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विश्लेषण: संतोष यादव को आरएसएस के सलाना कार्यक्रम में बुलाया जाना संजोग नहीं प्रयोग है

बीजेपी-आरएसएस का मानना है कि अगर यादवों का एक तिहाई हिस्सा भी अपने परंपरागत नेतृत्व को छोड़कर उसके साथ जुड़ जाता है तो सामाजिक ताना-बाना को और गहराई से प्रभावित किया जा सकता है। 
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने सालाना दशहरा कार्यक्रम में इस बार मशहूर पर्वतारोही संतोष यादव को मुख्य अतिथि के रुप में बुलाया। आरएसएस के 97 साल में यह पहली बार हो रहा है कि वह अपने किसी कार्यक्रम में महिला को बुला रहा है। आरएसएस यह कार्यक्रम न सिर्फ देश में कुछ न कुछ ‘खास तरह’ का संदेश देने के लिए करता है बल्कि उसकी रणनीति यह भी होती है कि देश-समाज में चल रही बहसों को प्रभावित करे या फिर बहस को अपनी सोच की दिशा में मोड़ दे।

आरएसएस समान्यतया विजयादशमी के दिन अपने हेडक्वार्टर नागपुर में अलग-अलग क्षेत्रों के तथाकथित गैर राजनीतिक लोगों (वास्तव में गैरराजनीतिक लोग समान्यतया दक्षिणपंथी ही होते हैं) को बतौर मुख्य अतिथि बुलाता रहा है। 2018 में संघ ने पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भी इसी कार्यक्रम में बुलाया था (जिसकी मुखालफत उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने भी की थी)। पिछले कुछ वर्षों में नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी, डीआरडीओ के पूर्व डीजी विजय सारस्वत, बड़े उद्योगपति व एचसीएल के प्रमुख शिव नाडर, जैसी शख़्सियतों को संघ दशहरे पर होने वाले कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर बुला चुका है। वैसे आरएसएस इस बात को बार-बार दुहराता रहा है कि वह गैरराजनीतिक व सांस्कृतिक संगठन है जिसका राजनीति में सीधे दखलअंदाजी नहीं है लेकिन संघ की इस बात पर अब संघी भी विश्वास नहीं करते।

संघ भारतीय जनता पार्टी की सरकार को हमेशा से ही सीधे नियंत्रित करता रहा है और खासकर पिछले आठ वर्षों से भारत सरकार ही नहीं बल्कि भाजपानीत राज्य सरकार का कोई ऐसा फैसला नहीं है जिसपर संघ की छाप न हो।

आरएसएस की स्थापना 1925 में हुई थी और 1936 से ही संगठन में महिलाओं के लिए ‘राष्ट्र सेविका समिति’ नाम से महिला शाखा की शुरूआत भी हो गयी थी। वैसे महिलाओं का सांगठनिक ढांचा भी है जो संघ शिक्षा वर्ग के नाम से सालाना वार्षिक कार्यक्रम चलाता है और महिला शाखा में भी पूर्णकालिक महिला प्रचारक होती हैं। लेकिन संगठन में पदाधिकारियों के पद संघ के पदाधिकारियों और स्वंयसेवकों के महिला रिश्तेदारों के पास ही होता है। लेकिन किसी महिला पदाधिकारी, सामाजिक जीवन जीने वाली किसी सामान्य महिला की तरह चर्चा में नहीं रही है। इतना ही नहीं, संघ के पुरुष नेताओं की तरह किसी संघी महिला पदाधिकारी की कहीं कोई चर्चा भी नहीं होती है।

इसलिए सवाल उठता है कि आरएसएस जैसा ब्राह्मणवादी संगठन अपनी स्थापना के लगभग सौ साल बाद किसी ब्राह्मण या सवर्ण महिला को न बुलाकर यादव महिला को अपने वार्षिक जलसा में क्यों शामिल कर रहा है जबकि देश में हजारों सवर्ण नामी-गिरामी महिलाएं हैं जिन्हें देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लोग जानते हैं? दूसरा सवाल यह भी है कि पर्वतारोही संतोष यादव आर्थिक व सामाजिक संकट में फंसे भारतीय समाज को नागपुर से ऐसा क्या संदेश देंगी जिससे मुश्किल मे फंसे राष्ट्र को राहत महसूस होगी? 

संघ के एक जानकार के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले संघ ने पूरे देश में जातीय सर्वेक्षण करवाया था। उस सर्वेक्षण के मुताबिक पूरे देश में यादवों की संख्या नौ फीसदी के करीब है। जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश में उसकी आबादी पंद्रह फीसदी से अधिक है। देश की राजधानी दिल्ली समेत झारखंड, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में भी यादवों की अच्छी संख्या है, जहां भाजपा सत्ताधारी पार्टी बनती रही है।

बीजेपी-आरएसएस का मानना है कि अगर यादवों का एक तिहाई हिस्सा भी अपने परंपरागत नेतृत्व को छोड़कर उसके साथ जुड़ जाता है तो सामाजिक ताना-बाना को और गहराई से प्रभावित किया जा सकता है। 

परिस्थितियों के अनुसार बीजेपी अपने ब्लूप्रिंट में लगातार फेरबदल करती रही है। उसने उत्तर प्रदेश में दलितों के बीच गोलबंदी करनी शुरू की और दलितों के नायकों की व्याख्या हिंदुत्व के इर्द-गिर्द करनी शुरू कर दी। समाजशास्त्री बद्री नारायण तिवारी, जिनका झुकाव पहले महीन हिन्दुत्व की तरफ था लेकिन बीजेपी के सत्ता में आने के बाद खुलकर हिंदुत्व के पक्ष में लगातार तकरीर करते दिख रहे हैं, ने अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व का मोहिनी मंत्र’ में इस बात का विस्तार से जिक्र किया है। उनके अनुसार बीजेपी ने दलितों के प्रतीकों को हिंदुत्व के नायकों के रूप में पेश किया। चूंकि हमारा इतिहास दमितों के इतिहास के प्रति हमेशा से ही क्रूर रहा है इसलिए समाज की सभी जातियां अपने को ब्राह्मण के समानान्तर रखने की कोशिश करती हैं। इसी कारण दलितों के प्रतीक भी हिंदुत्व के नायकों की तरह मुसलमानों और अपने से कमतर जातियों के खिलाफ अवतरित किये जाने लगे। यह ‘हिंदुत्व प्रयोगशाला’ की बड़ी जीत थी।

अपने पुराने अनुभव के आधार पर आरएसएस अब संतोष यादव को अपने मंच से बुलाकर देश-समाज को नहीं बल्कि यादवों को संदेश देना चाहता है। संघ संतोष यादव को अपने वार्षिक आयोजन में बुलाकर यादवों को यह संदेश देना चाहता है कि हम आपके समाज का इतना कदर करते हैं।

आरएसएस ने इसी रणनीति के तहत 2017 में पहली बार एक दलित दादासाहेब रामकृष्ण सूर्यभान गवई, जो रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के सदस्य भी हैं, को भी इस कार्यक्रम में बुलाया था। इसी तरह सन 2019 में  एक दूसरे दलित पंजाब के संत निर्मल दास को भी इसी विजयादशमी आयोजन में आंमत्रित किया गया था। गौर कीजिए कि गवई और निर्मल दास को बुलाए जाने के दो साल के भीतर ही महाराष्ट्र और पंजाब विधानसभा के चुनाव हुए थे।  

गोबरपट्टी के दो बड़े राज्यों-बिहार (जिससे बाद में झारखंड निकला) और उत्तर प्रदेश को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। मंडल के साथ शुरू हुई इस राजनीति में बिहार-झारखंड में यादवों का नेतृत्व लालू प्रसाद और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के हाथ में था जिन्होंने आरएसएस-बीजेपी के खिलाफ मोर्चा संभाला और एक अलग तरह का राजनीतिक समीकरण तैयार किया। ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि लालू और मुलायम उस समय में मुख्यमंत्री थे और संघ-भाजपा जिस तरह हिन्दुत्व का समीकरण तैयार करना चाह रही थी जो उनके जनाधार को सोख ले सकता था। इसलिए इन दोनों नेताओं ने पूरी मोर्चाबंदी अलग तरह से की जिसमें मुसलमानों के हित की रक्षा करने को प्राथमिकता दी।

दूसरी बात यह भी महत्वपूर्ण है कि हिन्दुत्व का विचार न सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ था बल्कि दलित व पिछड़ों के भी खिलाफ था। चूंकि बिहार में उत्तर प्रदेश में यादवों को नेतृत्व मिल गया था इसलिए वे हिन्दुत्व के रथ पर न सिर्फ सवार होने से इंकार कर दिया बल्कि हिन्दुत्व के खिलाफ भी खड़े हो गए। परिणामस्वरुप संघ-बीजेपी को हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करने में लगातार परेशानी हो रही है। बिहार, यूपी और झारखंड के 134 सीटों पर पिछले दो लोकसभा चुनाव में अधिकांश सीटें भले ही बीजेपी जीत जा रही हो, लेकिन भाजपा सामाजिक ताने-बाने को उस रूप में नहीं तोड़ पाई है जिस रूप में वह चाहती रही है। संघ-बीजेपी की हर हाल में यह कोशिश रही है कि यादवों को अपने साथ जोड़ लेने से हिन्दु राष्ट्र का सपना साकार करने में सहूलियत होगी।   

इसीलिए भाजपा लगातार यह कोशिश कर रही है कि अगर पूरा यादव नहीं तो यादवों का एक बड़ा तबका सपा-राजद का साथ छोड़कर बीजेपी की तरफ रूख करे। इसी रणनीति को परवान चढ़ाने के लिए भूपेन्द्र यादव को लंबे समय तक केन्द्रीय संगठन में रखकर बिहार का प्रभारी बनाकर रखा गया और बाद में उन्हें केन्द्र में मंत्री बनाया गया। इसी तरह बीजेपी ने अपने नए संसदीय बोर्ड में हरियाणा की सुधा यादव को शामिल किया है। इसी साल उत्तर प्रदेश से से संगीता यादव को राज्यसभा भेजा गया है और अब यादव समाज से समाज में एक प्रतीक के रूप में देखी जानी वाली संतोष यादव को इतनी अहम बैठक में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया है। हरियाणा के रेवाड़ी की रहने वाली संतोष यादव दो बार एवरेस्ट विजेता रही हैं। उनका नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शमिल है और भारत सरकार ने उन्हें 2000 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया है। बीजेपी की इस कवायद में एक बात पर और गौर करने की जरूरत है कि ये तीनों महिलाएं हैं। संघ-बीजेपी को लगता है कि अगर इससे यादव महिलाओं का एक हिस्सा भी टूट जाता है तो हिन्दू राष्ट्र के सपना को साकार करने में उसे मदद मिलेगी। 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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