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ख़बरों के आगे-पीछे : तमिलनाडु को क्यों सुलगाना चाहते हैं राज्यपाल?

क्या भाजपा तमिलनाडु में अपने लिए कोई संभावना नहीं देख रही है इसलिए वह उसके नाम और उसके इतिहास, भूगोल का सवाल उठा कर पूरा देश बनाम तमिलनाडु का विवाद खड़ा कर रही है?
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भाजपा की विरोधी पार्टियों के शासन वाले सूबों के राज्यपाल अपनी उटपटांग हरकतों और बयानों की वजह से चर्चा में रहते हैं। आमतौर पर वे प्रशासनिक कामों में अनावश्यक दख़ल अंदाज़ी करते हैं या उनमें रोड़े अटकाते हैं, लेकिन राज्य के सांस्कृतिक, सामाजिक या ऐतिहासिक मामलों में नहीं बोलते हैं। सबसे पहले महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने ऐसे संवेदनशील क्षेत्रों में घुसपैठ शुरू करते हुए छत्रपति शिवाजी पर अनर्गल टिप्पणी की थी। अब वही काम तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने किया है। उन्होंने तमिलनाडु नाम पर ही आपत्ति उठा दी है और कहा है कि तमिझगम ज़्यादा उपयुक्त नाम है। आमतौर पर नाडु का मतलब भौगोलिक सीमा है लेकिन तमिलनाडु में इसका अर्थ देश या राष्ट्र राज्य के रूप में लिया जाता है। राज्यपाल ने सिर्फ़ नाम पर आपत्ति नही उठाई, बल्कि यह भी कहा कि पूरे देश में जो स्वीकार्य होता है उस पर तमिलनाडु में 'न' हो जाती है। उनके इस बयान से राज्य की दोनों तमिल पार्टियां नाराज़ हैं। डीएमके और अन्ना डीएमके दोनों ने इसका विरोध किया है। सवाल है कि क्या भाजपा तमिलनाडु में अपने लिए कोई संभावना नहीं देख रही है इसलिए वह उसके नाम और उसके इतिहास, भूगोल का सवाल उठा कर पूरा देश बनाम तमिलनाडु का विवाद खड़ा कर रही है? इसके अलावा कोई कारण समझ में नहीं आता है। राज्यपाल रवि बिहार के रहने वाले हैं। नौकरशाह रहे हैं और कोई इतिहासकार या पुरातत्ववेत्ता नहीं हैं। इसलिए उन्होंने जो विवाद खड़ा किया है वह विशुद्ध राजनीतिक है।

झारखंड में भाजपा ने हाथ खड़े कर दिए !

पुरानी कहावत है कि फिसल गए तो हर गंगे! कुछ इसी तर्ज़ पर भाजपा झारखंड सरकार नहीं गिरा सकी तो गृह मंत्री अमित शाह ने कह दिया कि हम लोकतंत्र में ऐसा नहीं कर सकते। पिछले दिनों अपनी झारखंड यात्रा के दौरान शाह का यह कहना इस बात का संकेत है कि सरकार अस्थिर करने के मामले में अब भाजपा ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं। यानी पिछले दो साल में झारखंड सरकार को अस्थिर करने के जो प्रयास हुए उनसे अमित शाह ने ख़ुद को और शीर्ष नेतृत्व को अलग करते हुए प्रदेश नेतृत्व पर ठीकरा फोड़ दिया। अमित शाह ने झारखंड के चाईबासा में कहा कि भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी चाहते थे कि राज्य सरकार को बदल दिया जाए लेकिन हमने कहा कि लोकतंत्र में ऐसा नहीं कर सकते। सवाल है कि भाजपा को लोकतंत्र की इतनी परवाह है तो कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में चुनी हुई सरकारों को क्यों गिराया गया? अमित शाह ने यह भी कहा कि 2024 के चुनाव में झारखंड में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनेगी। इसका मतलब है कि झारखंड का चुनाव तय समय पर यानी नवंबर 2024 में ही होगा। हालांकि उससे पहले भले सरकार को अस्थिर करने का प्रयास नहीं किया जाए लेकिन सरकार को स्थिर भी नहीं रहने दिया जाएगा। मुख्यमंत्री पर विधानसभा में अयोग्यता और आय से अधिक संपत्ति के मामलों की तलवार लटकी रहेगी। बाकी नेताओं, अधिकारियों और कारोबारियों के ख़िलाफ़ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई भी चलती रहेगी।

समर्थकों के दबाव में बदले भागवत के सुर !

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने संघ के मुखपत्र को दिए इंटरव्यू में जो बातें कही हैं, उसे लेकर चौतरफा हैरानी जताई जा रही है। पूछा जा रहा है कि कुछ दिन पहले तक भागवत मुस्लिम समुदाय के प्रति इतना सद्भाव दिखा रहे थे, मुस्लिम समाज के प्रबुद्ध लोगों और और उद्यमियों से मिल रहे थे और मज़ारों व मदरसों में जा रहे थे फिर अचानक उन्होंने कैसे अपना सुर बदल लिया? पिछले साल के आख़िर में मोहन भागवत जब ऑल इंडिया इमाम काउंसिल के प्रमुख उमर इलियासी से मिलने गए थे तब से संघ के रास्ता बदलने की चर्चा तेज़ हुई थी। लेकिन इसके साथ ही संघ का विरोध भी तेज़ हो गया था। हिंदू-हितों की सौगंध खाने वाले अनेक जाने माने लोगों ने वीडियो शेयर करके सोशल मीडिया में कहा था कि वे अब संघ के साथ नहीं है। सोशल मीडिया में यह भी कहा गया कि मुस्लिम अपनी राय नहीं बदल रहे हैं, तो फिर संघ अपनी राय क्यों बदल रहा है? निश्चित रूप से सोशल मीडिया से और ज़मीनी स्तर से यह फीडबैक संघ को मिली है, जिसके बाद संघ प्रमुख की राय बदली। पिछले साल जब भागवत मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मिले थे तब उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा था कि मुस्लिम समाज हिंदू और दूसरे धर्म के लोगों को काफ़िर कहना बंद करे। यह शिकायत जायज़ थी। लेकिन अब भागवत ने कई बातों के अलावा यह भी कहा कि हिंदू एक हज़ार साल से युद्ध में हैं, इसलिए उनका व्यवहार आक्रामक होना स्वाभाविक है। सोचने वाली बात है कि पहले संघ परिवार से जुड़े संगठन कहा करते थे कि हिंदू एक हज़ार साल तक ग़ुलाम रहे। लेकिन अब कहा जा रहा है कि युद्ध में रहे और इस आधार पर मौजूदा आक्रामकता का बचाव किया जा रहा है। ज़ाहिर है कि भागवत ने थोड़े समय पहले संघ को उदार दिखाने की कोशिश की थी वह बहुत थोड़े समय की सिद्ध हुई।

नवीन पटनायक की खेल कूटनीति

ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक खेल कूटनीति के ज़रिए राजनीति साधने में लगे हैं। उनके राज्य में अगले साल लोकसभा के चुनाव के साथ-साथ विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसका मतलब है कि चुनावी साल शुरू हो चुका है और इसकी शुरुआत पुरुष हॉकी के विश्वकप के साथ हो चुकी है। यह आयोजन ओड़िशा के दो शहरों- भुवनेश्वर और राउरकेला में 13 जनवरी से हो चुका है जो 19 जनवरी तक चलेगा। उससे पहले पटनायक ने ऐलान किया कि अगर भारतीय टीम विश्वकप जीतती है तो हर खिलाड़ी को राज्य सरकार एक-एक करोड़ रुपये देगी। इस आयोजन को लेकर नवीन पटनायक की सरकार ने कई बड़ी परियोजनाएं शुरू की थी। आयोजन से ठीक पहले केंद्र सरकार की उड़ान योजना के तहत राउरकेला से नई विमानन सेवा भी शुरू हुई, लेकिन राज्य सरकार ने इसे अपना आयोजन बना लिया। इस आयोजन के विज्ञापन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या विमानन मंत्री ज्योतिरादित्य सिधिया की तस्वीर कहीं नहीं दिखी। ओडिशा के भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इस पर आपत्ति जताई है। बहरहाल, हॉकी विश्वकप के उद्घाटन के मौक़े पर नवीन पटनायक ने सभी विपक्षी नेताओं को आमंत्रित किया। ग़ौरतलब है कि पटनायक अब तक विपक्षी एकता के प्रयासों से दूर रहे हैं और मोटे तौर पर भाजपा की केंद्र सरकार को मुद्दा आधारित समर्थन देते रहे है। अब चुनाव से पहले वे भाजपा से दूरी बना रहे हैं। ध्यान रहे पिछली बार ओड़िशा में भाजपा ने लोकसभा की आठ सीटें जीती थी लेकिन विधानसभा में वह बीजू जनता दल को नुक़सान नहीं पहुंचा पाई थी। इस बार नवीन पटनायक का प्रयास लोकसभा में भी भाजपा को रोकने का है।

कई राज्यों में ख़ाली है राज्यपाल का पद

देश के कई राज्यों में राज्यपालों का पद ख़ाली हो गया है और प्रभारी राज्यपालों से काम चल रहा है। कई केंद्र शासित प्रदेशों में उप राज्यपाल और प्रशासक का पद भी ख़ाली है। वहां भी प्रभारियों के ज़रिए काम चल रहा है। पिछले कुछ दिनों से मंत्री पद से हटाए गए या दूसरी पार्टियों से आए कुछ नेता किसी छोटे-बड़े राज्य के राजभवन में जाने का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन ऐसा लग रहा है कि भाजपा के दोनों शीर्ष नेताओं की प्राथमिकता यह नहीं है। इसीलिए कई राज्यों मे प्रभारी राज्यपालों से काम चल रहा है और एकाध जगह तो प्रभारी राज्यपाल का भी कार्यकाल पूरा हो गया है लेकिन नई नियुक्ति की कोई तैयारी नहीं है। जैसे असम के राज्यपाल जगदीश मुखी का कार्यकाल पिछले साल अक्टूबर में पूरा हो गया लेकिन वे अभी पद पर है और पिछले काफ़ी समय से नगालैंड के राज्यपाल का भी प्रभार संभाल रहे हैं। इसी तरह अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल बीडी मिश्रा का कार्यकाल भी पिछले साल अक्टूबर में पूरा हो गया। लेकिन वे अभी भी बने हुए हैं। सत्यपाल मलिक के रिटायर होने के बाद ख़ाली हुए मेघालय के राज्यपाल का पद भी प्रभारी संभाल रहे है। इस तरह पूर्वोत्तर के चार राज्य हो गए, जहां राज्यपाल की नियुक्ति होनी है। उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल के भी पांच साल पूरे हो गए हैं। जहां तक उप राज्यपालों की बात है तो किरण बेदी के इस्तीफ़ा देने के बाद पिछले क़रीब दो साल से पुड्डुचेरी के उप राज्यपाल का पद ख़ाली है। तेलंगाना की राज्यपाल तमिलिसाई सौंदर्यराजन अतिरिक्त प्रभार संभाल रही हैं। इसी तरह अंडमान निकोबार में एडमिरल आनंद कुमार जोशी का कार्यकाल पिछले साल अक्टूबर में पूरा हो गया। लक्षद्वीप में दादरा नगर हवेली व दमन और दीव के प्रशासक प्रफुल्ल खोड़ा पटेल अतिरिक्त ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं। पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ही चंडीगढ़ के भी प्रशासक हैं। कुल मिलाकर अभी पांच राज्यपालों और पांच उप राज्यपालों व प्रशासकों की नियुक्ति होनी है।

बिहार को लेकर भाजपा ज़्यादा बेचैन

भाजपा वैसे तो 2024 के लोकसभा चुनाव में कई राज्यों में अपनी संभावना को लेकर चिंता में है लेकिन सबसे ज़्यादा बेचैनी बिहार को लेकर है। बिहार में भाजपा को लग रहा है कि अगर राजद, जनता दल (यू) और कांग्रेस का तालमेल बना रहा तो विधानसभा की तरह लोकसभा में भी उसके लिए कोई गुंजाइश नहीं रहेगी। इसलिए किसी तरह से राजद और जद(यू) का तालमेल तुड़वाने का प्रयास चल रहा है। मंत्री पद से हटाए गए राजद नेता सुधाकर सिंह लगातार नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ बयान दे रहे हैं और भाजपा के नेता दावा कर रहे हैं कि लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव के कहने पर वे नीतीश को अपमानित कर रहे हैं। इस बीच भाजपा की ओर से यह भी दावा किया जा रहा है कि नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा के साथ जुड़ सकते हैं। प्रचार किया जा रहा है कि नीतीश केंद्र सरकार में मंत्री बनेंगे और बिहार में भाजपा नेता सुशील मोदी मुख्यमंत्री होंगे। हालांकि भाजपा की ओर से किए जा रहे इस दावे का कोई आधार दिख नहीं रहा है। यह भी सही है कि नीतीश ने इस बार जिस दावे के साथ कहा है कि वे फिर भाजपा के साथ नहीं जाएंगे, उसे देखते हुए उनकी वापसी मुश्किल है। ऊपर से जाति जनगणना के सहारे वे लोकसभा चुनाव में भाजपा को सबक़ सिखाने का संकल्प लिए हुए हैं। एक दिलचस्प बात यह भी है कि बिहार भाजपा का ही एक गुट नीतीश की एनडीए में वापसी और सुशील मोदी के मुख्यमंत्री बनने के दावे का खंडन कर रहा है।

कांग्रेस और रालोद का दबाव समूह

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल और पुरानी सहयोगी कांग्रेस पार्टी ने मिल कर एक दबाव समूह बना लिया है। सपा और रालोद मिल कर विधानसभा चुनाव लड़े थे और बाद में रालोद के नेता जयंत चौधरी ने भरोसा दिलाते हुए कहा कि आगे के चुनाव भी दोनों पार्टियां साथ लड़ेगी। उसके बाद सपा ने उनको अपने कोटे से राज्यसभा में भी भेजा। इसके बावजूद पिछले दिनों जब कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा उत्तर प्रदेश से गुज़री तो सहयोगी समाजवादी पार्टी से अलग हट कर रालोद ने यात्रा में शामिल होने का फ़ैसला किया। ख़ुद जयंत चौधरी यात्रा से नहीं जुड़़े लेकिन बागपत, शामली और कैराना में उनकी पार्टी के नेताओं ने यात्रा में हिस्सा लिया। ग़ौरतलब है कि कांग्रेस ने सपा और बसपा को भी यात्रा में शामिल होने का न्योता दिया था। दोनों पार्टियों ने यात्रा का समर्थन किया और राहुल को शुभकामनाएं दीं लेकिन यात्रा में शामिल नहीं हुईं। रालोद के साथ-साथ भारतीय किसान यूनियन के सदस्य भी यात्रा से जुड़े और जब यात्रा हरियाणा पहुंची तो किसान नेता राकेश टिकैत भी यात्रा में शामिल हुए। सो, किसान आंदोलन का केंद्र रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की दो मज़बूत ताक़तों का कांग्रेस की यात्रा से जुड़़ना एक बड़ा संकेत है। सपा और रालोद गठबंधन में अगर कांग्रेस जुड़ती है तो कांग्रेस और रालोद का दबाव समूह मज़बूत होगा और ज़्यादा सीटों की दावेदारी होगी। ध्यान रहे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सिर्फ़ एक लोकसभा सीट जीत पाई थी। उसकी कोशिश होगी कि तालमेल में उसे ज़्यादा सीट मिले। दूसरी ओर रालोद की भी कोशिश होगी कि एक राज्यसभा देने के बदले सपा लोकसभा चुनाव में उसकी सीटें कम न करे।

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