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असम चुनाव: क्या महज़ आश्वासन और वादों से असंतोष पर काबू पाया जा सकता है?

भाजपा लोगों में ज़बरदस्त उम्मीदें जगाकर सत्तासीन हुई थी, लेकिन असम के आदिवासी समुदाय ख़ुद से किए गए वादे के पूरा होने का अब भी इंतज़ार कर रहे हैं।
असम चुनाव
प्रतीकात्मक फ़ोटो

असम में विधानसभा चुनावों के बहुत नज़दीक आने से राजनीतिक युद्ध की रेखाएं खिंचने लगी हैं। इन चुनाव परिणामों पर अलग-अलग क्षेत्रीय आकांक्षाओं, ख़ासकर बोडो क्षेत्र के आदिवासी समुदायों की आकांक्षाओं का ज़बरदस्त असर पड़ने की संभावना है।

भाजपा और नवगठित यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (UPPL) ने दिसंबर में बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल एरिया में सरकार बनाई थी। नतीजतन, बीजेपी के पूर्व सहयोगी, बोडोलैंड पीपल्स फ़्रंट या बीपीएफ़ ने होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए बोडोलैंड की सभी सीटों पर स्वतंत्र रूप से चुनाव प्रचार शुरू कर दिया है।

यह चुनाव तीसरे बोडो समझौते की पृष्ठभूमि में भी होना है। सत्तारूढ़ दल का वादा रहा है कि इस शांति समझौते से इस क्षेत्र में अनिश्चितता और हिंसा समाप्त हो जायेगी, हालांकि, इसने बीजेपी और बीपीएफ़ के बीच दरार पैदा कर दी है, जो 2016 से ही सहयोगी थे।

इसके अलावा, बीपीएफ़ ने राज्य के चुनावों के लिए कांग्रेस की अगुवाई वाले महागठबंधन के साथ हाथ मिला लिया है। हालांकि, यूपीपीएल भी ख़ासकर आदिवासियों की चिंता से जुड़े कई मुद्दों पर आगे बढ़ते हुए अपना असंतोष जता रहा है।

मसलन, आदिवासी स्कूली बच्चों के बीच ड्रॉपआउट की उच्च दर, वयस्कों में जागरूकता की कमी, व्यापक अशिक्षा और सरकारी अधिकारों और नौकरियों तक पहुंच बनाने में असमर्थता ने लोगों को विकास के लाभ से वंचित कर दिया है।

बीटीसी में राज्यपाल की तरफ़ से नामित सदस्य और राज्य में दो लाख संथालों में से एक और यूपीपीएल सदस्य, विल्सन हांसदा कहते हैं, “भाजपा जब सत्ता में आयी थी, तो उससे बहुत सारी उम्मीदें थीं, लेकिन असम के संथाल और दूसरे समुदायों को कोई लाभ नहीं मिला। अब हम इस समुदाय को लेकर मज़बूत रुख अख़्तियार करने की कोशिश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, संथाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में मान्यता हासिल तो है, लेकिन संथाल शिक्षकों के पदों को भरा जाना अब भी बाक़ी है।”

इस आलेख के लेखक ने कोकराझार,  सरलपारा, कचुगोन, गोसाईगांव, बोनाईगांव और सरायइबिल सहित बोडोलैंड के कई गांवों का दौरा किया, जहां उन्होंने ज़मीनी हालात का जायज़ा लिया और आने वाले चुनावों के मद्देनजर इस क्षेत्र के लोगों के साथ ज़मीनी हक़ीक़त की पड़ताल की। इन जांच-पड़तालों से एक बात तो साफ़ है कि इन आदिवासी समुदायों की अपनी-अपनी राजनीतिक मांगें और निष्ठायें हैं, और इन चुनावों में निष्ठा के बदल जाने की संभावना है। मसलन, कई संथाल गांवों में लोग अब संथाली नहीं बोलते और असमिया में सहज हैं, जो चिंता की वजह है।

संथाल नेता-देबीलाल हेम्ब्रो और पल्टन किस्कू का कहना है कि वे संथाली संस्कृति के ग़ायब होने को लेकर "चिंतित" हैं और कहते हैं कि वे संथाली लोगों को उनकी भाषा और संस्कृति से अवगत कराने की कोशिश कर रहे हैं। ऑल संथाल स्टूडेंट एसोसिएशन (ASSU) के नेताओं ने भी इस लेखक को बताया कि उन्हें स्कूलों में शिक्षा का माध्यम,  अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने की मांग और संथाल गांवों के प्राथमिक स्कूलों में इस समुदाय से शिक्षकों की नियुक्ति से जुड़ी चिंतायें हैं।

असम में संथाल, उरांव और मुंडा समुदाय अन्य पिछड़े वर्ग की श्रेणी में आते हैं। पांच अन्य समुदायों, ताई अहोम,  कोच राजबोंग्शी, चुटिया, मोरान और मोटोक के साथ-साथ असम के 36 से ज़्यादा "चाय जनजातियों" की तरफ़ से अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने की भी मांग है। लेकिन, उनकी यह मांग अब भी विचाराधीन है।

इस क्षेत्र के संथाल समुदाय ने अतीत में कांग्रेस, बीपीएफ़ और यूपीपीएल का समर्थन किया है। इस बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल एरिया के कुछ संथाली क्षेत्रों में आने वाले चुनावों में इस समुदाय की तरफ़ से बीपीएफ़ का समर्थन करने की उम्मीद है.

हालांकि, संथाल समुदाय कई संगठनों और नेताओं के साथ अलग-अलग बंटा हुआ है, लेकिन इसकी बन रही एकजुटता इसके नेताओं के लिए चुनौती बन गयी है। यूपीपीएल अपनी तरफ़ से छात्र संगठन, संथाल साहित्य सभा और संथाल समुदाय के युद्धविराम समूहों के साथ शुरुआती चर्चा कर रहा है। हांसदा कहते हैं, "हालांकि, युद्धविराम समूह और एडीजीपी (अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक) के बीच की बातचीत अभी तक आगे नहीं बढ़ पायी है।"  

दरअस्ल, दो ऐसे नये राजनीतिक संगठन हैं, जो इस चुनाव में अहम भूमिका निभाने जा रहे हैं। बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन में तो यूपीपीएल सत्तारूढ़ पार्टी की मदद करने की स्थिति में है, लेकिन ऊपरी असम में उसे ‘पैकेजों’ और बदले हुए स्वायत्त परिषदों पर भरोसा करना होगा। इसके अलावा, बीपीएफ़ के अलगाव से राज्य में भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों को मदद मिलेगी।

पृष्ठभूमि और प्रासंगिकता

बोडोलैंड में उस पश्चिमी असम के कोकराझार, चिरांग, उदलगुरी और बक्सा के चार ज़िले शामिल हैं, जो उत्तर में भूटान से घिरा हुआ है और दक्षिण पश्चिम में बांग्लादेश से घिरा हुआ है। बोडो समुदाय असम के 34 आदिवासी समुदायों में सबसे पुराना और सबसे बड़ा माना जाता है। वे आज़ादी के शुरुआती दशकों से ही ज़्यादा से ज़्यादा राजनीतिक स्वायत्तता की मांग करते रहे हैं। कई समूहों ने अलगाववाद का समर्थन किया और एक नये राज्य की मांग की।

बीटीसी को केंद्र और असम, दोनों ही सरकारों से अनुदान मिलता है। अब बोडो पहचान पर ज़ोर देने के लिए बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट का नाम बदलकर बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया कर दिया जायेगा। बोडो लोगों को ज़्यादा नुमाइंदगी देने के लिए बीटीसी में सदस्यों की संख्या 46 बढ़ाकर 60 तक कर दिया जायेगा। राज्य सरकार मैदानी जनजातियों के लिए मौजूदा परिषदों की तर्ज पर बीटीएडी क्षेत्र के बाहर के बोडो गांवों के विकास के लिए बोडो-कछारी कल्याण स्वायत्त परिषद की स्थापना भी करेगी।

प्रस्तावित बोडो-कछारी परिषद में शामिल किये जाने वाले क्षेत्रों को अधिसूचित करने से पहले, राज्य बोडो संगठनों और परिषदों से भी परामर्श करेगा। बोडो समुदाय से जुड़े निवासियों वाले ज़्यादातर गांवों को शामिल करने और ग़ैर-आदिवासी आबादी वाले गांवों को अलग करने का भी एक नया प्रावधान है।

इस क्षेत्र के नौजवान इस तीसरे समझौते को एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम के तौर पर इसलिए देखते हैं  क्योंकि इसके बाद विद्रोही समूहों ने हथियार उठाना छोड़ दिया है और इस समूह से जुड़े कई नेता राजनीतिक संगठनों में शामिल हो रहे हैं। हालांकि,  भीतर ही भीतर वे मांगें और आकांक्षायें अपना काम कर ही रही हैं, जो अधूरी रह गयी हैं। मसलन, होने वाले इन चुनावों में यूपीपीएल ने संथालों के लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने की अपनी मांग को मज़बूती से आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया है। हांसदा कहते हैं, "राज्य और केंद्र, दोनों ही में भाजपा सत्ता में है, इसलिए हम राज्य सरकार के ज़रिये इस मांग को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं।"

राज्य सरकार ने मंत्रियों के एक समूह का गठन किया है, जिसे इन छह समुदायों के लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने की मांग पर केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट भेजनी है, लेकिन इसकी सिफ़ारिशों का अभी तक कोई अता-पता नहीं है और यह रिपोर्ट केंद्र को नहीं भेजी जा सकी है। बीटीसी नेताओं के नज़रिये से, यहां वादे तो बढ़चढ़कर किये गए थे, लेकिन इसे पूरा करने के लिए कुछ भी नहीं किया गया।

पिछले साल जनवरी में दो और संगठनों-आदिवासी टाइगर फ़ाइटर्स और नेशनल संथाल लिबरेशन आर्मी ने इस समझौते पर हस्ताक्षर के साथ ही आत्मसमर्पण कर दिया था। उस समय, इन समूहों को सामान्य जीवन जीने के सिलसिले में पुनर्वास का भरोसा दिया गया था, लेकिन सरकार ने अभी तक इस सम्बन्ध में कोई कदम नहीं उठाया है। अब, यूपीपीएल राज्य और केंद्र सरकारों से इस मांग को पूरा किये जाने की वक़ालत कर रहा है। इसके नेता केंद्रीय गृह मंत्रालय और पूर्वोत्तर मामलों से प्रतिनिधियों के पास जाते रहे हैं। विल्सन कहते हैं, "आज तक कोई सकारात्मक नतीजा नहीं मिला है और न ही किसी तरह की कोई पहल की गयी है,  हालांकि हम चीज़ों को हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।"

अन्य समुदायों को लेकर समझ

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से एमए और इस समय एक एनजीओ के साथ काम कर रहे कन्सई ब्रम्हा कहते हैं, “बोडो लोगों को (अनुसूचित जनजाति सूची में छह और समूहों को शामिल करने को लेकर) कोई आपत्ति नहीं है,  जब तक कि उनके ख़ुद के आरक्षण का अतिक्रमण नहीं होता है।” वह उन समुदायों की चिंता को मानते है,  जो सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े हैं, और इसलिए उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए।

असम में दूसरी सबसे बड़ी आबादी,  तक़रीबन 34% मुसलमानों की है। पिछले कुछ सालों से अन्य समुदायों और मुसलमानों के बीच हिंसक झड़पें होती रही हैं। अजिबोर रहमान ने बताया कि बीजेपी के एक मंत्री ने हालिया चुनाव प्रचार के दौरान कहा है,  "मुग़लो को हमें हराना है और और उन्हें यहां से हमेशा के लिए भगाना है।"

2015 में येल यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित अपनी किताब, ”ग्रेट गेम ईस्ट” में बर्टिल लिंटनर लिखते हैं कि असम में अब भी खेती-बाड़ी की सबसे उपजाऊ ज़मीन हैं, जहां इस उप-महाद्वीप, ख़ासकर बांग्लादेश से आर्थिक प्रवासी आये हैं। कहा जाता है कि मुक्ति युद्ध के बाद पचास लाख मुसलमान बंगाली भागकर असम आये हैं। लिंटनर अपनी इस किताब में बताते हैं कि इससे उग्रवादी छात्र आंदोलनों में इस बात का डर पैदा हो गया कि इस क्षेत्र की राजनीति बदल जायेगी, जिससे रक्तपात हो सकता है और इससे पहले से ही वहां रह रहे मुसलमानों को ख़तरा हो सकता है।

ऑल माइनॉरिटी स्टूडेंट यूनियन (AMSU) के नेताओं ने बताया कि वे मदरसों के बंद किये जाने के राज्य सरकार के हालिया फ़ैसले से नाख़ुश है और इस बात को लेकर नाराज़गी जताते हैं कि दूसरे समुदायों के लोग हमेशा उन्हें "बांग्लादेशी" मुसलमानों के रूप में देखते हैं। हालांकि, ज़िला अध्यक्ष, मज़हरूल और ज़िला सचिव, बोडियार हुसैन साफ़-साफ़ कहते हैं कि वे बांग्लादेशी प्रवासियों को पसंद नहीं करते हैं और वे इस बात की आशंका जताते हैं कि बांग्लादेश से पलायन करने वाले हिंदू नये सीएए-एनआरसी क़वायद में भारतीय नागरिकता हासिल कर लेंगे।

बोडो समुदाय ने भी ख़त्म हो रही अपनी भाषा और संस्कृति की चिंता को सामने रख दिया है। बोडो साहित्य सभा का गठन साठ के दशक की शुरुआत में इस भाषा को विकसित करने वाली एकमात्र संस्था के रूप में किया गया था,  जो कि आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध 22 भाषाओं में से एक है। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित बोडो लेखिका, ज्विशीरी बोरो भी इस बोडोलैंड क्षेत्र में किसी प्रकाशन गृह के नहीं होने पर चिंता जताती हैं।

उन्होंने 2011 में अपनी किताब,  “जीउ सहारानी बेड” को ख़ुद ही प्रकाशित करवाया था, जिसके लिए उन्हें 2011 में युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। वह कहती हैं, “हालांकि, बोडो भाषा के पास नौजवान लेखक तो हैं, लेकिन उनके पास पाठकों की कमी है। भाषा के विकास के लिए पाठकों को व्यापक बनाने की ज़रूरत है।"

इतिहासकार, संजीब बरुआ ने 1999 में ऑक्सफ़ोर्ड इंडिया पेपरबैक द्वारा प्रकाशित अपनी किताब,  “इंडिया अगेंस्ट इटसेल्फ़ट” में इस बात पर रौशनी डालते हुए कहते हैं कि हाल के सालों में बोडो, कार्बी और मिज़िंग जैसे समूहों की तरफ़ से असमिया राष्ट्रीयता के ऐतिहासिक निर्माण को चुनौती मिली है, हालांकि ये समूह हालतक "मैदानी आदिवासियों" पर असमिया राष्ट्रीयता के  घटक होने का ठप्पा लगाते थे, इस समय वे ख़ुद तेज़ी से एक स्वायत्त राजनीतिक भविष्य की तलाश कर रहे हैं।

पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियां

बोडोलैंड के हिस्से समृद्ध वनों वाले घने जंगल हैं। कोकराझार से तक़रीबन 70 किलोमीटर दूर और भारत-भूटान तलहटी से सटे सरालपारा की तरफ़ जाते हुए यह साफ़ हो जाता है कि आवास और कृषि की मांगों को पूरा करने के लिए इन जंगलों को पूरी तरह जलाये जाने और काटे जाने का काम किया गया है। यह गोल्डन लंगूर और हाथियों का निवास स्थान हुआ करता था, लेकिन निर्माण और नई बस्तियों ने जानवरों को भूटान में धकेल दिया है।

कोकराझार ज़िला वन अधिकारी ने इस लेखक को इस वन क्षेत्र के 2005 का नक्शा दिखाया। उनके मुताबिक़, तब से 30% से ज़्यादा वनाच्छादन ख़त्म हो गये हैं। वे इसकी वजह राजनीतिक समूहों और स्थानीय सरकार की तरफ़ से आवास और कृषि भूमि खोजे जाने के दबाव को बताते हैं। 1977-2007 के बीच इस ज़िले में जनसंख्या की वृद्धि दर लगातार कम होती जा रही थी, जबकि वनों की कटाई की दर में उतार-चढ़ाव हो रहा था। इस अवधि की शुरुआत में ही इस ज़िले ने अपने वनों के 38% भाग खो दिये थे।

सांख्यिकी और पर्यावरण के जानकार, डीसी नाथ और डीडी मचाहरी ने अपने 2012 के अध्ययन, “डिफ़ॉरेस्टेशन एंड ट्रांजिशन ऑफ़ ट्राइबल पोपुलेशन: अ स्टडी इन कोकराझार डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ असम, इंडिया” में इस बात को बताया है कि अगर जनसंख्या वृद्धि दर स्थिर बनी रहती है, और अगर वनों की कटाई इसी दर पर जारी रहती है, तो कोकराझार में  2030 तक साल 2007 के कुल वनाच्छादन का 43.5% का नुकसान हो चुका होगा।

चुनौतियां और बढ़ती आकांक्षाएं

बोडोलैंड क्षेत्र में रोज़गार के अवसरों की कमी है,  इसलिए ज़्यादातर नौजवानों को नौकरियों की तलाश होती है और इसके लिए ये देश भर में पलायन कर जाते हैं। हालांकि, बीटीसी चुनाव के दौरान पार्टियों ने उत्साहपूर्वक सभी क्षेत्रों और सभी समुदायों के लोगों के बीच रैलियां निकाली थीं। जब तक कि ये सभी आवाज़ें बाक़ी भारत में सुनी जाती हैं, तब तक तो यह एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। क्षेत्रीय पहचान की गुंज़ाइश होनी चाहिए और लोगों की आकांक्षाओं को सुना जाना चाहिए।

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि उनकी सरकार “लुक ईस्ट और एक्ट ईस्ट” का पालन करती है और 2020 के इस समझौते से उम्मीद की एक नयी किरण निकलती है, मगर इस क्षेत्र को लेकर जो रूढ़िवादी नज़रिया है, उसे बदले जाने की ज़रूरत है। "सहकारी संघवाद" महज़ एक विचार बनकर नहीं रह जाना चाहिए, बल्कि इसे धरातल पर उतारे जाने की ज़रूरत है। क्षेत्रीय आवाज़ों को सत्ता के बेहद केंद्रीकृत प्रवृत्ति से दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए और क्षेत्र की चुनौतियों से स्थानीय प्रशासन और जहां आवश्यक हो राज्य-केंद्र समन्वय के साथ निपटना चाहिए। जातीय-राष्ट्रीय पहचान की स्वायत्तता को राष्ट्रीय अखंडता के लिए खतरे के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

लेखक मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज में दलित और आदिवासी अध्ययन में एमए के छात्र हैं। इस आलेख के लिए इन्हें क्षेत्र में काम करने वाले कन्साई ब्रम्हा, मिजंक ब्रम्हा, नॉर्थ ईस्ट रिसर्च और सोशल वर्क नेटवर्किंग के एबजोर रहमान से सहायता मिली है। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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