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ख़बरों के आगे-पीछे: आनंद मोहन की रिहाई...नीतीश सरकार का एक जोखिम भरा फ़ैसला?

आनंद मोहन की रिहाई समेत, योगी की ट्रिपल इंजन सरकार की थ्योरी, भाजपा का दक्षिण पर ज़ोर, कर्नाटक चुनाव, विपक्षी एकता की समस्या और केजरीवाल पर 45 करोड़ की नई मुसीबत, इन सब पर अपने साप्ताहिक कॉलम में चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन।
nitish kumar
फ़ोटो साभार: India Today

बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बड़ा जोखिम लिया है। डीएम हत्याकांड में जेल में बंद आनंद मोहन की रिहाई का फ़ैसला आसान नहीं है। पहले कई बार इसका प्रयास हुआ। एक समय ऐसा भी हुआ था, जब नीतीश कुमार, आनंद मोहन के घर गए थे और पूरे परिवार से मिले थे लेकिन तब भी उनकी रिहाई नहीं कराई थी। अब जबकि वे राजद के साथ हैं और भाजपा के ख़िलाफ़ अगले लोकसभा चुनाव में निर्णायक लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं तो उन्होंने कानून बदल कर आनंद मोहन को रिहा कराया है। इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ दलित लामबंदी के प्रयास हो रहे हैं तो आईएएस एसोसिएशन ने भी विरोध दर्ज कराया है। इसलिए सवाल है कि इसका कितना फायदा महागठबंधन को होगा? राजपूत जाति में आनंद मोहन के असर को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वे इस वोट को महागठबंधन की ओर मोड़ सकते हैं। ऐसा लग रहा है कि रणनीति के तहत नीतीश कुमार ने इस वोट के कंसोलिडेशन का प्रयास किया है। ध्यान रहे बिहार में पारंपरिक रूप से राजपूत और भूमिहार एक दूसरे के ख़िलाफ़ वोट करते हैं। आनंद मोहन इकलौते नेता हैं, जिन्होंने 1995 में इन दोनों जातियों को काफ़ी हद तक एक साथ किया था। अभी आनंद मोहन और ललन सिंह के ज़रिए महागठबंधन फिर वही प्रयास कर रहा है। अगर इसमें 50 फीसदी भी कामयाबी मिलती है तो बिहार में भाजपा बहुत कमज़ोर हो जाएगी। जहां तक दलित की नाराज़गी का सवाल है तो नीतीश को भरोसा है कि चिराग पासवान के भाजपा के साथ जाने के बाद महादलित वोट उधर नहीं जाएगा, वह महागठबंधन के साथ ही रहेगा।

दक्षिण पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं मोदी-शाह

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह कर्नाटक में तो प्रचार कर ही रहे हैं लेकिन वे दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में भी अपनी सक्रियता बनाए हुए हैं। कर्नाटक में विधानसभा चुनाव की घोषणा 29 मार्च को हुई थी उसके बाद आठ अप्रैल को मोदी तमिलनाडु गए, जहां उन्होंने रोड शो किया और हज़ारों करोड़ रूपये की योजनाओं की घोषणा की। उसी दिन वे तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद भी गए और कई परियोजनाओं का उद्घाटन व शिलान्यास किया। फिर 24 अप्रैल को मोदी केरल पहुंचे, जहां शाम को उन्होंने कोच्चि में पैदल रोड शो किया। अगले दिन यानी 25 अप्रैल को उन्होंने पहली वाटर मेंट्रो को हरी झंडी दिखाई और कई अन्य बड़ी परियोजनाओं का उद्घाटन व शिलान्यास किया। इसके बाद वे कर्नाटक में प्रचार के लिए जुट गए। इसी तरह अमित शाह तो लगातार कर्नाटक में प्रचार कर रहे हैं लेकिन उन्होंने तेलंगाना पर भी फोकस किया है। वे पिछले रविवार को तेलंगाना में थे और वहां मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगा कर ये वादा किया कि अगर भाजपा की सरकार बनी तो वह मुस्लिम आरक्षण ख़त्म कर देगी। दरअसल कर्नाटक के अलावा दक्षिण के बाकी राज्यों में भाजपा हाशिए की पार्टी है। अगले लोकसभा चुनाव में उत्तर, पश्चिम और पूर्वी राज्यों में भाजपा को कुछ सीटों के नुकसान का अंदेशा है, जिसकी भरपाई दक्षिण से करने की कोशिश हो रही है। इसीलिए दोनों शीर्ष नेता दक्षिण में ज़्यादा ज़ोर लगा रहे हैं।

अब योगी को चाहिए ट्रिपल इंजन की सरकार!

किसी भी राज्य के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर भाजपा का हर छोटा-बड़ा नेता डबल इंजन सरकार की बात करता है। अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने सूबे में हो रहे नगरी निकाय चुनाव में ट्रिपल इंजन सरकार की बात की है। वे लोगों से कह रहे हैं कि शहरों में विकास की रफ्तार बढ़ाने के लिए तीसरा इंजन लगाने की ज़रूरत है। ज़ाहिर है कि डबल इंजन की सरकार यानी केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार होने के बावजूद पिछले छह साल से जो विकास नहीं हो पा रहा है, वह नगर निगम का तीसरा इंजन जुड़ने के बाद होगा। लेकिन सवाल है कि अगर भाजपा इन चुनावों में भी जीत जाती है तो क्या पंचायत चुनावों में चौथा इंजन लगाने के नाम पर वोट मांगे जाएंगे? वैसे यह प्रचार अपने आप में लोकतंत्र और संघवाद की संवैधानिक अवधारणा के ख़िलाफ़ है कि डबल इंजन से विकास होगा। सवाल है कि अगर डबल इंजन नहीं है तो क्या विकास नहीं होगा? इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि केंद्र में जो सत्तारूढ़ दल है अगर उसी दल की सरकार किसी राज्य में नही होती है तो उसके साथ भेदभाव होगा, उसे फंड कम मिलेगा या विकास योजनाओं में उसकी हिस्सेदारी कम होगी और अगर उसी दल की सरकार राज्यों में है तो वहां पक्षपात होगा और उसे ज़्यादा फंड मिलेगा। यह स्वाभाविक निष्कर्ष है इसके बावजूद कोई भी डबल इंजन सरकार के प्रचार पर सवाल नही उठाता है।

बिहार में बढ़ रही हैं भाजपा की मुश्किलें?

भाजपा ने बिहार में लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है, लेकिन इस तैयारी में उसके सामने कई मुश्किलें हैं। पहली मुश्किल तो यह है कि पार्टी को उन सीटों के लिए उम्मीदवार तलाशने हैं, जहां पिछली बार जनता दल(यू) लड़ा था। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जनता दल(यू) को 17 सीटें दी थीं, जिनमें से वह 16 पर जीती थी। भाजपा खुद 17 सीट पर लड़ी थी और सभी सीटों पर जीती थी। भाजपा ने छह सीटें लोक जनशक्ति पार्टी को दी थी। अगर भाजपा 2014 के फॉर्मूले पर लड़ती है तो वह 30 सीटों पर लड़ेगी और 10 सीटें सहयोगियों को दी जाएंगी। ऐसे में भाजपा को 13 नए उम्मीदवार तलाशने होंगे। लंबे समय तक जनता दल (यू) के साथ रहने की वजह से भाजपा के लिए इन सीटों पर सक्षम उम्मीदवार तलाशना आसान नहीं है। दूसरी मुश्किल, लोक जनशक्ति पार्टी के दोनो धड़ों यानी पशुपति पारस और चिराग पासवान के बीच एकता कायम करने की है। दोनों अलग-अलग पांच-पांच सीटों की मांग कर रहे हैं। भाजपा दोनों को कुल छह से ज़्यादा सीट नहीं दे सकती है क्योंकि उसे उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को भी सीट देनी है और अगर जीतन राम मांझी व मुकेश सहनी भाजपा के साथ जुड़ते हैं तो उन्हें भी सीटें देनी होंगी।

केजरीवाल के कारण केसीआर भी दबाव में!

भाजपा, दिल्ली की शराब नीति में हुए कथित घोटाले के मामले में एक तीर से कई शिकार कर रही है। एक तरफ पूरी आम आदमी पार्टी मुश्किल में फंसी है तो दूसरी ओर भारत राष्ट्र समिति और उसके नेता केसीआर यानी के. चंद्रशेखर राव भी बैकफुट पर हैं। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से सीबीआई की पूछताछ के बाद से केसीआर के तेवर नरम पड़े हैं। गौरतलब है कि इस मामले में उनकी बेटी के. कविता से पहले ही ईडी दो बार पूछताछ कर चुकी है और उन पर भी गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। ठगी के आरोप में दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद सुकेश चंद्रशेखर के साथ व्हाट्सऐप पर कविता की कथित चैटिंग का स्क्रीनशॉट पिछले दिनों वायरल हुआ। हालांकि कविता ने सुकेश को जानने से इनकार किया है लेकिन उससे ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता है। हो सकता है कि वे नहीं जानती हों लेकिन उसके बावजूद केंद्रीय एजेंसियां कार्रवाई कर सकती हैं। चंद्रशेखर राव की बेटी के साथ-साथ उनकी पार्टी के कुछ और नेता भी केंद्रीय एजेंसियों की रडार पर हैं। इसीलिए चंद्रशेखर राव के तेवर ढीले पड़े हैं। उन्होंने डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती के मौके पर भी देश की तमाम बड़ी पार्टियों के नेताओं को बुला कर जलवा दिखाने का कार्यक्रम भी स्थगित कर दिया। अंबेडकर की विशाल प्रतिमा का अनावरण हुआ लेकिन वह स्थानीय कार्यक्रम बन कर रह गया।

ऐसे कैसे हो सकेगी विपक्षी एकता?

दिल्ली में सभी विपक्षी पार्टियां एकजुटता बनाने के प्रयास में लगी हैं और उधर कर्नाटक में सब एक-दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रही हैं। इसलिए सवाल है कि आपस में लड़ कर विपक्षी पार्टियां लोकसभा चुनाव के लिए किस तरह एकजुट होंगी? कर्नाटक में शरद पवार की पार्टी एनसीपी 45 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। एनसीपी नेताओं का कहना है कि उनका राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा छिन गया है इसलिए वे विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं ताकि वोट हासिल करके राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा वापस लिया जाए। यानी उनके लिए कर्नाटक में भाजपा को रोकने की बजाय अपना राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा ज़्यादा ज़रूरी है। इसी तरह आम आदमी पार्टी राज्य में 168 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। दिलचस्प बात यह है कि चित्तपुर की आरक्षित सीट पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बेटे प्रियंक खरगे के ख़िलाफ़ भी आम आदमी पार्टी ने उम्मीदवार उतारा है। सोचने वाली बात है कि दिल्ली में और संसद में खरगे के साथ आम आदमी पार्टी का पूरा सद्भाव दिखता है। अरविंद केजरीवाल को सीबीआई ने पूछताछ के लिए बुलाया तो उन्हें सबसे पहले फोन करने वाले नेता खरगे थे। अगर उनके बेटे के ख़िलाफ़ आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार नहीं होता तो इससे एक सकारात्मक मैसेज बन सकता था। गौरतलब है कि पिछले चुनाव में इस सीट पर प्रियंक खरगे महज़ चार हज़ार वोट से जीते थे। इस बार आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार अगर थोड़े से भी वोट काट लेता है तो प्रियंक के लिए मुश्किल हो सकती है।

कर्नाटक का चुनाव कर्नाटक से बाहर भी!

कर्नाटक विधानसभा का चुनाव सिर्फ़ सूबे की भौगोलिक सीमा के दायरे में ही नहीं लड़ा जा रहा है। बल्कि उससे बाहर भी एजेंडा तय करने की कोशिश हो रही है। मुसलमानों के आरक्षण का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में है, जिस पर कर्नाटक में सबसे ज़्यादा राजनीति हो रही है। अमित शाह से लेकर राजनाथ सिंह और योगी आदित्यनाथ से लेकर शिवराज सिंह चौहान तक सबने मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा उठाया और इस बात का श्रेय लिया है कि कर्नाटक की सरकार ने इसे ख़त्म किया है। हालांकि यह अभी ख़त्म नहीं हुआ है। इसे ख़त्म करने के कर्नाटक सरकार के फ़ैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई हुई है। सुप्रीम कोर्ट में इस मसले पर जो कुछ भी होगा उसका असर राज्य के चुनाव पर भी होगा। अगर फ़ैसला नहीं होता है, आरक्षण जारी रखने का फ़ैसला होता है या आरक्षण रद्द होता है, तीनों ही स्थितियों में इसका चुनावी इस्तेमाल है। दिलचस्प यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर नौ मई को सुनवाई रखी है, जिसके अगले दिन 10 मई को कर्नाटक में चुनाव होना है। पता नहीं उस दिन क्या होगा, लेकिन उससे पहले भाजपा के नेता इसका प्रचार करते रहेंगे कि राज्य सरकार ने मुस्लिम आरक्षण ख़त्म किया है, जबकि कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण करती है। एक और दिलचस्प बात यह है कि पांच मई को बॉलीवुड के बड़े निर्माता विपुल अमृतलाल शाह की फिल्म 'द केरला स्टोरी’ रिलीज़ हो रही है। यह केरल में हिंदू महिलाओं के शोषण, उन्हें प्रेम जाल में फंसाने, प्रताड़ित करने और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी संगठन में भर्ती कराने जैसे विषय पर बनी प्रोपेगंडा फिल्म है। रिलीज़ होने से पहले सोशल मीडिया पर भाजपा-आरएसएस से जुड़े लोग इसका ट्रेलर, टीज़र, पोस्टर आदि शेयर कर रहे हैं और हिंदू परिवारों से यह फिल्म देखने की अपील कर रहे हैं।

केजरीवाल को भारी पड़ेगा 45 करोड़ का ख़र्च

आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हमेशा सामान्य वेश-भूषा में दिखाई देते हैं। एकदम साधारण आदमी की तरह पैंट-शर्ट और साधारण सैंडिल या सर्दी के मौसम में जूते पहनते हैं। यानी पहनावे में किसी तरह का दिखावा नहीं करते हुए वे आम आदमी होने का अहसास कराते है लेकिन अपने सरकारी आवास की साज-सज्जा पर उन्होंने 45 करोड़ रूपये ख़र्च किए है। यह कोई विपक्ष का आरोप नहीं है कि केजरीवाल ने अपने घर की साज-सज्जा पर इतना ख़र्च किया है। यह दिल्ली सरकार के लोक निर्माण विभाग का आंकड़ा है कि 2020 से 2023 के बीच उनके बंगले छह, फ्लैग स्टाफ रोड के रेनोवेशन पर 44.78 करोड़ रूपये ख़र्च हुए हैं। इसी आधार पर भाजपा ने यह मुद्दा बनाया है। यह आंकड़ा हैरान करने वाला है क्योंकि पुरानी दिल्ली के जिस इलाके में वे रहते हैं वहां एक हज़ार गज़ ज़मीन बनी कोठियों की कीमत इतनी होती है। उनके बंगले की साज-सज्जा पर ख़र्च का पूरा ब्योरा सार्वजनिक हो गया। सिर्फ़ रसोई घर 1.1 करोड़ रूपये ख़र्च हुए हैं। आठ-आठ लाख के परदे लगे हैं। विदेश से लाया गया मार्बल लगा है। केजरीवाल यह कह कर सत्ता में आए थे कि उन्हें बंगला नहीं चाहिए, गाड़ी नहीं चाहिए, बड़ा वेतन नहीं चाहिए। लेकिन अब घर की सजावट पर 45 करोड़ ख़र्च करते हैं, वेतन भी बढ़ा लिया है और कई गाड़ियों का क़ाफ़िला उनके साथ चलता है, उनका भी रूट लगता है और ट्रैफिक रोका जाता है। यह सब पहले से हो रहा है लेकिन बंगले की सजावट के ख़र्च का जो ब्योरा सामने आया है वह उनकी राजनीति पर भारी पड़ सकता है।

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