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कला विशेष : महिला कलाकार की स्वतंत्र चेतना और विषय निर्भीकता

अक्सर नारी कलाकार भी पुरूष के सौंदर्यमानक से अभिभूत नजर आती हैं। अखिल भारतीय स्तर पर चुनिंदा महिला कलाकारों ने ही विचार के स्तर पर भी स्वतंत्र स्त्री दृष्टि को अपनी कला अभिव्यक्ति में मुखरित किया है।
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कलासृजन को मुख्यतः महिलाओं का विशेष गुण माना गया है। कलावंती, गुणवंती वैगरह– वैगरह उपमाएँ होनी चाहिए एक स्त्री में। आधुनिक हुए तो महिला कलाकारों का आत्मनिर्भर होना मात्र ध्येय बन गया। लेकिन मानो या न मानो साहित्य में विषय चयन को लेकर काफी पहले से ही महिलायें सतर्क नजर आती हैं। यहाँ तक अभिनय रंगमंच आदि में भी महिलाएं निर्भीक नजर आती रही हैं।  परन्तु दृश्य कला (चित्रकला, मूर्तिकला आदि) में महिलाएं कुछ अपवादों को छोड़ कर कूपमंडूक ही हैं। मानो कला चिंतन, विषय-वस्तु चिंतन उनके हिस्से ही नहीं है। अभिव्यक्ति, भावांकन आदि उनके हिस्से में नहीं आता है। अभिव्यक्ति के नाम पर विषय के रूप में है सुन्दर नारी जीवन, गृहस्थ जीवन और आदर्श जीवन। नारी विषय मात्र देह और देहयष्टि प्रमुख हो जाती है, व्यक्तित्व की साहसिकता विलुप्त हो जाती है। विचार गौण हो जाता है, अनुभूति ईमानदारी से चित्रित नहीं होती। होती भी है तो पुरूष दृष्टि से संपादित।

अक्सर नारी कलाकार भी पुरूष के सौंदर्यमानक से अभिभूत नजर आती हैं। अखिल भारतीय स्तर पर चुनिंदा महिला कलाकारों ने ही विचार के स्तर पर भी स्वतंत्र स्त्री दृष्टि को अपनी कला अभिव्यक्ति में मुखरित किया है। अन्यथा वर्तमान दौर में महिला कलाकारों की सूची देखें तो ज्यादातर कलाकारों की कृतियाँ गृह सज्जा (इंटीरियर डेकोरेशन) के उद्देश्य से ही गढ़ी जा रही हैं। शुरुआती दौर में बहुत कम महिलाओं ने कला को अपना व्यवसाय बनाया। ज्यादातर उनकी कला शिक्षा अध्यापन में ही काम आयी।

देश में जिन चुनिंदा महिलाओं ने कला को अपनी- अभिव्यक्ति का माध्यम और व्यवसाय रूप में  चित्रकला या मूर्तिकला चयनित किया, वे पुरूष कलाकारों के बनिस्पत ज्यादा निर्भीक और आत्मविश्वास से लबरेज़ थीं। क्योंकि उनके लिए यह राह आसान नहीं थी। कहा जाय तो कांटो भरा ही रही होगी। ज्यादातर कलाकार अपनी कलाकृतियों में अपने अस्तित्व और अस्मिता से संघर्ष करती नजर आती हैं।

उनकी कृतियों में प्रेम है, दुख है, विक्षोभ है,-- संघर्ष ही नजर आता है जो वास्तविक समाज में उन्हें मिलता रहता है। क्योंकि तमाम प्रतिभा और विद्वता के बावजूद उन्हें हमारी सामाजिक, भौतिक व्यवस्था के तहत उन्हें मात्र महिला होने का मतलब बताया जाता है, कदम-कदम पर एहसास कराया जाता है। संवेदनशीलता या भाव अभिव्यक्ति में उन्हें कलाकार होने के बावजूद कमतर बताने की कोशिश की जाती है।

अमृता शेरगिल को अपने प्रगतिशील कला दृष्टि और अपने नवीन चित्रण शैली के कारण समकालीन पुरूष प्रधान कला जगत ने स्वीकार नहीं किया। कला विषय चयन में वे निर्भीक थीं। मानव शरीर अध्ययन कला शिक्षण का विषय था और उन्होंने उसके आधार पर अपना स्वचित्रण कर डाला। उस समय के कला दृष्टिकोण के अनुसार यह अपाच्य ही था, क्योंकि अब तक अनावृत नारी सौंदर्य को दिखाने का अधिकार अलिखित रूप से पुरूष कलाकारों को ही था। सवाल अभिव्यक्ति का है न कि मानव शरीर को दिखाने का। ये तो कलाकार को ही तय करने का अधिकार है कि चित्र विषय के रूप में क्या दिखायें, चाहे वो स्त्री हो या पुरूष का। इसके साथ दृष्टिकोण का भी सवाल है। भारतीय  मूर्तिकला,  अनावृत मानव  आकृतियों से भरी पड़ी है। आपके अतंरमन का भाव ही आप पर हावी रहता है। जिसके तहत आप कलाकृतियों का अवलोकन करते हैं। दोष कलाकृतियों का नहीं आपकी दृष्टि का है, विचारधारा का है।

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अमृता शेरगिल का कला-संघर्ष व्यर्थ नहीं गया। उनके बाद कई महिला कलाकारों ने कलाकर्म को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और गंभीर, विषय प्रधान कलासृजन किये सजीव, सुन्दर रंग आकृतियों में। 

अर्पिता सिंह ऐसी ही एक महत्तवपूर्ण चित्रकार हैं। उनकी चित्रण शैली लोक कला शैली, अजंता चित्रण शैलीके साथ - साथ, फ्रांसिस चित्रकार मार्क शॉगाल तथा थिओडोर रूसो से प्रभावित नजर आती हैं। उनके चित्रों में नारी की ममता, दया और सुकुमार एवं शांत रूप-भाव के साथ उपस्थित रहती हैं।

 मेरी मां, कैनवस पर तैल रंग , 54"×72", 1995, चित्रकार: अर्पिता सिंह, साभार : आर्ट इण्डिया, वर्ष 2006 , मुम्बई

उदाहरणस्वरूप 'मेरी मां' '  ( माई मदर) चित्र में एक बुजुर्ग महिला आकृति, श्वेत नीले रंगों का वस्त्र धारण किए हुए है, एक विशेष भाव-भंगिमा में खड़ी है जबकि पार्श्व में कई मानव आकृतियां, गाड़ियां, साइकिल, गिरी हुई कुर्सी अन्य सामग्रियां गड्डमड्ड सी हैं, मध्य में गहरी नीली सड़क पर एक नीला ट्रक है जिसके आगे कई मृतप्राय मानव आकृतियां सफेद कपड़ों में गिरी पड़ी हैं। बुजुर्ग महिला मानो सभी घटनाओं से अनिभिज्ञ है। चित्र का विषय गंभीर होने के बावजूद रंगों का संयोजन चित्रकार के सादगीपूर्ण निश्छल मनोभावों को ही दिखाता है।

अर्पिता सिंह ने देश विभाजन की त्रासदी को अपनी आंखों से देखा था। उनका जन्म 1937 में पश्चिम बंगाल में हुआ था। 1946 में वे दिल्ली आ गई थीं। प्रसिद्ध वरिष्ठ चित्रकार परमजीत सिंह उनके पति हैं।

अंजलि इला मेनन (जन्म 1940) के चित्रों में भी विषय की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के बावजूद महिला मुखाकृति निराशा और व्यथा पूर्ण भाव में नजर आती हैं। अक्सर उनके चित्रों में महिला आकृति प्राचीन दरवाजों या खिड़कियों के चौखटे के आगे या पीछे गहन उदासी लिए खड़ी मर्मस्पर्शी प्रभाव उत्पन्न करती नजर आती हैं। उनके चित्रों में बैजिन्तिया कला की चमकीली रंग संगति है, तो रूसी देव प्रतिमा या प्राचीन चीनी लाक्षा पात्रों से प्रेरित नजर आते हैं।

अमृता शेरगिल और एम एफ हुसैन ने काफी प्रेरित किया है, अंजलि इला मैनन को। वे एक भित्ति चित्रकार भी हैं। उन्हें भारत सरकार द्वारा 2000 में पद्मश्री प्राप्त हुआ। उनकी कृतियां  विश्व की महत्वपूर्ण संग्रहालयों में संग्रहित हैं। मुझे दिल्ली में उनके कई चित्रों को देखने का सुअवसर मिला है। मैंने रवीन्द्र भवन नई दिल्ली में प्रदर्शित उनके रंगीन इंस्टालेशन को देखा है।

वर्तमान समय में देश के सामाजिक उथल-पुथल से अंजलि इला मेनन बेखबर नजर नहीं आतीं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने मॉब लिंचिंग के इस दौर के  बारे में कहा,"भीड़ का हमला सबसे भयानक होता है। सनकी भीड़ जब सिर्फ़ सुनी-सुनाई बातों पर बिना कुछ सोचे-समझे कानून हाथ में ले लेती है तो उसका शिकार पानी मांगने लायक नहीं रह जाता। बीच भीड़ में ही शामिल कुछ लोगों का वीडियो बनाया जाना, सोचिये इंसानों को भेड़ियों में कौन तब्दील कर रहा है। अगर यह किसी संगठन का मिशन है तो कितना भयानक है" । (रितू तोमर: हिन्दी.साक्षी समाचार.कॉम-2018/07/28।)

महिषासुर मर्दिनी, मिश्रित माध्यम, चित्रकार : डॉ. मृदुला सिन्हा। पेंटिंग साभार- डॉ. मृदुला सिन्हा

डॉ. मृदुला सिन्हा (भूतपूर्व संकाय प्रमुख, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) के शुरुआती चित्रों में जो धुंधले पृष्ठ भूमि में नारी आकृति उभरती हुई एक रहस्य सा दृश्य प्रस्तुत करती हैं। वे ज्यादातर लघुचित्र ही होते हैं। ज्यादातर में नीले रंग, पीले या गुलाबी रंग ही होता है। नीला रंग ज्यादा हावी रहता है। अगर उसमें हल्का पीला रंग नहीं होता तो पिकासो के नीले रंग संगति वाले दुखद और उदासी वाले चित्र श्रृंखला सा हो जाता। मौलिक चित्रण शैली को लेकर मृदुला सिन्हा हमेशा सजग रही हैं। अपने मूल्यों पर जीने और आदर्श कला प्राध्यापक होने के नाते कुछ कारणों से उन्हें हमेशा सहकर्मी कला प्राध्यापकों का विरोध का सामना करना पड़ा है। जो उन्हें उद्वेलित करती रहीं, फलस्वरूप अकथ्य चित्रों में उद्धाटित होता रहा।

कई बार कुछ संवाद जब अपने ही करीबी लोगों में संप्रेषित नहीं होता तो वह कलाकार के मन मस्तिष्क में घुटता रहता है। ऐसे में कला ही वो माध्यम है जो कलाकार को अपनी मन की बात को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत कर सकती है। मृदुला सिन्हा के चित्र इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। उनकी कलाकृतियों और विचार से मुझे कई बार रूबरू होने का मौका मिला है। वह मूलतः उत्तर प्रदेश की हैं। कॉमनवेल्थ अकादमिक स्टाफ के फेलोशिप के तहत 1993-94 की अवधि में उन्हें इंगलैंड जाने का मौका मिला।

यूके प्रवास ने उनके कलासृजन को भी काफी प्रभावित किया। उनके चित्रों में निर्भीक रेखाओं और जीवंत आकारों का का सृजन हुआ। अन्य समर्थ कलाकारों के समान उनकी शैली में भी समयानुसार परिवर्तन आते रहता है। बीच में एक कोमल रंग संगति वाले उनके चित्र में निर्दोष सा कबूतर बहुत कुछ कह जाता है उनके सादगीपूर्ण व्यक्तित्व के बारे में।

उनकी नवीनतम कृति भारतीय पौराणिक महिला रूप देवी महिषासुरमर्दिनी पर आधारित है जिसमें तीव्र गतिशील रेखाओं वाली दुर्गा का रूप उनके सही बात   पर अडिग रहने वाली प्रवृत्ति, दोषियों के विरुद्ध दण्ड प्रक्रिया और आततायियों के संहार की ही बात करता है। कई महत्वपूर्ण संग्रहालयों में उनकी कृतियां संग्रहित हैं।

कितना भी हम अमूर्तन में क्यों न जायें, लेकिन कलाकारों को मानवाकृतियों के अंकन की ओर बार बार लौटते देखा जा सकता है। इसलिए ज्यादातर महिला कलाकार आकृति मूलक चित्रों का ही अंकन करती हैं।

एक अन्य आधुनिक महिला चित्रकार हैं अंजू डोडिया जो मूलतः बंबई की कलाकार हैं, इनके पति अतुल डोडिया समकालीन महंगे कलाकार हैं, कलाकृतियों के निलामी की दृष्टि से। अंजू डोडिया महिला हैं तो स्वाभाविक है महिला संवेदना और अनुभूति से अभिप्रेरित हैं उनके चित्र, यही ईमानदारी भी है। उनके सुंदर चित्रों में स्व चित्रण ही नहीं कलाकार की आत्मअनुभूति, आत्मपीड़ा है।

बीहड़ का बागबान, कपड़े पर ऐक्रेलिक रंग, चित्रकार, अंजू डोडिया, साभार: आर्ट इण्डिया, कला समाचार पत्रिका, वर्ष 2005 , मुम्बई

अंजू की ज्यादातर कृतियाँ महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को भी दर्शाते हैं। कई बार रंगमंचीय प्रभाव जैसे प्रमुख पात्र के रूप में अत्यधिक पीड़ित और दुखद भाव लिए महिला उपस्थिति होती है। रंगसंगति धूसर स्याह , भूरा रंग रहता है उनके चित्रों में। जापानी-यूकिओ-ई छापा चित्र शैली  के प्रभाव में रेखाएँ, रंग, आकार भी हैं। उनके ऐक्रेलिक रंगों या जलरंगों वाले चित्रों में, रहस्य, रोमांच नहीं बल्कि सच का बयां करते हैं ,प्रतिभाशाली कलाकार अंजू डोडिया के सभी चित्र।

गोगी सरोज पाल (जन्म 1945) प्रख्यात समकालीन चित्रकार हैं। चित्र विषय के रूप में ज्यादातर अनावृत महिला को दिखाने पीछे इनकी बहादुर और निर्भीक मंशा रही है। अपने चित्रण शैली में वे पश्चिमी कला से आक्रान्त होने के बजाय भारतीय आकृतिमूलकता को महत्व देती नजर आती हैं। वे सुन्दर रंगों से अपने अनुभवों, भावों और विचारों को सृजित करती हैं। जिनके विषय धर्म, अनुष्ठानों और मिथकों पर आधारित हैं। 1968 में वे दिल्ली आईं और अपने कठिन परिश्रम से एक स्वतंत्र चित्रकार के रूप में खुद को स्थापित किया है। यह बहुत बड़ी बात है।

संवेदनशील और मार्मिक विषय लेकर चलने वाली अन्य भारतीय महिला कलाकारों में अनूपम सूद,  अर्पणा कौर, कुमुद शर्मा, सावित्री पाल,शीला शर्मा आदि हैं।

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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