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आख़िर किस मोड़ पर थमेगा नफ़रत का ये सिलसिला..?

“नफ़रत से सिर्फ़ एक पक्ष या समुदाय को नुक़सान नहीं बल्कि इससे पूरे मानव समाज को ख़तरा है। नफ़रत का यह ख़तरनाक स्वरुप अब घरों में पैर पसार रहा है जिससे सावधान होने की ज़रूरत है।”
hate speech
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

मेनस्ट्रीम मीडिया इस वक़्त अतीक़-अशरफ़ कवरेज के इर्द-गिर्द घूम रहा है जो कई दिनों तक चलने वाला है। इससे अलग आज ज़रुरत है मौजूदा दौर में फैली नफ़रत पर बहस करने की, जिसका सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। इस नफ़रत से सिर्फ़ एक पक्ष या समुदाय को नुक़सान नहीं बल्कि इससे पूरे मानव समाज को ख़तरा है। नफ़रत का यह ख़तरनाक स्वरुप अब घरों में पैर पसार रहा है जिससे सावधान होने की ज़रूरत है।

जून 2020 में इंदौर के अख़बार में एक बड़ी डरावनी ख़बर छपी थी। ख़बर यह थी कि एक स्कूल में परीक्षाओं के लिए मुस्लिम समुदाय से जुड़े छात्रों को बाक़ी सभी दूसरे छात्र-छात्राओं से अलग बैठाया गया। ऐसा चोरी-छिपे नहीं किया गया था, बल्कि स्कूल प्रबंधन ने इस सिलसिले में स्कूल के गेट के बाहर बाकायदा एक नोटिस चिपकाया था और कोई चूक न हो जाए इसके लिए गेट पर ही एक स्पेशल गार्ड बिठा दिया था। अख़बार में इसकी ख़बर छपने और इसे पढ़ने के बाद कई लोग इस पर हैरान हुए मगर जिन्हें इसमें अपना एजेंडा आगे बढ़ता दिखा वे मौन रहे। इस तरह का व्यवहार करने वाले स्कूल प्रबंधन के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई की बात तो दूर की बात थी। लेकिन ज़्यादा निराशाजनक थी इस बर्ताव के प्रति आम इंदौरियों की बेरुखी, जिसने एक प्रकार से इसका अनुमोदन ही किया था।

कुछ चुनिंदा लोग ही थे जिन्होंने तब इस ख़बर का संज्ञान लिया था और लिखा था कि; "यह तीन संभावित कारणों से डरावनी ख़बर है :

* पहला, यह कि जो आज मुसलमानों को बाहर बैठाए जाने पर ख़ुश हैं वे लिख कर रख लें कि यह विखंडन और अलगाव सिर्फ़ यहीं तक नहीं रुकेगा।

* दूसरा, यह कि शायद अगली ख़बर लड़कियों को बाहर बिठाए जाने की आएगी। उसके बाद दलितों, आदिवासियों और शूद्रों का नंबर (गांवों में आ भी चुका है) आयेगा। इसमें सरनेम का ड्रामा नहीं देखा जाएगा - मनु की बनाई कैटगरी ही अंतिम सत्य होगी।

* तीसरा, संभावित नंबर हिंदुस्तान, जिसे संविधान में भारत दैट इज़ इंडिया कहा गया है, का आएगा। विश्वास नहीं होता? हरियाणा और दिल्ली के बीच खींची दीवारें देख लें, 'दिल्ली के अस्पतालों में सिर्फ़ दिल्ली वाला', इस मानसिकता वाले केजरीवाल देख लें। अभी ये शुरुआत भर है पूरी कथा तो अभी बांची जानी है। ये जो नफ़रत आज मुसलमानों के लिए है वह सारे मुकाबले और सेमी फाइनल जीतने के बाद फाइनल खेलने खुद अपने घर लौटेगी। डरावनी बात यह है कि ये आशंकाएं सच निकलीं। नफ़रत का ये खेल अब घर में घुसने लगा है।"

इसी इंदौर से 170 किलोमीटर दूर खंडवा के पिपलोद इलाके के गांव बामंदा में एक भाई बहुत दिनों के बाद अपनी बहन से मिलने के लिए उसके घर गया। भाई-बहन घर में बैठकर बात कर ही रहे थे कि स्वयंभू संस्कृति रक्षकों का एक झुंड उनके घर के अंदर आ घुसा। दोनों की निर्ममता से पिटाई की गई और बाहर लाकर दोनों को पेड़ से बांध दिया गया। वे दोनों चिल्ला-चिल्लाकर बताते रहे कि वे भाई-बहन हैं मगर भीड़ को जिस तरह तैयार किया गया है उसके तहत जो भीड़ या उसके मालिक ने बोल दिया वही अंतिम सच है। बहन का पति किसी काम के सिलसिले में गांव से बाहर था, उसे किसी ने फोन पर इस मारपीट की सूचना दी। वह फोन पर लाख बताता रहा कि जिसे पकड़ा है वह उसकी पत्नी का भाई ही है - मगर उसकी भी नहीं एक न सुनी गई और क़रीब दो घंटे तक, पिटाई चलती ही रही तब तक जब तक पुलिस नहीं पहुंच गई। बताया जाता है कि पुलिस ने तीन-चार लोगों की गिरफ़्तारी कर ली है। मुकदमे दर्ज कर लिए गए हैं। यहां ध्यान रहे कि पीड़ित और हमलावर दोनों पक्ष एक ही समुदाय के हैं। "नफ़रत की आग लौट कर घर आई है।"

यह मोदी और उनकी भाजपा का न्यू इंडिया है। यही वे 'संस्कारी' लोग हैं जिन्हें बड़े मनोयोग से संघ और उसका मीडिया संस्कार दे रहा है।

एक कोने में लगी आग पर ख़ुशी मनाने वालों के घरों के अंदर तक आग दाख़िल हो चुकी है। लाडली बहनों का अपने भाईयों से मिलना भी अब उनकी पिटाई और इससे भी ज़्यादा यातनाओं का कारण बन सकता है। विभाजन एक जगह नहीं रुकता - वह चूल्हे-चौके तक आता है; खंडवा एक झांकी है, शायद काफ़ी कुछ अभी बाक़ी है!

(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसानसभा के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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