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मुद्दा: नामुमकिन की हद तक मुश्किल बनती संसद में मुस्लिमों की भागीदारी की राह

3 जुलाई के बाद भाजपा भारत की अब तक की ऐसी इकलौती पार्टी बन जायेगी जिसके पास सत्ता है लेकिन जिसकी तरफ से लोकसभा और राज्यसभा में कोई भी मुस्लिम सदस्य नहीं है।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: PTI

आने वाले जुलाई महीने में राज्यसभा से भाजपा के तीन मुस्लिम सदस्यों का कार्यकाल खत्म हो जायेगा। इसके बाद भाजपा भारत की अब तक की ऐसी इकलौती पार्टी बन जायेगी जिसके पास सत्ता है लेकिन जिसकी तरफ से लोकसभा और राज्यसभा में कोई भी मुस्लिम सदस्य नहीं है। भले ही भारतीय लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व के सवाल को लेकर यह परेशान करने वाली बात हो लेकिन भाजपा को इससे परेशानी नहीं। इसका सबूत यह है कि हाल में ही खत्म हुए राज्यसभा चुनाव के लिए भाजपा की तरफ से किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को नामांकित नहीं किया गया।

चुनाव विश्लेषक बताते हैं कि भाजपा ने शुरू से ही मुस्लिमों को केंद्र में रखकर मुस्लिम अलगाव और विरोध की राजनीति की है। मुस्लिमों को सामने रखकर वोट वसूला है। इसलिए यह रणनीति भी अपनाई है कि मुस्लिमों को अपनी पार्टी से टिकट न दे। सब लोग जानते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा की तरफ से मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट नहीं दिया जाता है।

भाजपा से जब यह सवाल पूछा जाता है कि वह मुस्लिम समुदाय को टिकट क्यों नहीं देती? तो वह जवाब देती है कि टिकट देने का फैसला जीतने की काबिलियत देखकर भी किया जाता है। यानी विनबिलिटी फैक्टर की वजह भाजपा मुस्लिमों को टिकट नहीं देती है। लेकिन इसके बाद भी भाजपा की तरफ से यह रणनीति अपनाई जाती रही है कि राज्य सभा के जरिये मुस्लिमों को प्रतीकात्मक तौर पर संसद में भेजा जाता रहा। सिकंदर बख़्त से लेकर मुख़्तार अब्बास नकवी तक को भाजपा ने राज्य सभा में भेजा था। लेकिन अब इस रणनीति को भी पूरी तरह से छोड़ दिया है। राज्य सभा में अबकी बार किसी भी मुस्लिम को नामांकित नहीं किया गया है।

मुस्लिमों के प्रतिनिधत्व के सवाल पर मौजूदा भाजपा का जवाब होता है - भाजपा 'सबका साथ सबका विकास' वाली पार्टी है। यह किसी जाति और धर्म की पार्टी नहीं है। भारत के संविधान में जाति और धर्म के आधार पर चुनावी प्रतिनिधित्व की बात नहीं की गयी है। इसलिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि मुस्लिमों को टिकट दिया जाए। भाजपा सबके साथ और सबके विकास वाली पार्टी है। 'सबके साथ' का ही मतलब है कि इसमें मुस्लिमों का भी साथ शामिल है।

तो चलिए मौजूदा वक्त में संसद में मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व से जुड़ी बहस को समझते हैं

संसद में प्रतिनिधित्व यानी भागीदारी का मतलब यह है कि अगर भारत कई समुदायों को आपस में लेकर चलने वाला देश है तो उन सबकी संसद में भागीदारी हो। विधायन यानी लेजिलेशन के कामकाज में उनकी आबादी के हिसाब से भागीदारी हो। यह एक आदर्श स्थिति है। ऐसा होना नामुमकिन है फिर भी अगर किसी लोकतंत्र के विधायन के कामकाज में समाज का सबसे कमजोर वर्ग भी हिस्सेदार बन रहा है तो कहा जाता है कि वह लोकतंत्र प्रभावी ढंग से काम कर रहा है।

मोटे तौर पर कहा जाए तो बात यह है कि अगर कमजोर वर्ग का प्रतिनिधित्व होगा तभी फैसले लेने वाला समूह कमजोर वर्ग के प्रति संवेदनशील बनेगा। लेकिन इस पूरे सिद्धांत में जब पार्टी लाइन जुड़ जाती है तो प्रतिनिधित्व का सारा सवाल हवा हो जाता है। पार्टी लाइन के चलते भले कमजोर वर्ग का प्रतिनिधत्व हो लेकिन सब वही करते हैं जो पार्टी कहती है। भाजपा में जो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व रहा, उन्होंने कभी मुस्लिम परेशानियों को मुखर होकर नहीं रखा। इसलिए बात यह भी है कि केवल संख्या के आधार पर हुई भागीदारी से बात नहीं बनती है। यह बात भी जरूरी है कि जिनका प्रतिनिधित्व है उनकी प्रकृति क्या है? वह क्या कहते हैं? क्या बोलते हैं? क्या पक्ष लेते हैं?

समाज और संस्कृति विश्लेषक चंदन श्रीवास्तव कहते हैं कि आजादी के बाद के प्रतिनिधत्व के सवाल और साल 2014 के बाद के प्रतिनिधित्व के सवाल में बहुत अधिक बदलाव हुआ है। आजादी के बाद का प्रतिनिधत्व का सवाल वंचित तबके से जुड़ा हुआ था। उसमें यह भावना थी कि जो भी समुदाय हाशिए पर मौजूद हैं, उनका फैसले लेने वाले जगह पर प्रतिनिधित्व बढ़े। अनुसूचित जाति, जनजाति, औरत, गरीब, मुस्लिम आदि जो भी कमजोर वर्ग के अंतर्गत आता है, उसकी विधायन की जगह जैसे संसद और विधानसभा में भागीदारी बढ़े। संविधान के अनुच्छेद नहीं बल्कि संविधान की मूल भावना, सिद्धांत और आदर्श यही कहते हैं कि भारत एक गैरबराबरी वाला समाज नहीं बल्कि बराबरी वाला समाज बने। लेकिन साल 2014 के बाद प्रतिनिधत्व का सवाल पूरी तरह से बदल गया है। हिन्दू प्रतिनिधित्व की बात कही जाती है। अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति,जनजाति के प्रतिनिधित्व की बात जोर शोर से कही जाती है लेकिन जब सवाल मुस्लिम प्रतिनिधित्व का आता है तो सब चुप हो जाते हैं। मुस्लिम प्रतिनिधत्व को पूरी तरह से निष्क्रिय कर दिया गया है। भाजपा तो पहले से ही खुद को मुस्लिमों से पूरी तरह से अलग कर चुकी है और मुस्लिम विरोध के इर्द गिर्द अपनी राजनीति का ताना- बाना बुनती है। लेकिन भाजपा के आलावा जो मुख्यधारा की दूसरी मुख्य पार्टियां हैं, उनकी कोशिश भी हिंदुत्व की जमीन पर खेलने की है। भाजपा का बनाया माहौल इतना खतरनाक है कि हर पार्टी को यह लगता है कि मुस्लिमों के पास विनिबिलिटी फैक्टर नहीं है। अगर वह खुद को मुस्लिमों के ज्यादा करीब दिखाएंगी तो उनका वोट कटेगा।

सीएसडीएस के स्कॉलर हिलाल अहमद लिखते हैं कि प्रतिनिधित्व के सवाल पर भाजपा सबका साथ सबका विकास की बात करती है। संविधान को आगे रखते हुए यह कहती है कि संविधान में कहीं भी धर्म और जाति के आधार पर प्रतिनिधित्व की बात नहीं की गई है। संविधान को इस तरह से पढ़ने के तरीकों को मैं हिंदुत्व संविधानवाद कहता हूं। जहां पर संविधान का इंटरप्रिटेशन ऐसे किया जाता है जो हिंदुत्व के विचार से अलग ना हो। प्रतिनिधित्व के सवाल पर यह कहना कि संविधान में धर्म और जाति के आधार विधायन में प्रतिनिधित्व की बात नहीं की गई है यह बहुत ही ज्यादा कानूनी तर्क है। जब इस तरह का तर्क दिया जाता है तो इसके पीछे की मंशा यह होती है कि संविधान जिन बुनियादी मूल्यों पर बना है उन मूल्यों की अनदेखी कर दी जाए। उन नैतिकताओ, सिद्धांतों और आदर्शों को छोड़ दिया जाए जो संविधान की आत्मा है। यह बात बिल्कुल सही है कि संविधान राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सवाल पर धर्मनिरपेक्षता को तवज्जो देता है। लेकिन अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और भाषाई अल्पसंख्यक के प्रतिनिधित्व से जुड़े प्रावधान यह भी बताते हैं कि संविधान गैर बराबरी से बराबरी तक की यात्रा में कमजोर वर्ग के प्रतिनिधित्व के सवाल को तवज्जो देता है।

हिलाल अहमद लिखते हैं कि लोकसभा के जरिए नहीं तो कम से कम राज्यसभा के जरिए मुस्लिम प्रतिनिधि भेजे जाते थे। लेकिन भाजपा का उदय और दूसरे पार्टी की हार की वजह से अब यह स्पेस भी घटने लगा है। मौजूदा वक्त में राज्यसभा में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 6% के आसपास है। यह आजादी के बाद से लेकर अब तक का सबसे कम प्रतिनिधित्व है।

फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम के अंतर्गत जो पार्टियां मुस्लिमों के साथ गठबंधन बना कर चुनावी राजनीति करते हैं, वह वह भी पहले के मुकाबले ज्यादा असर नहीं डाल पा रही हैं। गुजरात में क्षत्रिय हरिजन आदिवासी और मुस्लिमों का समीकरण बनाकर राजनीति करने की कोशिश की जाती है, वह भी कमजोर हुई है तो उत्तर प्रदेश में मुस्लिम यादव का समीकरण भी पहले के मुकाबले टूटा है। यह भी वजह है कि मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व पहले के मुकाबले बहुत अधिक घटा है।

भाजपा की नजर साफ दिखती है। उसे संसद में मुस्लिम प्रतिनिधि नहीं चाहिए। वह मीडिया में मुस्लिम इनफ्लुएंसर को लगाकर हिंदुत्व की राजनीति करती है। किसी ऐसे मुस्लिम चेहरे को बैठा देगी जो भाजपा की राजनीति को सही ठहराये और भाजपा का काम चलता रहे। दूसरी पार्टियों में भी मुस्लिमों समुदाय के प्रतिनिधित्व को लेकर के बहुत अधिक बहस नहीं है। मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व बहुत जरूरी है। लेकिन यहां यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि मुस्लिम, समुदाय के समरूप समुदाय नहीं है। मुस्लिम समुदाय के भीतर भी कई तरह के अलगाव हैं। इस अलगाव के अंदर जो सबसे कमजोर वर्ग है, उनका फैसले लेने की जगहों पर आना जरूरी है। यह तभी संभव है जब राजनीतिक पार्टियों के भीतर इन सवालों से जूझने की कोशिश की जाएगी।

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