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बनारस : विलास क्रूज चलाने से मल्लाह समाज नाराज़, कहा- 'हमारी आजीविका की नाव डुबोने पर तुली है सरकार'

"लग्ज़री क्रूज चलाने और टेंट सिटी बसाने पर जितना सरकारी धन खर्च किया जा रहा है उतना मल्लाहों के बच्चों की पढ़ाई में लगा देते तो उनकी जय-जयकार होती। क्रूजों के चलने से बनारस में नौकायन का पारंपरिक धंधा चौपट हो रहा है और गंगा घाटों पर तामझाम व ढकोसला बढ़ रहा है।"
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बनारस में गंगा के किनारे खड़ी गंगा विलास क्रूज

दुनिया के सबसे लंबे रिवर क्रूज एमवी गंगा विलास ने बनारस के उन मल्लाहों की चिंता बढ़ा दी है जिनकी ज़िंदगी में पहले से ही हज़ारों झंझावत हैं। बनारस की गंगा में करीब आधा दर्जन क्रूज पहले से ही चलाए जा रहे थे और अब एक नए विशाल क्रूज को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 13 जनवरी, 2023 को हरी झंडी दिखाने जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि इस क्रूज के संचालन से पर्यटन उद्योग को नई रफ्तार मिलेगी, लेकिन मल्लाहों को लगता है कि भाजपा सरकार उनकी आजीविका की नाव पूरी तरह डुबो देने पर तुली है।

वाराणसी से डिब्रूगढ़ जाने के लिए बहुप्रचारित एमवी गंगा विलास क्रूज 10 जनवरी 2023 को रामनगर बंदरगाह पर पहुंचा। इस क्रूज पर स्विट्जरलैंड का 32 सदस्यीय दल सवार हो चुका है। पीएम नरेंद्र मोदी शुक्रवार को वर्चुअल झंडी दिखाकर रविदास घाट से इसे रवाना करेंगे। यह लग्ज़री क्रूज भारत और बांग्लादेश के पांच राज्यों में 27 नदी प्रणालियों में करीब 3,200 किमी की दूरी तय करेगा। एमवी गंगा विलास क्रूज को दुनिया के सामने देश का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिए लग्ज़री सुविधाओं से सुसज्जित किया गया है। इस क्रूज पर सवार पर्यटक यूपी, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम के अलावा बांग्लादेश के शहरों में 50 से अधिक विश्व विरासत स्थलों की सैर करेंगे।36 पर्यटकों की क्षमता वाले इस क्रूज में 18 सुइट्स हैं, जिन्हें 38-38 लाख रुपये में बुक किया गया है। हर यात्री को 13 लाख रुपये चुकाने होंगे। इनक्रेडिबल बनारस पैकेज की कीमत 1 लाख 12 हज़ार रुपये है। इस पैकेज में गंगा घाट से लेकर रामनगर तक का पर्यटन भी शामिल है। यह यात्रा चार दिनों की होगी।

गंगा घाटों पर सन्नाटा और वीरानी

बनारस में एक दिन की यात्रा का किराया 300 डॉलर यानी करीब 25 हज़ार रुपये है। कोलकाता से बनारस पैकेज का किराया 4,37,250 रुपये हैं, जबकि कोलकाता से बांग्लादेश की राजधानी ढाका तक की यात्रा के लिए भी इतने ही रुपये चुकाने होंगे। कोलकाता से मुर्शिदाबाद राउंड ट्रिप के लिए 2,92,875 रुपये देने होंगे। इस क्रूज से सरकारी तंत्र भले ही उत्साहित है, लेकिन बनारस के मल्लाह खासे नाराज़ हैं। साल 2018 में जब बनारस की गंगा में पहली मर्तबा अलखनंदा क्रूज उतारा गया था तब भी मल्लाहों ने कड़ा विरोध किया था। उस समय करीब 18 दिनों तक गंगा में नावों का संचालन बंद रहा।

शिवाला घाट से गुज़र रही फाइव स्टार सुविधाओं वाली लग्ज़री क्रूज गंगा विलास की ओर इशारा करते हुए मां गंगा निषादराज सेवा न्यास के अध्यक्ष प्रमोद निषाद कहते हैं, "धनकुबेर पहले रोड पर कमाई करते थे अब वो नदी में उतर गए हैं। उनके क्रूज हमारे पारंपरिक धंधे पर डाका डाल रहे हैं। हम यहां नीचे घाट पर सैलानियों का इंतजार करते रह जाते हैं और वो ऊपर से ही अपने क्रूज की ऑनलाइन बुकिंग कर लेते हैं। पीएम नरेंद्र मोदी हमारे सांसद है, लेकिन हमारे हितों की उन्हें तनिक भी चिंता नहीं है। पर्यटन विभाग हमें मिटाने पर उतारू है। इनके क्रूज ही दौड़ेंगे तो हमारी नावें कहां चलेंगी? हालात ऐसे ही रहे तो हमारे समाज का करोबार ही खत्म हो जाएगा। वो अपने क्रूज पर एक-दो लोकल आदमी रखेंगे और मल्लाहों का धंधा ठप करा देंगे।"

"बनारस की गंगा में सरकारी संरक्षण में चल रहे आधा दर्जन क्रूज क्या कम थे जो यहां फाइव स्टार सुविधा वाले क्रूज को उतार दिया गया। पहले जो भी विदेशी पर्यटक आते थे वो हमारी नावों से ही गंगा विहार करते थे। हमारे धंधे को छीनने के लिए एमबी गंगा विलास क्रूज को लाया गया है। आगे भी जो क्रूज बनारस की गंगा में उतारे जाएंगे वो नाविकों की रोटी छीनेंगे और बाद में वो हमें पूरी तरह बर्बाद कर देंगे।"

प्रमोद यह भी कहते हैं, "बनारस की रेत पर जब टेंट सिटी बसाई जा रही थी तब डंका पीटा गया कि बनारस के मल्लाह मालामाल होंगे। टेंट सिटी वाले इतने चतुर निकले कि उन्होंने अपनी निजी नौकाएं गंगा में उतार दीं और हमारे समाज के कुछ चापलूसों को अपने यहां नौकरी पर रख लिया। चाहे विश्वनाथ कॉरिडॉर हो या फिर टेंट सिटी, अगर सिर्फ गुजरातियों को ठेका दिया जाएगा तो सरकार पर सवाल ज़रूर खड़ें होंगे। भाजपा को माझी समुदाय का सिर्फ वोट चाहिए, लेकिन उनकी नीति-रीत सिर्फ गुजरातियों के लिए है। वो हमारे खेमे के लोगों को तोड़कर बड़ी चालाकी से अपना सिस्टम बना लेते हैं। खुद को तथाकथित खांटी बनारसी बताने का दम ठोंकने वाले यूं ही चुप्पी साधे रहे तो एक दिन वो भी आएगा जब उन्हें भी इस शहर से रुखसत होना पड़ेगा। तब न बनारसियत बचेगी, न इस शहर की मौजमस्ती। डंका बजेगा तो सिर्फ गुजरात के ठेकेदारों और कॉरपोरेट घरानों का। शायद मोदी सरकार चाहती है कि वहां गुजरात के लोग आकर व्यापार करें और बनारस के लोग नौकर-चाकर बनकर उनकी गुलामी करें।"

बनारस में 35 हज़ार नाविकों के सामने संकट के हालात

बनारस में 85 गंगा घाटों के किनारे बसे करीब 32 से 35 हज़ार मल्लाहों की ज़िंदगी नौकायन से ही चलती है। यहां करीब 1500 नांव हैं और हर नाव पर करीब चार लोग काम करते हैं। सरकारी संरक्षण में चलाए जा रहे क्रूजों के चलते इनकी आमदनी घटकर आधी रह गई है, ऐसा नाविकों का कहना है। गंगा में एक के बाद एक नए आलीशान क्रूजों को चलाए जाने से मल्लाह समुदाय अपने पारंपरिक पेशे को लेकर खासा आशंकित है। पर्यटकों को नौकायन कराने वाले दुर्गा माझी राजघाट पर गंगा के किनारे अपनी पत्नी रानी देवी और बच्चों के साथ लकड़ी जलाकर ठंड से बचने की जद्दोजहद करते नज़र आए। शाम करीब सात बजे हमारी मुलाकात हुई तो गंगा में उतारी गई नई-नवेली एमबी गंगा विलास क्रूज से नाविकों को होने वाले भविष्य के संभावित खतरे गिनाने शुरू कर दिए।

गंगा के किनारै परिवार के साथ आग तापते दुर्गा माझी

दुर्गा ने ‘न्यूज़क्लिक’ से कहा, "स्टार्टअप इंडिया और वोकल फॉर लोकल के जुमले से मल्लाहों की जिंदगी कठिन होती जा रही है। अक्टूबर 2018 में स्टार्टअप इंडिया के तहत नार्डिक क्रूजलाइन कंपनी को बनारस की गंगा में अलकनंदा क्रूज चलाने का लाइसेंस दिया गया। इनके बाद जलपरी, ब्रिजलामा और जुखासो (गुलेरिया कोठी) जैसे तमाम प्राइवेट क्रूज गंगा में व्यापार के मकसद से उतार दिए गए। अलखनंदा क्रूज का लोकार्पण करने आए सीएम योगी आदित्यनाथ ने मल्लाहों को भरोसा दिलाया था कि उनके हितों की अनदेखी नहीं की जाएगी, लेकिन सरकार के सारे वादे झूठे निकले।"

बनारस की गंगा में एक के बाद एक नए क्रूज उतारे जाने से नाराज़ दुर्गा कहते हैं, "अलकनंदा क्रूज में एक यात्री को दो घंटे का सफर करने के लिए जीएसटी के साथ करीब 900 रुपये किराया देना पड़ता है, जबकि इतने ही समय के लिए सैलानियों से हम जब 50 रुपये मांगते हैं तो वो आनाकानी करते हैं। जब से क्रूज चलाए जा रहे हैं, तब से हमारा धंधा मंदा पड़ गया है। सरकारी संरक्षण में गंगा में चलाए जा रहे क्रूजों से मुकाबला करने के लिए बड़ी नाव बनाने के लिए हमने कर्ज लिया तभी लॉकडाउन आ गया। हम कर्ज के दलदल में बुरी तरह फंसते चले गए। हमारे ऊपर हर महीने हज़ारों रुपये सिर्फ ब्याज चढ़ रहा है। समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे अदा करें? हालात ये हैं कि हमने अपनी पत्नी को जो गहने बनवा रखे थो वो भी बिक गए। आप ही बताइए, आखिर हम कैसे अपनी ज़िंदगी चलाएंगे? हमारे जैसे तमाम मल्लाह तंगी के शिकार हैं।"

दुर्गा के पास बैठकर अलाव ताप रहीं इनकी पत्नी रानी देवी ने अपनी राय पेश की। कहा, "समझ में यह नहीं आ रहा है कि खुद को गंगा का बेटा बताकर बनारस से चुनाव लड़ने आए मोदीजी आखिर मल्लाहों के दुश्मन क्यों बन गए हैं। हमारी कई पीढ़ियां नाव चलाते-चलाते मिट गईं और अब भाजपा सरकार हमें मिटाने पर तुल गई है। ऐसे में आखिर हम क्या खाएंगे, परिवार कैसे पालेंगे। जमीन जायदाद भी तो नहीं है कि खेती-बाड़ी ही कर लेते। बनारस में बहुत से नाविक दूसरे काम की तलाश कर रहे हैं। ऐसे में जो बचे हैं यही हाल रहा तो वे भी कब तक यह काम करेंगे? कई नाविक तो यह भी कह रहे हैं कि जब सरकार हमारा धंधा छीन लेगी तो हमें काम की तलाश में शहर छोड़ना ही पड़ेगा। आखिर बिना कमाई के कब तक कोई खाएगा। यहां कोई दूसरा काम भी तो नहीं है।"

दुर्गा निषाद राजघाट के पास पर्यटकों को नौकायन कराते हैं तो उनकी पत्नी रानी देवी और उनके बच्चे फूल व पूजा सामग्री बेचते हैं। वह कहती हैं, "रसोई गैस के पैसे नहीं", "स्कूल की फ़ीस के लिए पैसे नहीं" और "बड़े हो रहे बच्चों के लिए रोज़गार नहीं, नौकरी नहीं है। कितनी गिनाएं अपनी परेशानियां। सारी परेशानियां तो डबल इंजन वाली सरकार ने हमारे ऊपर लाद दी हैं। सरकार चाहती तो हमारे लिए वह बहुत कुछ कर सकती है, लेकिन किया कुछ भी नहीं। मोदीजी ने तो हमें बहुत निराश किया है।"

गंगा पर अधिकार चाहते हैं मल्लाह

बनारस का मल्लाह समुदाय यह मानता रहा है कि गंगा और उससे जुड़े पेशे पर उसका पहला अधिकार है। यह समुदाय पीढ़ी दर पीढ़ी गंगा में नाव चलाना, मछली मारना, गोताखोरी करना और बालू निकालने का काम करता रहा है। माझी समाज के लोग खासतौर पर इन्हीं कामों में पारंगत होते हैं, लेकिन कुछ सालों से सरकार और पैसे वाले लोगों का गंगा में हस्तक्षेप तेजी से बढ़ा है। बेकारी का आलम यह है कि बहुत से मल्लाह अपने पारंपरिक पेशे को छोड़कर शहर में निर्माणाधीन इमारतों में ईंटा-गारा ढोने के लिए विवश हैं। गंगा घाटों पर बहुत से नाविक मिल जाएंगे जो बोहनी (पहली कमाई) तक के लिए तरसते नज़र आते हैं।

गंगा में नौकायन कराने वाले गोकुल निषाद बचपन से चप्पू चलाते रहे हैं। लाकडाउन के बाद उन्हें अपनी नाव बेचनी पड़ी। लाचारी में अब उन्हें एक सेठ की दुकान पर काम करना पड़ रहा है। दुकान में गोकुल का मन भले ही नहीं लगता, लेकिन पेट की आग उन्हें गंगा में घाटों की तरफ जाने से रोक देती है। इसके बावजूद वो छुट्टी के दिनों में घाटों पर पहुंच जाते हैं। वह कहते हैं, "शाम के समय जब धनकुबेरों की लग्ज़री क्रूजों में रंग-बिरंगी बत्तियां जलती हैं तो हमारे दिल जलते हैं। गंगा घाटों पर पसरे सन्नाटे और सैकड़ों की तादाद में ठांव से बंधी नावें हमारे समुदाय के बेकारी की कहानी बयां कर रही होती हैं।"

मां गंगा निषादराज सेवा न्यास से जुड़े बबलू साहनी के पास तीन बोट्स हैं और वह पांच भाषाओं के जानकार हैं। बचपन से गंगा में नाव चला रहे हैं, लेकिन लॉकडाउन ने उन्हें इस कदर तोड़ा कि वे अभी तक उबर नहीं पाए हैं। स्कूल में बच्चे को दाखिला दिलाने में इन्हें अपनी पत्नी के गहने तक गिरवी रखने पड़े। इनके जैसे मल्लाहों के सैकड़ों परिवार आज भी बेकारी के शिकार हैं। बबलू बताते हैं, "दूसरे धंधों के मुकाबले मल्लाहों की कमाई 90 फीसदी तक कम हुई है। बनारस में सालों से सिर्फ जुमले उछाले जा रहे हैं और हवा-हवाई बातें की जा रही हैं। माझी समुदाय को उबारने के लिए प्रशासन ने फॉर्म भी भरवाया, लेकिन खाते में फूटी कौड़ी नहीं आई।"

बनारस के मल्लाहों से बात करने पर साफ तौर से नए-नए नियमों के प्रति इस समाज की नाराज़गी नज़र आती है। लगता है कि यह समुदाय पिछले कुछ सालों से अपने पारंपरिक पेशे को लेकर जद्दोजहद कर रहा है। जो समुदाय बिना किसी बंदिश के सैकड़ों सालों से गंगा से अपना जीवनयापन कर रहा था, मौजूदा सरकार पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर आए दिन उनपर नए-नए नियम थोपती जा रही है और मल्लाह समुदाय को उन नियमों का पालन भी करना पड़ रहा है। राजघाट पर गोताखोरी करने वाले कल्लू माझी कहते हैं, " गंगा में जब कोई डूबता है तो बाहर निकालने के लिए हमें ही पानी में उतारा जाता है और वाहवाही जल पुलिस व एनडीआरएफ के जवान लूट लेते हैं। बनारस में सिर्फ पांच दर्जन गोताखोर हैं, वादे करने के बाद भी सरकार ने सुविधाएं नहीं दी।"

रामनगर पालिका के पार्षद अशोक साहनी मल्लाह समुदाय के संरक्षक हैं। उन्हें इस बात का दर्द है कि गंगा के किनारे सारे कायदे-कानून सिर्फ मल्लाहों पर ही लादे जाते हैं। वह कहते हैं, "क्रूज संचालकों के लिए कोई नियम-कानून नही है। वो अपने क्रूज पर गाजा-बाजा बजा सकते हैं और हम कोई छोटा प्रोग्राम करने का प्रयास करते हैं तो हमें जेल भेज दिया जाता है। आखिर ये नाइंसाफी हमारे पारंपरिक धंधे को चौपट करने के लिए ही तो है।"

65 वर्षीय रामजी निषाद ने अपनी एक बोट की मरम्मत के लिए इको बैंक से 50 हज़ार रुपये का लोन लिया, लेकिन महामारी के समय सारे रुपये खर्च हो गए। रामजी बताते हैं, "बारह लोगों के परिवार में पांच बच्चे हैं, जिनकी फीस भर पाना कठिन हो गया है। सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिल रही है। बनारस के नाविकों के लिए देव-दीपावाली वरदान है, लेकिन अब उससे भी भला नहीं हो रहा है। हमारा व्यवसाय पूरा टूरिज्म से है और टूरिज्म महकमा खुद हमें बर्बाद करने पर तुल गया है। गंगा में पहले छोटे क्रूज चला करते थे और अब स्टार सुविधाओं वाला गंगा विलास क्रूज उतार दिया गया है। ऐसे में पहले की तरह हमारी नौकाओं पर विदेशी टूरिस्ट क्यों बैठेंगे? खान-पान, रसोई गैस, बिजली-बिल और बच्चों की पढ़ाई सब कर्ज से चल रहा है। जब कमाई होती है तो सारा पैसा कर्ज चुकाने में खर्च हो जाता है। हमारी हालत यह है कि न मैं रो सकता हूं और न ही कुछ बोल सकता हूं। समझ लीजिए बस किसी तरह ज़िंदा हूं।"

युवा नाविक ज्ञानू निषाद अस्सी घाट पर सिर्फ पचास रुपये में नौकायन कराने के लिए यात्रियों की चिरौरी करते नज़र आए। गंगा में चलाए जा रहे क्रूज से उनकी आजीविका पर पड़ने वाले असर के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा, "हुजूर, हम पाई-पाई के लिए मोहताज हैं। लॉकडाउन के समय से ही नाव हमारी ज़िंदगी है। जहां-तहां कुछ खा लेता हूं और नाव पर ही सो जाता हूं। बारिश के बाद दो-तीन महीने तक नाव नहीं चलतीं, जबकि क्रूज वालों पर ऐसी बंदिशें लागू नहीं होतीं। विश्वनाथ कॉरिडॉर बनने के बाद बनारस में भीड़ ज़रूर बढ़ी, लेकिन हमारी आमदनी नहीं। मल्लाहों का धंधा तो बनियों ने लूट लिया।"

नए गंगा विलास क्रूज के संचालन के बाद उपजे हालात पर चर्चा-मशवरा के लिए शिवाला घाट पर जुटे मां गंगा निषादराज सेवा न्यास के उपाध्यक्ष सत्यनाराण साहनी उर्फ सन्ना, पप्पू साहनी, सरजू साहनी, कोषाध्यक्ष बाबू साहनी, मंत्री पप्पू साहनी, संरक्षक पृथ्वीनाथ साहनी कहते हैं, "सुनियोजित ढंग से माझियों का धंधा खत्म किया जा रहा है। समुदाय के जो लड़के गंगा की रेत पर दुकान लगाते थे और घोड़े की राइडिंग कराते थे अब उन्हें खदेड़ा जा रहा है। गैर-सामाजिक लोग हमारा धंधा छीन रहे हैं। ये खेल इसी तरह चलता रहा तो सदियों से बनारस में रह रहे लोग भी भगा दिए जाएंगे। तब पूरा बनारस गुजरातियों का हो जाएगा। चिंता का विषय यह भी है कि बनारस में गंगा का पानी भूरा हो गया है। अब गंगा जल छूने में लोग डरने लगे हैं। समझ में यह नहीं आ रहा है कि बनारस के लोग क्यों तमाशबीन बने बैठे हैं? "

वाराणसी के भैसासुर घाट पर पानी के लिए जद्दोजहद करती महिला

पहाड़ बनी औरतों की जिंदगी

नौकायन के पारंपरिक धंधे में सेंध लगाए जाने का असर यह है कि मल्लाहों की औरतों और उनके बच्चों की ज़िंदगी पहाड़ बन गई है। शिवाला इलाके की एक गली में मिली सुनीता ने ‘न्यूजक्लिक’ से कहा, "आप ही बताइए, आखिर हम मोदी पर कैसे भरोसा करें? हमारे धंधे पर डाका डाला जा रहा है और उन्हें हमारी तकलीफें नहीं दिख रही हैं। हम तंगहाल हैं। ज़्यादातर बच्चों के पास रोज़गार नहीं हैं। हमारे जैसी औरतों के पास तो शिक्षा और रोज़गार, दोनों के अवसर कम हैं। सत्तारूढ़ दल के साथ विपक्ष के नेता भी झूठ की खेती कर रहे हैं।"

सैलानियों को गंगा में नौकायन कराने वाले मुन्ना की पत्नी मुन्नी देवी कहती हैं, "हमारे दो बेटे हैं और दोनों का भविष्य चौपट हो रहा है, क्योंकि वो कायदे से पढ़-लिख नहीं पा रहे हैं। हमें अपने बच्चों का भविष्य दिख रहा है। भाजपा सरकार और उसके नेता हमें यह बता दें कि किस चीज़ का दाम कम हुआ है और किसका स्थिर है? महंगाई आसमान छू रही है। एक दौर वो भी था जब इंदिरा गांधी पीएम थी। तब सोना 1700 रुपये में था, अब वो 55,000 का हो गया है। हमारे गले का मंगल-सूत्र और कान की बालियां देखिए, सब नकली हैं। कोई पीतल की हैं तो कोई गीलट की।" 

दरअसल, सियासत से कोसों दूर रहने वाली निषाद समाज की औरतें आसानी से नेताओं की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाती हैं। लेकिन घरों में जलने वाले चूल्हे-चौके से लेकर बच्चों की पढ़ाई की फीस का इंतज़ाम करना होता है तो सरकार को कोसती हैं। चाहे वो शिवाला की सीता देवी हों, अंजलि हों अथवा गुड़िया। इन्हें सिर्फ इस बात की चिंता है कि धनकुबेरों के क्रूज उनके पारंपरिक धंधे को क्यों निगलते जा रहे हैं? इनके बच्चों के पास न काम है, न रोज़गार। वो कहती हैं, "बच्चों को पढ़ाएं या बुज़ुर्गों के लिए दवा का इंतज़ाम करें? पहले मुफ्त में रसोई गैस की टंकी दी और बाद में दाम इतना ज़्यादा बढ़ा दिया कि खाना पकाना दुश्वार हो गया।"

अंजली कहती हैं, "डबल इंजन की सरकार हर साल नया खेल-तमाशा करती है। इस बार विदेशियों को लेकर एक नया हाईफाई क्रूज आया है, जिसका उद्घाटन मोदीजी करने वाले हैं। इसलिए गंगा घाटों के किनारे तामझाम शुरू हो गया है। रंग-बिरंगी लाइटों से घाटों को जगमग किया जा रहा है। वो रोशनी हमारे आंखों में चुभती है और दिलों में भी। बनारस में कोई यह बताने वाला नहीं है कि ठोस काम करने के बजाय फिजूलखर्ची पर पानी की तरह पैसा क्यों बहाया जा रहा है? वो हमारे बारे में क्यों नहीं सोचते? क्या रेत पर टेंट सिटी बसा देने से हमारे दिन पलट जाएंगे? हमारे बच्चों के पेट की ऐंठती हुई अतड़ियों का इलाज न लग्ज़री क्रूज हैं, न टेंट सिटी। हम इतना ज़रूर जानते हैं कि पीएम और सीएम जब-जब बनारस आते हैं तो पुलिस वाले डंडे फटकार कर हमारी नौकाएं बंद करा देते हैं। हमारे तीन छोटे बच्चे-विजय, हेमंत और विष्णु की ज़िंदगी कैसे चलेगी, इसकी चिंता किसी को नहीं है? "

गंगा के किनारे रहने वाले मल्लाह समुदाय की महिलाओं का संघर्ष किसी के समझ में नहीं आ रहा है। आखिर वो क्या खाएं और क्या निचोड़ें? दीपचंद निषाद की पत्नी अनीता ने 'न्यूज़क्लिक' से कहा, "हमने ऐसी सरकार कभी नहीं देखी। इसने रसोई का सामान इतना महंगा कर दिया है कि आंसू बहाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लॉकडाउन के समय से ही जिंदगी पटरी से उतरी हुई है। पहले पैर का छागल बेचा, फिर कान की बाली बेच दी। पास में फूटी कौड़ी नहीं थी, इसलिए बेटे सिद्धार्थ और साहिल की पढ़ाई छूट गई।"

"लग्ज़री क्रूज चलाने और टेंट सिटी बसाने पर जितना सरकारी धन खर्च किया जा रहा है उतना मल्लाहों के बच्चों की पढ़ाई में लगा देते तो उनकी जय-जयकार होती। क्रूजों के चलने से बनारस में नौकायन का पारंपरिक धंधा चौपट हो रहा है और गंगा घाटों पर तामझाम व ढकोसला बढ़ रहा है। टेंट सिटी का खेल और क्रूज चलाने के खेल-तमाशे ऐसे ही चलते रहे तो शायद हमारे पास सहेजने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं।"

वहीं गंगा विलास क्रूज के उद्घाटन से पहले ही राजनीति गर्म हो गई है। इस मुद्दे को लेकर अखिलेश यादव ने सरकार पर निशाना साधते हुए ट्वीट किया, "अब क्या भाजपा नाविकों का रोज़गार भी छीनेगी। भाजपा की धार्मिक स्थलों को पर्यटन स्थल बनाकर पैसे कमाने की नीति निंदनीय है। पूरी दुनिया से लोग काशी का आध्यात्मिक वैभव अनुभूत करने आते है; विलास-विहार के लिए नहीं। भाजपा बाहरी चकाचौंध से असल मुद्दों के अंधेरों को अब और नहीं ढक पाएगी"

(लेखक वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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