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खनन सुधारों पर जन प्रतिक्रिया के लिए सरकार ने दिए सिर्फ़ 10 दिन, सामाजिक कार्यकर्ताओं का विरोध, समय बढ़ाने की मांग

नागरिक समाज और खनन क्षेत्र से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने खनन मंत्रालय द्वारा जारी खनन सुधारों के प्रस्ताव की निंदा की है। 24 अगस्त को जारी किए इस नोटिस के ज़रिए खनन क़ानूनों और नियमों में बड़े बदलाव किए जा रहे हैं। लेकिन नोटिस में इन बदलावों जनता के सुझावों और टिप्पणियों के लिए केवल 10 दिन का वक़्त दिया गया है।
खनन सुधार

बेंगलुरू: 24 अगस्त को केंद्रीय खनन मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर "खनन सुधारों से संबंधित एक प्रस्ताव" जारी किया। खनन क्षेत्र में श्रंखलाबद्ध नीतिगत बदलावों वाले इस नोटिस में लिखा गया, "प्रस्तावित ढांचागत सुधारों का उद्देश्य... विकास और रोज़गार श्रृजन में तेजी लाना है।" खनन क्षेत्र के इन सुधारों को केंद्र सरकार की "आत्मनिर्भर भारत योजना" के तहत होने वाले बदलावों की श्रंखला का हिस्सा बताया जा रहा है।

जनता, राज्य सरकारों और औद्योगिक क्षेत्र के दावेदारों से 3 सितंबर के पहले इन प्रस्तावित बदलावों पर टिप्पणियां और सुझाव देने को कहा गया है। जनप्रतिक्रिया के लिए लिए महज़ 10 दिन का वक़्त देने पर, खनन क्षेत्र से जुड़े लोगों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तीखी प्रतिक्रिया दी है।

कुछ नागरिक समाज संगठनों के गठबंधन- "मिनरल इंहेरिटर्स राइट्स एसोसिएशन (MIRA)" ने खनन मंत्रालय को एक खत लिखा है। खत में कहा गया कि 10 दिन का जो वक़्त दिया गया है, वह सरकारी नीति का उल्लंघन है। एसोसिएशन ने मंत्रालय से अपनी चिंताओं के समाधान और एक तेजतर्रार लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करने के लिए कहा है।

प्रस्तावित बदलाव

16 मई को केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने एक घोषणा में कहा कि आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत खनन क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए ढांचागत बदलाव किए जाएँगे। जबसे ढांचागत बदलाव की घोषणा हुई है, तबसे 24 अगस्त का नोटिस, जनता के सामने पहली बार पेश किया गया कोई दस्तावेज़ है।

प्रस्ताव में जिन बदलावों की मंशा बताई गई है, वह अहम हैं और देश के खनन क्षेत्र में बड़ा बदलाव लाएंगे। हाल तक खनन क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार था, अब यह क्षेत्र ज़्यादा उदारवादी व्यवस्था की तरफ मुड़ रहा है। इन बदलावों में बहुत सारे खनन पर संसद की स्थायी समिति के सुझावों से मेल खाते हैं।

इन प्रस्तावित ढांचागत बदलावों में बड़े स्तर पर प्रभाव डालने वाले प्रावधान निम्नलिखित हैं:

1) खोज लाइसेंस के साथ, खनन लीज की व्यवस्था (PL के साथ ML) करना, जिससे निजी क्षेत्र की कंपनियों को नए खनिज पदार्थों के भंडार की खोज और पहचान करने की अनुमति मिलेगी। अब तक यह अधिकार सिर्फ सरकारी एजेंसियों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास सीमित थे, ताकि आसानी से "खोज के बाद उत्पादन शुरू किया जा सके।"

2) ऐसे खनिज ब्लॉकों का मामला सुलझाना, जहां खनिजों की खोज़ पूरी हो चुकी है, साथ में लाइसेंस की अवधि भी खत्म हो चुकी है। लेकिन मुकदमेबाजी के चक्कर में इन ब्लॉकों की दोबारा नीलामी नहीं करवाई जा सकी।

3) "कैप्टिव (किसी कंपनी के निजी उपयोग के लिए आंवटित खदान)" और "नॉन कैप्टिव (व्यवसायिक उपयोग के लिए जिस खदान में खनन किया जाता है)" खदानों के बीच के अंतर को खत्म करना। भविष्य में ब्लॉकों में किसी खास औद्योगिक ईकाई के निजी उपयोग के लिए अलग से खदानों को चिन्हित नहीं किया जाएगा।

इन प्रावधानों से सभी तरह के खनिज खंडों को एक ही व्यवस्था के तहत लाने की कोशिश की जा रही है, जैसी व्यवस्था व्यवसायिक कोयला खनन के लिए फिलहाल लागू है। फिलहाल खदान की लीज़ खत्म होने के बाद, किसी कंपनी के लिए आरक्षित की गई खदान (कैप्टिव माइन) को अगर सरकार नीलामी करवाने की कोशिश करती है, तो संबंधित कंपनी के पास नीलामी में बोली लगाने से पहले, एक बार इंकार करने का अधिकार होता है। सरकार नई व्यवस्था में इन प्रावधानों को खत्म करने की कोशिश कर रही है।

नए बदलावों के तहत, मौजूदा कैप्टिव खदान (किसी कंपनी के निजी उपयोग के लिए आंवटित खदान) से 'व्यवसायिक उद्देश्य के लिए खनिज की बिक्री की सीमा' भी 25 फ़ीसदी से बढ़ाकर 50 फ़ीसदी करने का प्रावधान है।

4) एक राष्ट्रीय खनिज सूचकांक बनाए जाएगा। जो अलग-अलग खनिज उपक्रमों के लिए शुल्क और कर तय करने का समग्र और विस्तृत ढांचा बनाएगा। यह हाल में लॉन्च किए गए राष्ट्रीय कोयला सूचकांक पर आधारित होगा। प्रस्ताव में सूचकांक बनाने के लिए समिति के गठन की बात कही गई है।

5) प्रस्तावित संशोधन के ज़रिए अवैध खनन पर स्थिति साफ की जाएगी। इसके तहत वैधानिक खदान से नियमों के विपरीत खनन करने और वैधानिक तरीके से मिली खनन लीज के बाहर खनन करने में अंतर किया जाएगा।

6) राज्यों के बीच शुल्क की गणना को तार्किक बनाया जाएगा, यह खनन क्षेत्र के विस्तार और उसके तहत आने वाले इलाके पर आधारित होगा, ना कि खनिज की कीमत के हिसाब से शुल्क तय किया जाएगा।

7) संशोधन के ज़रिए यह निश्चित किया जाएगा कि "जिला खनिज निधि (DMFs)" का खनन प्रभावित इलाकों में भौतिक संपत्तियां बनाने के लिए उपयोग हो, "ताकि नेशनल मिनरल एक्सप्लोरेशन ट्रस्ट" की वास्तविक स्वायत्ता तय की जा सके। DMFs की स्थापना खनन से प्रभावित लोगों के फायदे और खनन क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर को दोबारा बनाने के लिए की गई थी। जिन संशोधनों को प्रस्तावित किया जा रहा है, उनमें इंफ्रास्ट्रक्चर पर ज़्यादा जोर है।

8) राज्यों को ऐसे अधिकार दिए जाएंगे, जिनके ज़रिए वे निजी खिलाड़ियों को नीलाम किए गिए ऐसे खनिज ब्लॉकों की दोबारा नीलामी कर पाएंगे, जो तीन साल में भी चालू नहीं हो पाए हैं।

9) माइन्स एंड मिनरल्स (डिवेल्पमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट में संशोधन कर "नेशनल मिनरल एक्सप्लोरेशन ट्रस्ट" को असल मायनों में स्वायत्त संस्था बनाया जाएगा। इस ट्रस्ट की स्थापना 2015 में खनिज खोज की गतिविधियों को निवेश प्रदान करने के लिए हुई थी।

जनता से सुझाव मांगने के लिए सिर्फ़ दस दिन दिए गए

"मिनरल इंहेरिटर्स राइट्स एसोसिएशन" ने खनन मंत्रालय में निदेशक डॉ वीना कुमारी दरमल को पत्र लिखकर, मंत्रालय के उस फ़ैसले पर  गहरी चिंता जताई है, जिसके तहत इन बदलावों पर जनता से सुझाव और टिप्पणियों के लिए केवल दस दिन का वक़्त दिया गया है।

ख़त में ध्यान दिलाया गया कि किसी स्थानीय  स्तर की सार्वजनिक सुझाव प्रक्रिया में भी 30 दिन का वक़्त दिया जाता है। जबकि इन विस्तृत सुधारों के लिए सिर्फ 10 दिन का वक़्त दिया गया, जबकि इनके देश पर गंभीर असर पड़ेंगे। खत में लिखा गया, "इतने कम दिनों में तो प्रस्ताव को अच्छे से समझने के लिए सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगने वाली प्रक्रिया भी पूरी नहीं हो पाएगी।" खत में ध्यान दिलाया गया है कि राज्य सरकारों से भी फिलहाल इस मुद्दे पर विमर्श किया जाना बाकी है, इससे "देश की संघीय प्रवृत्ति को कमजोर दिखाया जाता है।"

खत में आगे 2014 में UPA-2 सरकार द्वारा निर्धारित पूर्व-विधायी सुझाव नीति की ओर भी ध्यान दिलाया गया है, जिसके मुताबिक:

संबंधित विभाग/मंत्रालय को प्रस्तावित मसौदे को सार्वजनिक करना चाहिए या फिर ऐसी जानकारी देनी चाहिए जो संक्षेप में इस तरह के विधायी प्रावधानों को न्यायोचित ठहरा सके, प्रस्तावित विधेयक के जरूरी तत्वों को बता सके,  मोटे तौर पर इससे पड़ने वाले आर्थिक प्रभावों को बताए और पर्यावरण, मौलिक अधिकारों समेते इसके तहत आने वाले लोगों के जीवन और आजीवका पर इस विधेयक के प्रभाव को बताए। इस तरह की जानकारी को 30 दिन तक सार्वजनिक तौर पर रखा जा सकता है, ताकि यह लोगों के बीच में सक्रियता से फैल सके।

सूचना के अधिकार, 2005 की धारा 4 (1) (c) की तरफ ध्यान दिलाते हुए MIRA ने एक प्रेस रिलीज़ में कहा कि टिप्पणियां और सुझाव मांगने के पहले सभी तरह के आंकड़ों, गणनाओं और नतीज़ों को सार्वजनिक किया जाना था। साथ में नोटिस को क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध करवाया जाना था, खासकर उन राज्यों की भाषाओं में जहां बहुतायत में खनिज उपलब्ध हैं। सूचना के अधिकार, 2005 की धारा (1) (c) के मुताबिक, "सभी सार्वजनिक प्रशासनिक संस्थाओं को जनता को प्रभावित करने वाली नीतियां बनाते वक़्त या अपने फ़ैसलों की घोषणा करने के पहले सभी तरह के तथ्य प्रकाशित करना चाहिए।"

MIRA अपने ख़त में अपनी मांग बेहद सीधे तरीके से बताई हैं। MIRA ने सुझाव दिया है कि निम्नलिखित आंकड़ों को फ़ैसले लेते वक़्त जनता के सामने रखा जाए:

1) बड़े खनिजों की खनन में रोज़गार की स्थिति बताई जाए।

2) खनिज खोज की स्थिति साफ़ की जाए: खोज के अलग-अलग स्तरों का विस्तृत ब्योरा दिया जाए, इसमें ब्लॉक्स का G1, G2 आदि में वर्गीकरण भी बताया जाए।

3) खनिजों की सूची उपलब्ध हो: खनिजों के भंडार से संबंधित जानकारी को विस्तार से प्रकाशित किया जाए, जिसमें सभी अयस्कों के मिलने की जगह और दूसरी जानकारियां भी शामिल हों। जिन खदानों की लीज में यह जानकारियां हों, उन्हें भी प्रदान किया जाए।

4) फिलहाल आवंटित लीज़ों में, बड़े स्तर की खनिज लीज़ों, खोजबीन की यथास्थिति, अनुमति प्राप्त उत्पादन स्तर, वास्तविक उत्पादन और वास्तविक रोज़गार की जानकारी साझा की जाए।

5) धारा 10A(2)(b) और 10A(2)(c) के तहत रोकी गई सभी "संभावी लीज़ों (पोटेंशियल लीज़)" सूची दी जाए, फिर इनकी खोज़बीन स्थिति, भंडारण, लीज़ और मुकदमों से जुड़ी जानकारी भी दी जाए।

6) "बिक्री की सीमा (25 से 50 फ़ीसदी की गई)" बढ़ाने से जिन कैप्टिव खदानों (किसी कंपनी के निजी उपयोग वाली खदान) पर असर पड़ेगा, पूरी जानकारी के साथ उनकी सूची दी जाए। चूंकि इन बदलावों से नॉन-कैप्टिव खदानों पर भी असर पड़ेगा, इसलिए उनकी सूची भी दिया जाना अहम हो जाता है।

7) पिछले दशक के सभी अवैध खनन मामलों की सूची सार्वजनिक की जाए। इनके दो वर्ग बनेंगे- (1) लीज़ प्रदत्त इलाकों के बाहर खनन (2) लीज़ प्रदत्त इलाके में नियम विपरीत खनन।

8) अलग-अलग राज्यों के स्टॉम्प ड्यूटी कानून, स्टॉम्प ड्यूटी से मिलने वाला पैसा और मौजूदा बदलावों से राज्यों के राजस्व में आने वाले बदलावों की जानकारी सार्वजनिक की जाए।

9) DMF से संबंधित संसदीय समति के सुझावों को सार्वजनिक किया जाए। साथ में यह विश्लेषण भी उपलब्ध कराया जाए कि DMF का "भौतिक संपत्ति बनाम् अन्य कार्यों" में किस तरह से उपयोग किया गया। इस चीज पर भी कुछ प्रकाश डाला जाए कि "प्रधानमंत्री खनिज क्षेत्र कल्याण योजना" की धारा 20A के तहत नोटिफिकेशन जारी करने के बजाए सीधे संशोधन की जरूरत क्यों पड़ी?

10) ऐसे खनिज खंडों की सूची दी जाए, जिनका उपयोग नहीं किया गया है। साथ में आवंटन जिस व्यक्ति के नाम पर हुआ है, उसका ब्योरा और खदान कितने वक़्त से उपयोग नहीं की गई, इस चीज की भी जानकारी दी जाए। यह ताजा संशोधनों पर सुझाव देने के लिए जरूरी होगी।

11) MMDR एक्ट की धारा 4(1) के तहत आने वाले संस्थाओं की सूची उपलब्ध करवाई जाए। यह साफ़ नहीं हो पा रहा है कि क्या खनिज लीज़ प्राप्त किसी संस्था को NMET निधि उपयोग करने की अनुमति होगी या नहीं। या सिर्फ यह अनुमति दूसरे प्रावधान में नामित संस्थाओं को ही होगी।

"अलोकतांत्रिक और बेहद व्यथित करने वाले; संघीय ढांचे का मजा बनाने वाली प्रक्रिया"

MIRA की प्रेस रिलीज़ में मौजूदा घटनाक्रम पर अहम सामाजिक कार्यकर्ताओं की टिप्पणियां हैं।

मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक सदस्य और जाने माने RTI कार्यकर्ता निखिल डे ने कहा, "खनिजों का नियमन करने वाले अहम नियमों में भारत सरकार द्वारा बदलाव के लिए महामारी के बीच जो कदम उठाए गए हैं, वह बेहद अलोकतांत्रिक और व्यथित करने वाले हैं। यह ना सिर्फ सूचना के अधिकार की धारा 4(1)(C) का उल्लंघन करते हैं, जिसके हिसाब से सरकार को अहम नीतियां बनाने के पहले जानकारी सार्वजनिक करनी होती है, बल्कि यह कानून मंत्रालय द्वारा जारी किए गए विेधेयक पूर्व सुझाव के आदेश को भी धता बताते हैं, जो किसी कानून में संशोधन या उसे पास करने के पहले सार्वजनिक सुझावों के लिए कुछ शर्तें रखता है। "

एक भूविज्ञानी और एनवॉरोनिक्स ट्रस्ट के प्रबंधक ट्रस्टी रामामूर्थी श्रीधर कहते हैं, " जब सरकार खनन क्षेत्र में विस्तृत स्तर पर प्रभावित करने वाले बदलावों के लिए प्रतिक्रियाएं देने की अवधि 10 दिन तय कर देती है, तब सरकार सहयोगात्मक संघवाद और पारदर्शिता का मजाक बना रही होती है! इससे ज़्यादा हैरान करने वाला सरकार का प्रभावित लोगों के प्रति उन्हें एकदम खारिज करने वाला व्यवहार है।"

इस स्टोरी पर प्रतिक्रिया देने के लिए एक प्रश्नावली खनन मंत्रालय को भेज दी गई है। स्टोरी के प्रकाशित होने तक उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। प्रतिक्रिया आने पर इस लेख में बदलाव कर उन्हें शामिल कर लिया जाएगा।

लेखक बेंगलुरू में रहने वाले एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

 

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