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सीएए विरोधी आंदोलन : ‘महामारी महज़ एक तात्कालिक झटका है, आंदोलन का अंत नहीं’

क़ानून की जानकार मनीषा सेठी का कहना है कि आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के तहत छात्रों और कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी जारी है, धर्म-आधारित नागरिकता के ख़िलाफ़ इस आंदोलन का समर्थन करना विपक्षी दलों की ज़रूरत है।
सीएए विरोधी आंदोलन

नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को 12 दिसंबर, 2019 को अपनाने से भारतीय गणतंत्र के इतिहास में पहली बार भारतीय नागरिकता के लिए एक धर्म-आधारित मानदंड पेश किया गया है। कई राज्य सरकारों की तरफ़ से इस क़ानून का विरोध किया गया था। उन राज्यों ने ऐलान किया था कि वे नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स (NRC) और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (NPR) की इस क़वायद को रोकेंगे; इन दोनों प्रक्रियाओं को सीएए के साथ जोड़ा गया था।

सत्तारूढ़ शासन को इस भेदभाव बरतने वाले क़ानून के ख़िलाफ़ देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन के साथ-साथ बड़े पैमाने पर नागरिक अवज्ञा का भी सामना करना पड़ा। इनमें से कई विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व महिलाओं ने किया और दक्षिण पूर्वी दिल्ली के पड़ोस में स्थित शाहीन बाग़ में हो रही एक सभा ने देश भर के दर्जनों ऐसे विरोध प्रदर्शनों को प्रेरित किया।

पुलिस दमन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश और सार्वजनिक समारोहों पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद, आम नागरिकों की ओर से हुए इन विरोध प्रदर्शनों को मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ सबसे बड़ी लामबंदियों में से एक रूप में देखा गया। मगर, कोविड-19 महामारी की शुरुआत होते ही इन विरोध प्रदर्शनों पर अचानक रोक लगा दी गयी।

इस बीच सत्ताधारियों ने कई सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं और छात्रों को आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के तहत गिरफ़्तार करने के लिए इस संकट की स्थिति का इस्तेमाल किया। हमने सीएए की वैधता, इन गिरफ़्तारियों के निहितार्थ और नागरिक आंदोलन के भविष्य जैसे कई मुद्दों पर हैदराबाद स्थित एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ में पढ़ा रहीं प्रोफ़ेसर मनीषा सेठी के साथ बातचीत की है। वह क़ानून की जानकार हैं और उन कार्यकर्ताओं और छात्रों को मुक्त कराने के उस अभियान में शामिल रही है, जिन्हें आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के तहत अन्यायपूर्ण तरीक़े से जेल में डाल दिया गया है। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश:

प्रश्न: सीएए को लागू हुए कई महीने हो चुके हैं। सीएए के स्थगन की मांग करते हुए और इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए अदालतों में विभिन्न याचिकायें दायर की गयी हैं। सीएए के क्रियान्वयन पर रोक लगाने की मांग के दलीलों पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या प्रतिक्रिया दी है ?

मनीषा सेठी: संविधान के जानकारों, शिक्षाविदों और क़ानून के विद्वानों ने सीएए को भेदभावपूर्ण, ख़तरनाक, मनमाना और अंततः असंवैधानिक क़रार दिया है। धर्म के मानदंड को लागू करते हुए, कुछ समूहों को अनुग्रह प्राप्त और हक़दार के रूप में पेश करके उन्हें जल्द से जल्द नागरिकता देने की बात की गयी है, जबकि अन्य समूहों यानी मुस्लिमों को इससे अलग रखा गया है, यह नया क़ानून असल में हमारे गणतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों से दूर हट जाता है।

सीएए उस नागरिकता की दृष्टि को ही ख़त्म करता हुआ दिखता है,जो नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत हमें विरासत में मिला है, अर्थात वह क़ानूनी मान्यता, जो आस्था (jus sangunis)) से नहीं, बल्कि जन्म (jus solis) से निर्धारित होती है। इस तरह के रास्ते को देश के विभाजन के तत्काल बाद चुना गया था, अपनाया गया वह रास्ता संविधान सभा की बुद्धिमत्ता और दूरंदेशी का वसीयतनामा है, जहां धर्म आधारित नागरिकता की मांग को दरकिनार कर दिया गया था और उस पर जीत हासिल की गयी थी।

इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि संविधान समूहों और लोगों के वर्गीकरण की अनुमति तो देता है (उदाहरण के लिए, आरक्षण या सकारात्मक फ़र्क़ किये जाने के उद्देश्य के लिए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समूहों की पहचान), लेकिन जिस तरह का वर्गीकरण (अनुग्रह प्राप्त और तिरस्कृत धार्मिक समूहों) यह क़ानून कर रहा है, वह संवैधानिकता की कसौटी पर नाकाम है।

सीएए हमें यह बताने में नाकाम रहा है कि इसमें आख़िर उस अफ़ग़ानिस्तान को क्यों शामिल  किया गया है, जिसके साथ भारत की साझी सीमा भी नहीं है, लेकिन म्यांमार को क्यों छोड़ दिया गया है,जहां रोहिंग्याओं का धार्मिक उत्पीड़न जगजाहिर है। सीएए हमें यह बताने में भी नाकाम रहा है कि यह अफ़ग़ानिस्तान के हिंदुओं का पक्ष क्यों लेगा, लेकिन श्रीलंका के उन हिन्दुओं का पक्ष क्यों नहीं लेगा, जहां के तमिल हिंदुओं का राजनीतिक शरण का मामला बहुत सीधे-सीधे बन सकता है।

आख़िरकार ऐसा लगता है कि इस वर्गीकरण का एकमात्र आधार,जो यह क़ानून बनाता है, वह राजनीतिक है, और यह उस ज़हरीले बहुसंख्यकवाद के अनुरूप है, जिसे मौजूदा शासन आगे बढ़ा रहा है और वह यह कि मुस्लिम देशों के ग़ैर-मुस्लिमों को फास्ट ट्रैक नागरिकता मुहैया करायी जायेगी।

अनुचित और एकपक्षीय होने के कारण यह संविधान के अनुच्छेद 14 का स्पष्ट उल्लंघन है, जो क़ानून के सामने समानता की गारंटी देता है। सच्चाई तो यही है कि सीएए संविधान के उस मूल ढांचे के ही ख़िलाफ़ है, जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है और जैसा कि केशवानंद भारती मामले में बताया गया है कि इसके साथ किसी भी तरह से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है।

इसके अलावा, सीएए को असम में उस राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की क़वायद के साथ जोड़कर देखा जा सकता है, जो लाखों लोगों को विदेशी, अधिक सटीक रूप से कहा जाय,तो बांग्लादेशी घोषित करके उन्हें देश की नागरिकता से बेदखल करने के लिए डराता-धमकाता है। सीएए सरकार को मुसलमानों को लगातार बाहर रखते हुए ग़ैर-मुस्लिम घोषित विदेशियों को नागरिकता प्रदान करने के लिए एक क़ानूनी तंत्र का प्रावधान देता है।

जैसा कि उम्मीद की जा रही थी, इस सीएए को दायर की गयी कई याचिकाओं के ज़रिये उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी है, लेकिन इसके साथ ही शायद यह भी आशंका जतायी जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट इन पर सुनवाई करने में टाल-मटोल कर रहा है और झिझक रहा है। वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की घोषणा की है कि वह जबतक ‘हिंसा’ ख़त्म नहीं हो जाती, तबतक इन याचिकाओं पर सुनवाई नहीं करेगा। इसमें जिस हिंसा का हवाला दिया गया है, वह कथित तौर पर सीएए के विरोध का कारण थी, जबकि यह हिंसा प्रदर्शनकारियों पर क्रूर पुलिस कार्रवाई का नतीजा थी।

अब तक शीर्ष अदालत इस क़ानून पर रोक लगाने से इनकार करती रही है, लेकिन इन याचिकाओं पर सुनवाई करने का वादा किया है। यहां दो बिंदुओं पर ध्यान दिया जा सकता है: पहला, संपूर्ण एनआरसी क़वायद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संचालित किया गया था; और दूसरा कि हम इस समय सबसे "शासनात्मक मानसिकता वाली अदालत" के तहत जी रहे हैं, जहां मौलिक अधिकारों के बेहद ज़रूरी सवालों को बार-बार ठंडे बस्ते में डाला जा रहा है।

प्रश्न: पिछले कुछ महीनों में कई सीएए विरोधी छात्रों और कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया है। आप इसे कैसे देखती हैं ?

मनीषा सेठी: स्टेट ने प्रदर्शनकारियों के साथ बातचीत करने के बजाय, उन पर अपनी उस नग्न ताक़त के इस्तेमाल का रास्ता चुना है,जिसका इस्तेमाल करते हुए उन्हें हिरासत में लिया जाता है और कठोर दंड प्रावधानों के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है। जिन आरोपों के तहत दिल्ली से कई छात्रों और कार्यकर्ताओं को शुरू में गिरफ़्तार किया गया था, वे गंभीर थे। ये आरोप थे -147 (दंगा करना), 148 (घातक हथियारों के साथ दंगा करना), 149 (ग़ैरक़ानूनी सभा करना), 124 A (देशद्रोह), 153 A (धर्म के आधार पर अलग-अलग समूह आदि के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 120 B (आपराधिक साज़िश), शस्त्र अधिनियम की धारायें और यहां तक कि 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास)।

एक सर्वव्यापी साज़िश के तहत दर्ज की गयी प्राथमिकी ने पुलिस को संदिग्धों के सर्कल, और क़ानून के प्रावधानों का विस्तार करने की अनुमति दे दी है। दिल्ली पुलिस ने सख़्त आतंकवादी विरोधी क़ानून, ग़ैरक़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (UAPA) मढ़ दिया है। इस क़ानून का इस्तेमाल लंबे समय से असहमति को दबाने और पूरे समुदायों को संदिग्ध बनाने के लिए किया जाता रहा है।

दिल्ली पुलिस ने कार्यकर्ताओं पर ग़ैरक़ानूनी गतिविधि, आतंकवादी अधिनियम, आतंकवादी साज़िश और आतंकवादी कृत्यों के लिए धन जुटाने में शामिल होने का आरोप लगाया है। अब पूर्वोत्तर दिल्ली में फ़रवरी में हुई हिंसा के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह एक साथ शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक विरोध का अपराधीकरण करने जैसा है, जबकि अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा को अंजाम देने वाले अपराधियों को पूरी से प्रतिरक्षा दी जा रही है। यह दक्षिणपंथी पार्टी के उन नेताओं को खुला छोड़ देता है, जिसके बारे में दबी ज़बान में कहा जा रहा है कि उन्होंने नफ़रत फैलाने वाले भाषण दिये थे, और जिन्होंने गुस्से से भरे भीड़ का नेतृत्व किया था और विरोध प्रदर्शनों को ख़त्म करने के लिए पुलिस को अल्टीमेटम दिया  था।

इस समय भी सीएए कार्यकर्ताओं को फ़ांसने का काम जारी है: डॉ.अनवर, जिन्होंने फ़रवरी की हिंसा के दौरान हुए हमले में घायल (सभी मुसलमानों) जिन मरीज़ों का इलाज किया था, उनका नाम भी आरोप पत्र में लिया गया है, इसके अलावा पुलिस द्वारा उन्हें धमकाया और डराया जा रहा है; सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों की ख़ातिर सामुदायिक रसोई चलाने के लिए अपना फ़्लैट बेच देने वाले एक सिख व्यक्ति को हिंसा के दौरान एक पुलिस की हत्या का आरोप लगाते हुए आरोपपत्र में नामित किया गया है।

उत्तर प्रदेश (यूपी) में भी प्रदर्शनकारियों पर सरकार के ग़ुस्से की गाज गिरी है। वहां हज़ारों प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया है, उन पर ग़ैर-मामूली आरोप लगाये गये हैं। गिरफ़्तार किये गये लोगों में एक मुस्लिम संगठन, पॉपुलर फ़्रंट ऑफ़ इंडिया के कथित सदस्य, कई नाबालिग़ और बुज़ुर्ग नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी एस.एस.दारापुरी हैं।

डॉ. कफ़ील ख़ान को बेहद सख़्त निरोधक क़ानून,यानी उस राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत गिरफ़्तार किया गया है, जिसके अंतर्गत चार्जशीट दाखिल किये बिना भी पुलिस कफ़ील ख़ान को एक साल तक जेल में रख सकती है।

अभूतपूर्व प्रतिशोध की कार्रवाई करते हुए यूपी सरकार ने प्रदर्शनकारियों के नाम और फ़ोटो तक छपवा दिये और सार्वजनिक रूप से उन्हें प्रदर्शित भी कर दिये। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए इसे अवैध और गोपनीयता का घोर उल्लंघन बताया और राज्य सरकार को इस तरह के नाम और फ़ोटो वाले होर्डिंग्स हटाने का निर्देश दिया।

जब यूपी सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस आदेश के ख़िलाफ़ अपील की,तो सुप्रीम कोर्ट ने बाद में इस मामले को एक बड़ी बेंच के पास भेज दिया। इन गिरफ़्तारियों के पीछे का मक़सद बिल्कुल साफ़ है और वह है-आंदोलन को तितर-बितर करना, प्रदर्शनकारियों का अपराधीकरण करना और एक पूरे समुदाय को अपमानित करना।

प्रश्न: गिरफ़्तार किये गये कार्यकर्ताओं में एक छात्रा सफ़ूरा जरगर है, वह गर्भवती हैं और हाल तक उनकी ज़मानत को बार-बार खारिज किया जाता रहा था। आख़िर मुकदमा चलाये जाने से पहले हिरासत में लिये जाने को लेकर अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के मानक क्या हैं ?

मनीषा सेठी: हमारे लिए यह सामूहिक राहत की बात है कि तीन बार ख़ारिज किये जाने के बाद अब सफ़ूरा को ज़मानत मिल गयी है। उनकी ज़मानत का सख़्ती से विरोध किये जाने के बाद, राज्य ने उस "मानवीय आधार" पर ज़मानत दे दी है, जिसके बारे में उसे अचानक पता चला है। सच्चाई तो यह है कि सफ़ूरा की ज़मानत के पीछे का आंशिक कारण वह ज़बरदस्त अंतर्राष्ट्रीय दबाव हो सकता है,जो सफ़ूरा के लगातार हिरासत में रखे जाने के ख़िलाफ़ पड़ रहा था, और इसके पीछे की आंशिक वजह यह भी थी कि अभियोजन पक्ष इस मामले की मेरिट पर चर्चा करने से बचने की कोशिश कर रहा था। यह अच्छी तरह से जानते हुए कि सफ़ूरा या अन्य गिरफ़्तार किये गये लोगों के ख़िलाफ़ तिलमात्र भी सबूत नहीं था, फिर भी सरकार इस मामले की मेरिट की बुनियाद पर ज़मानत देने से बचना चाहती थी। इससे अन्य आरोपियों को भी ज़मानत देने का रास्ता ख़ुलेगा।

भारत में मुकदमा चलाये जाने से पहले हिरासत में रखे जाने की अवधि दुनिया में सबसे लंबी है। किसी साधारण आपराधिक क़ानून के तहत भी अभियोजन को चार्जशीट दाखिल करने में 90 दिन तक का समय लग सकता है, और यह अवधि यूएपीए के मामले में तो 180 दिन यानी पूरे छह महीने तक जा सकती है।

यूएपीए निष्पक्ष परीक्षण तथा जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की संवैधानिक गारंटी को खोखला कर देता है। यूएपीए की धारा 43 डी (5), जो ज़मानत के प्रावधानों से सम्बन्धित है, वास्तव में 2004 में निरस्त किये गये आतंकवाद निरोधक अधिनियम के एस.49 (7) की ही नक़ल है। यह किसी अभियुक्त को ज़मानत हासिल करने की स्थिति को व्यावहारिक रूप से असंभव बना देता है। इस धारा के तहत, सरकारी वक़ील की सुनवाई होने तक जमानत नहीं दी जा सकती है, और मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपपत्र की व्याख्या के आधार पर इसे नामंज़ूर भी किया जा सकता है। इसलिए, वास्तव में किसी अभियुक्त को अपनी बेगुनाही का प्रदर्शन करना पड़ता है, वह भी मुकदमे की शुरुआत में, ताकि उसे ज़मानत मिल सके। इस प्रकार, यूएपीए साफ़ तौर पर और क़ानूनी रूप से इस बेगुनाही की पूर्व धारणा को मानने से इंकार करता है।

लेकिन फिर भी, पहली नज़र में सफ़ूरा को ज़मानत देने से इंकार करना क़ानून के लिहाज से बुरा था, क्योंकि अभियोजन पक्ष के पास इस बड़बोलेपन के अलावे कुछ भी नहीं था कि सफ़ूरा का सम्बन्ध एक आतंकवादी संगठन से था या सफ़ूरा ने किसी ग़ैरक़ानूनी गतिविधि को अंजाम दिया था।

हमारा अनुभव बताता है कि जब इस तरह के आतंकी आरोपों की बात की जाती है, तो न्यायाधीश आमतौर पर ज़मानत देने को लेकर बेहद संवेदनशील हो जाते हैं, उनका झुकाव अभियोजकों और राष्ट्रीय सुरक्षा की धारणा की तरफ़ हो जाता है।

प्रश्न: भारत में जेलों की स्थिति को देखते हुए आप महामारी के दौरान कार्यकर्ताओं के क़ैद किये जाने के निहितार्थ को कैसे देखते हैं ?

मनीषा सेठी: भारतीय जेल बड़े पैमाने पर उन विचाराधीन क़ैदियों से बुरी तरह ठसाठस भरे हुए हैं, जिन्हें "जमानत दी जानी चाहिए, लेकिन इसके बावजूद वे जेलों में बंद हैं और सेहत के लिहाज से ख़राब हालात में रह रहे हैं, यह स्थिति इन जेलों को उनके लिए किसी महामारी के शिकार बनाने वाले एकदम अनुकूल जगह बना देती है। दरअसल, देश भर की जेलों से आ रही रिपोर्टों पता चलता है कि क़ैदी लगातार हो रहे टेस्ट में पोज़िटिव पाये जा रहे हैं।

इस पृष्ठभूमि में भी दिल्ली पुलिस छात्रों को लगातार गिरफ़्तार कर रही है और उनसे लंबी-लंबी पूछताछ कर रही है। दरअस्ल, दिल्ली में इन गिरफ़्तारियों की रफ़्तार में तब तेज़ी आ गयी थी,जब गृह मंत्री की तरफ़ से इस तरह के आदेश दिये गये थे। जबकि ये गिरफ़्तारियां सरकार की तरफ़ से चलायी जा रही बदले की नीति के नतीजे हैं, यही वजह है कि किसी को यह समझ नहीं आ रहा है कि अदालतें ऐसे समय में ज़मानत देने से इनकार क्यों कर रही हैं। जेलों से इन सभी क़ैदियों को हटाने की ज़रूरत है, क्योंकि क़ैद कोई मौत की सज़ा नहीं हो सकती है, जिसके होने का ख़तरा है।

प्रश्न: कोविड-19 महामारी के चलते तात्कालिक तौर पर थमे हुए इस सीएए विरोधी आंदोलन का भविष्य क्या है ? कार्यकर्ताओं के लिए आपका क्या संदेश है ?

मनीषा सेठी: यह पर्याप्त रूप से साफ़ है कि सरकार को इस बात की उम्मीद है कि वह गिरफ़्तारी और क़ैद के झटके और ख़ौफ़ के बीच कमज़ोर दिख रही आंदोलन की चिंगारी को बुझा लेगी। हालांकि, दर्जनों शहरों में यह सीएए विरोधी प्रदर्शन व्यापक थे, इन प्रदर्शनों में बड़े पैमाने पर लोग जुटे थे और लंबे समय तक सभायें चलती रही थीं, इस तरह के मंज़र हमने लंबे समय से नहीं देखे थे। दिलचस्प बात है कि इनका नेतृत्व और संचालन आम मुस्लिम समूहों द्वारा किया गया था। इसमें न तो पारंपरिक मुस्लिम नेतृत्व था, और न ही विशिष्ट नागरिक समाज समूह इसका संचालन कर रहा था।

इस दौर (विरोध प्रदर्शनों) ने उन नौजवानों और महिलाओं का राजनीतिकरण होते देखा है, जिन्होंने महसूस किया है कि आख़िर सीएए जिन चीज़ों का सामने लाता है, वह है-दूसरे दर्जे की नागरिकता को क़ानूनी जामा पहनाना। यह (महामारी) एक तात्कालिक झटका हो सकता है, लेकिन मुझे संदेह है कि यह इस आंदोलन का अंत है। मैं उन लोगों को कोई संदेश देने की बेअदबी नहीं करना चाहूंगी, जिन्होंने आंदोलन का नेतृत्व किया है। इस आंदोलन से  उम्मीद की जा सकती है और बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

इस आंदोलन से एक संदेश, जो विपक्षी दलों को मिल सकता है, वह यह है कि वे सिर्फ़ बयान जारी करने के कर्मकांड वाले नज़रिये से आगे जाकर आंदोलन का समर्थन करें, हर जगह सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं की रिहाई की मांग करें, और "मुस्लिम वजह" से इस आंदोलन के साथ खड़े होने से न हिचकिचायें।

(मानसी शर्मा दिल्ली स्थित फ़ोकस ऑन ग्लोबल साउथ के साथ जुड़ी हुई हैं।)

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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