साथ है। जहाँ एक ओर कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों में आम नागरिक गरीबी की मार से जूझ रहे हैं, वहीँ इनकी कीमत पर धनाड्य कुलीन वर्ग और भी ज्यादा अमीर बनता जाता है। फिलिस्तीनी श्रमिकों का योजनाबद्ध तरीके से शोषण का क्रम जारी है और हथियार उद्योग इस कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों को एक परीक्षण के मैदान और अपनी बिक्री को बढ़ाने के लिए एक उदाहरण के तौर पर पेश करता है। जब सरकार कब्जे की नीति को बरकरार रखने का विकल्प चुनती है तो एक नागरिक के रूप में यह हमारे हितों के विरुद्ध है। करदाताओं से हासिल राशि के एक बड़े हिस्से को जन-कल्याण, शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करने के बजाय “सुरक्षा” उद्योग और पुनर्वास के विकास की फंडिंग में खर्च कर दिया जाता है। 

सेना हिंसक, भ्रष्ट होने के साथ-साथ संस्थाओं को पूरी तरह से पथभ्रष्ट कर रही है। लेकिन इसका सबसे बड़ा अपराध फिलिस्तीन के कब्जे वाले इलाके में विनाशकारी नीति को लागू करने का है। हमारी उम्र के युवाओं को “सामूहिक सजा” के तौर पर इसे जबरन अपनाने के लिए लागू कराया जाता है, जिसमें अवयस्कों की गिरफ्तारी और उन्हें जेलों में डालना, भर्ती “सहयोगियों” को ब्लैकमेल करना और कई अन्य शामिल हैं। ये सभी युद्ध अपराध हैं जिन्हें निष्पादित किया जाता है, और इनकी दैनिक लीपापोती की जाती है। फिलिस्तीनियों वाले कब्जे के क्षेत्रों में हिंसक सैन्य शासन को रंगभेद की नीतियों के तहत लागू किया जाता है, जो दो भिन्न क़ानूनी व्यवस्था को दर्शाता है: एक फिलिस्तीनियों के लिए और दूसरा यहूदियों के लिए। फिलिस्तीनियों को लगातार अलोकतांत्रिक एवं हिंसक उपायों का सामना करने के लिए मजबूर होना पड़ता है जबकि यहूदी उपनिवेशवादियों को जो इन हिंसक अपराधों के दोषी हैं- सर्वप्रथम और सर्वप्रमुख फिलिस्तीनियों के खिलाफ लेकिन सैनिकों के विरुद्ध भी वे अपराधी हैं। लेकिन इजरायली सेना द्वारा इनके अपराधों को छिपाने और आँख मूँदने के जरिये पुरस्कृत किया जाता है। सेना ने पिछले दस वर्षों से गाजा की घेराबंदी कर रखी है। इस घेराबंदी ने गाजा पट्टी में एक अभूतपूर्व मानवीय संकट को उत्पन्न कर दिया है और इजराइल और हमास के बीच के हिंसक चक्र को बनाये रखने के मुख्य कारकों में से एक है। इस घेराबंदी की वजह से गाज़ा क्षेत्र में दिन के ज्यादातर घंटों में न तो पीने का पानी ही उपलब्ध है और ना ही बिजली मुहैय्या हो पा रही है। चारों ओर यहाँ पर बेरोजगारी और गरीबी छाई हुई है और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं तक का यहाँ पर घोर अभाव है। यह वास्तविकता शीर्ष पर नींव का काम करती है जिसमें कोविड-19 की आपदा ने गाज़ा में सिर्फ चीजों को और बदतर बनाने में ही मदद की है।

इस बात पर जोर दिया जाना महत्वपूर्ण है कि ये अन्यायपूर्ण घटनाएं कोई एक बार की भूलवश या राह से भटक जाने वाली गलती नहीं है। ये अन्याय कोई भूल या लक्षण नहीं हैं, ये नीतियों के अंग के तौर पर हैं और एक बीमारी है। इजरायली सेना द्वारा 2020 में की गई कार्यवाहियां कुछ और नहीं बल्कि हत्या, परिवारों के निष्कासन, और जमीन की चोरी को बरकरार रखने वाली विरासत का हिस्सा हैं। एक ऐसी विरासत जिसने इजरायल राज्य के निर्माण को सिर्फ यहूदियों के लिए ही एक यथोचित लोकतान्त्रिक राज्य के तौर पर स्थापित करने में मदद की है। ऐतिहासिक तौर पर सेना को एक ऐसे औजार के तौर पर देखा गया है जिसने “पिघलने वाले बर्तन” वाली नीति को अपनाया है। एक ऐसी संस्था के रूप में जो इजरायली समाज में सामाजिक वर्ग और लैंगिक विभाजन को मजबूत करने के काम आती है। असल में यह सच से अधिक नहीं हो सकता है। सेना ने उच्च-मध्यम वर्ग से आने वाले सैनिकों के लिए आर्थिक एवं नागरिक संभावनाओं वाली स्थिति में रखने के लिए स्पष्ट कार्यक्रम को लागू किया है, जबकि निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले सैनिकों को उन पदों पर रखा जाता है जिनमें उच्च मानसिक एवं शारीरिक जोखिमों का खतरा बना रहता है और नागरिक समाज में भी उन्हें समान शुरुआत नहीं मिल पाती है।

इसी प्रकार पायलट, टैंक कमांडर, लड़ाकू सैनिकों और ख़ुफ़िया अधिकारियों जैसे हिंसक पदों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व को नारीवादी उपलब्धि के तौर पर गिनाया जा रहा है। इसी प्रकार हिंसक जगहों जैसे कि पायलट, टैंक कमांडरों, लड़ाकू सैनिकों और ख़ुफ़िया अधिकारियों जैसे पदों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व को नारीवादी उपलब्धि के तौर पर दर्ज किया जा सकता है। आखिर किस प्रकार से लैंगिक गैर-बराबरी के संघर्ष को फिलिस्तीनी महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के जरिये जायज ठहराया जा सकता है? ये “उपलब्धियां” फिलिस्तीनी महिलाओं के संघर्ष के साथ एकजुटता को दर-किनार करने का काम करती हैं। सेना इन शक्ति संबंधों को मजबूत करने करने का काम कर रही है और हाशिये पर पड़े समुदायों के शोषण के खिलाफ संघर्ष को अपनी सनकी संयोजन के जरिये अधिग्रहित कर रही है।

हम अपनी उम्र के हाई स्कूल वरिष्ठों (वे भी हमारी आत्मा थीं) से आह्वान कर रहे हैं: जब हम खुद को सेना में भर्ती कराते हैं तो हम क्या और किसकी सेवा कर रहे होते हैं? हम भर्ती क्यों होते हैं? सेना में रहकर अधिकृत क्षेत्र में असल में क्या काम कर रहे होते हैं? हम शांति चाहते हैं, और सच्ची शांति के लिए न्याय की जरूरत पड़ती है। न्याय के लिए ऐतिहासिक और वर्तमान में चल रहे अन्यायों और जारी की हकीकत को स्वीकारने की जरूरत होती है। न्याय के लिए कब्जे वाले क्षेत्रों में आवश्यक सुधार की खातिर उसके अंत; गाज़ा पर घेराबंदी के अंत; और फिलिस्तीनी शरणार्थियों की वापसी के अधिकार को मान्यता दिए जाने की आवश्यकता है। न्याय एकजुटता; संयुक्त संघर्ष और इंकार किये जाने की मांग करती है।

सौजन्य: इंडियन कल्चरल फोरम 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

60 Israeli Teens Reject Military Service Over Israeli Apartheid, Neoliberalism, and Denial of the Nakba

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