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असम : उपराष्ट्रवाद, विभाजित विपक्ष असम की चुनावी राजनीति के लक्षणों को परिभाषित करता है

एजेपी-आरडी ने ऊपरी असम में विपक्षी मतों को विभाजित कर दिया था, जिसने मुख्य प्रतिद्वंद्वी की तुलना में दुश्मन के दुश्मन को अधिक नुकसान पहुंचाया है।
असम

लंबी चली चर्चा के बाद रविवार दोपहर को खबर आई कि पूर्व-कांग्रेसी नेता जिन्हे भारतीय जनता पार्टी का उत्तर-पूर्व भारत में मुख्य संकट मोचन माना जाता है, यानि हिमंत बिस्वा सरमा, जिनके बारे में आम है कि वे ‘असम का मुख्यमंत्री बनने का इंतज़ार’ लंबे समय से कर रहे थे, उन्होने अंतत मौजूदा सीएम सर्बानंद सोनोवाल से बाज़ी मार ली और प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ कर लिया है।

हालांकि, चुनाव के बाद छाए सस्पेंस से, कि असम का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, ने कुछ समय से खबरों में सुर्खी बटोरी हुई थी, असम चुनाव के नतीजों की करीबी जांच से पता चलता है कि असम चुनावों की उस लोकप्रिय धारणा कि जीत एकतरफा होगी के विपरीत नतीजे आए हैं, भाजपा के मित्रजोत से कांग्रेस के नेतृत्व वाले महाजोत से बहुत कम अंतर से हारा है।

1 अप्रैल को, असमिया टीवी चैनल को दिए एक साक्षात्कार में, सरमा ने एक चौंकाने वाला दावा किया था। “हमने एजेपी के गठन को बढ़ावा दिया था हमने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को उनकी बैठकों में शामिल होने दिया ताकि उन्हें लगे कि उनकी बात मानने वाले लोग भी हैं। चाहे वह एजेपी हो या रायजोर दल या फिर कोई अन्य पार्टी, उन्हे भाजपा की रणनीति के अनुसार मैदान में उतारा गया था। सरमा ने यह भी बताया कि हालाँकि, सीएए चुनाव में कोई खास कारक नहीं था,  लेकिन नई क्षेत्रीय पार्टियों को चुनाव के लिए उकसाने के पीछे का विचार यही  था कि सीएए-विरोधी वीटोन को क्षेत्रीय पार्टियों और कांग्रेस तथा उनके सहयोगियों के बीच विभाजित कर दिया जाए।

असम के चुनावे नतीजों के गहन विश्लेषण से पता चलता है कि राज्य में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन जिसने ऐतिहासिक रूप से दोबारा जीत हासिल की है, उसके  पीछे सबसे बड़े कारणों में से एक वजह यह थी कि उसने देश की खामियों से भरी उम्मीदवार आधारित चुनाव प्रणाली का बेज़ा फायदा उठाया, क्योंकि उन्हे टक्कर देने के लिए कांग्रेस का दुर्जेय गठबंधन सामने था - लोकप्रिय वोट से महत्वपूर्ण सीटों को जीतने के बजाय भाजपा ने विपक्ष के वोट को विभाजित करके औसत जीत हासिल की जिसमें उसका वोट शेयर कम रहा (वोट शेयर के संदर्भ में देखा जाए तो).. जब दोनों गठबंधन में अंतर देखते हैं तो यह ऊपरी असम के मामले में खासतौर पर सच निकला।  

दूसरे शब्दों में कहे तो चुनाव जीतने का सबसे आसान तरीका 'फुट डालो और राज करो' है। अतिरिक्त वोटों पर कब्जा करने या लोकप्रिय वोट से जीतने की कोशिश करने से अधिक  विपक्ष को विभाजित करके जीतना आसान है। इस रणनीति ने असम में भगवा पार्टी के लिए विशेष रूप से ऊपरी असम में खासा फायदा दिलाया है - जहाँ भाजपा ने 28 में से 23 सीटें जीतीं हैं।

मुख्य रूप से, विपक्ष के मतों में विभाजन इस समय की प्रमुख या शासकिय राजनीतिक पार्टी को मिली सीटों के संदर्भ में अनुचित लाभ देता है, क्योंकि वे बड़ी संख्या में छोटे मार्जिन के साथ सीटें जीतने का इंतज़ाम कर पाए। इस प्रकार, वोट शेयर का एक छोटा प्रतिशत इसे भारी बहुमत देने के लिए पर्याप्त रहा। उदाहरण के लिए, असम में, राजग और कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के वोट शेयर में कुल 1 प्रतिशत का अंतर है। फिर भी, एनडीए 44.52 प्रतिशत वोट जीतकर लगभग दो-तिहाई बहुमत (60 प्रतिशत सीटें) जीतने में कामयाब रहा। जबकि कांग्रेस के नेतृत्व वाला महाजोत 43.68 प्रतिशत लोकप्रिय मत हासिल कर, कुल 39 प्रतिशत सीटें जीतने में सफल रहा है।  

चुनावों की पूर्व संध्या पर, न्यूज़क्लिक में प्रकाशित मेरे कॉलम में, मैंने विपक्षी एकता के  सूचकांक पर चर्चा की थी और यह असम चुनावों का एक एक्स-फैक्टर था। असम विधानसभा चुनावों में विपक्षी एकता सूचकांक क्यों एक्स-फैक्टर हो सकता है शीर्षक वाले लेख में, मैंने असम जातीय परिषद-रायजोर दल के विपक्षी महागठबंधन में शामिल होने से इनकार करने के कारण उत्पन्न होने वाली दो संभावनाओं का संकेत दिए थे – कि इससे विपक्षी एकता सूचकांक नीचे जाएगा और विपक्ष के वोटों में विभाजन होगा – और नागरिकता संशोधन अधिनियम के वोटों में विभाजन से बीजेपी की जान बच जाएगी, और नतीजतन एजेपी-रायजोर दल के गठबंधन ने कांग्रेस-एआईयूडीएफ के वोट के छोटे से हिस्से को खा लिया, खासकर उन सीटों पर जहां इसने अल्पसंख्यक समुदाय के उम्मीदवारों को उतारा था।

एकजुट विपक्ष और भाजपा के खिलाफ एक उच्च विपक्षी एकता सूचकांक को सुनिश्चित करने के महत्व को समझते हुए, कांग्रेस ने चतुराई से भाजपा विरोधी ताकतों का एक महागठबंधन बनाया था जो कागजों पर दुर्जेय नज़र आता था। जबकि भव्य पुरानी पार्टी कॉंग्रेस ने भाजपा के खिलाफ एतिहासिक विपक्षी एकता सूचकांक 78.73 बनाने में सफल रही और एआईयूडीएफ और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के अलावा जिनका राज्य के कुछ हिस्सों काफी प्रभाव था, और सीपीआई,  सीपीआई (एम), और नवगठित आंचलिक गण मोर्चा (एजीएम) और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां भी थी जिनका यहाँ-वहाँ असर था। लेकिन, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह रही है कि यह सीएए-विरोधी वोटों का विभाजन को नहीं रोक पाई और इसके परिणामस्वरूप ऊपरी असम में विपक्षी एकता सूचकांक कम रहा बिखरा विपक्ष सामने आया जिसने कांग्रेस गठबंधन की जीत की संभावनाओं को गंभीर रूप से कम कर दिया था।

क्यों ऊपरी असम इलाक़े में चुनाव हारा या जीता गया

यह कहना कि ऊपरी असम में एनडीए ने चुनाव जीता और महाजोत हार गया हक़ीक़त से दूर की बात होगी। क्षेत्रीय मोर्चे, जिसमें एजेपी और आरडी शामिल हैं, दोनों दल राज्य में चले सीएए-विरोधी आंदोलन से पैदा हुए थे, और उन्होने ऊपरी असम की अधिकांश सीटों पर चुनाव लड़ा। यह ध्यान देने की बात है कि यह क्षेत्र बड़े विरोध प्रदर्शन के केंद्र के रूप में भी उभरा था, जब राज्य में 2019-20 में सीएए/एनआरसी विरोधी आंदोलन हुए थे।

राज्य की 14 सीटों पर, एनडीए की जीत का अंतर एजेपी-आरडी उम्मीदवारों को मिले वोटों से कम था। सीधे शब्दों में कहें, तो ऐसी 14 सीटें थीं जिन पर महाजोत + एजेपी-आरडी उम्मीदवारों को एनडीए के आधिकारिक उम्मीदवारों को मिले वोटों से अधिक थे। तालिका देखें।

इन 14 सीटों में से 11 ऊपरी असम में हैं, जो यह साबित करती हैं कि ऊपरी असम में सीएए-विरोधी वोटों का विभाजन विपक्षी गठबंधन को महंगा पड़ा। साधारण गणित के आधार पर, यदि एजेपी-आरडी कांग्रेस पार्टी के महागठबंधन में शामिल होने की अपील मान लेती तो कांग्रेस और उसके सहयोगियों को 126 सदस्यीय विधानसभा में 65 सीटों का साधारण बहुमत मिल सकता था। हालांकि, इस तरह की धारणा न केवल बहुत सरल है, बल्कि गलत भी है, क्योंकि यह एक जल्दबाज़ी में बनाए गए गठबंधन के असमान सहयोगियों के बीच वोटों के हस्तांतरण न होने की संभावना को नजरअंदाज करती है।

फिर नतीजों से यह भी स्पष्ट होता है कि एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन से अल्पसंख्यक वोटों में विभाजन से बचा जा सका और उसने कांग्रेस की मदद की, जबकि दूसरी तरफ ऊपरी असम में सीएए-विरोधी वोट (विशेष रूप से असमिया हिंदू वोट) वोटों का एक बड़ा हिस्सा एजेपी-आरडी को चला गया। बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता सूचकांक ऊपरी असम में सबसे कम यानि 78.06 के राज्य औसत के मुकाबले 64.06 पर था।

जबकि असम में 126 में से 72 सीटों की जीत को लोकप्रिय वोट से जीत बताया जा सकता है, अर्थात, 50 प्रतिशत से अधिक डाले गए वोट पर, 54 सीटें कम विपक्षी एकता सूचकांक के कारण जीती गईं। भाजपा नीत एनडीए को सबसे अधिक लाभ कम विपक्षी एकता सूचकांक या बिखरे  विपक्ष से मिला क्योंकि एनडीए ने 54 सीटों में से 36 पर जीत हासिल की है।

ऊपरी असम में महाजोत के साथ क्या ग़लत हुआ?

इत्र के सरताज बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ के जीओपी के साथ गठबंधन से, जिनका  बंगाली मुसलमानों के भीतर असर था, जिन्हे अक्सर मियां भाई कहा जाता है, ने महाजोत को बराक घाटी और असम के मुस्लिम-बहुल निचले क्षेत्रों में वोटों डलवाने में मदद की। बराक घाटी और निचली असम की 58 सीटों में, कांग्रेस गठबंधन ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए 34 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

विपक्ष की इस तरह की एकजुटता की उम्मीद करते हुए भाजपा ने अभियान के दौरान गठबंधन पर बड़े हमले किए - और अजमल पर विशेष रूप से लगातार हमला किए गए, इस प्रकार भाजपा ने असमिया जातीय-राष्ट्रवादियों के साथ-साथ हिंदू राष्ट्रवादियों के वोटों को लुभा लिया। इसने अन्य क्षेत्रों में भाजपा के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण किया, जो ऊपरी असम में सबसे महत्वपूर्ण था।

एजेपी-आरडी द्वारा कांग्रेस के गठबंधन में आने की बात न मानने से और उनका अकेले चुनाव लड़ने से खुद का प्रदर्शन बहुत खराब रहा जिसके चलते जेल में बंद किसान नेता अखिल गोगोई ही जीत पाए। एजेपी के लुरिनज्योति गोगोई, जो कि सीएए-विरोधी आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक थे, ने अपनी सीट खो दी। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि एजेपी-रायजोर दल का तीसरा मोर्चा, जिसने दावा किया था कि वह 'जातिवादी' असमिया मुद्दों और क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है, जानबूझकर या अनजाने उसने भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को सीएए-विरोधी मतों के एक वर्ग को साथ जाने में मदद की, जो वोट अन्यथा कांग्रेस गठबंधन को जाने थे।

काफी जद्दोजहद के बाद कांग्रेस और एआईयूडीएफ ने एक साथ चुनाव लड़ने का फैसला किया था। लेकिन अंतत यह कदम नुकसान कर गया। जबकि कांग्रेस इस बात को दोहराती रही कि अगर वह चुनाव जीत जाती है तो वह सीएए को निरस्त कर देगी, तो भाजपा यह कहकर एआईयूडीएफ के साथ हुए गठबंधन पर हमला करती रही: “कोई ऐसे कैसे जातीय असमियों के हितों की रक्षा करने का वादा कर सकता है जो पार्टी एक ऐसी पार्टी के साथ गठबंधन में है जो कथित रूप से अवैध मुस्लिम प्रवासियों की रक्षा करती है?”

महाजोत के ताबूत में अंतिम कील का काम इस बात ने किया जब ऊपरी और उत्तरी असम में बहुमत सीटों पर चुनाव लड़ने का निर्णय एजेपी-आरडी ने लिया, जिससे सीएए-विरोधी असमी वोटों में अपरिहार्य रूप से विभाजन हो गया।

असमिया उपराष्ट्रवाद और बिखरा विपक्ष वर्षों से चली आ रही असम की चुनावी राजनीति की विशेषताओं को परिभाषित करता हैं। इस मायने में, 2021 भी कुछ अलग नहीं था - चूंकि दोनों पक्ष असमिया उपराष्ट्रवाद के मुद्दे को लेकर चल रहे थे, जिससे विपक्षी वोटों ने मुख्य प्रतिद्वंद्वी को नुकसान पहुंचाने के बजाय दुश्मन के दुश्मन को अधिक नुकसान पहुंचाया।'

लेखक बॉम्बे में स्थित फ्रीलांसर हैं और मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज के पूर्व छात्र हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। उन्हें @Omkarismunlimit हैंडल से ट्विटर पर संपर्क किया जा सकता है।

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