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आज़ादी@75: यह समय मूल्यांकन का है

यह अजीब विडंबना है कि जिस तरह आज़ादी मिलते समय लोग देश के भविष्य को लेकर शंका से भरे हुए थे, उसी तरह आज आज़ादी के 75 साल बाद यह आशंका देश को घेरे हुए है कि आने वाले दिनों में हमारा लोकतन्त्र जिंदा रहेगा कि नहीं!
har ghar tiranga

उथलपुथल भरी दुनिया में आज़ादी और लोकतंत्र की यात्रा के 75 साल किसी भी राष्ट्र के लिए गौरव की बात है, आज यह अवसर है कि आज़ादी की लड़ाई के मूल्यों और उसकी गौरवशाली विरासत को याद किया जाय। हमारे नेताओं ने "नियति से साक्षात्कार" के जो वायदे किये थे, आज़ादी के लड़ाई के मूल्यों के मूर्तिमान स्वरूप संविधान को राष्ट्र को समर्पित करते हुए जो लक्ष्य रखे थे, उनकी रोशनी में 75 साल की यात्रा की समीक्षा की जाय। आज़ादी और उसके मूल्यों के समक्ष मौजूद चुनौतियों और ख़तरों पर मंथन किया जाय और उनकी रक्षा के प्रति अपने को पुनः समर्पित किया जाय।

सच्चाई यह है कि " अमृत महोत्सव " को celebrate करने का आम लोगों में आज कोई स्वतःस्फूर्त उत्साह नहीं है। देश में आज चौतरफा उदासी का माहौल है। कोविड ने जो दंश दिए, वे तो अलग, घनघोर आर्थिक संकट, सत्ता-प्रायोजित सामाजिक विभाजन, चौतरफा दमन, पतनशील राजनीति ने पूरे माहौल में नैराश्य घोल दिया है।

यह अजीब विडंबना है कि जिस तरह आज़ादी मिलते समय लोग देश के भविष्य को लेकर शंका से भरे हुए थे, उसी तरह आज आज़ादी के 75 साल बाद यह आशंका देश को घेरे हुए है कि आने वाले दिनों में हमारा लोकतन्त्र जिंदा रहेगा कि नहीं! यहां तक कि इंडिया टुडे-C वोटर के Mood of the Nation सर्वे को भी, जिसके प्रयोजन, टाइमिंग, निष्कर्षों को लेकर लोगों के मन में गहरी शंकाएं हैं, यह मानना पड़ा है कि देश में लगभग आधी आबादी(48%) को लगता है कि हमारा लोकतन्त्र खतरे में है और ऐसा मानने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।

यह भी कम विडम्बनापूर्ण नहीं है कि एक ऐसी धारा जो आज़ादी की लड़ाई से न सिर्फ अलग रही थी, बल्कि अपनी विभाजनकारी नीति और कारनामों से उसे कमजोर करने की दोषी है, वह सबसे बढ़चढ़ कर अपने को उसका सबसे बड़ा वारिस और बाकी सबको कमतर देशभक्त या देशद्रोही साबित करने में लगी है। 

यह वही ताकत है जो आज साम्प्रदायिक विभाजन को तीखा कर देश को गृहयुद्ध और जनसंहार की ओर धकेल रही है, जिसने अपने कारपोरेट प्रभुओं की सेवा में देश के सारे संसाधनों को समर्पित करके अपने

8 साला राज में मेहनतकश जनता का जीवन नर्क बन गया है।

स्वाभाविक है,  जनता के मन में उनके  "अमृत महोत्सव" के आह्वान को लेकर कोई उत्साह नहीं है। मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा इस अवसर का इस्तेमाल अपने उस कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उन्माद पैदा करने के लिए कर रहे हैं, जो न सिर्फ अमूर्त भावुकता पर आधारित और खोखला है बल्कि विभाजनकारी है। पिछले दिनों आज़ादी की याद के बहाने देश के विभाजन की विभीषिका की यादों को कुरेदने और इसके माध्यम से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज करने की कोशिश की गयी। 

यह स्वागत योग्य है कि आजादी की 75वीं सालगिरह के मौके पर सच्ची देशभक्त प्रगतिशील ताकतें भी सक्रिय है, जो आज़ादी और लोकतन्त्र की चुनौतियों के बारे में जनता को आगाह कर रही हैं और इस अवसर का इस्तेमाल कर जनता को संवैधानिक मूल्यों और लोकतन्त्र की रक्षा के लिए खड़ा कर रही हैं।

आइए आज़ादी की कुछ बुनियादी उद्घोषणाओं को याद करते हैं। यह माना गया था कि अब हम एक पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राष्ट्र हैं, देश को राजनीतिक आज़ादी मिल गयी, अब हमें आर्थिक आज़ादी की ओर बढ़ना है। 

इस लक्ष्य का क्या हुआ ? 

आज स्थिति यह है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के जाल में हम बुरी तरह जकड़े हुए हैं। आर्थिक नीतियों का पूरा ढांचा सरकारें उनके निर्देश पर बना रही हैं और अपनी जनता के हितों की अनदेखी करके उसके आदेशों-निर्देशों का पालन कर रही हैं। विदेशी वित्तीय संस्थाएं हमें dictate करती  हैं कि fiscal deficit की सीमा क्या होगी, उनके दबाव में सरकारें सब्सिडी खत्म कर रही हैं, कारपोरेट को अंधाधुंध टैक्स छूट दे रही हैं, युद्धस्तर पर निजीकरण कर रही हैं, कृषि के कारपोरेटीकरण पर आमादा हैं।  अपने राष्ट्रीय हितों की कीमत पर मोदी सरकार की विदेश नीति अमेरिकी खेमे के भू-राजनीतिक हितों के साथ अपने को नत्थी किये हुए है। क्या यह सब एक सम्प्रभु सरकार का व्यवहार  है? सच्चाई यह है कि राष्ट्रवाद की शेखी बघारने वाली मोदी सरकार साम्राज्यवादी ताकतों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के धनकुबेरों के आगे पूरी तरह समर्पण किये हुए है।

यह हमारे इतिहास की त्रासदी है कि जिस देश ने साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़कर आज़ादी हासिल की, उसके शासकों ने आज़ादी के बाद साम्राज्यवाद विरोध की बजाय पाकिस्तान-विरोध को अपने राष्ट्रवाद की धुरी बना दिया और साम्राज्यवादी ताकतों तथा वित्तीय पूँजी के साथ संश्रय कायम कर लिया। इसने पूरी राष्ट्रीय चेतना को भ्रष्ट कर दिया, इससे दुहरा नुकसान हुआ। विदेशी पूंजी की लूट और साम्राज्यवादी dictates के आगे हमारी सरकारों के समर्पण से जनता का ध्यान हट गया, उधर पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्रवाद के नाम पर वोट की राजनीति होने लगी जिसे संघ-भाजपा ने आज चरम पर पहुंचा दिया है।

पाकिस्तान-विरोध स्वाभाविक रूप से देश के अंदर मुसलमानों के खिलाफ मोड़ दिया गया। RSS ने उनकी देशभक्ति को कठघरे में खड़ा कर उन्हें villain बना दिया और हिन्दू राष्ट्र के प्रोजेक्ट के लिए आक्रामक अभियान छेड़ दिया। कालांतर में आतंकवाद से जोड़ते हुए  उन्हें नफरती अभियान के निशाने पर ले लिया गया।

संघ-भाजपा के अभूतपूर्व उत्थान में अकेली इस एक परिघटना ने जितनी बड़ी भूमिका निभाई है, शायद किसी और कारक ने नहीं।

क्या आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में राष्ट्रवाद को उसकी सही धुरी पर स्थापित करने का कार्यभार एजेंडा बनेगा?

ठीक इसी तरह, समाजवाद शब्द भले आपातकाल में इंदिरागांधी ने अपनी राजनीतिक जरूरत के अनुरूप संविधान में जोड़ा हो, पर इतिहास के इस सच को कोई झुठला नहीं सकता कि समतावादी मूल्य हमारी आज़ादी की लड़ाई की आत्मा थे और सामाजिक आर्थिक न्याय की स्थापना हमारे संविधान के प्रस्तावना (Preamble ) का घोषित लक्ष्य था। डॉ. आंबेडकर ने भी संविधान सभा के अंतिम भाषण में चेतावनी दी थी कि सामाजिक-आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना न हुई तो हमारा राजनीतिक लोकतन्त्र भी खतरे में पड़ जायेगा।

उस लक्ष्य का क्या हुआ ? 

आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष का सच यह है कि एक ओर हमारे देश के चंद कारपोरेट दुनिया के सबसे धनी लोगों की लिस्ट में शुमार हो रहे हैं, दूसरी ओर आम जनता घनघोर आर्थिक संकट से जूझ रही है, करोड़ों लोग भुखमरी के कगार पर, गरीबी रेखा के नीचे, बेरोजगार, मानवीय गरिमा से वंचित जीवन जीने और चरम हताशा में आत्महत्या को अभिशप्त हैं।

आज भी हमारे समाज में सामाजिक अन्याय का कितना बोलबाला है, इसकी ही परोक्ष स्वीकृति है कि एक दलित, आदिवासी अथवा महिला को राष्ट्रपति बनाकर उसके लिए अपनी पीठ ठोंकी जाती है और अपने को सामाजिक न्याय का मसीहा साबित किया जाता है। इस प्रतीकात्मकता का ही दूसरा पहलू यह है कि वंचित तबकों की विराट आबादी आज भी सामाजिक वर्चस्वशाली तबकों के हाथों हर तरह के सामाजिक अन्याय की शिकार है, यहां तक कि उनके आरक्षण जैसे संविधानप्रदत्त अधिकारों पर भी डाकाज़नी की जा रही है और अब तो चौतरफा निजीकरण के चलते वे बेमानी ही होते जा रहे हैं।

धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र के मूल्य आज सर्वाधिक ख़तरे में हैं। अभिव्यक्ति और असहमति की आज़ादी, इंसाफ के लिए लड़ने का अधिकार खत्म किया जा रहा है, जो लोकतन्त्र की न्यूनतम शर्त है। सैकड़ों लोकतान्त्रिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, पत्रकार षड्यंत्रपूर्वक थोपे गए फ़र्ज़ी मुकदमों में आज जेलों में हैं। सारी संस्थाओं को जेबी बना लिया गया है और कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के हित में इस्तेमाल किया जा रहा है। सत्ता संरक्षित आक्रामक बहुसंख्यकवाद ने मौजूदा दौर को अल्पसंख्यकों के लिए दुःस्वप्न में तब्दील कर दिया है।  मुसलमानों को दोयम दर्जे की नागरिकता के एहसास से भरा जा रहा है।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के शिकंजे और साम्राज्यवादी दबाव से मुक्त प्रगतिशील राष्ट्रवाद, बहुसंख्यकवाद की बर्बरता से मुक्त धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र तथा सुसंगत सामाजिक-आर्थिक न्याय के लक्ष्य, जो हमारी आज़ादी की लड़ाई की धुरी थे, वे आज दांव पर हैं।

75वीं वर्षगांठ के मौके पर हमें एक बार फिर आज़ादी की लड़ाई के महान मूल्यों के प्रति अपने को समर्पित करना होगा तथा इन पर मंडराते खतरों और चुनौतियों का मुकाबला करना होगा। 

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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