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विश्लेषण: क्यों फ़ेल हो रहे हैं अमेरिकी बैंक?

असली मुद्दा यह है कि अमेरिकी पूंजीवाद आख़िरकार ऐसे हालात में कैसे पहुंच गया, जहां उसकी बैंकिंग व्यवस्था इतने भारी दबाव के नीचे आ गयी है?
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अमेरिका के सिलिकॉन वैली बैंक और सिग्नेचर बैंक के फ़ेल होने के कारणों के मामले में, रहस्य जैसी तो कोई बात ही नहीं है। इसमें भी रहस्य जैसी कोई बात ही नहीं है कि क्यों पूंजीवादी दुनिया में समूची बैंकिंग व्यवस्था पर ही आज आशंकाओं के बादल मंडरा रहे हैं। एक बार जब किसी व्यवस्था का कोई एक हिस्सा बैठ जाता है, तो उसके चलते उस व्यवस्था के बाकी हिस्से भी ‘विषाक्त’ परिसंपत्तियों के बोझ से दब जाते हैं। यह बोझ, उस व्यवस्था के बैठ गए हिस्से की देनदारियों का ही होता है। इस तरह, पूरी व्यवस्था ही ‘‘डोमिनो इफैक्ट’’ यानी तू चल मैं भी आया के सिलसिले की चपेट में आ जाती है।

बहरहाल, असली मुद्दा यह है कि अमेरिकी पूंजीवाद आखिरकार ऐसे हालात में कैसे पहुंच गया, जहां उसकी बैंकिंग व्यवस्था इतने भारी दबाव के नीचे आ गयी है? चूंकि इन बैंकों का और खासतौर पर सिलिकॉन वैली बैंक (एसवीबी) का फ़ेल होना, अमेरिका की एक आंतरिक परिघटना भर नहीं है बल्कि एक व्यवस्थागत अंतर्विरोध को ही प्रतिबिंबित करती है, यह अंतर्विरोध आखिर है क्या?

ब्याज की दरें और बैंकों का फ़ेल होना

इन बैंकों के फ़ेल होने का स्वत:स्पष्ट प्रकट कारण तो ब्याज की दरों का बढ़ना ही है। बहरहाल, हम यहां खुद को एसवीबी बैंक के मामले तक ही सीमित रखेंगे क्योंकि उसका प्रसंग व्यवस्थागत अंतर्विरोध को और स्पष्टता से सामने लाता है। इसके विपरीत, सिग्नेचर बैंक का मामला कहीं असामान्य या अनोखा है क्योंकि वह क्रिप्टो-करेंसियों में धंधा कर रहा था, जो अपनी अस्थिरता के लिए कुख्यात हैं।

ब्याज की दरों में किसी भी बढ़ोतरी से बांड का मूल्य खुद ब खुद घट जाता है। किसी भी बांड का मूल्य, उसकी पूरी अवधि के दौरान मिलने वाली आय की धारा के बराबर होता है, चालू ब्याज की दरों को उसमें से घटाने के बाद। इसलिए, अगर चालू ब्याज दर बढ़ जाती है, तो संबंधित मुद्रा में आय की उसी धारा से, बांड का मूल्य घट जाता है। अब सभी बैंकों के पास तरह-तरह की परिसंपत्तियां रहती हैं, जिनमें बांड बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इसलिए, ब्याज की दरों में बढ़ोतरी से, बांड का मूल्य घटने के चलते, किसी बैंक की देनदारियों की तुलना में, उसकी परिसंपत्तियों का मूल्य घट जाता है और इससे बैंक दबाव में आ जाता है।

अब अगर बैंक इस दबाव से उबरने की कोई भी कोशिश करता है, तो इसका मतलब होगा उसका सारी दुनिया के सामने अपने दबाव में होने की सच्चाई को कबूल करना और वह अगर ऐसा करता है तो यह, लोगों के लिए उस बैंक से ही दामन छुड़ाने के लिए इशारा बन जाता है। इससे बैंक की हिस्सा पूंजी का मूल्य गिरने लगता है और इससे बैंक के आम जमाकर्ताओं में दहशत फैल जाती है और वे संबंधित बैंक से अपनी जमाराशियां निकालने लगते हैं। इससे बैंक से पैसा निकालने की भगदड़ मच जाती है और बैंक बैठ ही जाता है।

यहां दर्ज करने वाली बात यह है कि जब कोई बैंक इस तरह के दबाव में आ जाता है, उसके बाद वह कुछ भी क्यों न करे, उसके सामने भविष्य का अंधेरा ही रहता है। अगर संबंधित बैंक अपने हालात सुधारने के लिए कोई कदम ही नहीं उठाता है, तब तो व्यावहारिक मानों में वह अपना दीवाला निकलने का मुंह देखने का ही विकल्प चुन रहा होगा। लेकिन, अगर वह अपनी स्थिति में सुधार के कोई कदम उठाता भी है, तब भी उसके आखिरकार बैठ ही जाने की ही काफी संभावनाएं रहती हैं। ऐसे सूरते हाल में बैंक के बैठने के लिए, सिर्फ बैंक को ही जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है। बैंक के बैठने को ऐसे वृहदार्थिक कारकों से समझना होगा, जिन पर संबंधित बैंक का बस नहीं चलता है।

अमेरिकी ब्याज़ दरों में तेज़ी से बढ़ोतरी क्यों?

इस दलील से किसी को यह लग सकता है कि ब्याज की दरों में कोई भी बढ़ोतरी, बैंक के बैठने की नौबत ला देगी। लेकिन, जाहिर है कि यह सच नहीं है। बहरहाल, केंद्रीय बैंक के आदेश के जरिए ब्याज की दरों में जो बदलाव कराए जाते हैं, सामान्यत: छोटे-छोटे बढ़ाव-घटाव के रूप में ही आते हैं। और अगर ब्याज की दर में छोटी-मोटी बढ़ोतरी होती भी है, इससे आने वाले दबाव को बैंक झेल लेते हैं। ‘‘बाजार’’ में कोई खास दहशत पैदा किए बिना ही बैंक इतने दबाव को संभाल लेते हैं। लेकिन, जब केंद्रीय बैंक द्वारा तय की जा रही ब्याज की दर में अचानक ज्यादा बड़ी बढ़ोतरी कर दी जाती है, तो बैंकों के लिए इसकी गुंजाइश नहीं रह जाती है कि अपने यहां पैदा हुए किसी परिसंपत्ति-देनदारी असंतुलन को बिना ज्यादा शोर किए और व्यवस्थित तरीके से संभाल लें।

और पिछले कुछ समय में अमेरिका में ब्याज की दरों में काफी ज्यादा बढ़ोतरी की गयी है। फेडरल फंड ब्याज दरें जो 2022 के फरवरी में 0.25 फीसद पर थीं, 2023 की फरवरी तक बढक़र 4.25 फीसद पर पहुंच चुकी थीं। इतने थोड़े अर्से में ब्याज की दरों में इतनी भारी बढ़ोतरी से, बैंकों के लिए आराम से अपने लेन-देन का संतुलन बनाए रखना, नामुमकिन हो गया है। इसलिए, असली सवाल यही है कि अमेरिका का फेडरल रिजर्व बोर्ड, जो कि अमेरिका के केंद्रीय बैंक के तुल्य है, ब्याज की दरों को इस तरह बढ़ाने में क्यों लगा हुआ है?

इस सवाल का बुनियादी जवाब तो यही है कि नव-उदारवाद के अंतर्गत, अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करने के लिए राज्य के हाथों में एक ही हथियार रह जाता है--मुद्रा नीति का हथियार। बेशक, दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर में लंबे अर्से तक राजकोषीय नीति ही अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप का मुख्य औजार बनी रही थी, लेकिन नव-उदारवाद के अंतर्गत उसे तो पीछे ही धकेल दिया गया है। दुनिया भर में घूमती-फिरती वित्तीय पूंजी द्वारा अब सभी सरकारों को इसके लिए मजबूर कर दिया गया है कि जीडीपी के अनुपात के रूप में अपने राजकोषीय घाटों के लिए एक खास हद बांध दें। और उसी कारण से यानी दुनिया में घूमती-फिरती वित्तीय पूंजी के नाराज होने के डर से, पूंजीपतियों पर तथा आम तौर पर अमीरों पर कोई भी अतिरिक्त कर लगाना, नव-उदारवादी व्यवस्था में पाप ही समझा जाता है, अर्थव्यवस्था में और जान डालने की शासन की कोई भी कोशिश, ब्याज की दरों को घटाने का इकलौता रास्ता ही ले सकती है।

अमेरिका की क्या मजबूरी है?

बेशक, अमेरिका में इस तरह का कोई ‘राजकोषीय जिम्मेदारी’ या फिस्कल रिस्पांसिबिलिटी कानून लागू नहीं है। इस तरह उसके लिए न तो अपने राजकोषीय घाटे को अंकुश में रखने की कोई कानूनी बाध्यता है और न कोई इस प्रकार की व्यावहारिक बाध्यता ही है कि ऐसा नहीं किया तो उसके यहां से वित्तीय पूंजी उडऩ-छू हो सकती है। अमेरिका को पूंजी द्वारा जिस तरह अपना नितांत सुरक्षित ठिकाना माना जाता है, वहां से वित्तीय पूंजी का इस तरह का पलायन शायद ही कभी होता होगा। फिर भी अमेरिका के लिए आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने के लिए, अपने राजकोषीय घाटे को बढ़ाने का अर्थ, अपना विदेशी ऋण बढ़ाने की कीमत पर, परदेस में रोजगार पैदा करना होता है क्योंकि अमेरिका में घरेलू खर्च का एक अच्छा-खासा हिस्सा, परदेस से आने वाले माल तथा सेवाओं की मांग के रूप में, रिसकर उसकी सीमाओं से बाहर ही निकल जाता है। बेशक, महामारी के दौरान अमेरिका ने अपने राजकोषीय घाटे में भारी बढ़ोतरी की थी और कुछ लोग तो उसे ही अमेरिका की वर्तमान बढ़ी हुई मुद्रास्फीति के जिम्मेदार भी मानते हैं। फिर भी, मुद्रास्फीति में वह बढ़ोतरी तो महामारी की छाया के रहते हुए ही की गयी थी। इससे पहले, आवासन के बुलबुले के बैठने के बाद के दौर में लंबे अर्से तक, अमेरिका में अर्थव्यवस्था को उत्प्रेरण देने के मुख्य औजार के तौर पर, ब्याज की दरों को नीचे से नीचे ले जाने का और वास्तव उन्हें शून्य करीब पहुंचा देने का ही इस्तेमाल किया जा रहा था।

आवासन का बुलबुला, 2008 में बैठा था। और 2009 के आखिर से 2022 तक, अमेरिका में ब्याज की दर कमोबेश 0.25 फीसद के अंक पर ही अटकी रही थी। 2016 और 2020 के बीच जरूर ऐसा एक छोटा सा अंतराल रहा था, जब फैडरल फंड्स की ब्याज दर चरणबद्ध तरीके से बढ़ाते हुए करीब 2 फीसद तक कर दी गयी थी। इस तरह, बहुत ही सस्ते वित्त की उपलब्धता के इस असाधारण रूप से लंबे दौर ने, अमेरिकी ओलीगोपालिस्टों के लिए अपने मुनाफे तथा कीमतें बढ़ाने का जोखिम घटाने के जरिए, मौजूदा मुद्रास्फीति में बेशक योगदान किया है। फिर भी, यह सब अमेरिकी अर्थव्यवस्था को रोजगार के पर्याप्त रूप से ऊंचे स्तर के आस-पास तक भी नहीं पहुंचा सका है।

बेशक, अमेरिका में बेरोजगारी की आधिकारिक दर गिरकर 4 फीसद के अपेक्षाकृत निचले स्तर पर आ गयी है, लेकिन इसके साथ ही श्रम शक्ति में हिस्सेदारी की दर भी तो नीचे खिसक गयी है। श्रम शक्ति में साझेदारी की दर, 2008 के मध्य के स्तर पर ही बनी रही मानने पर आधारित गणना के हिसाब से, बेरोजगारी की दर 2008 के बाद के पूरे दौर में ऊंची ही बनी रही थी। और जब मुद्रास्फीति की चोट पड़ी, ब्याज की दरों में अचानक भारी बढ़ोतरी कर दी गयी। इसलिए, मुद्रास्फीति में इस प्रकटत: अतार्किक चढ़ाव-उतराव, ब्याज की दरों के इस तरह यो-यो की तरह ऊपर-नीचे होने की वजह, इस तथ्य में मिलेगी कि वैश्विक रूप से गतिशील वित्तीय पूंजी के दौर में, इसके सिवा और कोई विकल्प ही नहीं है। संक्षेप में यह कि यह साफ नजर आने वाली अतार्किकता, सरकार के किसी मनमानेपन की वजह से पैदा नहीं हो रही है। यह अतार्किकता पैदा हो रही है, वैश्विक वित्तीय पूंजी के वर्चस्व की वजह से।

वैश्विक वित्तीय पूंजी की थोपी अतार्किकता

इस तरह के भारी उतार-चढ़ावों के प्रतिकूल प्रभाव को, एक और कारक है जो और बढ़ा रहा है। जब ब्याज की दरें घटती हैं और बांड का मूल्य बढ़ता है, इसका अर्थव्यवस्था के लिए कोई उत्प्रेरणकारी प्रभाव चाहे हो या नहीं हो, इससे कम से कम बैंकिंग व्यवस्था के लिए कोई खतरा तो नहीं ही पैदा होता है। बैंक की परिसंपत्तियों के मूल्य का बढऩा, उसे कमजोर तो किसी भी तरह से नहीं ही करता है। लेकिन, जब ब्याज की दरें बढ़ती हैं और बांड के मूल्य गिरते हैं, बैंक की देनदारियों की तुलना में, उसकी परिसंपत्तियों का मूल्य घट जाता है। यह ‘‘बाजार’’ में ऐसी प्रतिक्रियाओं को भडक़ाता है, जो प्रभावित बैंक को चलने में ही असमर्थ हो जाने की ओर धकेल सकती हैं। ब्याज की दरों में बढ़ोतरी और गिरावट के, किसी बैंक पर पडऩे वाले प्रभावों का यह असंतुलन, बैंकिंग व्यवस्था को कमजोर करने में और मदद करने का काम करता है।

बात सिर्फ अमेरिका की बैंकिंग व्यवस्था की नहीं है। मुद्रास्फीति से निपटने के लिए, राजकीय नीतिगत प्रतिक्रिया के रूप में, हर जगह ब्याज की दरों में जो तेजी से बढ़ोतरी की गयी है, उससे समूची पूंजीवादी दुनिया में बैंकिंग व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो गया है। और तो और, क्रेडिट सुइस जैसे जाने-माने बैंक को भी, हाल ही में अपनी हिस्सा पूंजी की कीमतों में बहुत भारी गिरावट का सामना करना पड़ा है और उसके प्रतिद्वंद्वी यूबीएस द्वारा उसका अधिग्रहण किया जा रहा है।

इतना ही नहीं, पूंजीवादी दुनिया की बैंकिंग प्रणाली के लिए खतरा अब भी अपने चरम पर पहुंच गया हो, ऐसा किसी भी तरह से नहीं कहा जा सकता है। संकट के फूटने से पहले, फेडरल रिजर्व बोर्ड की योजना, मुद्रास्फीति की काट करने के लिए ब्याज की दरों में और बढ़ोतरी करने की थी। दो-दो अमेरिकी बैंकों के बैठने जाने के बाद, हो सकता है कि वह इस रास्ते पर कुछ धीरे-धीरे आगे बढ़े। लेकिन, चूंकि मुद्रास्फीति बनी हुई है, उसके पास ब्याज की दरें बढ़ाने के सिवा और कोई विकल्प है ही नहीं क्योंकि पूंजीवाद के अंतर्गत मुद्रास्फीति से लड़ने का एक ही उपाय है और वह है बेरोजगारी पैदा करना। इन दिनों सामान्यत: यह काम ब्याज की दरों को बढ़ाने के जरिए ही किया जाता है। अब जबकि पूंजीवाद संकट में लड़खड़ा रहा है, यूरोप भर में मेहनतकशों के प्रदर्शन, इसी तथ्य को और भी रेखांकित कर रहे हैं कि अपने नव-उदारवादी चरण में पूंजीवाद, बंद गली में पहुंच गया है।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

What’s Behind the Collapse of US Banks

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