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बिहार चुनाव: आपको साइकिल गर्ल ज्योति कुमारी याद है ? वह अब भी स्कूल जाने की उम्मीद पाले हुई है

दरभंगा के कई प्रवासी श्रमिक, जो अचानक लगे लॉकडाउन के बाद अपने-अपने गांव लौट आये थे, राज्य में काम की कमी के चलते फिर शहर वापस चले गये हैं और बहुत कम मज़दूरी पर कड़ी मेहनत कर रहे हैं।
बिहार चुनाव

दरभंगा: क्या आपको वह 16 साल की लड़की ज्योति कुमारी पासवान याद है,जिसने इस साल मई में अचानक देशव्यापी लॉकडाउन लगाये जाने के कारण अपने बीमार पिता के साथ सात दिनों में 1,200 किलोमीटर से ज़्यादा की दूरी तय करते हुए साइकिल से बिहार के गुरुग्राम से बिहार के दरभंगा पहुंची थी ? उसके कष्ट और धैर्य ने देश भर का ध्यान व्यापक तौर पर खींचा था, विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने उसे मदद की पेशकश की थी, कुछ राजनेताओं ने भी अपनी सहायता के हाथ बढ़ाये थे और लंबे-चौड़े वादे किये थे।

इस सबके बावजूद सवाल यही है कि पिछले पांच महीनों में इस किशोर लड़की और उसके परिवार की ज़िंदगी में क्या बदलाव आया है ? कोई यह सोच सकता है कि अलग-अलग जगहों से मिलने वाली रक़म के बाद सिरहुली गांव में बने उसके एक आधे-अधूरे घर पर ख़र्च करने के बाद अब उसके परिवार के पास सर छुपाने के लिए एक पक्की छत है। इसके अलावा, यह दलित परिवार जिस सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहा था,उसमें भी कमी देखी जा रही है।

ज्योति की मां,फूलो देवी,जो किसी आंगनवाड़ी में बतौर एक रसोइया काम करती हैं, उन्होंने अपने चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ न्यूज़क्लिक को बताया, “जो लोग कभी हमसे मिलने नहीं आते थे, वे अब हमारे घर आते हैं और चाय पीते हैं। यह एक ऐसा बड़ा बदलाव है,जो हमने पिछले पांच महीनों में देखा है”। वह आगे कहती हैं, "ऊंची जातियों के बच्चों के माता-पिता पहले अपने बच्चों के लिए मेरे (जो अनुसूचित जाति के हैं) खाना बनाने पर ऐतराज़ जताया करते थे। लेकिन अब ऐसी कोई शिकायत नहीं है।”

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हालांकि, बिहार सरकार की तरफ़ से नि: शुल्क स्कूली शिक्षा मुहैया कराये जाने के फ़ैसले के बाद ज्योति के स्कूल जाने का उत्साह फ़ीका पड़ने लगा है, क्योंकि उसके गांव के पास के स्कूल ने उसे प्रवेश देने से मना कर दिया है और कोचिंग क्लासेज़ रोक दी गयी हैं।

ज्योति के पिता मोहन पासवान ने कहा,“वह 2018 में बोर्ड परीक्षा में शामिल तो हुई थी, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सकी,क्योंकि वह आर्थिक तंगी के कारण कोचिंग क्लास नहीं ले सकी थी। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखायी उस स्तर की नहीं हैं। कक्षायें नियमित रूप से नहीं होती हैं, कई विषयों के तो शिक्षक तक नहीं होते हैं और छात्रों और शिक्षकों के बीच कोई तालमेल भी नहीं होता है। ऐसी स्थिति में बोर्ड परीक्षा पास करने के लिए छात्रों को निजी ट्यूशन लेना पड़ता है या फिर कोचिंग क्लास जाना पड़ता है। परीक्षा में मिली नाकामी ने उसके मनोबल तो तोड़ दिया था और उसने पढ़ाई छोड़ दी थी। लेकिन,देश भर के लोगों का ध्यान जब इसकी तरफ़ गया,तब वह फिर से पढ़ाई शुरू करने को लेकर उत्साहित थी,लेकिन उसे प्रवेश नहीं लेने दिया गया,क्योंकि वह स्कूल की दसवीं कक्षा में भाग ले चुकी है।”  

उन्होंने कहा कि स्कूल प्रशासन ने उसे स्कूल के बाहर से परीक्षा की तैयारी करने के लिए कहा है और वह नये पंजीकरण के बाद ही उसी स्कूल से बोर्ड परीक्षा में भाग ले सकती है।

पासवान ने कहा,"समस्या यह है कि सरकार अगले साल फ़रवरी में परीक्षा आयोजित करेगी,लेकिन लॉकडाउन के प्रतिबंधों के चलते सभी कोचिंग सेंटर बंद हैं।"

बिहार की माध्यमिक शिक्षा प्रणाली के तहत अगर कोई छात्र बिहार विद्यालय परीक्षा बोर्ड की तरफ़ से आयोजित बोर्ड परीक्षा में फ़ेल हो जाता है, तो वह स्कूल की कक्षाओं में फिर से भाग नहीं हो सकता है।

उन्होंने कहा, "आनंद सर (जो आईआईटी-जेईई के छात्रों की तैयारी के लिए पटना में सुपर-30 चलाते हैं) ने मेरी बेटी की उच्च शिक्षा को प्रायोजित करने की पेशकश की है, लेकिन यह तभी संभव होगा,जब वह 10 वीं बोर्ड की अहम परीक्षा पास कर लेगी।"

इस किशोर बच्ची के लिए राजनेताओं ने वादों की झड़ी लगा दी है। जहां बिहार के मंत्री,मदन साहनी ने उसे सम्मानित करने के लिए उसके पैतृक गांव का दौरा किया था, उपहार के रूप में उसके लिए कपड़े और एक लिफ़ाफ़ा दिया था,जिसमें 5,000 रुपये थे, वहीं पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, जिन्होंने वीडियो कॉल के ज़रिये ज्योति और उसके परिवार से बात की थी, उन्होंने उसकी पढ़ाई-लिखाई और शादी के लिए पैदे देने का वादा किया था।

ज्योति को बिहार सरकार और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता,तेजस्वी यादव, लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के अध्यक्ष, चिराग़ पासवान, जन अधिकार पार्टी के सुप्रीमो,पप्पू यादव, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, अखिलेश यादव जैसे कई राजनेताओं से भी वित्तीय मदद मिली थी।

ज्योति अपने पिता की देखभाल के लिए मार्च के अंत में कोविड -19-के चलते लगने वाले लॉकडाउन के ऐलान से ठीक पहले गुरुग्राम चली गयी थी।उसके पिता वहां ई-रिक्शा चलाते थे और 26 जनवरी को एक ट्रक की चपेट में आ जाने के बाद उन्हें गहरी चोटें आयी थीं। जिस दरम्यान वह वहां रह रही थी, उस दौरान उसकी मां उसके चार छोटे-छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने के लिए गांव लौट आयी थी।

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हालात ठीक-ठाक ही थे और पासवान भी ठीक हो रहे थे,इसी बीच केंद्र ने अचानक 24 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान कर दिया था। शुरुआत में तीन हफ़्ते के लिए लॉकडाउन का ऐलान किया गया था। इस अवधि के अंत में लॉकडाउन को एक और दो हफ़्ते के लिए बढ़ा दिया गया । बाद में तीसरे लॉकडाउन का ऐलान भी कर दिया गया।

अचानक लगे लॉकडाउन से देश भर के वे लाखों प्रवासी मज़दूर प्रभावित हुए थे, जो बेरोज़गार और ग़रीब थे। चूंकि ट्रेनों की आवाजाही पर अचानक रोक लगा दी गयी थी, लिहाज़ा उनमें से हज़ारों लोग घर नहीं लौट पाये थे और उन्हें मीलों पैदल चलना पड़ा था। मोहन पासवान के पास भी आय का कोई स्रोत नहीं बचा था और राशन-पानी भी ख़त्म हो रहा था। जल्द ही उनके पास किराये के भुगतान तक के लिए भी पैसे नहीं बचे थे। उनका मकान मालिक उन्हें घर से बाहर निकालना चाहता था और मकान मालिक ने दो बार बिजली कनेक्शन भी काट दिया था।

पासवान ने कहा,“मैं एक बड़ी सर्जरी हुई थी और सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने में असमर्थ था। हम अररिया के मुसलमानों के एक ऐसे समूह के संपर्क में आये, जो साइकिल की सवारी करते हुए अपने गांव लौट रहे थे। उन्होंने हमें इस सफ़र में शामिल होने के लिए कहा। शुरू में मैं झिझक रहा था। लेकिन,ज्योति ने हिम्मत जुटाई और मुझे अपनी साइकिल पर बैठाने के लिए तैयार हो गयी। उस समूह ने हमारी बहुत मदद की। जब कभी ज्योति ने अस्वस्थ महसूस किया, तो उन्होंने उसे दवाइयां दीं और उस पूरे दर्दनाक सफ़र के दौरान हमारी देखभाल की।”  

8 मई को ज्योति ने अपने पिता को पीछे कैरियर पर बिठाकर गुड़गांव से साइकिल चलाना शुरू कर दिया। उसने अपने गांव की पूरी दूरी इसी तरह से तय की, सिर्फ़ एक छोटी सी दूरी तक का सफ़र एक ट्रक ड्राइवर के साथ तय की गयी थी,क्योंकि उस ट्रक ड्राइवर ने उन्हें अपने ट्रक पर चढ़ाने की पेशकश की थी। वे उस 10 दिनों के सफ़र के बाद 17 मई को तक़रीबन 9 बजे अपने ठिकाने पर पहुंच गये थे।

सिरहुली गांव की रूप-रेखा

दरभंगा के ज़िला मुख्यालय से 17 किमी की दूरी पर स्थित सिंघवारा ब्लॉक में तख़्तार पंचायत के सिरहुली गांव को औद्योगिक विकास, शिक्षा, स्वच्छ पेयजल और स्वास्थ्य सेवाओं का आज भी इंतज़ार है। इस गांव में तक़रीबन 800 परिवार रहते हैं और जिनकी आबादी 7,000 के आसपास है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दो राशन की दुकानें चलती हैं, पिंडारुच गांव में एक हाई स्कूल है, टेक्टार में भारतीय स्टेट बैंक की एक शाखा है, जो इस गांव से तक़रीबन 2.5 किमी दूर है और यहां एक प्राइमरी-के साथ अपर प्राइमरी स्कूल है।

एक स्थानीय नेता,रघुनंदन प्रसाद ताते के मुताबिक़, यहां 50% घरों में शौचालय नहीं हैं। उन्होंने कहा कि एक छोटे से तबके को शौचालय निर्माण के लिए सरकार से 15,000 रुपये की राशि तब मिली थी, जब उन्होंने सम्बन्धित अफ़सरों को 2,000 रुपये की रिश्वत दी थी। उनका यह आरोप भी है कि जिन लोगों ने रिश्वत देने से इनकार कर दिया था, उन्हें पैसे नहीं मिले।

इस गांव की आबादी का ज़्यादातर हिस्सा बुनकरों का है, वे आगे बताते हैं कि यह गांव कभी अपने हथकरघा उद्योग के लिए जाना जाता था,लेकिन 1980 में यहां के खादी ग्रामोद्योग के बंद होने के बाद यह उद्योग तबाह हो गया।

“खादी ग्रामोद्योग के बंद हो जाने से हज़ारों ग्रामीण बेरोज़गार हो गये। इसके बाद यहां की 80% आबादी रोज़ी-रोटी की तलाश में बड़े शहरों का रुख़ किया। मनरेगा के तहत किये जाने वाले काम को छोड़कर यहां रोज़गार का कोई दूसरा साधन नहीं है। ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत काम करने वाले ठेकेदारों को कमीशन के नाम पर टेंडर की राशि का 40% तक अफ़सरों को देना पड़ता है, उन्होंने आगे कहा कि अपने इस नुकसान की भरपाई के लिए ठेकेदार,मज़दूरों की मज़दूरी से 20% तक की रक़म ले लेता है।

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उन्होंने कहा, “इस हक़ीक़त के बावजूद कि इस पूरे क्षेत्र के निवासी मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं, फिर भी यहां सिंचाई का कोई इंतज़ाम नहीं है। यह बाढ़ वाला इलाक़ा है। पानी के भंडारण के लिए कोई जलाशय और अच्छे तटबंध तक नहीं हैं। हर साल आने वाली बाढ़ यहां की धान की फ़सलों को बहा ले जाती है। हमने इन मसलों को अपने प्रतिनिधियों के सामने रखा, लेकिन हमारी कोशिश बेकार रही,क्योंकि कोई भी यहां के लोगों की बदहाली को सुनने के लिए तैयार नहीं है।”

शहर से गांव और फिर गांव से शहर वापसी

कारखानों के बंद होने या अपने नियोक्ताओं द्वारा निकाल दिये जाने के कारण बड़ी संख्या में प्रवासी अपने-अपने गांवों ख़ाली हाथ लौट आये। उन्हें सरकार से नवंबर तक बाढ़ राहत और मुफ़्त राशन (3 किलो चावल और 2 किलो गेहूं प्रति सिर) के नाम पर 6,000 रुपये की बहुत मामूली सी मदद मिली।

चेन्नई की एक फ़ैक्ट्री में बतौर दिहाड़ी मज़दूर काम करने वाले विजय प्रसाद को जब घर वापसी के बाद काम नहीं मिला,तब पहले से कम तनख़्वाह पर काम करने के लिए वे फिर चेन्नई वापस चले आये। दक्षिण भारतीय राज्य,तमिलनाडु में पिछले 10 सालों से रह रहे विजय प्रसाद को घर वापसी से पहले प्रति माह 10,000 रुपये मिला करते थे। लेकिन अब, फिर से चेन्नई लौटने के बाद से वे सिर्फ 7,000 रुपये पर काम कर रहे हैं, वह ऐसा इसलिए कर रहे हैं,क्योंकि उनका एकलौता बेटा मिथिलेश लीवर से जुड़ी बीमारियों से पीड़ित है और उसे नियमित दवा की ज़रूरत है।

उनकी पत्नी,गीता देवी ने न्यूज़क्लिक से कहा, “वह (विजय) मार्च में गांव आये थे और जून में वापस चले गये थे, क्योंकि उन्हें यहां कोई भी काम नहीं मिल पाया था। जब वह वापस लौटे, तो कारखाना उन्हें फिर से काम पर रखने से हिचकिचा रहा था। क्वारंटाइन में 14 दिन बिताने और कोरोनावायरस की निगेटिव टेस्ट रिपोर्ट दिखाने के बाद उन्हें फिर से नौकरी पर रख तो लिया गया। लेकिन,इस बार उन्हें कम वेतन पर काम करना पड़ रहा है।”

गीता  बतौर आंगनवाड़ी सेविका (सहायक) काम करती हैं और पारिश्रमिक के रूप में उन्हें 2,000 रुपये मिलते हैं, वह कहती हैं, "दुर्भाग्य से हमारी सरकार ग़रीब है, इसलिए यह नियमित रूप से इस छोटी राशि का भुगतान भी नहीं कर पा रही है।"

परिवार को इस समय एक गंभीर वित्तीय संकट का सामना करना पड़ रहा है,क्योंकि उन पर 2 लाख रुपये का कर्ज़ है।यह कर्ज़ उन्होंने स्थानीय साहूकार से उधार लिया था।

कन्हैया प्रसाद (42) हरियाणा के गुरुग्राम स्थित एक ऑटोमोबाइल कंपनी में मैकेनिक थे।वे वहां अपनी पत्नी और तीन किशोर बच्चों के साथ साल 2011 से रह रहे थे।

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उन्होंने बताया,“24 मार्च को लॉकडाउन के पहले चरण की घोषणा के बाद हम अपने गांव इसलिए आ गये,क्योंकि कारखाना बंद हो गया था और हमें वहां से चले जाने के लिए कहा गया था। सरकार की तरफ़ से लगाये गये प्रतिबंधों को आंशिक रूप से उठाये जाने के बाद मैं अगस्त में अकेले ही गुरुग्राम वापस चला आया, लेकिन कारखाने ने मुझे नौकरी देने से मना कर दिया। बार-बार अनुरोध करने के बाद, मालिक सहमत तो हो गये, लेकिन 8,000 रुपये का भुगतान करने की पेशकश की गयी।यह रक़म मुझे पहले मिल रही रक़म की आधी (16,000 रुपये) है। काम की शिफ़्ट को भी आठ घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया गया। इस तनख़्वाह में अपना और घर का ख़र्च पूरा कर पाना मश्किल था, लिहाज़ा मेरे पास घर लौटने के अलावे कोई चारा नहीं बचा था। मैंने दूसरी कंपनियों में भी कोशिश की थी, लेकिन किसी के पास कोई काम ही नहीं था।”

ज्योति के पिता मोहन, जिनके पास अब बड़े शहरों में वापसी की कोई योजना नहीं है, इन हालात के लिए राज्य में विकास की कमी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। वे कहते हैं,“बिहार में पिछले 30 वर्षों में कल-कारखाने ख़त्म होते गये हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक उम्मीद के रूप में सामने आये थे, लेकिन उन्होंने भी हमें निराश ही किया है। बड़े शहरों में हममें से कोई भी बहुत ज़्यादा नहीं कमाता है। मेरी मासिक कमाई तक़रीबन 15,000 रुपये थी। हम काम करने के लिए वहां इसलिए जाते हैं, क्योंकि हमारे यहां रोज़गार के अवसर नहीं हैं। अगर यहीं कल-कारखाने होते, तो कोई भी अपना राज्य नहीं छोड़ता।”

बड़ी संख्या में प्रवासी अब भी गांवों में  ही हैं, कुछ काम पाने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं।

विडंबना यह है कि बिहार के उपमुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता,सुशील कुमार मोदी के मुताबिक़, लोग “ठाठ” का जीवन जीने के मक़सद से पलायन करते हैं।उन्होंने हाल ही में दिये गये एक साक्षात्कार में कहा है,“इन दिनों किसी को दो जून के खाने की व्यवस्था करने में कोई समस्या नहीं है। प्रवासन तो  इसलिए हो रहा है,क्योंकि लोग एक ठाठ का जीवन जीना चाहते हैं।”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bihar Elections: Remember Cycle Girl Jyoti Kumari? She’s Still Hoping to Join School

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