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आशा कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय महासंघ का गठन किया, स्कीम वर्कर्स के लिए संयुक्त कार्यक्रम का फ़ैसला

नवगठित संगठन देश में आशा कार्यकर्ताओं के लिए न्यूनतम मज़दूरी और सामाजिक सुरक्षा के लिए संघर्ष को तेज़ करने पर ध्यान केंद्रित करेगा। अहम बात ये है कि ये मांग आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और स्कूल मिड-डे मील योजना से जुड़े लोगों की भी हैं।
ASHA
कुरुक्षेत्र में तीन दिवसीय सम्मेलन के दौरान प्रतिनिधियों ने राष्ट्रीय महासंघ के गठन को सबसे अहम बताया। फोटो-मोहित

नई दिल्ली: अक्टूबर में ऑल स्कीम वर्कर्स के राष्ट्रीय सम्मेलन, दिसंबर में दो महीने का अखिल भारतीय कार्यक्रम और आगामी 'मज़दूर संघर्ष रैली' के लिए बड़ी संख्या में लोगों को लामबंद करना भविष्य के उन कार्यक्रमों में से हैं जिन्हें रविवार को देश में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा) के पहले फेडरेशन (संघ) के गठन के दौरान घोषित किया गया।

20 राज्यों के महिला प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली यूनियनों की भागीदारी के साथ नवगठित संगठन 'आशा वर्कर्स एंड फैसिलिटेटर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया' (एडब्ल्यूएफएफआई) ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) को सरकार का स्थायी कार्यक्रम बनाने के लिए दबाव डालने का संकल्प लिया। साथ ही इसे आने वाले महीनों में "सार्वभौमिक आवेदन और पर्याप्त वित्तीय आवंटन" को पुरज़ोर तरीक़े से उठाने की भी बात कही।

अपनी 18 सूत्रीय मांगों के मद्देनज़र ये नवगठित राष्ट्रीय महासंघ देश में आशा कार्यकर्ताओं के लिए 45वें और 46वें भारतीय श्रम सम्मेलनों द्वारा की गई सिफारिशों की तर्ज पर न्यूनतम मज़दूरी और सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान के लिए संघर्ष को तेज़ करने पर भी ध्यान केंद्रित करेगा। ये आशा कार्यकर्ता COVID-19 महामारी के दौरान लोगों के इलाज और उनकी जान बचाने में सबसे आगे रही हैं।

महासंघ द्वारा जारी प्रेस बयान में कहा गया है कि, “2009 में गठित आशा कार्यकर्ताओं की अखिल भारतीय समन्वय समिति ने देश में आशा कार्यकर्ताओं के आंदोलन को तेज़ किया और इसे 20 राज्यों तक बढ़ाया। एडब्ल्यूएफएफआई अब पूरे देश में आशा कार्यकर्ताओं को एकजुट करने की ज़िम्मेदारी लेगा।”

इसमें कहा गया है कि रविवार को केरल की पीपी प्रेमा को अध्यक्ष चुना गया जबकि पश्चिम बंगाल की मधुमिता बनर्जी को महासचिव और महाराष्ट्र की पुष्पा पाटिल को कोषाध्यक्ष चुना गया।

वहीं हरियाणा के कुरुक्षेत्र में आयोजित तीन दिवसीय सम्मेलन में देश भर से लगभग 300 आशा प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमें सभी महिला कार्यबल के नवगठित राष्ट्रीय महासंघ की मांगों और भविष्य के कार्यक्रमों पर चर्चा हुई।

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के तहत पहले उल्लेख किया गया था कि आशा कम्युनिटी हेल्थ वॉलंटियर्स हैं जो सरकार की स्वास्थ्य प्रणाली और समुदाय के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करती हैं। एनएचआरएम का विस्तार बाद में 2013 में शहरी क्षेत्रों को कवर करने के लिए किया गया था। वर्तमान में देश में क़रीब 10 लाख आशा कार्यकर्ता हैं।

आशा कार्यकर्ताओं की मांग है 'काम करने की एक जैसी शर्त'

पिछले सप्ताह न्यूज़क्लिक ने कुरुक्षेत्र में हुए उक्त सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में भाग लिया था जहां विभिन्न राज्यों से आए प्रतिनिधियों ने एक अहम पहल के रूप में फेडरेशन के गठन की शुरुआत की थी। ये फेडरेशन देश भर में मौजूद यूनियनों के बीच अधिक से अधिक समन्वय सुनिश्चित करेगा।

सम्मेलन में आए इन प्रतिनिधियों का कहना है कि यह सबसे अहम है क्योंकि आशा कार्यकर्ता वास्तव में एक ही जैसी कार्य में लगी हुई हैं। फिर भी मौजूदा व्यवस्था को देखते हुए उनके मासिक वेतन और सेवा की शर्तें एक राज्य से दूसरे राज्य में अलग-अलग होती हैं।

एनएचएम के तहत कार्यकर्ताओं की स्थिति से परे सभी महिला वॉलंटियर केंद्र सरकार द्वारा सूचीबद्ध 60 से अधिक कार्यों के लिए कार्य-आधारित प्रोत्साहन राशि की हक़दार हैं। इसके अलावा, आशा को केंद्र से नियमित गतिविधियों के लिए 2,000 रुपये का प्रोत्साहन मिलता है। इसके अलावा, राज्य सरकारों को भी उनके लिए मासिक वेतन तय करने की अनुमति है।

कुरुक्षेत्र की रहने वाली 46 वर्षीय आशा कार्यकर्ता अमरा रानी ने शुक्रवार को कहा कि इस तरह की व्यवस्था "अनुचित" है। उन्होंने कहा कि कुछ राज्य अब अपने अधिकार क्षेत्र में आशा को निश्चित वेतन दे रहे हैं जबकि अन्य राज्यों में रह रही कार्यकर्ताओं को अभी भी अपनी ज़रूरतों को पूरी करने के लिए प्रोत्साहन राशि पर निर्भर रहना पड़ रहा है।

उदाहरण के लिए, हरियाणा में राज्य सरकार ने प्रोत्साहन (इंसेंटिव) राशि के अलावा वेतन के रूप में 4,000 रुपये तय किया है। जबकि, आंध्र प्रदेश में आशा को वर्तमान में 10,000 रुपये का एक निश्चित मासिक मानदेय मिलता है, जिसमें प्रोत्साहन राशि शामिल है।

रानी ने न्यूज़क्लिक से कहा कि, "हालांकि देश भर में सभी आशा एक जैसा ही काम करती हैं बावजूद इसके हमारे भुगतान अलग-अलग हैं।" आगे उन्होंने कहा कि "दूसरी ओर, हम सभी आशाओं के लिए एक समान काम करने की शर्तों की मांग करते हैं।" इन शर्तों में कार्यकर्ता के रूप में रेगुलराइजेशन, न्यूनतम वेतन जो कि 26,000 रुपये प्रति माह से कम न हो, छह महीने का भुगतान के साथ मातृत्व अवकाश और सेवानिवृत्त लोगों के लिए ग्रेच्युटी और पेंशन का प्रावधान शामिल है।

उपरोक्त मांगों के बारे में पूछे जाने पर 50 वर्षीय मंगल थोम्ब्रे ने अपनी सहमति व्यक्त की और आगे कहा कि ये "लंबे समय से लंबित मांगें" हैं जिन्हें अब मौजूदा सरकार द्वारा हल किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि आशा कार्यकर्ताओं ने 2020 से देश में COVID-19 के प्रसार को रोकने में अपनी भूमिका पूरी तरह निभाई है और राज्य मशीनरी की मदद की है।

थोम्ब्रे ने न्यूज़क्लिक से कहा, "हमारे योगदान के लिए हमें अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सराहा गया था लेकिन हमारी अपनी सरकार द्वारा नज़रअंदाज़ किया गया। ऐसा इस सच्चाई के बावजूद था कि हम महिलाएं हैं और अपना काम करके और अपने परिवार के सदस्यों के जीवन को ख़तरे में डाल रहे थे। उस दौरान गांवों और शहरों में घर-घर जाकर बुखार की जांच करना, दवाएं देना और टीकाकरण अभियानों में शामिल होती थी।” इस साल मई महीने में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने आशा कार्यकर्ताओं को ग्लोबल हेल्थ लीडर्स अवार्ड के रूप में चुना था।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने आशा द्वारा उठाए जा रहे जोखिमों को देखते हुए राज्यों को कोविड-19 काम में लगे लोगों को प्रति माह 1000 रुपये का अतिरिक्त प्रोत्साहन देने की "सलाह" दी। इसने प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण पैकेज (पीएमजीकेपी) के तहत आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ-साथ आशा को 50 लाख रुपये का बीमा कवर भी दिया।

लेकिन आंध्र प्रदेश आशा वर्कर्स यूनियन के महासचिव के धना लक्ष्मी का मानना है कि ये निर्णय बेहतर नहीं थे। उन्होंने कहा कि, "मेरे राज्य में 35 आशाओं को कोविड -19 ड्यूटी पर रहते हुए अपनी जान गंवानी पड़ी। क्या आप जानते हैं कि उनमें से कितनों को बीमा राशि मिली? ये राशि केवल तीन को मिली है।"

इसके अलावा, लक्ष्मी ने "तथाकथित COVID-19 प्रोत्साहन" को विंडबनापूर्ण बताते हुए कहा कि आशा के लिए इतनी कम राशि की घोषणा करना केंद्र की यह "असंवेदनशीलता" है "जो उस अवधि में हमेशा हमसे तत्पर रहने की उम्मीद करती थी।" उन्होंने आगे कहा, “इसके अलावा, हम उस अवधि के बारे में बात कर रहे हैं जब हमारे प्रोत्साहन राशि में भारी कटौती की गई थी, क्योंकि लॉकडाउन के कारण आशा कार्यकर्ताओं के कई कार्य प्रभावित हुए थे। फिर ऐसे में 1,000 रुपये की मामूली रक़म कैसे पर्याप्त हो सकती है?”

सच्चाई यह है कि देश में अन्य स्कीम वर्कर्स के साथ आशा कार्यकर्ताओं की मेहनत को वर्षों से "अनदेखा" किया गया है और महामारी के दौरान तो और ज़्यादा नज़रअंदाज़ किया गया। सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के राष्ट्रीय सचिव एआर सिंधु ने न्यूज़क्लिक को ये बातें कहीं। विभिन्न राज्यों से आए प्रतिनिधियों ने इसी तरह की बातें कहीं।

सिंधु ने कहा कि,“लगभग पूरे देश में एक जैसी ही स्थिति रही है। इसलिए, एक राष्ट्रीय आंदोलन के समन्वय के लिए एक राष्ट्रीय महासंघ का गठन महत्वपूर्ण है।" सिंधु के अनुसार आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और स्कूल के मिड-डे मील योजना से जुड़े लोगों सहित सभी स्कीम वर्कर्स को एक साझा मंच पर लाने की भी योजना है।

उन्होंने कहा कि, “चूंकि उनकी लड़ाई कमोबेश एक जैसे हैं, इसलिए हमने आने वाले महीनों में सभी स्कीम वर्कर्स के लिए और अधिक संयुक्त कार्यक्रम करने का फ़ैसला किया है। हम 'मज़दूर संघर्ष रैली' के लिए भी एकजुट होंगे।" संयुक्त रूप से किसानों और कृषि श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने वाले अपने सहयोगी संगठनों के साथ सीटू द्वारा इस महीने की शुरुआत में लामबंद करने का आह्वान किया गया था। इस रैली में अगले साल बजट सत्र के दौरान संसद तक मार्च निकालने की बात शामिल है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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