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ख़बरों के आगे-पीछे : झुकती है सरकार, बस चुनाव आना चाहिए

बीते एक-दो सप्ताह में हो सकता है आपसे कुछ ज़रूरी ख़बरें छूट गई हों जो आपको जाननी चाहिए और सिर्फ़ ख़बरें ही नहीं उनका आगा-पीछा भी मतलब ख़बर के भीतर की असल ख़बर। वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन आपको वही बता रहे हैं।
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वीर बालक दिवस की घोषणा का असल मकसद

फ़ोटो साभार : ट्विटर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान कर दिया है कि इस साल से 26 दिसंबर को वीर बालक दिवस मनाया जाएगा। गुरु गोविंद सिंह के चार साहिबजादों की शहादत को सम्मान देने के लिए वीर बालक दिवस की घोषणा हुई है। चारों साहिबजादे धर्म पथ पर अडिग रहे थे और अपनी जान गंवाई थी। इसलिए उनकी शहादत का सम्मान निश्चित रूप से होना चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्री के इस ऐलान का मुख्य मकसद पंजाब चुनाव में भाजपा के लिए सद्भाव बनाना और बाकी राज्यों में मुस्लिम विरोध को हवा देना दिख रहा है क्योंकि चारों साहिबजादों की मुगलों ने बर्बर तरीके से हत्या की थी।

इस ऐलान में एक और छिपा हुआ एजेंडा भी दिख रहा है। ध्यान रहे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जयंती (14 नवंबर) को बाल दिवस मनाया जाता है। अब अगर सरकार 26 दिसंबर को वीर बालक दिवस मनाएगी तो क्या बाल दिवस की अहमियत कम नहीं होगी? यह सरकार पहले से इस तरह के काम कर रही है। इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर अब कोई कार्यक्रम नहीं होता है। उस दिन सिर्फ सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती मनाई जाती है और दो अक्टूबर को गांधी जयंती से ज्यादा राष्ट्रीय स्वच्छता दिवस के कार्यक्रम होते हैं। बहरहाल, चारों साहिबजादों की शहादत की गलत व्याख्या भी नहीं होनी चाहिए। उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि धर्म की आजादी की रक्षा के लिए शहादत थी। भारत अब भी वही है, उस समय भी किसी से उसके धर्म की आजादी छीनना गलत था और आज भी यह गलत है। इसलिए उनकी शहादत का सम्मान तभी होगा, जब सबको अपने-अपने धर्म की आजादी मिले और उसमें सरकार का दखल न हो।

झुकती है सरकार, बस चुनाव आना चाहिए

एक पुराने फिल्मी गीत के बोल है 'झुकती है दुनिया, झुकाने वाला चाहिए।’ भारत सरकार के संबंध में इसे थोड़ा बदल कर कह सकते हैं कि झुकती है सरकार, बस चुनाव आना चाहिए। जब तक चुनाव नहीं होते है, तब तक सरकार 56 इंच का सीना ताने रहती है। लेकिन अभी उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव है तो पिछले दो महीने में केंद्र चार बार झुकी है। उसने संस्थागत विरोध के आगे चार बार घुटने टेके हैं। सबसे पहले किसानों ने सरकार को झुकाया। केंद्र सरकार ने मनमाने तरीके से तीन कृषि कानून बनाए थे और उसे लागू करने पर अड़ गई थी। दूसरी ओर किसान भी इसके विरोध मे एक साल तक आंदोलन पर बैठे रहे और नतीजा यह हुआ है कि सरकार को तीनों कानून वापस लेने पड़े। ताजा मामला मिशनरीज ऑफ चैरिटी का विदेशी चंदा लेने वाले एफसीआरए लाइसेंस का है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मदर टेरेसा की इस संस्था का एफसीआरए लाइसेंस रिन्यू नहीं किया था। मंत्रालय की ओर से कहा गया था कि उसके आवेदन की जांच के दौरान 'एडवर्स इनपुट’ मिला था, जिसकी वजह से लाइसेंस रिन्यू नहीं किया गया। इसका लाइसेंस 31 दिसंबर को खत्म हो गया। सरकार ने यह नहीं बताया कि क्या 'एडवर्स इनपुट’ मिला था। लेकिन जब देश में और देश के बाहर विरोध शुरू हुआ, ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने आगे बढ़ कर मिशनरीज ऑफ चैरिटी को अपना काम जारी रखने के लिए लाखों की रुपए की मदद का ऐलान किया तो सरकार पीछे हट गई और लाइसेंस रिन्यू कर दिया। जब लाइसेस रिन्यू किया तो यह नहीं बताया कि 'एडवर्स इनपुट’ का क्या हुआ। वह कैसे पॉजिटिव इनपुट में बदल गया?

इससे ठीक पहले दिल्ली के डॉक्टरों ने हड़ताल करके नीट-पीजी की काउंसिलिग के मामले में सरकार से सरेंडर कराया। केंद्र सरकार ने पिछले साल 26 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि जब तक ओबीसी आरक्षण और ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए आय की सीमा का मामला नहीं निपट जाता है तब तक काउंसिलिंग पर रोक लगनी चाहिए। लेकिन जब दिल्ली के डॉक्टरों ने हड़ताल शुरू कर दी और टकराव बढ़ा तो केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि देशहित मे काउंसिलिंग जल्दी होनी चाहिए। सो, अब 12 जनवरी से काउंसिलिंग शुरू हो गई है।

इससे पहले देश भर के कपड़ा व्यापारियों ने सरकार से सरेंडर कराया। सरकार ने कपड़े पर जीएसटी को पांच से बढ़ा कर 12 फीसदी कर दिया था। एक जनवरी से यह लागू होने वाला था लेकिन उससे पहले देश भर के कपड़ा व्यापारियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। उनके प्रदर्शन की तीव्रता को देखते हुए सरकार ने एक जनवरी को ही जीएसटी काउंसिल की आपात बैठक बुला कर जीएसटी बढ़ाने का फैसला टाल दिया। जूते-चप्पलों पर भी टैक्स पांच से बढ़ा कर 12 फीसदी किया गया है लेकिन उसके व्यापारियों ने विरोध नहीं किया तो वह लागू हो गया।

चुनावी बजट पेश होगा!

फाइल फ़ोटो

संसद के बजट सत्र की तैयारी चल रही है और सरकार बजट बना रही है। हालांकि बजट का अब कोई खास मतलब नहीं रह गया है और उसका पेश किया जाना महज रस्म अदायगी बन कर रह गया है, क्योंकि बजट में घोषित लक्ष्य भी आमतौर पर पूरे नहीं हो पाते हैं और सरकार कई तरह के टैक्स भी अपनी राजनीतिक जरुरतों के हिसाब से जब तब बढ़ाती-घटाती रहती है। बहरहाल एक फरवरी को केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जब देश का आम बजट पेश करेंगी, उस समय उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का प्रचार चरम पर होगा। गौरतलब है कि पहले चरण का मतदान 10 फरवरी को होना है। उससे ठीक पहले आम बजट आएगा। जाहिर है कि बजट चुनावी होगा और भाजपा इसका पूरा फायदा लेने की कोशिश करेगी। पिछले साल भी पांच राज्यों के चुनावों से ठीक पहले आम बजट पेश हुआ था और तब भी यह मसला उठा था और लोकसभा के हर चुनाव से पहले भी अंतरिम बजट पेश होता है और तब भी यह सवाल उठता है। लेकिन सरकार के चुनाव मंत्रालय में तब्दील हो चुके चुनाव आयोग ने पहले ही साफ कर दिया है कि आम बजट के मामले में वह कुछ नही कर सकता है। इसका मतलब है कि पहले चरण के मतदान से पहले आम बजट आएगा, जिसमें सरकार लोक कल्याण के नाम पर ढेर सारी चुनावी घोषणाएं कर सकती है। मध्य वर्ग को खुश करने के लिए प्रत्यक्ष कर में छूट की घोषणा हो सकती है तो उत्पाद शुल्क आदि के बारे में भी सरकार कुछ घोषणाएं कर सकती है।

करीब 90 फीसदी ट्रेनें महामारी के नाम पर पिछले करीब दो साल से नहीं चल रही हैं, इसके बावजूद बजट में नई ट्रेनों और नए स्टेशनों से लेकर सड़क और लघु व मझोले उद्योगों के बारे में घोषणाएं होगी।

आर्थिक सर्वे में देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर दिखाई जाएगी और दहाई मे विकास दर का अनुमान जाहिर किया जाएगा। सवाल है कि विपक्ष इसका कैसे जवाब देगा?

अपमान रश्मि ठाकरे का या राबड़ी देवी का?

महाराष्ट्र में कमाल की राजनीति हो रही है। भारतीय जनता पार्टी के सोशल मीडिया प्रकोष्ठ के प्रमुख जितेन गजरिया ने राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पत्नी रश्मि ठाकरे की तुलना बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी से कर दी। इस पर शिव सेना के नेता भड़के हैं और इसे रश्मि ठाकरे का अपमान बता रहे हैं। सोचें, बिहार जैसे बड़े राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री और बेदाग राजनीतिक जीवन वाली एक महिला राजनेता से रश्मि ठाकरे की तुलना उनका अपमान कैसे है? फिर भी शिव सेना के नेताओं और राज्य के पुलिस प्रशासन को यह कबूल नहीं है कि कोई रश्मि ठाकरे की तुलना राबड़ी देवी से करे। असल में जितेन गजरिया ने ‘मराठी राबड़ी देवी’ लिख कर रश्मि ठाकरे की एक फोटो पोस्ट की थी। इसके बाद से पूरे महाराष्ट्र में हंगामा मचा है। पुलिस ने उनके ऊपर केस कर दिया और पुणे में गजरिया से चार घंटे तक पूछताछ के बाद पुलिस ने उनको छोड़ा। जब लगा कि इस मामले में उनको गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है तो एक दूसरी पोस्ट का बहाना बना कर भड़काऊ कंटेंट सोशल मीडिया में डालने का मुकदमा कायम कर उनको गिरफ्तार करने का प्रयास चल रहा है।

शिव सेना की नेता और मुंबई की मेयर किशोरी पेडनेकर तो इतनी नाराज हो गईं कि उन्होंने गजरिया को खूब खरी-खोटी सुनाई। दरअसल यह सवर्ण और महानगरीय मानसिकता का परिचायक है कि एक पिछड़े राज्य की पिछड़ी जाति की एक महिला, जिसके ऊपर किसी तरह का आरोप नहीं है और जो आठ साल तक बिहार की मुख्यमंत्री रही है उससे मुख्यमंत्री की पत्नी की तुलना करना अपमानजनक और अभद्र माना जा रहा है। असल में यह रश्मि ठाकरे का नहीं, बल्कि राबड़ी देवी का अपमान है, जो पहले भाजपा के एक नेता ने किया, फिर शिव सैनिक और भाजपा के लोग एक साथ कर रहे हैं।

हैरानी की बात है कि बिहार के सारे नेता भी चुप्पी साधे हुए हैं। ठाकरे परिवार भी कुछ नहीं कह रहा है, जबकि दिवगंत बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकर ठाकरे ने खुद लिखा था कि उनके पूर्वज बिहार से निकल कर ही महाराष्ट्र पहुंचे थे। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद चल रही उथलपुथल के दौरान अपनी मूर्खताओं के लिए मशहूर एक महिला एंकर ने सबसे तेज चैनल पर कहा था कि आदित्य ठाकरे शिव सेना के राहुल गांधी साबित होंगे। शिव सैनिक इस पर भी इतने भड़के कि चैनल और एंकर को माफी मांगनी पड़ी। सोचने वाली बात है कि यह टिप्पणी चार बार के सांसद और देश की सबसे पुरानी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे राहुल गांधी के लिए अपमानजनक थी लेकिन कांग्रेस की बजाय इस पर शिव सैनिक भड़के और राहुल से माफी मांगने की बजाय चैनल ने आदित्य ठाकरे से माफी मांगी।

हालांकि इस तरह की तुलनाएं भी गैर ज़रूरी हैं और इनके पीछे की मंशा भी ठीक नहीं रहती।

केजरीवाल की अखिल भारतीय सियासी हसरतों की परीक्षा

पांच राज्यों के चुनाव आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। इन चुनावों के नतीजों से उनकी अखिल भारतीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पर लग सकते हैं या फिर वे पस्त होकर बैठ सकते हैं। केजरीवाल वैसे तो लंबे समय से अखिल भारतीय राजनीति करने की हसरत पाले हुए हैं लेकिन दिल्ली में दूसरी बार सरकार बनाने के बाद उनकी उम्मीदें बढ़ी है। इस बार वे पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद कर रहे हैं। पंजाब में तो वे मान कर चल रहे हैं कि उनकी पार्टी की ही सरकार बनेगी। कई चुनाव सर्वेक्षणों में आम आदमी पार्टी के सबसे बडी पार्टी बन कर उभरने का अनुमान जताया गया है। हालांकि चुनाव पूर्व किए जाने वाले सर्वेक्षण अब टीवी चैनलों और सर्वे करने वाली एजेंसियों के महज कारोबारी इवेंट बन गए हैं, इसलिए वे अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो चुके हैं। आमतौर पर लोग ऐसे सर्वेक्षणों को महज तुक्केबाजी ही मानते हैं।

2017 के चुनाव में भी कई सर्वे एजेंसियां और टीवी चैनल पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनवा रहे थे। वैसे चंडीगढ नगर निगम का चुनाव जीतने के बावजूद भाजपा ने जिस तरह आम आदमी पार्टी का मेयर नहीं बनने दिया, उससे केजरीवाल और उनकी पार्टी के प्रति लोगों में सहानुभूति बन सकती है। उत्तराखंड में केजरीवाल ने रिटायर सैन्य अधिकारी अजय कोटियाल को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है और मुफ्त बिजली, पानी से लेकर रोजगार तक के अनेक आसमानी वादे कर रहे हैं। उनकी कोशिश उत्तराखंड में खाता खोलने की है। गोवा में भी तमाम तरह के हवाई वादों पर चुनाव लड़ रहे हैं। वहां उनका उनका प्रयास किसी तरह से दो-चार सीटें जीतने का है ताकि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में सरकार बनाने के समय उनकी पार्टी अपनी भूमिका निभा सके। वे पंजाब, गोवा और उत्तराखंड में इतनी सीटें और वोट हासिल करना चाहते हैं कि उनकी पार्टी राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए आगे बढ़ पाए। इसके बाद वे गुजरात और हिमाचल प्रदेश पर फोकस करेंगे।

प्रियंका की राजनीति दांव पर

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस दांव पर लगी है तो नेता के रूप में प्रियंका गांधी वाड्रा की पूरी राजनीति भी दांव पर लगी है। उन्होंने अपने को उत्तर प्रदेश की राजनीति में जरूरत से ज्यादा इन्वॉल्व कर लिया है। वे भले कांग्रेस पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद का घोषित चेहरा नहीं हैं, पर पार्टी उनके चेहरे पर ही चुनाव लड़ रही है। पार्टी के प्रदेश संगठन उन्होंने बनाया है और गठबंधन से लेकर उम्मीदवार तय करने और प्रचार तक समूचा जिम्मा उनका है। उनकी सबसे बड़ी ताकत युवाओं और महिलाओं को अपनी तरफ आकर्षित करने की रही है। उन्होंने इस बार अपने उस आकर्षण को भी दांव पर लगाया है। उन्होंने ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ का नारा दिया है, महिलाओं को 40 फीसदी सीटें देने का ऐलान किया है और महिलाओं के लिए अलग घोषणापत्र जारी किया है। इसके बावजूद अगर वे कांग्रेस की सीटें और वोट प्रतिशत नहीं बढ़ा पाती हैं तो उनके लिए आगे की राजनीति बहुत मुश्किल हो जाएगी। यह अखिल भारतीय मैसेज बनेगा कि अगर वे योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव से नहीं लड़ पाईं तो नरेंद्र मोदी से नहीं लड़ सकती हैं। अगर उन्होंने कम सीटें लेकर भी समाजवादी पार्टी से तालमेल कर लिया होता तो वे इस स्थिति से बच सकती थीं।

पोस्टर, बैनर सरकारें क्यों नहीं हटातीं?

फोटो साभार: भास्कर

इन दिनों मीडिया में और सोशल मीडिया में भी चारों तरफ दिखाई दे रहा है कि कैसे चुनाव की घोषणा के बाद आचार संहिता लागू होते ही जिला प्रशासन और नगर निगम का प्रशासन चारों तरफ से पोस्टर और होर्डिंग्स आदि उतार रहा है। जेसीबी और बड़ी-बड़ी सीढ़ियां लगा कर पोस्टर, बैनर, होर्डिंग्स आदि उतारे जा रहे हैं। ये सारे पोस्टर, बैनर, होर्डिंग्स आदि राज्यों की सरकारों के हैं, जो उन्होंने अपनी ऐसी उपलब्धियां बताने के लिए लगा रखी थीं, जो जनता को अपनी आंखों से दिखाई नहीं देती हैं और बिना विज्ञापन देकर बताए जनता जिनके बारे में जान भी नहीं पाएगी। बहरहाल, चारों तरफ से खबरें आ रही हैं कि चुनाव आयोग की सख्ती और उसके निर्देश पर होर्डिंग्स हटाए जा रहे हैं। सवाल है कि इसकी जिम्मेदारी होर्डिंग्स, पोस्टर लगाने वाली पार्टियों या उनकी सरकारों पर ही क्यों नहीं डाली जाती कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के 24 घंटे के अंदर वे अपने सारे पोस्टर और होर्डिंग्स हटा ले वरना उन पर कार्रवाई होगी? यह काम चुनाव आयोग क्यों करवाएगा? सरकारें जब विज्ञापन एजेंसियों के जरिए इस तरह के बड़े-बड़े होर्डिंग्स, पोस्टर, बैनर, कटआउट्स आदि लगवाती हैं तो उसी समय उनके साथ करार क्यों नहीं किया जाता है कि आचार संहिता लागू होते ही वे खुद ही इसको उतार देंगी? सरकारें अपने प्रचार में होर्डिंग्स, बैनर लगाती हैं और उनको लगा हुआ छोड़ देती हैं, फिर उनको हटवाने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की हो जाती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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