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आख़िर गुस्से में क्यों दिख रहे हैं हमारे अशोक स्तंभ के शेर!

पहले शांत-सौम्य राम, जय श्रीराम का युद्धघोष हुए, फिर वीर और धीर हनुमान, रौद्र हनुमान हुए और अब हमारे अशोक स्तंभ के शेर भी बेहद गुस्से में दिखाई दे रहे हैं।
 Ashoka Stambh

तीन तस्वीरें आपके सामने हैं

1. एक हमारे-आपके, गांधी जी के राम, जय सियाराम और दूसरे उनके यानी आरएसएस-भाजपा के जयSSSS श्रीरामSSSS…

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2. हमारे-आपके वीर और धीर हनुमान और एक उनके आरएसएस-भाजपा या उनके समर्थकों के रौद्र हनुमान

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3. हमारा राष्ट्रीय प्रतीक, राष्ट्रीय गौरव अशोक स्तंभ और उसके शांत चार शेर....और उनके यानी आरएसएस-बीजेपी-मोदी जी के चार उग्र शेर...गुस्साए शेर...

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ये बात किसी को मामूली लग सकती है, लेकिन है बहुत गंभीर। आपको शायद अच्छी लगती है, लेकिन है ख़तरनाक।

‘अल्बर्ट पिंटो’ को गुस्सा आना ठीक बात है। ‘एंग्री यंग मैन’ का गुस्सा भी जायज़ है। लेकिन भारत के प्रतीकों, भारत की आस्था, भारत की पहचान, इन्हें गुस्सा आना ठीक नहीं।

आप कह सकते हैं कि यही तो है असली शेरों वाली बात...ऐसे ही होने चाहिए राष्ट्रीय प्रतीक, जिन्हें देखकर दुश्मन का कलेजा कांपें....लेकिन नहीं मेरे दोस्त, किसी के राष्ट्रीय प्रतीक देखकर उसके प्रति आदर, सम्मान और प्रेम का भाव जागना चाहिए। डर का नहीं। और सच्चाई यही है कि कोई किसी के राष्ट्रीय प्रतीक को देखकर डरता या कांपता नहीं, बल्कि उसकी वास्तविक ताक़त यानी उसकी रक्षा प्रणाली और अंतत: उसकी आर्थिक प्रगति देखकर ही डरता, कांपता और घबराता है। और यही आर्थिक विकास, आर्थिक प्रगति कंपीटिशन का विषय हैं। न कि पोस्टर, मूर्तियां।

वरना श्रीलंका के झंडे में तो शेर तलवार लिए है। और आज उसकी हालत देख रहे हैं आप। सारी ख़बरें और तस्वीरें तो आप तक पहुंच रही होंगी कि कैसे उस देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई है। कैसे कल तक धर्म, नफ़रत और गुस्से की सियासत करने वाले आज जनता के गुस्से के आगे एक चूहे की तरह अपने राजमहल छोड़कर भाग खड़े हुए हैं।

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इसलिए ये गुस्सा ठीक नहीं। भगवान राम के लिए तो बिल्कुल नहीं। हनुमान के लिए भी नहीं और भारत के शेरों के लिए भी नहीं। डॉक्टर भी कहते हैं कि गुस्सा आपकी ताक़त का नहीं बल्कि आपकी कमज़ोरी, आपकी बीमारी की निशानी है।

बचपन में हमने मंदिर हों या पोस्टर, कैलेंडर हर में राम की मूरत और सूरत शांत-सौम्य ही देखी है। मंद मुस्कान। आशीर्वाद देने की मुद्रा में। चाहे वो अकेले हों या सीता जी के साथ। या पूरा राम दरबार।

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लेकिन राममंदिर आंदोलन के दौरान 90 के दशक के शुरुआती साल या 80 के दशक के आख़िरी में हमने मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तस्वीरों को अचानक बदलते देखा। शांत और आशीर्वाद देने वाले राम, अचानक धनुष बाण उठाए रौद्र रूप में दिखाई देने लगे। इस एक प्रतीक के माध्यम से धीरे-धीरे एक पूरे समाज में गुस्सा भर दिया गया।

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न...न। ये गुस्सा भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी के लिए नहीं था। शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए भी नहीं था। ये गुस्सा था मंदिर-मस्जिद को लेकर। ये गुस्सा था हिंदू, मुसलमान के नाम पर।

सन् 1992 में भारतीय संविधान को ठेंगा दिखाते हुए, सुप्रीम कोर्ट की सरेआम अवमानना करते हुए अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। इस दावे के साथ कि यहीं राम का जन्म हुआ था। जबकि अयोध्या के लगभग हर दूसरे मंदिर को लेकर इसी तरह के दावे किए जाते हैं। हर पुजारी कहता है कि उसी का मंदिर असली राममंदिर है, वहीं रामलला का जन्म हुआ।

ख़ैर..सियासत के चलते जबरन मस्जिद गिरा दी गई और अब भव्य मंदिर भी बन रहा है, लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ?

इसका नतीजा हुआ कि एक पूरा दौर, पूरा देश नफ़रत और हिंसा की चपेट में आ गया। एक पूरा दशक दंगे-फसाद में बर्बाद हो गया। और ये सिलसिला अभी थमा नहीं है। ये अलग बात है कि इसी राजनीति के बदौलत दो सांसदों वाली पार्टी आज पूर्ण बहुमत से सत्ता में है।

विडंबना यह कि इस नफ़रत और बंटवारे की राजनीति को कम करने की बजाय इसे लगातार बढ़ाने की कोशिश हो रही है। हिन्दुत्ववादी राजनीति करने वाले या उनके समर्थकों ने न केवल इतिहास से छेड़ाछाड़ की बल्कि आस्था के अन्य प्रतीकों को भी बदलने की कोशिश की। ऐसे ही किसी ‘उत्साही’ समर्थक ने हनुमान जी की रौद्र स्वरूप वाली तस्वीर गढ़ी।

जैसे मैंने पहले कहा हमने बचपन से जैसे शांत-सौम्य राम की तस्वीर देखी थी, वैसे ही हनुमान की भी देखी थी। राम दरबार में राम-सीता के आगे हाथ जोड़े बैठे हनुमान, संजीवनी बूटी के लिए पर्वत उठाकर लाते हनुमान, अपना हृदय चीरकर दिखाते हनुमान कि उसमें राम और सीता ही समाए हैं। इसके अलावा आशीर्वाद देते हनुमान, भजन गाते हनुमान, लेकिन किसी भी मूरत या सूरत में उग्र हनुमान नहीं देखे थे।

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लेकिन एक कलाकार ने ऐसी सूरत गढ़ी और वो एक ट्रेंड बन गई। हर गाड़ी के पीछे यही रौद्र रूप वाले हनुमान स्टीकर बनकर चिपक गए। और अब तो हनुमान चालीसा का मस्जिदों में पाठ करने की ज़िद है।

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आस्था के बाद राष्ट्रीय प्रतीक बदले जा रहे हैं। राष्ट्रीय नेता तो पहले ही जीवन आदर्शों की बजाय मूर्तियों में ढाल दिए गए। मोदी राज में उनकी गगनचुंबी मूर्तियां स्थापित करके रिकार्ड बनाया जा रहा है। भारत के पहले उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार पटेल इसका उदाहरण हैं, जिनकी 597 फीट ऊंची लोहे की मूर्ति स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के नाम से गुजरात में स्थापित की गई। क़रीब 3000 करोड़ खर्च करके।

फिर राष्ट्रीय स्मारक। जैसे इंडिया गेट स्थित अमर जवान ज्योति को दूसरी जगह यानी नए बनाए गए राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में स्थानांतरित कर दिया गया।

यही नहीं पटेल की तरह नेताजी सुभाष पर अपना दावा ठोंकने के लिए उनकी ठोस छवि एक होलोग्राम में बदल दी गई।

और हज़ारों करोड़ खर्च करके पुराने संसद भवन की जगह नया संसद भवन बनाया जा रहा है। इस परियोजना का नाम है सेंट्रल विस्टा जीर्णोद्धार परियोजना। राजधानी दिल्ली में रायसीना पहाड़ी से इंडिया गेट तक, एक पूरा केंद्रीय प्रशासनिक क्षेत्र। अभी इसकी अनुमानित लागत क़रीब 13,450 करोड़ बताई जाती है।

और इसी सेंट्रल विस्टा में संसद भवन की छत पर स्थापित किया गया है हमारा राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ। 20 फीट ऊंचा और 9500 किलोग्राम का स्तंभ। जिसका अनावरण सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। इस मौके पर लोकसभा स्पीकर ओम बिरला भी मौजूद थे।

तस्वीरों में हमने देखा कि अशोक स्तंभ के शांत, वीर और धीर शेर भूखे से, दहाड़ते से, गुस्साए से दिखाई दे रहे हैं। ऐसा लगा कि शक्ति, साहस, आत्मविश्वास और गौरव के प्रतीक इन चार शेरों को जानबूझकर उत्तेजित, आक्रमक दिखाया गया है। ऐसा लगा कि जैसे किसी ने उनका चेहरा बनाने की बजाय बिगाड़ दिया हो। विरूपित कर दिया हो। एक ठेस लगी, भावनाएं आहत हुईं। हालांकि उनकी तरह हमारी भावनाएं आहत नहीं हुईं कि एफआईआर कराई जाए और पुलिस तत्काल किसी को गिरफ़्तार करने की कार्रवाई करे।

लेकिन यह सोचने का विषय है कि एक तरफ़ जब महंगाई और बेरोज़गारी की चौतरफ़ा मार है। जब सेना तक में युवाओं को ठेके पर रखने की नौबत आ गई है। ताकि पेंशन न देनी पड़े। अकेले जून माह में ही एक करोड़ 30 लाख रोज़गार कम हो गए हैं। जिसमें क़रीब 25 लाख वेतनभोगी कर्मचारी थे। ऐसे समय में ऐसी बड़े बड़े भवनों या मूर्तियों-स्तंभों पर ख़र्च की क्या ज़रूरत है। क्या हम श्रीलंका से कुछ भी सबक़ न सीखेंगे।

दो आपत्तियां और

पहली आपत्ति बौद्ध धम्म मानने वालों को हो सकती है। क्योंकि सम्राट अशोक बौद्ध धम्म के अनुयायी थे और उन्होंने 250 ईसा पूर्व महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार के लिए स्तंभ और स्मारक बनवाए थे। जिससे हमारा राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न अशोक चक्र और अशोक स्तंभ लिया गया है।

लेकिन सोमवार, 11 जुलाई को अशोक स्तंभ का अनावरण करते समय इसे ब्राह्मणवाद के सुपुर्द कर दिया गया। मतलब ये कि अनावरण के समय सारी ब्राह्मणवादी पूजा पद्धति और परंपराएं निभाई गईं। जबकि सब जानते हैं कि बौद्ध धम्म का ब्राह्मण धर्म से क्या नाता है। बौद्ध धम्म ब्राह्मण धर्म का पूरी तरह निषेध करता है।  

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दूसरी गंभीर आपत्ति यह हो सकती है/होनी चाहिए कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में राष्ट्रीय प्रतीकों का अनावरण, लोकार्पण या उद्घाटन या राष्ट्र को समर्पण किसी विशेष धर्म पद्धति से क्यों किया जाता है। यह हमारे संविधान के मूल भावना के विपरीत है। और यह काम प्रधानमंत्री की जगह लोकसभा अध्यक्ष को करना चाहिए था, यही सही होता, लेकिन जैसा मैंने पहले कहा, कि संविधान और उसकी मूल भावना से छेड़छाड़ किसी को आहत नहीं करती। परेशान नहीं करती। कोई एफआईआर नहीं होती, कोई गिरफ़्तारी नहीं होती।

क्या कीजिए- गोस्वामी तुलसीदास कह ही गए हैं— समरथ को नहिं दोष गोसाईं...

और हो भी तो... फ़ैज़ के शब्दों में—

बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी मुंसिफ़ भी

किसे वकील करें किस से मुंसिफ़ी चाहें

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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