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बाबरी के बाद अब ज्ञानवापी, गढ़े मुर्दे उखाड़ने और सांप्रदायिकता का न थमने वाला सिलसिला

"देश में एक तरफ भारत जोड़ा यात्रा चल रही है तो दूसरी तरफ कब्र से मुर्दों को निकालने का खेल चल रहा है। कोशिश की जा रही है कि मुल्क में समरसता और सद्भावना को आसानी से खरोचा जा सके, ताकि साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में वोट की फसल लहलहाने लगे। देखने की बात यह कि मुल्क किस तरफ जा रहा है?"
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उत्तर प्रदेश के वाराणसी में भारी गहमागमी और तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच जिला जज अजय कृष्ण विश्वेश की कोर्ट ने श्रृंगार गौरी में पूजा के अधिकार के मामले में अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी की आपत्ति खारिज कर दी। कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा कि यह मामला कोर्ट में अदालत में चलाने योग्य है। इस मामले की अगली सुनवाई 22 सितंबर को होगी। फैसला आने के बाद कोर्ट परिसर के बाहर नारे लगाए गए। देश भर से जुटे खबरिया चैनलों ने तो सुबह से ही संकेत देना शुरू कर दिया था कि फैसला हिन्दुओं के पक्ष में ही आएगा।

जिला एवं सत्र न्यायालय में सोमवार को अपराह्न दो बजे के बाद राखी सिंह आदि बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मुकदमा संख्या 694/2021(18/2022) को अदालत में चलने योग्य मना। इस मामले में प्रतिवादी अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी के प्रार्थना-पत्र संख्या 7/11 को खारिज कर दिया। फैसले के समय कोर्ट में पांच वादी महिलाओं में से तीन लक्ष्मी सिंह, रेखा आर्य और मंजू व्यास मौजूद थीं। राखी सिंह और सीता साहू कोर्ट में उपस्थित नहीं थीं। अदालत कक्ष में पक्षकारों और उनके अधिवक्ताओं समेत कुल 40 लोगों को एंट्री दी गई थी। बाकी लोगों को अदालत कक्ष से दूर रोक दिया गया था। श्रृंगार गौरी में पूजा के अधिकार के मामले की पोषणीयता (सुनने योग्य है अथवा नहीं) के मामले में जिला जज अजय कृष्ण विश्वेश ने अपना रुख साफ किया और कहा, "यह का मामला प्लेसेज ऑफ वर्शिप (स्पेशल प्रॉविजंस) एक्ट, 1991 से इतर है। इस मामले की सुनवाई हो सकती है।" काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर आधा दर्जन से ज्यादा मुकदमे अलग-अलग कोर्ट में लंबित हैं। डिस्ट्रिक कोर्ट के ताजा फैसले से बनारस में भले ही कोई खास हलचल नहीं है, लेकिन खबरिया चैनलों पर चल रही खबरों के चलते देश के अलग-अलग हिस्सों में भारी चिंता और बेचैनी है। 

एडीजी ने जारी किया अलर्ट

ज्ञानवापी मस्जिद से सटी श्रृंगार गौरी में पूजा-अर्चना को लेकर दाखिल याचिका में ताजातरीन फैसला आने के तत्काल बाद उत्तर प्रदेश के एडीजी (ला एंड आर्डर) प्रशांत कुमार ने एक अलर्ट जारी किया है। आदेश में कहा गया है कोर्ट के आदेश का पालन कराया जाएगा। उपद्रवी और अराजकतत्वों से निपटने के लिए पुख्ता इंतजाम किया गया है। सेक्टर स्कीम के तहत पुलिस और प्रशासनिक अफसर कड़ी चौकसी बरत रहे हैं। व्यावसायिक प्रतिष्ठान खुले हुए हैं। गलियों में एकत्र लोगों को घरों में ही रहने के लिए हिदायत दी जा रही है। शहर के संवेदनशील इलाका पीलीकोठी, जैतपुरा, कतुआपुरा, सरैया, मदनपुरा, बजरजडीहा आदि इलाकों में पुलिस गश्त बढ़ा दी गई है। खुफिया एजेंसियों के लोग भी तैनात किए गए हैं। सोशल मीडिया की मानिटरिंग की जा रही है। कोर्ट परिसर में खास चौकसी बरतते हुए बम निरोधक और डाग स्वायड की तैनाती की गई है। शहर के चप्पे-चप्पे पर कड़ी नजर रखी जा रही है। संवेदनशील इलाकों में एरिया डॉमिनेशन के तहत फ्लैग मार्च और फुट पेट्रोलिंग जारी है।

एसीपी प्रबल प्रताप सिंह के नेतृत्व में बम डिस्पोजल स्क्वायड, डाग स्क्वायड के साथ पुलिस अधिकारियों ने कचहरी परिसर के चप्पे-चप्पे की जांच की। कैमरे के साथ कचहरी परिसर में प्रवेश प्रतिबंधित था, जिसके चलते कचहरी चौराहे के पास देश भर से आए मीडियाकर्मी अपने कैमरों के साथ जमे रहे। बनारस शहर में निषेधाज्ञा लागू करने के बाद पुलिस आयुक्त ए. सतीश गणेश ने स्थिति की समीक्षा की और जिले के सभी थानेदारों, एसीपी, एडीसीपी व डीसीपी को अतिरिक्त सतर्कता बरतने का निर्देश दिया। पुलिस कमिश्नर के निर्देश पर पुलिस के जवान शहर के संवेदनशील इलाकों में चक्रमण कर रहे हैं।

उधर, श्रीकाशी विश्वनाथ धाम और ज्ञानवापी परिसर की सुरक्षा भी चौकस कर दी गई है। घाट और गलियों में पुलिस गश्त बढ़ा दी गई है। यूं तो बनारस के लोगों ने ज्ञानवापी विवाद को कुछ ही दिनों में भुला दिया था। रविवार को जब पुलिस की चौकसी बढ़ी तो लोग अचकचा गए। 11 सितंबर की शाम समूचे शहर में पुलिस फुट पेट्रोलिंग कराई गई और लोगों को ताकीद किया गया कि वे किसी बहकावे में कतई न आएं।

डिस्ट्रिक कोर्ट का फैसला आने से पहले ही शहर के कई मंदिरों में पूजन-हवन शुरू कर दिया गया। रविवार को एक कार्ड जारी कर लोगों से रात आठ से सवा आठ बजे तक घरों की छतों पर चढ़कर शंख ध्वनि, घंटा थाली बजाने की अपील की गई। कार्ड में संस्था का नाम श्री आदि महादेव काशी धर्मालय मुक्ति न्यास लिखा है। उसमें कहा गया था कि लोग अपने-अपने घरों में दीप जलाएं और महादेव की मुक्ति के लिए प्रार्थना करें।

 डिस्ट्रिक कोर्ट में यूं चली सुनवाई

ज्ञानवापी परिसर स्थित श्रृंगार गौरी और अन्य देव विग्रहों की सुरक्षा व नियमित पूजा के बाबत 18 अगस्त 2021 को पांच महिलाओं-राखी सिंह, सीता साहू, मंजू व्यास, लक्ष्मी देवी और रेखा पाठक ने सिविल जज (सीनियर डिविजन) रवि कुमार दिवाकर की अदालत में वाद दायर किया था। इस मामले में सिविल जज ने कोर्ट कमिश्नर नियुक्त करते हुए ज्ञानवापी का सर्वे कराने का आदेश दिया था। बाद में एडवोकेट कमिश्नर की निगरानी में हुए सर्वे के दौरान हिन्दू पक्ष ने दावा किया कि ज्ञानवापी मस्जिद के वजूखाने में आदि विश्वेश्वर का का शिवलिंग मिला है। वह एक अहम साक्ष्य है। वजूखाने को सील किए जाने के आदेश के बाद मुस्लिम पक्ष ने सर्वे के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के लिए वाराणसी के जिला जज को यह कहते हुए नामित किया कि वह देखे कि श्रृंगार गौरी का मुकदमा सुनवाई योग्य है अथवा नहीं?

जिला जज अजय कृष्ण विश्वेश की कोर्ट ने श्रृंगार गौरी में पूजा के अधिकार के मामले में हिन्दू पक्ष की महिलाओं के अधिवक्ता ने इतिहास और पुराणों का जिक्र करते हुए श्रृंगार गौरी के दर्शन-पूजन का अधिकार मांगा। साथ ही 26 फरवरी 1944 के गजट को फर्जी करार दिया। वादी राखी सिंह आदि के अधिवक्ता मानबहादुर सिंह की दलील थी कि मंदिर के स्ट्रक्चर पर मस्जिद का ढांचा खड़ा कर दिया गया। यह विशेष उपासना स्थल एक्ट से बाधित नहीं है। औरंगजेब आताताई था और मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाया, लेकिन मस्जिद के पीछे मंदिर का दीवार छोड़ दी।

दूसरी ओर, अंजुमन इंतजामिया मस्जिद के अधिवक्ता शमीम अहमद ने काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट एक्ट और विशेष उपासना स्थल कानून का हवाला देते हुए इस मामले को कोर्ट में चलाने को चुनौती दी। इसमें उन्होंने 1944 के गजट और 1936 के दीन मोहम्मद केस के निर्णय का हवाला दिया। दावा किया कि यह मस्जिद औरंगजेब के जमाने के पहले से है। इसमें मुस्लिम पक्ष ने मामले को सुनवाई योग्य नहीं मानने के लिए दलील दी है।

सुनवाई की चर्चा में औरंगज़ेब भी

जिला जज डॉ. अजय कृष्ण विश्वेश की अदालत में हुई सुनवाई की चर्चा में मुगल बादशाह औरंगजेब केंद्र में रहे। मस्जिद पक्ष ने कहा कि वर्षों पहले औरंगजेब हिंदुस्तान के बादशाह थे। इस संपत्ति पर उनका कब्जा था। वो बादशाह थे, इसलिए सारी संपत्ति बादशाह की होती है। बतौर बादशाह औरंगजेब ने ज्ञानवापी संपत्ति वक्फ में तामील कर दी थी। अधिवक्ता ने यह भी दावा किया कि औरंगजेब क्रूर शासक नहीं थे। वह ईमानदार और वतनपरस्त शासक थे। इस शासक के बारे में भ्रामक और अविश्वसनीय बातें फैलाई गई थीं। मस्जिद पक्ष ने अपने प्रतिउत्तर में 1012 का एक रेवन्यू रिकॉर्ड को पढ़ा। वक्फ एक्ट 1995 का भी हवाला देते हुए कहा कि यह मुकदमा सिविल कोर्ट में नहीं, बल्कि शरीया कानून के तहत वक्फ ट्रिब्यूनल में इसकी सुनवाई होनी चाहिए।

वादी महिलाओं के अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने कहा कि अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने अपनी बात फिर दोहराई है। साथ ही दावा किया कि ज्ञानवापी पहले मंदिर था, जिसे औरंगजेब ने अधिग्रहीत किया था। औरंगजेब भारत का शासक था। हम ज्ञानवापी मामले में वक्फ संपत्ति की धोखाधड़ी का पर्दाफाश करेंगे। सुप्रीम कोर्ट का साफ-साफ आदेश है कि जब विवाद मुस्लिम और हिंदू पक्ष के बीच हो तो उस पर शरीयत कानून लागू नहीं होता। उसका निस्तारण सिविल कोर्ट के तहत होता है। अदालत ने 24 अगस्त 2022 को फैसला सुरक्षित रख लिया था। साथ ही 12 अगस्त को फैसला सुनाने की तिथि भी मुकर्रर कर दी थी।

इससे पहले क्या हुआ?

बनारस के सीनियर सिविल जज रवि कुमार दिवाकर के सर्वे आदेश के खिलाफ अंजुमन इंतेज़ामिया मसाजिद प्रबंधन समिति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। सिविल जज (सीनियर डिवीजन) ने 18 अप्रैल 2021 और इससे पहले 05 और 08 अप्रैल 2022 को सर्वे का आदेश पारित किया था। मस्जिद कमेटी का कहना था कि सिविल जज के तीनों ही आदेश उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर के हैं। सुप्रीम कोर्ट में यह भी कहा गया था कि बनारस के सीनियर सिविल जज का 18 अगस्त 2021 का यह आदेश भी पक्षीय था जिसमें संपत्ति का स्थानीय निरीक्षण करने के लिए एक एडवोकेट कमिश्नर की नियुक्ति के लिए आवेदन की अनुमति दी गई थी। पांच अप्रैल 2022 के आदेश में एडवोकेट कमिश्नर की नियुक्ति के लिए मस्जिद प्रबंधन की आपत्तियों को गलत ढंग से खारिज किया गया और आठ अप्रैल 2022 के आदेश में एडवोकेट अजय कुमार मिश्रा को एडवोकेट कमिश्नर के रूप में नियुक्त करने का निर्देश दिया गया। तीनों आदेशों पर मौजूदा याचिकाकर्ता ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी, जहां अनाक्षेपित आदेश पारित किया गया।

पूजा कानून में स्पष्ट किया गया है कि किसी भी धर्म के पूजा स्थल का जो अस्तित्व 15 अगस्त 1947 के पहले था, वही बाद में भी रहेगा। यानी ऐसा नहीं है कि किसी धर्म के साथ किसी तरह का भेदभाव किया जा रहा है। अगर मस्जिद है तो मस्जिद रहेगी उसे मंदिर में नहीं बदला जाएगा। अगर मंदिर है तो मंदिर रहेगा उसे मस्जिद में नहीं बदला जाएगा। सबके साथ एक ही नियम लागू होगा।

काशी विश्वनाथ मंदिर वाराणसी की विश्वनाथ गली में गंगा नदी के किनारे स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद आपस में सटी हुई है, लेकिन यहां आने-जाने के रास्ते अलग हैं। मंदिर का प्रमुख शिवलिंग 60 सेंटीमीटर लंबा और 90 सेंटीमीटर की परिधि में है। मुख्य मंदिर के आसपास काल-भैरव, कार्तिकेय, विष्णु, गणेश, पार्वती और शनि के छोटे-छोटे मंदिर हैं। मंदिर में तीन सोने के गुंबद हैं, जिन्हें 1839 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने लगवाया था।

इतिहासकारों के मुताबिक मूल विश्वनाथ मंदिर को 1194 में मोहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने तुड़वा दिया था। माना जाता है कि 1230 में गुजरात के एक व्यापारी ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। मंदिर को 1447-1458 के बीच हुसैन शाह शरीकी या 1489-1517 के बीच सिकंदर लोदी ने फिर से ढहा दिया था। कुछ मान्यताओं के अनुसार, 1585 में अकबर के मंत्री टोडरमल ने विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। विश्वनाथ मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण 1780 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। साल 1983 से इस मंदिर का प्रबंधन उत्तर प्रदेश सरकार कर रही है।

सदियों पुराना है मंदिर-मस्जिद विवाद

काशी विश्वनाथ मंदिर के साथ लगी ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर सदियों पुराना विवाद है तो इसकी परतें भी कई हैं। साल 1991 में इलाके के पुजारियों ने वाराणसी कोर्ट में एक याचिका दायर की थी जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद एरिया में पूजा करने की इजाजत मांगी थी। याचिका में कहा गया कि 16वीं सदी में औरंगजेब के आदेश पर काशी विश्वनाथ मंदिर के एक हिस्से को तोड़कर वहां मस्जिद बनवाई गई थी। साल 1991 के बाद से यह मुद्दा समय-समय पर उठता रहा, लेकिन कभी भी इसने इतना बड़ा रूप नहीं लिया, जितना इस समय है।

हिन्दू पक्ष के वकील विष्णु जैन का कहना है कि नंदी भगवान की प्रतिमा आज भी काशी विश्वनाथ मंदिर के पास है, नंदी का मुंह मस्जिद की ओर है। नंदी का मुंह हमेशा शिवमंदिर की ओर होता है, इससे साफ है कि मंदिर मस्जिद के भीतर ही है। मस्जिद के भीतर ज्ञानकूप और मंडप है। मस्जिद के ऊपर जो गुंबद हैं वो पश्चिमी दीवार पर खड़े हैं और पश्चिमी दीवार हिंदू मंदिर का हिस्सा है। मस्जिद की पश्चिमी दीवार पर ब्रह्म कमल है, पश्चिमी दीवार पर बना गुंबद हिंदू कलाकृति की दीवार है और इसके ऊपर मस्जिद बना है जो साफ दिखता है।

हालांकि मंदिर-मस्जिद को लेकर कई बार विवाद हुए हैं, लेकिन ये विवाद आजादी से पहले के हैं। 1809 में जब हिंदुओं ने विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के बीच एक छोटा स्थल बनाने की कोशिश की थी, तब भीषण दंगे हुए थे। स्थानीय लोगों के मुताबिक, मंदिर-मस्जिद को लेकर कई बार विवाद हुए हैं लेकिन ये विवाद आज़ादी से पहले के हैं, उसके बाद के नहीं। ज़्यादातर विवाद मस्जिद परिसर के बाहर मंदिर के इलाक़े में नमाज़ पढ़ने को लेकर हुए थे।

सबसे अहम विवाद साल 1809 में हुआ था जिसकी वजह से सांप्रदायिक दंगे भी हुए थे। ज्ञानवापी का विवाद साल 1991 के क़ानून के बाद मस्जिद के चारों ओर लोहे की चहारदीवारी बना दी गई। उसके पहले यहां किसी तरह के क़ानूनी या फिर सांप्रदायिक विवाद की कोई घटना सामने नहीं आई थी। फिलहाल काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर आधा दर्जन से ज्यादा मुकदमे अलग-अलग अदालतों में लंबित हैं।

क्या कहते हैं दस्तावेज़

ज्ञानवापी मस्जिद की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद के संयुक्त सचिव सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं "मस्जिद में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे पता चल सके कि उसका निर्माण कब हुआ? राजस्व दस्तावेज़ ही सबसे पुराना दस्तावेज़ है। इसी के आधार पर साल 1936 में दायर एक मुक़दमे पर साल 1937 में उसका फ़ैसला भी आया था और इसे मस्जिद के तौर पर अदालत ने स्वीकार किया था। अदालत ने माना था कि यह नीचे से ऊपर तक मस्जिद है और वक़्फ़ प्रॉपर्टी है। बाद में हाईकोर्ट ने भी इस फ़ैसले को सही ठहराया। इस मस्जिद में 15 अगस्त 1947 से पहले से ही नहीं बल्कि 1669 में जब यह बनी है, तभी से यहां नमाज़ पढ़ी जा रही है। कोरोना काल में भी यह सिलसिला नहीं टूटा है।"

सैयद मोहम्मद यासीन यह भी बताते हैं,  "भरोसेमंद ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में ज्ञानवापी मस्जिद का पहला ज़िक्र 1883-84 में मिलता है जब इसे राजस्व दस्तावेज़ों में जामा मस्जिद ज्ञानवापी के तौर पर दर्ज किया गया। मस्जिद के ठीक पश्चिम में दो कब्रें हैं जिन पर सालाना उर्स होता था। साल 1937 में कोर्ट के फ़ैसले में भी उर्स करने की इजाज़त दी गई। ज्ञानवापी में कब्रें अब भी महफ़ूज़ हैं, लेकिन अब वहां उर्स नहीं होता है। दोनों क़ब्रें कब की हैं, इसके बारे में उन्हें पता नहीं है।" "आमतौर पर यही माना जाता है कि मस्जिद और मंदिर दोनों ही अकबर ने साल 1585 के आस-पास नए मज़हब 'दीन-ए-इलाही' के तहत बनवाए थे, लेकिन इसके दस्तावेज़ी साक्ष्य बहुत बाद के हैं।"

मोहम्मद यासीन यह भी कहते हैं, "साल 1937 में फ़ैसले के तहत मस्जिद का एरिया एक बीघा, नौ बिस्वा और छह धूर तय किया गया था लेकिन 1991 में सिर्फ़ मस्जिद के निर्माण क्षेत्र को ही घेरा गया और अब मस्जिद के हिस्से में उतना ही क्षेत्र है। यह कितना है, इसकी कभी नाप-जोख नहीं की गई है। विवाद हमारे जानने में कभी हुआ ही नहीं। यहां तक कि ऐसे भी मौक़े आए कि ज़ुमे की नमाज़ और शिवरात्रि एक ही दिन पड़ी, लेकिन तब भी सब कुछ शांतिपूर्वक रहा।"

छाई रहेगी विवाद की परछाई

बनारस के जाने-माने अधिवक्ता संजीव वर्मा कहते हैं, "समाज में यह भावुक व गलत बात पसरी हुई है कि हिंदुओं के साथ नाइंसाफी हुई है और हिन्दू इसका बदला लेंगे। मस्जिद टूटेगी और फिर से मंदिर बनेंगे। सच यह है कि पूजा स्थल अधिनियम का एक मकसद है। यह समय ऐतिहासिक भूलों को सुधारने का वक्त नहीं है। इतिहास और बीते हुए कल की गलतियों को आधार बनाकर वर्तमान और भविष्य की चिंताओं से मुंह कतई नहीं मोड़ा जा सकता है। संविधान का मूल दर्शन भी यही है। यही बात धर्मनिरपेक्षता में भी अंतर्निहित है। यह मुद्दा किसी एक समुदाय के लिए नहीं, बल्कि सभी समुदायों के लिए बहुत दर्दनाक रहा है। बीते हुए कल के नशे में डूब कर बहुत कुछ बर्बाद होता जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद की जा सकती है कि वह बहुत जल्द अपने फैसलों से नहीं पलटेगा।"

डिस्ट्रिक कोर्ट के ताजातरीन फैसले पर त्वरित टिप्पणी करते हुए वाराणसी के जाने-माने पत्रकार और चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "देश में एक तरफ भारत जोड़ो यात्रा चल रही है तो दूसरी तरफ कब्र से मुर्दों को निकालने का खेल चल रहा है। कोशिश की जा रही है कि मुल्क में समरसता और सद्भावना को आसानी से खरोचा जा सके, ताकि साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में वोट की फसल लहलहने लगे। देखने की बात यह कि मुल्क किस तरफ जा रहा है? अब तक इतिहास गवाह रहा है कि नफरत और हिंसा की नहीं, हमेशा प्यार और एकता की भावना की विजय हुई है। आम लोगों के लिए अब यह मुद्दा चिंता का विषय बनता जा रहा है।"

"भारत के बहुसंख्यक समाज की तासीर कभी जुनूनी नहीं रही है। वक्ती तौर पर उस पर बुखार जरूर चढ़ता और उतरता रहा है, लेकिन आखिर में यह समाज अमनो-अमान के रास्ते पर ही आगे बढ़ा है। और अब मुल्क उस मोड़ पर खड़ा हो गया है जहां से आवाम ने आगे बढ़ने का मन बना लिया है। इस बात का एहसास कमोबेश मौजूदा सत्ता और उसके परमाबरदारों को भी है। यह वजह है कि रह-रहकर ऐसे गिरोहों का शीर्ष नेतृत्व न चाहते हुए भी सद्भावना की बात कह रहा है, लेकिन उसकी नीयत साफ नहीं है। वो ऐसा रणनीति के तौर पर कर रहा है। वो अपने मंसूबे में अब कामयाब होने वाला नहीं है। जनता की अव्वल चिंता यह है कि महंगाई कैसे कम और बेरोजगारी कैसे दूर हो? रोटी का इंतजाम कैसे हो? इस तरह का माहौल बनने में पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में हाल की घटनाओं ने बड़ी भूमिका अदा की है। वहां भी धार्मिक नारों ने आम आदमी की जिंदगी को मुश्किल में डाल दिया था। कुछ वैसा ही सीन अपने मुल्क में दिख रहा है। इन हालातों का जायजा लेने के बाद यह साफ हो जाता है कि लोग अब धार्मिक कट्टरता और उन्माद के झांसे में फंसने वाले कतई नहीं हैं।"

प्रदीप यह भी कहते हैं, "तस्वीर का असल पहलू यह है कि उन्माद की कोई सीमा नहीं होती। उसे बांधा नहीं जा सकता। जिन लोगों को यह मुगालता है कि उन्माद उंगलियों के इशारों पर उनके पीछे-पीछे चलेगा वो भारी भ्रम के शिकार हैं। बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की घटना इस बात का जीवंत प्रमाण है कि उस समय के नेतृत्व के न चाहने के बावजूद वहां पहुंची उन्मादी भीड़ ने मस्जिद को जमींदोज कर दिया। आज भी हालात बदले नहीं हैं। नेतृत्व एक कदम बढ़ाने को कह रहा है तो उन्मादी ताकतें कई कदम आगे बढ़ जा रही हैं। नजीर के तौर पर पैगंबर के खिलाफ टिप्पणी को लिया जा सकता है, जिसके चलते समूचे देश को दुनिया में छीछालेदर का सामना करना पड़ा। इस बीच कई ऐसे मामले सामने आए हैं अलग-अलग उन्मादियों ने अपने बयान अथवा हरकतों से असहज स्थिति पैदा की है। ऐसे में धर्म के नाम पर सियासत करने वाले लोगों में भी यह खौफ पैदा हो गया है कि कमान उनके हाथ से छूटकर अतिउन्मादियों के हाथ में न चली जाए। जहां से उन पर नियंत्रण, बल्कि सियासी मकसद साधना भी मुश्किल हो जाए।"

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