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बिहार चुनाव : वाम को छोड़ कोई नहीं कर रहा 2 करोड़ खेत मज़दूरों की बात

बहुत कम मज़दूरी, सीज़नल काम, हद से ज़्यादा मेहनत और सामाजिक उत्पीड़न इस वर्ग के जीवन को परिभाषित करता है।
बिहार

ऐसे राज्य में जहां दो तिहाई से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है और 88 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है, वहाँ का शोरगुल से भरा चुनावी अभियान खेतिहर मजदूरों के बारे में अजीब मौन धारण किए हुए है। कोई भी प्रमुख राजनीतिक दल समाज के इस सबसे बड़े, सबसे अधिक शोषित और सबसे उत्पीड़ित तबके के बारे में बात करने को तैयार नहीं है। उनकी मजदूरी बढ़ाने या उनकी स्थिति में सुधार करने का कोई वादा नहीं किया जा रहा है। चुनाव विश्लेषकों और उस पर चर्चा करने वाले प्रमुख लोग भी सामाजिक संरचना का पासा खेलते हुए बिहार के जातिगत समीकरण के बारे में अधिक बात करते है, लेकिन कोई भी उनकी तरफ देखने या उनके हालात की परवाह नहीं करता है। केवल वामपंथी पार्टियाँ जिनमें- भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और भारती की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिब्रेशन प्रमुख है- उनके हालत के बारे में बात करते नज़र आते हैं।

ऐसा नहीं है कि कृषि मजदूरों की संख्या कम है- वास्तव में, यह सबसे बड़ा आर्थिक वर्ग है। 2011की जनगणना के अनुसार, बिहार में लगभग 95.4 लाख मुख्य खेतिहर मजदूर थे। 'मुख्य' का अर्थ है कि उनका प्राथमिक व्यवसाय दूसरों के खेतों में काम करना है। इसके अलावा, 88 लाख “सीमांत' कृषि मजदूर हैं, जो एक वर्ष, छह महीने या उससे कम समय दूसरों के खेतों में काम करते हैं। इन सीमांत मजदूरों में से कई सीमांत किसान भी हैं, जिनके पास बहूत मामूली जमीने हैं जो परिवार का पेट भरने के लिए अपर्याप्त है, उन्हें दूसरों के खेतों में मजदूरी कर अपनी आय में इजाफा करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

इन दोनों तरह के श्रमिकों को एक साथ रखें तो यह लगभग 1.8 करोड़ कृषि मजदूरों की चौंकाने वाली संख्या उभर कर सामने आती है। यह 2011 की संख्या है। 2020 में इसका अंदाज़ा पिछले दशक (2001-2011) की विकास दर के आधार पर लगाया जा सकता है जो एक काफी तंग अनुमान के अनुसार: 2.3 करोड़ बैठती है। [नीचे चार्ट देखें]

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बिहार के खेत मजदूरों में से लगभग एक चौथाई मजदूर दलित हैं और लगभग 3 प्रतिशत आदिवासी हैं। इन तबकों को शोषण और उत्पीड़न की दोहरी मार झेलनी पड़ती है क्योंकि वे अपने दैनिक जीवन में भयंकर भेदभाव और हिंसा का भी सामना करते हैं।

आगामी चुनावों में राज्य की मतदाता सूची में लगभग 7.29 करोड़ मतदाता दर्ज हैं। इसलिए, खेतिहर मजदूरों का हिस्सा कम से कम एक तिहाई तो बनता है। फिर भी, इस तबके को लेकर सब शांत और चुप है!

ज़िंदा रहने के हालात दयनीय 

बिहार में पुरुष कृषि मजदूरों की औसत मजदूरी दर मार्च 2020 में 264 रुपये प्रतिदिन थी, जो अखिल भारतीय औसत 293 रुपये से बहुत कम है, ये श्रम ब्यूरो द्वारा इकट्ठे किए गए मासिक वेतन आंकड़ों और भारतीय रिज़र्व बैंक डेटाबेस के अनुसार है। बिहार के कृषि-मजदूरों को हमेशा देश-व्यापी औसत से कम मजदूरी मिलती है। [2000 तक का नीचे चार्ट देखें]

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2005 में, जब नीतीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तब भारत के 68 रुपये की मजदूरी  के मुकाबले बिहार में मजदूरों की मजदूरी केवल 59 रुपये प्रतिदिन थी। यह पूरे देश में औसत से नीचे थी। लेकिन 2014 के बाद से, केंद्र में मोदी युग की शुरुआत के बाद बिहार में स्थितियां अधिक खराब हो गई हैं- देखें कि 2014 के बाद से लाल रेखा कैसे काली रेखा से दूर होती जाती है और कैसे उससे अलग हो जाती है। जून 2014 में, देश की औसत मजदूरी (217 रुपये) यानि बिहार से 8.5 प्रतिशत अधिक थी (यानि 200 रुपए थी)। मार्च 2020 में, यह अंतर लगभग 10 प्रतिशत तक बढ़ गया है।

मोदी शासन ने कृषि समुदाय के भाग्य को भयंकर रूप से उलट दिया है, जिसमें कृषि मजदूरों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। यदि मुद्रास्फीति का समायोजन किया जाए तो उनकी मजदूरी मुश्किल से बढ़ी है। ध्यान दें कि कृषि का काम मौसम के हिसाब से चलता है और ये मजदूरी केवल काम के महीनों में हासिल होती है। शेष वर्ष यानि चार से छह महीने के लिए कोई आय का जुगाड़ नहीं होता है। महिला कृषि श्रमिकों की मजदूरी हमेशा पुरुष मजदूरों की तुलना में बहुत कम होती है। आधिकारिक रूप से दर्ज मजदूरी आमतौर पर वास्तव में भुगतान की गई मजदूरी से अधिक होती है।

पलायन के लिए मजबूर 

भूमिहीनता, कम मजदूरी और अन्य गैर-कृषि रोजगार की कमी की वजह पलायन की प्रेरक शक्ति बन जाती है। बिहार राज्य सरकार का अनुमान है कि हालिया लॉकडाउन के दौरान लगभग 21 लाख प्रवासी मजदूर अपने पैतृक गांवों वापस आए हैं। जबकि वास्तविक संख्या अधिक होगी। यह बात सब जानते है कि बिहार के मजदूर महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली आदि कई राज्यों में काम करते हैं वे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदानों पर काम करने के लिए पलायन करते हैं। वे पंजाब और हरियाणा के खेतों में खेतिहर मजदूर के रूप में काम कर सकते हैं या फिर दिल्ली या महाराष्ट्र में औद्योगिक इकाइयों, या निर्माण स्थलों में आकस्मिक श्रम रोजगार करने या रिक्शा खींचने या घरेलू नौकर और दिल्ली, मुंबई आदि शहरों में अन्य व्यक्तिगत सेवा श्रमिक के रूप में काम करते हैं।

एक अध्ययन में पाया गया था कि 66 प्रतिशत प्रवासी या तो भूमिहीन मजदूर थे या गैर-खेतिहर मजदूर थे। ज्यादातर प्रवासी या तो अनपढ़ थे या उन्होंने प्राथमिक स्तर तक ही पढ़ाई की थी। उनमें से सिर्फ 23 प्रतिशत उच्चजातियों” से थे जबकि बाकी दलित, आदिवासी या ओबीसी थे।

इनके लिए लड़तीं वाम पार्टियां  

अधिकांश राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने और उनके बीच अपना समर्थन बनाए रखने के लिए जाति या धर्म का इस्तेमाल करते हैं। ऐसा इसलिए है कि ये दल खेतिहर मजदूरों की पहचान एक ऐसे वर्ग के रूप में नहीं करना चाहते हैं, जिन्हें सशक्तीकरण की सख्त जरूरत है और उनके ज़िंदा रहने के हालात में आमूल-चूल बदलाव की जरूरत है। इसलिए, इस विशाल तबके के सबसे ज्वलंत मुद्दों पर चुप्पी छाई रहती है।

बिहार के कई जिलों में, जहाँ वामपंथी आंदोलन मज़बूत है, वहाँ अक्सर खेतिहर मज़दूर उनका समर्थन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वामपंथियों ने भूमि, मजदूरी और नागरिक सुविधाओं के लिए लगातार लड़ाई लड़ी है, साथ ही बड़े जमींदारों और अन्य सामाजिक रूप से शक्तिशाली वर्गों के हाथों हिंसा का सामना करते हुए उनके समर्थन में खड़े रहे हैं। यह समर्थन जातिगत बाधाओं को भी तोड़ता है और आर्थिक रूप से शक्तिशाली कुलीन वर्ग के खिलाफ सभी शोषित लोगों को एकजुट करता है।

विधानसभा चुनावों में, नई विधानसभा में एक छोटे लेकिन महत्वपूर्ण वामपंथी ब्लॉक के उभरने की संभावना है। 

 

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