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विश्लेषण: मायावती क्यों हुईं विफल, क्यों कमज़ोर हुआ बहुजन आंदोलन

इस समय बीएसपी के लिए केवल चुनाव जीतना नहीं बल्कि अस्तित्व को बचाने की चुनौती है।
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फ़ोटो साभार: पीटीआई

बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख मायावती उत्तर प्रदेश 2022 के विधानसभा चुनावों में "दलित-ब्राह्मण" का प्रयोग विफल होने के बाद इन दिनों आम चुनाव 2024 के लिए नया  प्रयोग, करने की तैयारियाँ कर रही हैं। मायावती अब "दलित-मुस्लिम" समीकरण बनाती नज़र आ रही हैं। हालाँकि इस समय बीएसपी के लिए केवल चुनाव जीतना नहीं बल्कि अस्तित्व को बचाने की भी चुनौती है।

प्रदेश के मैनपुरी लोकसभा, रामपुर और खतौली (मुज़फ़्फ़रनगर) विधानसभा उपचुनाव में बीएसपी ने उम्मीदवार नहीं उतारा है। जबकि इससे पहले जून 2022 में आजमगढ़ लोकसभा उप-चुनावों में बीएसपी गुड्डू जामाली को मैदान में उतारा था। यह सीट समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव के इस्तीफे से ख़ाली हुई थी।

बीएसपी की स्थापना 1984 में दलित नेता कांशीराम ने की थी। और बीएसपी ने मायावती के नेतृत्व में 2007 में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत से सरकार का गठन किया। इस से पहले बीएसपी ने समाजवादी पार्टी (सपा) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ गठबंधन करके सरकार बनाईं थी।

सोशल इंजीनियरिंग

मायावती की सोशल इंजीनियरिंग को 2007 में सफलता प्राप्त हुई, मुस्लिम-ब्राह्मण और दलित ने मिलकर बसपा के पक्ष में वोट किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि बसपा की पूर्ण बहुमत हासिल हुआ, मायावती प्रदेश में चौथी बार मुख्यमंत्री बनी गईं।

मायावती को 403 सीटों वाली विधानसभा में 206 सीटें प्राप्त हुई थी। मायावती ने अपनी रणनीति में भी बदलाव किया और बहुजन हिताय की जगह "सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय" की बात करना शुरू कर दी।

हालांकि ब्राह्मण 80 के दशक के आखिर से, यानी अयोध्या आंदोलन के समय से बीजेपी के साथ थे और मुस्लिम भी 1993 में समाजवादी पार्टी की स्थापना के समय से उसके साथ रहे। लेकिन 2007 में वे बीएसपी के साथ आए, मगर इस समीकरण को बीएसपी अधिक समय तक सम्भाल के नहीं रख सकीं और ब्राह्मण और मुस्लिम दोनों पार्टी से छिटक गये।

विधानसभा चुनाव 2012 में दोनों अपने पुराने घरों में चले गये और सपा ओबीसी और मुस्लिम वोटों के सहारे सत्ता में आ गई। इस चुनाव के बाद से बीएसपी उत्तर प्रदेश में काफ़ी कमज़ोर हो गई।

बीएसपी 2012 से अब तक 2 लोकसभा और तीन विधानसभा चुनाव हार चुकी है। इस समय प्रदेश की 403 सीटों वाली विधानसभा में बीएसपी का केवल एक विधायक है और उसका वोट भी कम होकर 12 प्रतिशत के क़रीब आ चुका है।

इस बीच मायावती ने कई राजनीतिक प्रयोग भी किये, लेकिन 2012 के बाद सभी विफल हो गये। आम चुनाव 2019 में उन्होंने अपनी कट्टर प्रतिद्वंद्वी सपा से हाथ मिलाया। लेकिन केवल प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 10 सीटों पर ही कामयाबी मिली। इसके बाद मायावती ने सपा का हाथ, झटक दिया और 2022 विधानसभा चुनावों में बीएसपी ने ब्राह्मण-दलित समीकरण बनाने की कोशिश की।

इसके लिए पार्टी ने अपनी विचारधारा से अलग जाकर सॉफ्ट "हिन्दुत्व" का सहारा लिया। पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने अयोध्या से चुनाव प्रचार शुरू किया। बीएसपी के कार्यक्रम में "जय श्री राम" के नारे लगे लेकिन कोई सफलता नहीं मिली।

ब्राह्मण समाज तो बीएसपी के साथ नहीं आया, लेकिन इसका नकारात्मक परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम समाज भी बीएसपी से दूर चला गया। बीएसपी के लिए इस से बड़ा झटका यह था कि उसका दलित वोट का एक बड़ा हिस्सा भी दूसरी पार्टियों में बट गया।

ब्राह्मण समाज के बीएसपी में न आने की वजह यह मानी जाती है कि सतीश मिश्रा ज़मीनी स्तर पर पार्टी का ब्राह्मण चेहरा नहीं बन पाए और पार्टी के ब्राह्मण चेहरा बृजेश पाठक 2017 में ही पार्टी छोड़कर बीजेपी में चले गये थे। बीजेपी ने पाठक को पहले 2017 में विधि मंत्रालय दिया और 2022 में उप मुख्यमंत्री बना दिया।

अब मायावती आम चुनाव 2024 से पहले मुस्लिम-दलित समीकरण बनाने का प्रयास कर रहीं हैं। हालाँकि यह इतना सरल नहीं है। क्योंकि बीएसपी में कोई बड़ा मुस्लिम चेहरा नहीं है।

बीएसपी का मुस्लिम चेहरा कहे जाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीकी भी कांग्रेस में जा चुके हैं। हालाँकि हाल में ही मायावती ने कांग्रेस से सपा में गए इमरान मसूद को बीएसपी में शामिल किया है।

जबकि मसूद का असर पश्चिम उत्तर प्रदेश तक सीमित है। इसके अलावा मुस्लिम समुदाय में मायावती के खिलाफ़ नाराजगी भी है। क्योंकि उन्होंने मुस्लिम समुदाय के ऊपर बीजेपी सरकार में हुए अत्याचारों के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठाई है।  

हालांकि देखा गया है कि मायावती इधर कुछ समय से मुस्लिम समाज के पक्ष में सोशल मीडिया पर लिख रहीं हैं। उन्होंने योगी सरकार द्वारा किये जा रहे मदरसों के सर्वे का विरोध किया और बीजेपी के पसमांदा मुस्लिम समाज की तरफ झुकाव को महज़ एक दिखावा बताया।

पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने योगी सरकार द्वारा करवाए गए मदरसा सर्वे पर सवाल उठाए और कहा कि जब ग़ैर-मान्यता प्राप्त मदरसे सरकार पर बोझ नहीं हैं तो सरकार इनमें क्यों दखल दे रही है। इन मदरसों में गरीब बच्चों को तालीम दी जाती है।

बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने बीजेपी के पसमांदा मुस्लिम के बढ़ते स्नेह को मात्र नया "शिगूफा" करार दिया। मायावती ने आरएसएस और भाजपा पर हमला बोला और कहा है कि मुस्लिमों के प्रति इनकी सोच और नीयत किसी से छिपी नहीं है।

मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के एक दिन बाद बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने 137 साल पुरानी पार्टी पर हमला बोला और कांग्रेस पर दलितों को अपने बुरे समय में ही याद करने और उन्हें 'बलि का बकरा' बनाने का आरोप लगाया।

मायावती ने कहा कि कांग्रेस को अपने अच्छे दिनों के लंबे समय में अधिकांशतः ग़ैर दलितों को एवं वर्तमान की तरह सत्ता से बाहर बुरे दिनों में दलितों को आगे रखने की याद आती है। मायावती ने यह भी कहा कि इतिहास गवाह है कि इन्होंने दलितों व उपेक्षितों के मसीहा बाबा साहेब डॉ.  भीमराव अंबेडकर व इनके समाज की हमेशा उपेक्षा व तिरस्कार किया है।

माना जा रहा है कि मायावती में इस बात का भय है कि कांग्रेस अपना अध्यक्ष दलित समाज से बनाकर अपने पुनः प्रवर्तन के लिए बीएसपी वोट बैंक में सेंध न लगा दे।

दलित चिन्तक इस बात को लेकर विचार कर रहे हैं कि "बहुजन आन्दोलन" को कैसे बचाया जा सकता है। क्योंकि वह मानते हैं कि बीएसपी के पतन के साथ बहुजन आन्दोलन भी कमज़ोर पड़ता जा रहा है।

फ़िलहाल कोई नया दलित नेता भी उभरता नज़र नहीं आ रहा है। चन्द्रशेखर आज़ाद को एक विकल्प के रूप में देखा जा रहा था। क्योंकि वह दलित उत्पीड़न के विरुद्ध सक्रिय रहते हैं। लेकिन दलित चिन्तक मानते हैं कि चन्द्रशेखर आज़ाद सक्रिय तो हैं लेकिन उन में राजनीतिक समझ की कमी है।

दलित बुद्धिजीवी मानते हैं कि मौजूदा समय में दलितों पर हमले बढ़ रहे हैं, लेकिन न कोई दलित एजेंडा सामने है और न लीडरशिप है।

दलित विचारक डॉ. रविकांत चन्दन कहते हैं कि बीएसपी और मायावती से अब कोई उम्मीद नहीं बची है। मायावती जमीन पर सक्रिय नहीं है इसी वजह से दलित आन्दोलन कमज़ोर पड़ता जा रहा है।

न्यूज़क्लिक के लिए बात करते हुए प्रो. चन्दन ने कहा कि विधानसभा चुनाव 2022 में पूरा प्रयास किया गया की बीएसपी को पुनः जीवित किया जाये लेकिन स्वयं मायावती ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। जिसका परिणाम यह हुआ कि पढ़ा लिखा दलित, समाजवादी पार्टी के साथ चला गया और ग्रामीण दलित राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की लहर में बीजेपी के साथ हो गया।

हालाँकि प्रो. चन्दन मानते हैं कि अगर बीएसपी मज़बूती से चुनाव लड़ रही होती तो दलित वोटों का बिखराव नहीं होता।

वह आगे कहते हैं कि आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चन्द्रशेखर दलित मुद्दों को लेकर मुखर हैं लेकिन उनकी राजनीतिक दिशा क्या होगी यह अभी साफ़ नहीं है।

प्रो. चन्दन कहते हैं इस समय दलित समाज के पास कोई विकल्प नहीं है। मायावती ने न सिर्फ बीजेपी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है, बल्कि वह तो कभी-कभी बीजेपी के पक्ष में काम करती नज़र आती हैं।

बीएसपी में सक्रिय रहे एक नेता ने नाम न लिखने की शर्त पर कहा की समझ में नहीं आता कि बहनजी (मायावती) की रणनीति क्या है, कभी दलित ब्राह्मण समीकरण बनाने की कोशिश करती हैं तो कभी उसमें विफल होने पर दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने की कोशिश करने लगती हैं। जबकि जब तक सारे दलित (जाटव और ग़ैर जाटव) एक साथ बीएसपी में नहीं आएंगें, तब तक दूसरा कोई समाज बीएसपी से नहीं जुड़ेगा।

दलित अधिकारों के लिए सक्रिय रहने वाले राम किशोर मानते हैं कि इस समय दलित दिशाहीन हो गया है। दलित समाज से यह मान लिया है कि मायावती की राजनीति अब हाशिये पर चली गई है और उनका दोबारा उभरना संभव नज़र नहीं आ रहा है।

किशोर कहते हैं मायावती संकट के समय में पुराने लोगों को जोड़ने के बदले, अपने परिवार (भतीजे) को राजनिति में आगे बढ़ना चाहती हैं। किशोर आगे कहते हैं कि बीजेपी की ब्राह्मणवादी राजनीति के मुक़ाबले कुछ नौजवान एक 'दलित-पिछड़ा' विकल्प खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।

वह कहते हैं कि इस समय दलित समाज में चिंतन बहुत अधिक हो रहा है कि हिन्दुत्व का मुकाबला कैसे किया जाये? जिस के लिए बहुत से लोग आपसी मतभेद भुलाकर एक होते दिख रहे हैं।

वरिष्ठ पत्रकार तारिक़ ख़ान कहते हैं कि मायावती इतनी कमज़ोर हो चुकी हैं कि विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी एक सीट पर सीमित हो गई। वह कहते हैं कि यह साफ़ है कि दलित राजनीति में एक ख़ालीपन आ गया है। जिसको दूर करने के लिए समाज नये विकल्प की तलाश कर रहा है।

तारिक़ ख़ान कहते हैं मायावती, बीएसपी के लिए दलित समाज की गोलबंदी करने में असफल रहीं हैं। जिसका नतीज़ा यह हुआ कि बड़े मुद्दे जैसे आरक्षण आदि के मुद्दे को छोड़कर दलित समाज, सीधे मिलने वाले छोटे फायदों जैसे फ्री गैस सिलेंडर - मुफ्त अनाज से आकर्षित होने लगे हैं। जिसका सीधा फ़ायदा बीजेपी उठा रही है।

सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति धुरु कहती हैं कि उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति खेमों में बट गई है। यहाँ सभी दलित मिलकर एक साथ अपने अधिकारों की आवाज़ नहीं उठा पा रहे हैं। जिसकी बड़ी वजह यह है कि दलितों की इकलौती नेता होने का दावा करने वाली मायावती की, ज़मीन पर ना-मौजूदगी है।

उन्होंने कहा की ऐसे हालात में तो "दलित-पिछड़ा" समीकरण के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है।

फ़िलहाल राजनीतिक तस्वीर यह है कि मायावती की राजनीति में सक्रियता ख़त्म होने के साथ बहुजन राजनीति भी कमज़ोर हो रही है। दलित समाज हिन्दुत्व की राजनीति का मुक़ाबला करने के लिए नए विकल्प की तलाश कर रहा है। जो उसको अभी तक मिला नहीं है।

दलित वोट खेमों में बट चुका है, जिसका एक बड़ा हिस्सा विशेषकर ग़ैर-जाटव बीजेपी के साथ है और जाटव भी खेमों बटा हुआ है। बीएसपी के लिए सरकार बनाना तो दूर अस्तित्व बचाना मुश्किल हो रहा है।

(लखनऊ स्थित लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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