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असम: विधानसभा चुनाव के पहले, सरकार-नियंत्रित मदरसे को बंद करना क्या भाजपा के ध्रुवीकरण की दूसरी कोशिश है?

इस चरण के चुनाव को ‘सराईघाट की अंतिम लड़ाई’ करार देते हुए भाजपा ने पहले ही इसे ऐतिहासिक और सांप्रदायिक अर्थ दे दिया है।
असम
चित्र केवल प्रतीकात्मक उपयोग के लिए

असम में विधानसभा चुनाव के राज्य के क्षितिज पर उभरने के साथ भारतीय जनता पार्टी की सरकार राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश में अपने पसंदीदा मुहावरा ‘विकास’ को स्पष्ट रूप से नजरअंदाज कर रही है। वह इसकी जगह, धार्मिक ध्रुवीकरण के आजमाये फार्मूले का इस्तेमाल कर रही है। सरकार द्बारा संचालित सभी मदरसों को स्कूलों में बदलने के उसके ताजा फैसले ने हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की साम्प्रदायिक मानसिकता को भड़का दिया है। दिलचस्प रूप से, असम में अल्पसंख्यक आबादी जम्मू-कश्मीर में 68.31 फीसदी के बाद दूसरे नम्बर पर यानी 34.22 फीसदी है। देश में सर्वाधिक अल्पसंख्यक आबादी (96.58 फीसदी) लक्षद्बीप में है, जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं। 

बिना सोचे बोलना, अपशब्द कहना, साम्प्रदायिक दंगे और रैलियां 

इस चरण के विधानसभा चुनावों को “सराईघाट की अंतिम लड़ाई” कहते हुए भाजपा ने 1671 में असम में हुई लड़ाई को ऐतिहासिक और साम्प्रदायिक अभिप्राय दे दिया है। सराईघाट की लड़ाई, एक नौसेना की जंग थी, जो मुगल साम्राज्य और अहोम साम्राज्य के बीच लड़ी गई थी। अहोम साम्राज्य के राजा लचित बोरफुकन, असम के सर्वाधिक प्रतिष्ठित योद्धा नायक थे, जिन्होंने गुवाहाटी के नजदीक सराईघाट में मुगलों को पराजित किया था। 

यह कोई पहली बार नहीं है, जब भाजपा ने इस संदर्भ का उपयोग किया है। 2016 में विधानसभा चुनावों के पहले, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार- 24 नवम्बर को-लचित दिवस पर विजयी योद्धाओं का पुण्य स्मरण करते हुए एक ट्वीट किया था। उनके इस पोस्ट के बाद, भाजपा ने इसे 2016 के चुनाव में भी इसे अपना नारा बनाया था। 2016 के चुनाव में भाजपा के प्रचंड बहुमत मिलने के बाद, पार्टी से सहानुभूति रखने वाले रजत सेठी और शुभ्रास्था ने 2017 में प्रकाशित अपनी किताब,दि लॉस्ट बैटल ऑफ सरईघाट: दि स्टोरी ऑफ दि बीजेपी’ज राइज इन दि नॉर्थ-इस्ट में भाजपा के अभ्युदय का भीतरी ब्योरा दिया था। यह तो एक शुरुआत थी। 

इस समय, असम के सबसे ज्यादा ताकतवर मंत्री, हेमंत बिस्वा सरमा ने उसी जंगी-फतह के नारे के साथ चुनाव-पूर्व अभियान की शुरुआत कर दी है। उन्होंने ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक युनाइटेड फ्रंट (एआइयूडीएफ) के प्रमुख बदरूद्दीन अजमल को और असम के मुसलमानों को “मुगलों के वारिस’’ करार देते हुए चुनावी जंग का आगाज कर दिया है। दरअसल, 2016 की चुनावी जीत के बाद से ही, असम भाजपा के नेता की तरफ से एक के बाद एक अनर्गल प्रलाप जारी है।

एक भाजपा नेता सत्य रंजन बोरा ने एक विवादस्पद किताब लिखी है। कहा जा रहा है कि इसमें उन्होंने ‘इस्लाम और कुरान’ पर हमला किया है। बोरा भाजपा किसान मोर्चा के पूर्व महासचिव हैं और यह अकेली घटना नहीं है, जब उन्होंने मुसलमानों पर धावा बोला है। बोरा ने अक्टूबर 2020 में कथित रूप से कहा था, “हमें एकजुट रहना है और एक हिन्दू के रूप में हमारे काम बंटे हुए (नहीं) होने चाहिए। हमें अपनी पूरी ताकत से इस्लाम पर वार करना है, विभाजित हो कर नहीं।” होजाई विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के विधायक शिलादित्य देव एक ऐसे ही मोटरमाउथ हैं, जो राज्य में मुसलमानों पर हमला बोलते रहते हैं। 2019 के सितम्बर में, देव ने कथित रूप से, ‘लव जिहाद’ की सूरत में मुस्लिम ‘गर्भवती महिला पर हमले को न्यायोचित’ ठहराया था। 

जबकि असम में मुसलमानों को मुगल जैसे मानने और उन पर जुबानी हमले करना भाजपा का एक रिवाज बन गया है, जहां भाजपा के सत्ता में आने के बाद से साम्प्रदायिक झड़पें और दंगों की अब तक दर्जनों वारदातें हो चुकी हैं। 2018 में तिनसुकिया जिले में हुए साम्प्रदायिक तनाव में छह लोग घायल हो गये थे, हैलकांडी जिले में 2019 में हुए दंगे के दौरान पुलिस फायरिंग में एक व्यक्ति मारा गया था जबकि 14 लोग जख्मी हो गये थे। हैलकांडी में अनेक लोग आज भी कहते हैं कि अगर प्रशासन ने समय से पहले उपयुक्त कदम उठाया होता तो ये दंगे रोके जा सकते थे। हिन्दू बहुल हैलकांडी शहर में दंगे से एक हफ्ते पहले, उपद्रवियों ने रमजान की नमाज अदा किये जाने के दौरान मस्जिद के नजदीक 40 मोटरसाइकिल की सीटों को चीड़-फाड़ दिया था। अगस्त 2020 में, सोनितपुर जिले में बजरंग दल की रैली के साम्प्रदायिक झड़प में बदल जाने के बाद उसके कुछ हिस्सों में कर्फ्यू लगाना पड़ा था। अभी हाल में, हैलकांडी जिले के कतलीचेरा इलाके में एक मुसलमान घर ध्वस्त कर दिया था, जैसा कि एक हिन्दू वेबसाइट Hinduvoice.com ने यह दावा किया है। 

ये कुछ घटनाओं की बानगी भर हैं, जब 2016 से भाजपा की सरकार सूबे में कायम हुई है। फिर से गाली-गलौच का माहौल बनने या साम्प्रदायिक जुबान तेज होने की वजह क्या है?

इस बारे में सीपीआई नेता सुप्रकाश तालुकदार ने न्यूजक्लिक के पूछे जाने पर कहा: “भाजपा ने 2016 का विधानसभा चुनाव विकास के मुद्दे  पर लड़ा था। तब उन्होंने सूबे की जनता से कई लुभावने वादे किये थे। उन्होंने बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) के हर एक व्यक्ति को एक पक्का मकान दिये जाने का वादा किया था, जो कभी पूरा नहीं हुआ। उन्होंने वादा किया था कि बराक नदी पर पांच तथा ब्रह्मपुत्र नदी पर भी पांच नये पुल बनाये जाएंगे। लेकिन पांच साल बीतने को आए, नये पुल बनने, उनकी बुनियाद भी रखने की बात तो दूर, हमने खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में शुरू हुए पुल का ही उद्घाटन करते देखा है। भाजपा ने किसानों से वादा किया था कि वे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर उनसे चावल की खरीद करेंगे। उन्होंने कहा था, कि असम के किसानों से खरीदा गया धान एफसीआई के गोदामों में रखा जाएगा। इन वादों का क्या हुआ? बराक घाटी के बहुत सारे किसान उचित दाम न मिलने की वजह से अभी तक अपना धान नहीं बेच पाए हैं। उन्हें मात्र 800 से 1,200 रुपये प्रति क्विंटल धान के दाम मिले हैं, जबकि सरकारी दाम 1,800 रुपये प्रति क्विंटल है।”

सीपीआई नेता तालुकदार ने आगे कहा कि सरकार अपनी घोषणाओं को अमलीजामा पहनाने के आसपास भी नहीं पहुंच सकी है। असम में बेरोजगारी की दर पहले से कहीं ऊंची है; नये उद्योग-धंधे लगे नहीं है और जो दो कागज बनाने के कारखाने चल रहे थे, उनको भी इस भाजपा सरकार ने बंद करा दिये हैं, जैसे कि उसने कुछ लघु उद्योगों के साथ किया है। इस सरकार की आस्तीन में बस एक चीज है-उन्मादी साम्प्रदायिकता। लिहाजा, वे अपने स्तर से, चुनाव के शुरू से ही साम्प्रदायिकता का उन्माद भड़काने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। भाजपा का चुनावी नारा है कि यह चुनाव 65 फीसदी बनाम 35 फीसदी के बीच होगा। क्यों? इसलिए कि असम में मुस्लिम आबादी लगभग 35 फीसदी है; वे इस आबादी को अपना दुश्मन कह रही हैं, और इस चुनाव में, भाजपा सूबे की 65 फीसदी: हिन्दू आबादी की ओर से चुनाव लड़ेगी। भाजपा के पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं रह गया है क्योंकि वे फेल हो गये हैं, बुरी तरह से फेल।” 

मदरसा मसला और मुसलमानों की प्रतिक्रिया 

भाजपा सरकार ने, असम निरसन बिल, 2020 को विधानसभा से 31 दिसम्बर 2020 को पारित करा कर राज्य संचालित-नियंत्रित मदरसों को तो लगभग समाप्त ही कर दिया है, क्योंकि उन्हें स्कूलों में तब्दील कर दिया जाएगा। सरकार के इस कदम को लेकर मुसलमान रंज हैं, लेकिन भाजपा सरकार के अधीन गुजरे पांच साल के खराब अनुभवों के चलते, वे गलियों-सड़कों पर उतर कर अपनी मांगें नहीं रख रहे हैं। इसके बजाय, वे कानूनी विरोध का विकल्प तलाश रहे हैं। इसकी तस्दीक गुवाहाटी उच्च न्यायालय में प्रतिष्ठित और वरिष्ठ मुस्लिम अधिवक्ता एवं देश के पूर्वोत्तर राज्यों की बार कांउसिल के पूर्व चेयरमैन ने भी की। उन्होंने कहा,“अगरचे कोई कहता है कि गीता या कुरान पढ़ाने में सरकारी धन नहीं खर्च किया जा सकता, तो यह सही नहीं है। संवैधानिक रूप से, धर्म की आजादी के साथ-साथ, किसी भी नागरिक को उसकी भाषा, धर्म आदि को संरक्षित करने का हक है। संविधान का अनुच्छेद 29 कहता है कि वे अपने संस्था की बुनियाद रख सकते हैं और सरकार उनके इस मकसद के साथ किसी भी रूप में भेदभाव नहीं कर सकती। यह कानून है। लिहाजा, उन्होंने (सरकार और उनके नुमाइंदे) जिन लफ्जों का इस्तेमाल किया है, वे संविधान की रवायतों के एकदम खिलाफ हैं। इस वजह से, वह बिल्कुल ही असंवैधानिक हैं।” 

चौधरी ने कहा कि वह सरकार के इस कदम का अदालत में चुनौती देने का विचार कर रहे हैं। संयोगवश, वे चौधरी भी हालिया इंतकाल हुए सूबे के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की तरह मदरसा से तालीम पाए हैं। 

ऑल असम मदरसा समन्वय कमेटी के अध्यक्ष मौलाना फरीद उद्दीन चौधरी ने कहा: “देखिये, यह निहायत ही दमनकारी कदम है। इन्होंने ऐसा सियासत की खातिर और हिन्दू-मुसलमानों को आपस में बांटने के लिए किया है ताकि इनसे सियासी फायदा उठा सकें। हालांकि, हम अपनी आखिरी सांस तक लड़ेंगे। हमने हमारे शिक्षा मंत्री को मदरसे के कोर्स में सुधार के लिए बारहां प्रस्ताव पेश करते और मशविरा देते देखा है। फिर भी उन्हें यह कहते हुए भी सुना है कि वे मदरसे के कोर्स में बदलाव की कवायद में कोई दखल नहीं देंगे। लेकिन मंत्री ने हमारी किसी भी अपील को तवज्जो नहीं दी। हम मुख्यमंत्री के पास भी गए थे और यहां तक कि दिल्ली जा कर राष्ट्रपति को भी मेमोरेंडम दिया है, लेकिन इन सबका कोई नतीजा नहीं निकला है। अब, हमें अदालत जाने का आखिर रास्ता अख्तियार करने पर मजबूर किया जा रहा है।”

असम में सरकार नियंत्रित मदरसों का इतिहास 

राज्य मदरसा शिक्षा बोर्ड, असम के पूर्व निदेशक डॉ फजलुर रहमान कहते हैं,“ भारत में, सबसे पहले मदरसे की शुरुआत गजनवियों ने की थी। बाद में, मुस्लिम हुकूमत के मजबूत होने और फैलने के साथ, तालीम देने की कवायद भी ज्यादा से ज्यादा फैल गई। ब्रिटिश शासन काल में, असम की सुबाई सरकार ने 1934 में, प्रोवेंशियल मदरसा एजुकेशन बोर्ड की बुनियाद रखी। इसे मूल रूप से सूबे की नौ अन्य मदरसों के साथ सिलहट जिले में बोर्ड की बुनियाद रखी गई थी। “ डॉ. रहमान ने 2015 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के तत्त्वावधान में होजरी जिले में 2015 में आयोजित कार्यक्रम का आगाज करते हुए वह बात कही थी। 

डॉ. रहमान ने आगे कहा था, “शुरुआती दौर में, कलकत्ता (अब कोलकाता) के अलिया मदरसे के मॉडल पर बोर्ड ‘दरस-इ-निजामी’ के मुताबिक तालीम देता था। बाद में, यानी 1967-68 में बोर्ड ने अपने सिलेबस में आमूल बदलाव किया तथा उसमें धर्मनिरपेक्ष विषय, मसलन इंग्लिश, एमआइएल (मॉडर्न इंडियन लैंग्वेज; 

असमी/बंगाली/हिन्दी), गणित, सोशल साइंसेज, और सामान्य विज्ञान जोड़े गये।”  मदरसों में दी जा रही तालीम की निगरानी के लिए 1945 में सहायक निरीक्षक का पद बनाया गया। इसके आगे, 1965-66 में तात्कालीन मुख्यमंत्री बिमला प्रसाद चलिहा ने और शिक्षा मंत्री देबकांत बरुआ ने सूबे के नौ पुराने मदरसों को सरकार की तरफ से धन भी दिया था। 

जब सूबे में मदरसे की तालीम ने जोर पकड़ा, तब सरकार ने 65 अन्य मदरसों को भी अनुदान दिया था, जिन्होंने 1968 में बदले कोर्स में सामान्य विषयों को भी शुमार किया था। इसका नतीजा यह हुआ कि 1977 में गुवाहाटी और डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालयों ने मदरसे में ली जा रही ‘फाजिल’ के इम्तहान को मैट्रिकुलेशन के बराबर की डिग्री की मान्यता दे दी थी। 1993 में सूबे के 25 अन्य मदरसों को भी जिला योजना के अंतर्गत शुमार कर लिया गया। 1995 में, सहायता के अनुदान मद में बदलाव किया गया और इसके बदले, प्रदेश के तात्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने 15 अगस्त 1994 से 74 मदरसों का सरकारीकरण कर दिया।

इसके बाद, जैसा कि 1995 के अधिनियम में बदलाव के जरिये मदरसों के मौलवियों-शिक्षकों की तन्ख्वाह सरकारी हाई स्कूलों के शिक्षकों के बराबर कर दी गई तो अनेक मदरसों की बुनियाद रखी गई। मुसलमानों को खुश करने की कवायद में, तब के शिक्षा मंत्री हेमंत बिस्वा सरमा ने सैकड़ों की तादाद में मदरसों का सरकारीकरण कर दिया था। अब भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में, उन्होंने मदरसों को स्कूलों में बदल दिया है। 

मदरसा एजुकेशन बोर्ड के दृष्टिकोण 

गुवाहाटी यूनिवर्सिटी में अरबी साहित्य के विभागाध्यक्ष मिजाजुर रहमान तालुकदार मुख्यमंत्री सरमा की राय से इत्तेफाक नहीं रखते। उनका कहना है,“मदरसा एजुकेशन एक्ट को निरस्त करने से मुस्लिम समुदाय को कोई फायदा नहीं होगा। ये मदरसे, एक संस्था के रूप में, केवल मुस्लिम समुदाय के दायरे में ही न रह कर, समूचे ग्रामीण इलाकों में साक्षरता दर में भारी इजाफा किया है। अरबी भाषा में लिखे लफ्जों को देख कर कई लोग उसके धार्मिक-मजहबी किताब मानने की गलती कर बैठते हैं, जबकि ऐसा है नहीं। हमने मदरसे के सिलेबस में फिर से बदलाव किया है, जिसे 2019 में सरकार ने मंजूर भी किया है। इसी के अनुसार, असम हायर सेकेंडरी एजुकेशन कांउसिल(एएचएसईसी) और सेकेंडरी एजुकेशन बोर्ड (एसईबीए) ने उन बदलावों को मंजूर भी किया है। इन्हें ‘दाखिल’ की बराबरी का दर्जा भी दिया है। असम सरकार द्वारा संचालित मदरसों के संशोधित सिलेबस दिखाते हैं कि हरेक दर्जे के सभी विषयों में धर्मनिरपेक्ष/ सामान्य अध्ययन का हिस्सा 55.55 फीसदी हैं। 

यह पूछने पर कि क्या कोई छात्र बिना ‘दाखिल’ पास किये ही 12वीं दर्जे में बिना किसी बाधा के दाखिला ले सकता है, तालुकदार ने कहा कि एएचएसईसी और एसईबीए ने ‘दाखिल’ को अपनी मंजूरी दी हुई है और इसे मैट्रिकुलेशन की बराबरी का दर्जा दिया हुआ है, “क्योंकि इसके कोर्स सौ फीसद समर्थनकारी हैं।“ 

एक धर्मनिरपेक्ष नजरिया 

प्रख्यात विद्बान और समाज विज्ञानी डॉ. बनी प्रसन्न मिश्र ने कहा कि उन्होंने देखा कि एक पार्टी साम्प्रदायिक कार्ड खेलती है तो दूसरे भी उसके कदम का विरोध राजनीतिक फायदे के लिए करते हैं। मदरसे के सिलेबस को खारिज किये बिना, सरकार प्राथमिक कक्षा से ही धर्म की किताबों की पढ़ाई के साथ-साथ धर्म का तुलनात्मक अध्ययन जैसे विषय रख सकती थी। वह भाषा का भी तुलनात्मक अध्ययन जैसे विषय रख सकती थी। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म की तुलनात्मक शिक्षा-दीक्षा एक न्यूनतम अपेक्षा होनी चाहिए। एक ऐसे देश में, जहां धर्मनिरपेक्षता एक राष्ट्रीय धर्म है, विभिन्न धर्मों का अध्ययन आवश्यक है ताकि लोग आपस में उस पर विचार-विमर्श कर सकें और वयस्क होने पर उस धर्म को अपनाने के बारे में अपने निर्णय कर सकें।”

डॉ. मिश्र कहते हैं,“दरअसल, मदरसे का यह पूरा मसला ही साम्प्रदायिक खेल का एक हिस्सा है, और हरेक राजनीतिक पार्टी, चाहे वह इसके पक्ष में हो या विपक्ष में, अपनी सियासत के हिसाब से अपने किरदार निभा रही है। यह मसला विभिन्न धर्मों के बीच संवाद कायम करने का एक प्रवेश द्बार हो सकता था, लेकिन यह वास्तव में यहां नहीं हो रहा है। यद्यपि सरकार का निर्णय देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के विरुद्ध है, किंतु, ठीक इसी समय, मदरसे के सिलेबस में बदलाव किया जा सकता था। तथापि, हम देख सकते हैं, कि जो लोग मदरसा अधिनियम को बनाये रखने के हिमायती हैं, दुर्भाग्य से, वे भी देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को अपनाने के लिए तैयार नहीं दिखते हैं। वे मदरसे के सिलेबस में धर्म का तुलनात्मक अध्ययन के बजाय महज सामान्य विषयों को ही शामिल किये जाने के इच्छुक हैं।” 

असम में, मदरसे और धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों का अब जो भी भाग्य हो, भाजपा हिन्दू मतों को भी अपने पक्ष में लुभाने की कोशिश में ध्रुवीकरण के अपने खेल खेलती प्रतीत हो रही है। अन्य पार्टियां भी अपने हिस्से की भूमिका निभा रही हैं। अब इसमें कौन जीतेगा? विकास या साम्प्रदायिकतावाद? यह समय बताएगा।

(लेखक असम के एक स्वतंत्र कंटेंट मैनेजमेंट कंस्लटेंट हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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