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भाजपा का हिंदुत्व वाला एजेंडा पीलीभीत में बांग्लादेशी प्रवासी मतदाताओं से तारतम्य बिठा पाने में विफल साबित हो रहा है

नागरिकता और वैध राजस्व पट्टे की उम्मीदें टूट जाने के साथ शरणार्थियों को अब पिछले चुनावों में भाजपा का समर्थन करने पर पछतावा हो रहा है।
Pilibhit

पीलीभीत (उत्तर प्रदेश): उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का जोर-शोर से हिंदुत्व का प्रचार अब पारुल मंडल और उनके भाई गोलक सना को नहीं भा रहा है। वे उन हजारों बांग्लाभाषी हिन्दू शरणार्थियों में से हैं जो तकरीबन पांच दशकों से पीलीभीत में रह रहे हैं, जिन्हें भगवा पार्टी से निराशा हाथ लगी है।

भारत-नेपाल सीमा से लगा तराई का यह जिला, जहां 1.25 लाख से अधिक बंगाली प्रवासियों का घर है, जिनमें से करीब आधे लोग भारत में पैदा हुए हैं। आधार, पैन कार्ड और ई-श्रम कार्ड, बैंक खाते, जाति प्रमाणपत्र और यहां तक कि भारतीय पासपोर्ट होने के बावजूद इनमें से ज्यादातर लोग न तो वोट दे सकते हैं और न ही सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ ही उठा सकते हैं और न ही राजकीय एवं केंद्रीय नौकरियों के लिए आवेदन कर सकते हैं।

पूर्ववर्ती पूर्वी पाकिस्तान के मूल निवासी जो हिन्दू प्रवासी - विभाजन के बाद के दशकों और फिर बांग्लादेश निर्माण के दौरान 1958 से 1974 के बीच प्रताड़ित होकर जिन्हें भारत आना पड़ा था- उनके साथ (पश्चिमी) पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों के साथ यदि तुलना करें तो अलग व्यवहार किया गया था, जिन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु द्वारा उचित रूप से पुनर्वासित किया गया था और बसाया गया था।

सिर्फ उन्हीं शरणार्थियों को जिन्होंने सीमा पार कर निर्दिष्ट अप्रवासी शिविरों में शरण ली थी, उन्हें ही क़ानूनी प्रवासी माना गया और बाद में उनका पुनर्वास किया गया। उनके आगमन के वर्षों बाद, उन्हें नागरिकता प्रदान की गई और पांच एकड़ जमीन आवंटित की गई। लेकिन कुछ ऐसे भी शरणार्थी थे जिन्हें न तो नागरिकता प्रदान की गई और न ही यथोचित तरीके से उनके पुनर्वासन के ही काम को किया गया।

बाकी के प्रवासियों को जो पूर्वी पाकिस्तान के विभिन्न स्थानों से आये थे किंतु आप्रवासन शिविरों के माध्यम से नहीं आये थे, उन सभी को अवैध अप्रवासी माना गया। इसलिए उन्हें न तो नागरिकता ही प्रदान की गई और न ही उनका पुनर्वास किया गया।

प्रत्येक शरणार्थी परिवार को पांच एकड़ की जमीन तो आवंटित कर दी गई लेकिन अजीब बात यह थी कि जो जमीनें उन्हें आवंटित की गईं उनका वैध राजस्व पट्टा उनके नाम पर नहीं किया गया था। उनके नाम पर जिन जमीनों को पूरनपुर ब्लॉक के गुन्हान, बिजौरी खुर्द कलां और रामनगरा गांवों में आवंटित किया गया था, 1989 में शारदा नदी द्वारा भूमि के कटाव के बाद अब उन्होंने सिंचाई एवं जल संसाधन विभाग की जमीन पर अतिक्रमण कर रखा है।

नागरिकता के अभाव के चलते इन शरणार्थी परिवारों के बच्चों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा है। अनुसूचित जाति (एससी) के तौर पर वर्गीकृत होने के बावजूद उनके बच्चों को सरकार-प्रायोजित एससी छात्रवृत्ति कोई सुविधा मयस्सर नहीं है।

जमीन के किसी और टुकड़े के आवंटन और उनकी कृषि भूमि के पट्टे का स्थायीकरण के बिना कभी कट्टर भाजपाई रहे लोगों का भी भरोसा हिल चुका है।

मोंडल उन चुनिंदा प्रवासियों में से एक हैं जिनके पास वोट देने का अधिकार है। वे एक भारतीय नागरिक हैं क्योंकि उनके पिता अनथ सनाम, जो रानाघाट शरणार्थी शिविर से यहां आये थे उनको दिसंबर 1992 में नागरिकता प्रदान कर दी गई थी।

मोंडल जिन्होंने पिछली लोकसभा और यूपी चुनावों में मतदान किया था उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “हमने मोदी और योगी पर भरोसा किया और उन्हें वोट दिया लेकिन हमारे हाथ में कुछ नहीं आया।” उनका कहना था, “गुन्हान में हमारी जमीनें शारदा नदी से तबाह हो जाने के बाद, हमें दूसरी जमीन आवंटित नहीं की गई। हमने सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किया हुआ है, जहां पर हम कभी भी बेदखल कर दिए जाने के डर से स्थायी ठिकाना नहीं बना पा रहे हैं।”

“अयोध्या में भव्य मंदिर” निर्माण की भाजपा की योजना और अपने भविष्य पर टिप्पणी करते हुए मोंडल ने कहा, “अच्छी बात है कि भगवान राम को उनका स्थान वापस मिल गया है। लेकिन हमारा और हमारे बच्चों का क्या होगा? हम तो अमानवीय परिस्थितियों में जीने को मजबूर हैं।”

मोंडल और उनके परिवार की अन्य महिला सदस्य बीड़ी बनाकर अपनी आविजिका चला रही हैं, वहीँ पुरुष सदस्य खेत मजदूरी करते हैं। गुस्से में मोंडल कहती हैं, “आसमान छूती महंगाई के कारण हमारी सीमित आय में परिवार के आवश्यक खर्चों को बर्दाश्त कर पाना बेहद कठिन हो गया है। किसी तरह गुजारा चला पाना भी चुनौती बन चुका है। भाजपा ने हमारे जीवन को पूरी तरह से नर्क बना डाला है।”

मोंडल के 38 वर्षीय भाई गोलक सना को भी पिछले दो बार के चुनावों में भाजपा को वोट देने के अपने फैसले पर पछतावा है। अपने दो एकड़ के खेत में रबी की फसल बोने के लिए जरुरी खाद हासिल न कर पाने की वजह से वे बेहद चिंतित थे।

अपने गले पर लपेटे हुए भगवा गमछे को दिखाते हुए सना ने कहा, “भाजपा के हिंदुत्व की विचारधारा से प्रेरित होकर मैंने बेहद समर्पित भाव से इस गमछे को धारण किया था। लेकिन आज मैं बेहद निराश हूं। धर्म की रक्षा की बात तो अपनी जगह पर ठीक है, लेकिन क्या इससे हमारे खाने-कमाने और रहने के लिए सुरक्षित स्थान की समस्या हल हो जाएगी?

धीरेन्द्र बिस्वास के पास मतदान का अधिकार नहीं है। उनके पिता और चाचा पूर्वी पाकिस्तान के खुलना से सबसे पहले 1964 में पश्चिम बंगाल, फिर मध्य प्रदेश और अंत में पीलीभीत में प्रवासी के तौर पर पहुंचे थे। वे गुन्हान गांव में आकर बस गए और उनमें से प्रत्येक को 90 साल के पट्टे पर पांच एकड़ जमीन आवंटित की गई थी। 1989 में शारदा नदी में आई विनाशकारी बाढ़ ने उनकी जमीनें लील ली, जिसके चलते उन्हें शारदा सागर बांध क्षेत्र में विस्थापित होना पड़ा।

40 वर्षीय बिस्वास ने न्यूज़क्लिक को बताया, “हमारे पास आधार, पैन कार्ड, ई-श्रम कार्ड, बैंक अकाउंट, जातीय प्रमाणपत्र और यहां तक कि भारतीय पासपोर्ट जैसे सभी भारतीय दस्तावेज हैं। इसके बावजूद हम वैध भारतीय नागरिक नहीं हैं। हमें विधानसभा और संसदीय चुनावों में वोट डालने का अधिकार नहीं है क्योंकि मतदाता सूची में हमारे नाम दर्ज नहीं हैं।”

इस दिहाड़ी मजदूर ने मतदाता पहचान पत्र के लिए आवेदन करने की निरर्थक प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया। “इसके लिए हमें अपने जाति प्रमाणपत्र को जमा करना होता है, जिसमें इस बात का उल्लेख है कि हम पूर्वी पाकिस्तान से पलायन कर यहां आये हैं। नतीजतन, हमसे हमें अपने नागरिकता दस्तावेजों को जमा करने के लिए कहा जाता है। चूंकि हमारे पास यह दस्तावेज नहीं है, इसलिए हर बार जब कभी हम आवेदन करते हैं तो हमें वोटर आईडी कार्ड देने से मना कर दिया जाता है।”

बिस्वास का आरोप था कि राज्य में उनके समुदाय के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है। उनका कहना था “हम अनुसूचित जातियों के लिए दी जाने वाली सरकारी कल्याण योजनाओं के लाभों को हासिल नहीं कर सकते हैं।” उन्होंने कहा कि समुदाय के सदस्य या तो स्व-रोजगार करते हैं या खेत-मजदूरों के तौर पर काम करते हैं।

70 वर्षीय संतोष बिस्वास की भी यही कहानी है। भारत में जन्म होने और पिछले 42 वर्षों से यूपी में रहने के बावजूद वे भारतीय नागरिक नहीं बन पाए हैं। उन्होंने बताया, “मेरे पिता धीरेन बिस्वास पूर्वी पाकिस्तान के फरीदपुर से निकलकर पश्चिम बंगाल में मालदा जा बसे थे। आज से 42 साल पहले हम रामनगरा आकर बस गये। हमने तो ‘गैर-सरकारी फॉर्म” भी भरे, जिसमें हमें यह उल्लेख करने के लिए कहा गया था कि क्या हमें हमारे मूल देश में प्रताड़ित किया गया था। इसके साथ-साथ भारत में आगमन की तिथि और पहचान पत्रों का विवरण तक मांगा गया था।”

उस ‘गैर-सरकारी फॉर्म’ को न तो किसी सरकारी विभाग द्वारा जारी किया गया था और न ही उसमें किसी अधिकारी के हस्ताक्षर और प्रशासनिक मुहर ही लगी थी। उसे तो सिर्फ आप्रवासियों के बीच में सर्वेक्षण करने के लिए वितरित किया गया था। भारत में आगमन की तिथि महत्वपूर्ण है, क्योंकि नागरिकता के लिए आवेदन करने की अंतिम तिथि 31 दिसंबर 2014 है।

नागरिकता किसी के माता-पिता की नागरिकता पर निर्भर करती है, इसमें जन्म स्थान का उतना महत्व नहीं है। किसी भी व्यक्ति को जन्म से ही भारतीय नागरिक उसी सूरत में माना जाता है यदि उसका जन्म 3 दिसंबर, 2004 के बाद हुआ हो और उसके माता-पिता में से कम से कम कोई एक व्यक्ति भारतीय नागरिक हो और माता-पिता में से कोई भी अवैध अप्रवासी न हो।

70 वर्षीय सरस्वती रॉय ने बताया कि पूर्वी पाकिस्तान से बंगाली शरणार्थियों का पहला जत्था 1958-1961 के बीच में आया था। रॉय जिन्होंने 1964 में 175 परिवारों के साथ सीमा पार की थी उन्होंने कहा कि सिर्फ उन्हीं प्रवासियों को जो 1971 “आप्रवासन शिविरों” के जरिये भारत आये थे, उन्हें ही पीलीभीत में 5 एकड़ जमीन आवंटित की गई और भारतीय नागरिकता प्रदान की गई थी।

दो बेटियों और एक बेटे की मां का कहना था, “अगर हमें नागरिकता मिल जाती है तो जिंदगी कुछ बेहतर हो सकती है।” दुखी स्वर में रॉय ने कहा, “जब हमें बंगाली कहा जाता है और दशकों से यहां रहने के बावजूद भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है तो बेहद तकलीफ होती है।”

सतहत्तर वर्षीय सतीश बिस्वास के पास मतदाता पहचान पत्र सहित अन्य सरकारी दस्तावेज भी मौजूद हैं, लेकिन उन्हें भारतीय नागरिक नहीं माना जाता है। उन्होंने बताया, “मैं पूर्वी पाकिस्तान से 1964 में आ गया था। मेरे पास अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए मतदान पहचान पत्र सहित सभी दस्तावेज मौजूद हैं- लेकिन फिर भी मैं एक भारतीय नागरिक नहीं हूं। हमारे पास अस्पताल, स्वच्छ पेयजल और शैक्षणिक संस्थानों जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच नहीं है। 1989 की बाढ़ में हमारी कृषि भूमि बह जाने के बाद से हम इस बांध क्षेत्र की सरकारी भूमि पर बिना किसी मुआवजे के जीवन काट रहे हैं।”

बिस्वास आगे कहते हैं, “सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम लाकर, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में रह रहे उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करने का प्रयास किया। लेकिन हमें अभी तक नागरिकता के अधिकार से वंचित रखा गया है।” बिस्वास का कहना था, “हममें से कई लोग यहां अभी भी हिन्दू खेत मालिकों के अधीन बंधुआ मजदूरों के तौर पर काम कर रहे हैं। और, भाजपा यहां पर हिन्दू एकता की बात करती है। क्या यह हास्यास्पद बात नहीं है?”

पिछले साल विज्ञान विषय से 10+2 की परीक्षा पास करने वाले 22 वर्षीय अमरजीत मोंडल ने कहा कि वंचित समुदाय का सदस्य होने के बावजूद उन्हें अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए दी जाने वाली सरकारी छात्रवृत्ति से मरहूम रखा गया। उनका आरोप था “मुझे छात्रवृत्ति से इसलिए वंचित कर दिया गया क्योंकि मैं अनिवार्य नागरिकता दस्तावेज पेश नहीं कर सका।” उन्होंने आरोप लगाया वे मतदाता भी नहीं हैं। इस बारे में उनका कहना था, “मैंने मतदाता सूची में खुद को पंजीकृत कराने की चार बार कोशिश की। अपने पिता के वोटर आईडी कार्ड और जमीन के दस्तावेज संलग्न करने के बावजूद मेरा आवेदन रद्द कर दिया गया। नागरिकता के नाम पर हमें प्रताड़ित किया जा रहा है।”

जिले के माला कॉलोनी गांव के मुट्ठीभर पढ़े-लिखे नौजवानों में 24 वर्षीय स्कूल अध्यापक जीवन हलदार भी शामिल हैं। उनके दादा निरोध मंडल शरणार्थियों के पहले जत्थे के साथ बांग्लादेश के रानाघाट शिविर से पीलीभीत आकर बसे थे।

आधिकारिक शरणार्थी होने के बावजूद हलदार को अन्य दूसरी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने बताया, “मेरे दादा जी को 90 वर्षों के लिए कुछ जमीन आवंटित की गई थी। पट्टे की अवधि 1990 में समाप्त हो गई थी। अब चूंकि मेरे दादा जी नहीं रहे, ऐसे में उनके क़ानूनी वारिस का प्रमाणपत्र जारी नहीं किया जा रहा है, क्योंकि वे भारतीय निवासी नहीं थे। इसलिए, हम लोग भूमि आवंटन का नवीनीकरण कर पाने में असमर्थ हैं।”

हालांकि इस बारे में टिप्पणी को पीलीभीत के जिलाधिकारी से संपर्क नहीं हो सका। लेकिन उनके कार्यालय में मौजूद अधिकारियों ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि संशोधित नागरिकता कानून के तहत जिले में पहचान किए गए तकरीबन 40,000 शरणार्थियों की सूची को नागरिकता प्रदान किये जाने के लिए केंद्र को भेजा जा चुका है।

एक अधिकारी ने न्यूज़क्लिक को बताया, “शरणार्थियों की संख्या के आकलन का शुरूआती काम पूरा कर लिया गया है और हमारी ओर से उन्हें नागरिकता प्रदान किये जाने संबंधी रिपोर्ट को पहले ही केंद्र को भेजा जा चुका है।” शरणार्थियों को आवंटित भूमि के नियमतिकरण के संबंध में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इस बारे में फैसला जिला प्रशासन को नहीं, सरकार को लेना है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

BJP’s Hindutva Agenda Fails to Strike Chord With Bangladeshi Migrant Voters in Pilibhit

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