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भाग 3 - क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : एशियाई भूख और काला हीरा

चीन , जापान, दक्षिण कोरिया, भारत और इंडोनेशिया जैसे एशियाई देश दुनिया के सबसे बड़े उत्सर्जकों में शामिल हैं। यह कुल उत्सर्जन के 40 फ़ीसदी हिस्सेदार हैं।
कोयले का प्रभुत्व

यह पांच हिस्सों वाली सीरीज़ का तीसरा हिस्सा है। इसमें हम जीवाश्म ईंधन का स्वच्छ ऊर्जा में बदलने की भारतीय और वैश्विक प्रतिबद्धताओं का परीक्षण कर रहे हैं। क्यों भारत में भविष्य में भी कोयले की अहमियत बनी रहेगी? क्यों जीवाश्म ईंधन को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलना अपने-आप में संकटकारी होगा?

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स्वच्छ ऊर्जा बदलावों की कुंजी पश्चिम से ज्यादा एशिया के हाथ में है। इस महाद्वीप में एक करोड़ बहत्तर लाख वर्ग मील क्षेत्रफल के 48 देश हैं। यहां की आबादी चार अरब सोलह करोड़ चालीस लाख है।इसकी शुरुआती 18 अर्थव्यवस्थाएं दुनिया की 52 फ़ीसदी हैं।इसमें एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 88 फ़ीसदी लोग रहते हैं, जो वैश्विक ऊर्जा खपत का 39 फ़ीसदी खर्च करते हैं।

इस पूरी तस्वीर को चीन और भारत की स्थिति सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। दुनिया के दो सबसे बड़ी आबादी के मुल्कों के तौर इन देशों में वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति का 28 फ़ीसदी हिस्सा है।

एशिया में नवीकरणीय ऊर्जा का मामला बहुत कोरोना आने के पहले भी काफ़ी उत्साह भरा नहीं था।चीन,जापान,कोरिया गणतंत्र,भारत और इंडोनेशिया दुनिया के सबसे बड़े उत्सर्जक हैं। यहां नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं पर ध्यान देने के बावजूद 40 फ़ीसदी वैश्विक उत्सर्जन होता है।

एशिया और प्रशांत क्षेत्र में दो अरब लोग खाना बनाने और ताप के लिए पारंपरिक बायोमॉस, कोयले और कीरोसीन पर निर्भर हैं। ज्यादातर देशों में सरकारें आंतरिक प्रदूषण कम करने पर केंद्रित हैं।ताकि स्वच्छ रसोई योजनाओं से ग्रामीण जीवन स्तर में सुधार लाया जा सके।

इसलिए कई जगह स्वच्छ रसोई और ईंधन पर ज्यादा मज़बूती से ध्यान केंद्रित किया गया है। इन क्षेत्रों में LPG, बॉयोगैस,बिजली, बॉयोमास स्टोव और सौर ऊर्जा की तकनीकें ग्राहकों तक पहुंचने में समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

इस बात को समझते हुए REN:21 (रेन्यूबल एनर्जी स्टेटस रिपोर्ट 2019) में बताया गया कि इन क्षेत्रों में निवेश की कमी के चलते एशिया-प्रशांत क्षेत्र 2030 तक सभी नागरिकों को स्वच्छ खाना पकाने की तकनीक पहुंचाने में नाकामयाब रहेंगे। ध्यान देना होगा कि कोरोना के बिना ही स्वच्छ ऊर्जा की इस अच्छी मंशा के पूरे होने में खतरा था। भारत की कहानी भी इसी चीज की तस्दीक़ करती है।

चीन में भी कहानी इतनी ही जटिल है।

समन्वय में चीन की मुश्किल 

अपने तमाम नवीकरणीय प्रतिबद्धताओं और बेहतर क्षमताओं के बावजूद बीजिंग के साथ एक बुनियादी समस्या है। वह अपनी नवीकरणीय ऊर्जा संयत्रों का ग्रिड के साथ समन्वय करने में मुश्किलों का सामना करता है।

देश की ज़्यादातर पवन और सौर क्षमताएं जिनजियांग, आंतरिक मंगोलिया और गानशू जैसे पश्चिमी इलाकों में मौजूद हैं, जो पूर्वी इलाकों से काफी दूर हैं, इसलिए उन क्षमताओं को ग्रिड के साथ जोड़ने चुनौतीपूर्ण है।

 'ऑक्सफ़ोर्ड इंस्टिट्यूट ऑफ एनर्जी स्टडीज़' में 'चायना एनर्जी प्रोग्राम' के डायरेक्टर माइकल मेडन इससे पता चलता है कि क्यों कोयला आने वाले सालों में भी ऊर्जा उत्पादन का मजबूत स्तम्भ बना रहेगा।

बल्कि चीन में ऊर्जा उत्पादकों ने सरकार से 2030 तक 300 से 500 नए कोयला ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना करने देने की अनुमति मांगी है। ताकि 2030 तक ऊर्जा क्षमता मौजूदा क्षमता से 290 GW बढ़कर1,300 GW पहुंच जाए।

इसलिए, कोयले में बतौर प्राथमिक ऊर्जा खपत  वैश्विक स्तर पर 2011 में 70 फ़ीसदी हिस्सेदारी थी। यह 2018 में 59 फ़ीसदी पर आ गई। लेकिन इतना तय है कि 2050 तक कोयला सबसे बड़ा ऊर्जा स्रोत बना रहेगा।

नवीकरणीय ऊर्जा नीतियों और उत्पादन प्रोत्साहनों से नवीकरणीय ऊर्जा की मांग, प्रतिस्पर्धात्मक दामों और समन्वय में बेहतरी आई है।

लेकिन नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन की बदलती प्रवृत्ति और ग्रिड स्थिरता पर इसका प्रभाव बहुत परेशान करने वाला है। क्योंकि तेजी से फैलते एशिया के ढांचे में नयी क्षमताओं की बहुत जरूरत है। इसलिए अपनी तमाम प्रतिबद्धताओं और कोशिशों के बावजूद भारत और चीन को कोयले पर निर्भर रहना होगा।

फिर एशिया और अमेरिका-यूरोप के कोल प्लांट की उम्र में भी अंतर है। जिससे दोनों दुनिया के इन कोल प्लांट की कीमतों में भी अंतर आता है। एशिया में एक औसत कोयला संयंत्र की उम्र 12 साल है। वहीं अमेरिका-यूरोप में यह 42 साल है।

IEA के साथ जुड़े वरिष्ठ ऊर्जा विश्लेषक फर्नांडिज अल्वारेज बताते हैं कि एशिया में ज्यादातर कोयला संयंत्र पिछले 19 सालों में बने हैं।

एशियन कोल प्रोजेक्ट पाइपलाइन

एशिया में चीन को छोड़कर बाकी जगह भी कोयले के हालात कमोबेश ऐसे ही हैं।दक्षिणपूर्व और दक्षिण एशिया में 2024 तक कोयला संयंत्रों में 5 फ़ीसदी की बढ़ोतरी होती जाएगी।  इंडोनेशिया और वियतनाम के नेतृत्व में यह इलाका अपनी औद्योगिक महत्वकांक्षाओं के लिए कोयले की तरफ आतुरता से देख रहा है। 

पाकिस्तान में। हाल में 4 GW से भी ज्यादा क्षमता के नए कोयला संयंत्र लगाए गए हैं। इतनी ही मात्रा के संयंत्र पर काम जारी भी है। बांग्लादेश में अगले दो दशकों के दौरान 29 कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्र लगाने की योजना है। एशिया की कोयला पर आधारित पाइपलाइन अपनी कहानी खुद बयां कर रही है (नीचे चार्ट देखें)।

सबसे रोचक कहानी जापान की है। जापान 2030 तक अपनी ऊर्जा क्षमता 24 फ़ीसदी बढ़ाने के लिए लक्षित है। इसके तहत न्यूक्लियर बिजली की हिस्सेदारी 20-22 फ़ीसदी करने का लक्ष्य है।

नवीकरणीय ऊर्जा को मुख्य ऊर्जा स्रोत बनाने का लक्ष्य है, जिसमें 2030 तक इसकी हिस्सेदारी 22-24 फ़ीसदी करने का लक्ष्य है। 2016 में यह 10 फीसदी से भी कम थी। लेकिन उसके पास स्वच्छ ऊर्जा का रोडमैप नहीं है। जापान का 2020 में 10 बड़ी कंपनियां बनाने का लक्ष्य है, ताकि नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र को बढ़ावा दिया जा सके।

 इसके साथ जापान की कोयले के मोर्चे पर चल रही क़वायद को भी बताने की ज़रूरत है। जापान में 22 कोयला संयंत्रों को अगले 5 साल में 17 शहरों में खोला जाएगा। इनमें से 15 निर्माणाधीन हैं।

 इस तरह पर्यावरण की चिंताओं को कचरे के ढेर में द दिया गया है। 22 कोयला बिजली संयंत्रों द्वारा जापान हर साल 74.7 मिलियन मीट्रिक टन अतिरिक्त कार्बन का उत्सर्जन करेगा, जो ''नॉर्वे और स्वीडन'' के कुल उत्सर्जन से भी ज़्यादा है। अब जापान दुनिया का पांचवा सबसे बड़ा उत्सर्जक हो चुका है।

ऐसा नवीकरणीय ऊर्जा के भरोसेमंद सिस्टम, उचित दाम और बेहतर तकनीकी प्रदर्शन के बावजूद हुआ है। जबकि इस नवीकरणीय ऊर्जा को छोटे और विकेन्द्रीकृत विकल्पों के सहारे तैनात किया जा सकता है।

सकारात्मक REN रिपोर्ट में कहा गया,"नवीकरणीय निवेश का आकार और जीवाश्म ईंधन ढांचे में लगने वाले बड़े केंद्रीयकृत निवेश से अलग होते सार्वजनिक और निजी निवेशकों को सौर और पवन ऊर्जा की तरफ खींचकर इसे वितरित किया है (0.5MW से 30MW के बीच)।

इन सब चीजों से कंपनियों की भूमिका,उनकी अहमियत और वितरण-संचरण में भूमिका का पता चलता है, लेकिन फिर भी इससे एक समग्र जवाब नहीं मिलता। भारत जैसी बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के साथ -साथ एशिया के बड़े देशों का मानना है कि फिलहाल की जरूरतों का जवाब अकेला नवीकरणीय ऊर्जा नही हो सकती। 

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भारत की स्थिति का अंदाजा 2015 में पीयूष गोयल की घोषणा से लग जाता है। उन्होंने कहा था, "हम कोयला आधारित ताप विद्युतगृहों का विस्तार करेंगे। नवीकरणीय ऊर्जा विकल्प सतत नहीं होते। नवीकरणीय ऊर्जा दुनिया में किसी अर्थव्यवस्था का आधार नहीं बनी है।" गोयल तब ऊर्जा मंत्री थे।

10 जनवरी,2020 को भारत ने कोयले पर अपनी प्रतिबद्धता साफ कर दी थी।  11 जवारी को PIB ने खनन और खनिज एक्ट को बदलने के लिए जारी किए गए अध्यादेश की घोषणा की। इस अध्यादेश को "कोयले और खनन क्षेत्र के विकास में तेजी लाने" के लिए लाया गया था। इसकी तसदीक़ कोरोना वायरस के बाद आए प्रोत्साहन-राहत पैकेज से भी हो गयी। 

अध्यादेश से MMDR एक्ट 1957 के बदल दिया गया। इसे केंद्रीय कैबिनेट ने:

  • कोयला क्षेत्र में व्यापार की सुलभता बढ़ाने के लिए लागू किया।
  • कोयला खनन को सभी निवेशकों के लिए खोलकर इसे लोकतांत्रिक बनाने के लिए अध्यादेश को लाया गया। 
  • अध्यादेश को लाया गया ताकि अनजाने और आंशिक कोयला ब्लॉकों को लाइसेंसिंग और माइनिंग लीज़ के ज़रिए खोज जा सके।
  • सहभागिता पर अहर्ताओं और बाधाओं को हटाकर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ाया जा सके।
  • ताकि नीलामी में हिस्सा लेने वाले अपने अधीनस्थ प्लांट या कंपनियों के तहत आने वाली कोयला खानों का उपयोग कर सकें।

इस क्षेत्र में जारी बाध्यताओं को हटाकर बड़ी मात्रा में निवेश को लाया जा सके।

यह वह वायदा है, जिस पर सरकार खरी उतरी है। 16 मैं 2020 को की है घोषणा में खनन उद्योग को आर्थिक मंदी के ख़िलाफ़ जंग में मोर्चे पर सबसे आगे रखा है।

इससे "बंदी" और "गैर-बंदी" खदानों में अंतर स्पष्ट हुआ। जिससे खदानों की लीज़ और उपयोग न किए गए खनिजों का हस्तांतरण होना संभव हुआ। साथ में खनिजों की लीज़ अपने नाम पर करवाने के वक़्त लगने वाली स्टाम्प ड्यूटी को तार्किक बनाया गया।

इन प्रावधानों को खनन क्षेत्र में एक-दूसरे के पूरक कच्चे माल (बॉक्साइट और कोयले) की साझा नीलामी से भी बल मिला। 500 खदान क्षेत्रों में यह व्यवस्था की गई।

यह हर जगह, खासकर भारत में 'मृत' कोयले की कहानी कहने के लिए पर्याप्त है। इसका देश के निः-कार्बनीकरण पर गंभीर असर पड़ेगा। आखिर नवीकरणीय क्षेत्र में भी कम की निरंतरता नहीं है।

इंस्टीटूट ऑफ एनर्जी इकनॉमिक्स एंड फायनेंसियल एनालिसिस ने इसे ठीक ही समझा। भारत में नवीकरणीय ऊर्जा के विकास की गति एक जैसी नहीं है। यह दो कदम आगे बढ़ती है, तो एक कदम पीछे भी खींचती है। इससे सकारात्मक लोगों के लिए भी नवीकरणीय अर्थशास्त्र बिगड़ जाता है।

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो 1980 से कोयले पर लिख रही हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा गया मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Questioning the Death of Coal –III: Asian Appetite for Black Diamond

भाग 1 - क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : पर्यावरण संकट और काला हीरा

भाग 2 - क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : पर्यावरण संकट और काला हीरा

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