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बिहार: रोटी-कपड़ा और ‘मिट्टी’ के लिए संघर्ष करते गया के कुम्हार-मज़दूर

गर्मी के मौसम में मिट्टी के कुल्हड़ और मिट्टी के घड़ों/बर्तनों की मांग बढ़ जाती है, लेकिन इससे ज्यादा रोज़गार पैदा नहीं होता है। सामान्य तौर पर, अधिकांश कुम्हार इस कला को छोड़ रहे हैं और सदियों पुरानी इस परंपरा का अंत नज़र आ रहा है।
rabri devi
मटके पर काम करती राबड़ी देवी

बोधगया के पास बसे भागलपुर गाँव की एक महिला राबड़ी देवी अपने घर के पास ही दिन का अधिकांश समय मिट्टी के मटके (बर्तन) बनाने और उन्हे सुखाने में बिताती है ताकि वह उन्हे बाजार में बेच सके। उनके लिए यह एक अच्छा व्यवसाय है और गर्मी के मौसम में इसकी मांग बढ़ जाती है। "मैं यह काम लंबे समय से कर रही हूं। मेरा एक बड़ा बेटा है जिसके लिए मैंने सालों से पैसा इकट्ठा किया है। मैंने उसे चीनी भाषा सीखने के लिए चीन भेजा है, और अब हम बोधगया में चीनी बौद्ध पर्यटकों का मार्गदर्शन करने के अवसरों की प्रतीक्षा कर रहे हैं,” राबड़ी ने अपने बर्तनों को मुक्का मारते, सहलाते और आकार देते हुए उक्त बातें बताईं। 

भागलपुर, बड़ी कुम्हार आबादी वाले गांवों में से एक है, एक ऐसी जाति जो पारंपरिक रूप से मिट्टी की वस्तुओं को बनाने के काम में लगी हुई है। यहां कुम्हार समुदाय से जुड़े लोगों के करीब 70 से 80 घर हैं। गर्मियों में कुल्हड़ (मिट्टी के प्याले) और मटका जैसे सामानों की मांग बढ़ जाती है, लेकिन यह काम अधिक रोज़गार पैदा नहीं कर पाता है। सामान्य तौर पर, अधिकांश कुम्हार इस कला को छोड़ रहे हैं। इसी कारण अब यह परंपरा विलुप्त होती नज़र रही है।

“यहाँ भागलपुर में, कुम्हार का काम केवल 10-15 घर करते हैं, जबकि बाकी अन्य लोग छोटे-मोटे काम करते हैं। कोई ठेला चलाता है तो कोई राज मिस्त्री का काम करता है। कुछ सार्वजनिक क्षेत्र में भी काम करते हैं” बिहार कुम्हार (प्रजापति) समन्वय समिति के अध्यक्ष नंदलाल प्रजापति ने उक्त बातें बताईं जो समिति एक जाति का संगठन है और जो कुम्हार समुदाय के हितों और मांगों का प्रतिनिधित्व करती है। 

नंदलाल का कहना है कि कुम्हार समाज की बदहाली के कारण समिति का गठन हुआ है। "जब हमने, कई अन्य जाति समुदायों को आगे बढ़ते हुए और सार्वजनिक क्षेत्र में बेहतर रोज़गार और राज्य में राजनीतिक प्रतिनिधित्व पाते हुए देखा, तो हमारे समुदाय के कुछ बुद्धिजीवियों ने कुम्हार लोगों को एकजुट करने और आगे बढ़ कर लड़ने का लक्ष्य रखा।" 

नंदलाल कहते हैं कि, उनकी मुख्य चिंताओं में से एक यह है कि मिट्टी की वस्तुओं का बाजार गिर रहा है। "सरकार हमें किसी प्रकार की कोई न कोई सहायता प्रदान कर सकती है, जैसे कि वर्ष की शुरुआत में सरकार ने हाल ही में कई कुम्हारों को 100 इलेक्ट्रिक चाक क्षेत्र में (बिजली से चलने वाली टर्नटेबल्स जिस पर एक कुम्हार मिट्टी की वस्तुएँ बनाता है) वितरित किए थे। इससे हमारे उत्पादन में मदद मिलेगी और राज्य सरकार की यह एक अच्छी पहल है। लेकिन यहां बड़ी चिंता यह है कि इन वस्तुओं को बेचने के लिए हमारे पास कोई बाजार नहीं है। मिट्टी की वस्तुएँ या तो मौसम या उत्सव के अवसरों पर निर्भर हैं।"

मुख्य रूप से, कुम्हार खापरा या खपरैल (पुराने घरों की छत के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मिट्टी की टाइलें) और मिट्टी के बर्तन बनाते थे। ये दोनों अब चलन में नहीं हैं क्योंकि अब घरों की छतें सीमेंट से बनने लगी हैं, और स्टील और प्लास्टिक के बर्तन सभी संदर्भों में पसंद किए जाते हैं।

बिजली की चाक पर कुल्हड़ बना रहे पवन प्रजापति

पवन प्रजापति, एक कुम्हार जिन्हें हाल ही में इलेक्ट्रिक चाक मिली है, उनके लिए अब कुल्हड़ बनाना बहुत आसान हो गया है। "इलेक्ट्रिक चाक अपने आप चलती है, इसलिए मुझे अब चक को शारीरिक रूप से चलाने की जरूरत नहीं है। पहले चाक के एक घुमाव पर मैं केवल 7-8 कुल्हड़ बना पाता था, अब यह सब स्वचालित है, और इसलिए ताक़त कम लगती है।" 

पवन कहते हैं, जहां गर्मी के लिए कुल्हड़ बनाने का काम ठीक-ठाक चल रहा है, वहीं वे इस बात को लेकर चिंतित हैं कि इसके बाद क्या होगा। मिट्टी के सामान बनाने के लिए कच्चे माल के लिए बहुत कठिनाई होती है, जिनमें से कुछ विशिष्ट प्रकार की मिट्टी ढूँढना जिसमें काला मिट्टी और नदी के किनारे की मिट्टी शामिल है, मिट्टी की वस्तुओं को 'पकाने' के लिए जलाऊ लकड़ी, अब मायावी हो गई हैं। "मिट्टी ढूंढना मुश्किल होता जा रहा है। हमारे पास अपनी और अन्य जातियों की कोई जमीन नहीं है, जो जमीन के मालिक हैं, हमें कोई मिट्टी देने को तैयार नहीं हैं। हाल ही में, पास में एक सार्वजनिक झील में खनन हुआ है। इसलिए हम किसी तरह कुछ मिट्टी लाने में कामयाब रहे हैं, हमें दो ट्रक मिले हैं जो इस साल हमारे काम आएंगे। पवन ने कहा- लेकिन इस बात की कोई निश्चितता नहीं है कि सरकार हमें हमेशा इतनी मात्रा में मिट्टी उपलब्ध कराएगी।”

यह सरकारी प्रयासों में कुछ अपर्याप्तताओं की ओर भी इशारा करता है। पवन कहते हैं, "ऐसा भी नहीं है कि हमारी वस्तुओं के लिए बाजार टिकाऊ है। हम मुश्किल से अपना गुजारा कर पाते हैं, क्योंकि ज्यादातर काम मौसमी होता हैं। मूर्तियों पर ज्यादातर काम त्योहारों पर निर्भर करता है।" क्योंकि मुझे अपने परिवार का पेट भरने में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा है।"

भागलपुर में नंदलाल प्रजापति

नंदलाल समझाते हैं कि आज के कच्चे माल के संकट का एक प्रमुख कारण समुदाय का पिछड़ापन है। "आप देखिए, हमारे समुदाय ने हमेशा लोगों की सेवा करने में विश्वास किया है। दशकों पहले, एक कुम्हार परिवार के लिए अपनी कला से जुड़ा काम करना और जीवन जीना काफी था। औसत कुम्हार ने कभी भी जमीन के मालिक होने की आवश्यकता महसूस नहीं की क्योंकि ग्रामीण जीवन ने हमेशा उनकी आजीविका का समर्थन किया था। जैसा कि हमने आधुनिकीकरण का सहरा लिया, कुलीनों ने अपने लिए एक एकड़ जमीन खरीद ली है, और यह तथ्य कि हमारी जरूरतें अधिक हैं और चीजें महंगी होती जा रही हैं, कुम्हार को जमींदारों के बीच जगह नहीं मिलती है जो मिट्टी मांगते हैं तो उन्हें दूर भगा देते हैं। उसी तरह, जलाऊ लकड़ी भी खरीदना मुश्किल है।" वे अतीत की याद दिलाते हैं, जब बोधगया में, हिंदू-शैव मठ की संस्था, जिसे बोधगया मठ के नाम से जाना जाता है, के पास हजारों एकड़ जमीन थी। कुम्हारों को मठ के स्वामित्व वाली भूमि से मुफ्त में मिट्टी मिलती थी।

वे याद करते हैं- "लेकिन भारत की स्वतंत्रता से पहले और बाद में 70 के दशक में (यहां वर्णित) कई आंदोलनों के बाद, भूमि को मुक्त किया गया और भूमिहीनों और हरिजनों (दलितों) के बीच वितरित किया गया था।" लेकिन पुनर्वितरण के बाद जो हुआ है वह यह कि उच्च जातियां या अधिक विशेषाधिकार प्राप्त निचली जातियां आंदोलन के विजेताओं से जमीन खरीदने में सक्षम हो गई हैं। "सब कुछ दबंगों (कुलीन जातियों) के पास चला गया; इसलिए हमारे पास न मिट्टी है, न लकड़ी है और न ही कोई जमीन है। यह बहुत से लोगों के लिए इतना बुरा है कि उन्हें थोड़ी मात्रा में मिट्टी में रेत मिलाना पड़ता है। स्थिति निराशाजनक है। नंदलाल ने जोर देकर कहा कि उनकी मांग है कि सरकार कुम्हार समुदाय को कच्चा माल खरीदने के लिए जमीन आवंटित करे।

गया अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास स्थित बिष्णुगंज नामक गांव में कुम्हारों की ऐसी ही दुर्दशा सामने आई है। लगभग 70 साल के बुजुर्ग राम बृज, जो हवाई अड्डे पर एक सुरक्षा गार्ड के पद से सेवानिवृत्त हुए थे, अब अपना समय गाँव में बिताते हैं, जबकि उनके बच्चे गया शहर में मज़दूरी करते हैं। वह पुराने दिनों को याद करते हैं जब वे कुम्हार का काम करते थे।

"मैंने 24 साल की उम्र तक कुम्हार का काम किया; मिट्टी को इकट्ठा करने और फिर उस पर लगातार काम करते और वस्तु बनाने के लिए चाक घुमाने का काम करते जो अपने में काफी मशक्कत का काम था। मैं काम छोड़ना चाहता था, और इसलिए मैं हवाई अड्डे पर एक सुरक्षा गार्ड की नौकरी कर ली। फिर मुंगेर में भी यही काम किया।" वे आगे बताते हैं कि कुम्हारों का व्यवसाय अतीत में ही लाभदायक था, "अब कुम्हार के रूप में जीवन जीना मुश्किल हो गया है। कुम्हार जमींदारों से मिट्टी लेते थे, और अब जमींदार अपनी जमीन का इस्तेमाल अन्य गतिविधियों के लिए करने लगे हैं, और इसलिए वे हमें मिट्टी नहीं देते हैं। इस गाँव में अब कोई कुम्हार का काम नहीं करता है, और हर कोई कृषि का काम करने के लिए गाँव से दूर चला जाता है।"

विष्णुगंज में कमलेश पंडित अपनी चाक के साथ पोज देते हुए

कुम्हार समुदाय के एक अन्य व्यक्ति दिलचंद पंडित भी इसकी पुष्टि करते हैं। दिलचंद ने कहा, "यह गाँव कुम्हारों, यादवों और मांझीओं का गांव है और लगभग हर कोई किसी न किसी रूप में कृषि से जुड़ा है।" कुम्हार के पेशे की गिरावट और अप्रचलन का जमींदारों से बहुत कुछ लेना-देना है जैसा कि बर्तनों की मांग से है। "यह कुछ 6-7 साल पहले तक था जब हमारे समुदाय के लोग कुम्हार के रूप में काम करके अपना पेट भर पाते थे। दिलचंद ने बताया कि, हम जैतिया नामक अगड़ी जातियों के गांव से मिट्टी लाते थे। बाद में उन्होंने अपनी जमीन बेच दी, और इसलिए हमारे पास मिट्टी पाने का कोई स्रोत नहीं बचा है।" 

वह कहते हैं कि खपरा या खपरैल की मांग में गिरावट आई है, लेकिन बर्तनों का अभी भी एक छोटा सा बाजार है। लेकिन एक कुम्हार के रूप में खुद को बनाए रखने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। "पिछले कुछ वर्षों से, हम अपने बच्चों को चाक पर काम करने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर रहे हैं। कुछ को दूसरी नौकरी मिल गई, कुछ शिक्षक बन गए, और कई अभी भी सरकारी सेवाओं की तैयारी कर रहे हैं। दिलचंद कहते हैं कि कोई कुम्हार का काम क्यों करेगा जब इसमें कोई लाभ ही नहीं है।" 

कमलेश पंडित नाम का एक बूढ़ा आदमी गाँव में रहता है और उसके पास एक चाक है जिसका वह मौसम के अनुसार इस्तेमाल करता है। कमलेश ने कहा, "किसी भी त्योहार के दौरान, मैं दीये बनाता हूं और उन्हें बिष्णुगंज बाजार में बेचता हूं। इसके अलावा, मेरे बच्चे अन्य मज़दूरी का कम करते हैं, वे कुम्हार का काम नहीं करते हैं।" अब वह गाँव का अंतिम कुम्हार है जो इस गुम होती कला पर काम कर रहा है। स्पेक्ट्रम के दूसरे छोर पर, पवन कुमार जो कि कुम्हार परिवार से हैं जिन्होंने गया विश्वविद्यालय से जैव रसायन में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उनके पिता कमलेश्वर पंडित एक यातायात पुलिस निरीक्षक थे।

उन्होंने हमें अपनी चाक दिखाते हुए कहा- जो उनके पिता की थी, और अब उनके घर के पिछवाड़े में एक छोटी सी नाली को कवर करके रखी गई है, कमलेश्वर कहते हैं, "यह सिर्फ हमारे काम की याद रखने के लिए है। हम अब इस काम से नहीं जुड़े हैं। केवल मेरे पिता ही जानते थे चाक कैसे चलाया जाता है।" उनके दूसरे बेटे को सरकारी नौकरी मिल गई है, जबकि पवन पीएचडी करने के बाद गया के विभिन्न कॉलेजों में प्रोफेसर पद के लिए आवेदन कर रहा है। पवन ने कहा, "मुझे खुशी है कि मैं अपने समुदाय के उन गिने-चुने लोगों में से एक हूं जिन्होंने पीएचडी हासिल करने की ऐसी उपलब्धि हासिल की है। इस सब के लिए मेरे पिता को धन्यवाद।" लेकिन वह अपने समुदाय की चिंताओं के प्रति भी सचेत है।

पवन ने कहा, "सरकार को हमारे समुदाय के लिए बहुत सारी पहल करनी है: चाहे वह कच्चे माल की खरीद का संकट हो या हमारे समुदाय में समग्र पिछड़ापन और पूंजी की कमी हो। हमारे समुदाय की चिंताओं को देखने के लिए विशेष प्रावधानों की आवश्यकता है।" .

समुदाय को उसकी विकट स्थिति से ऊपर उठाने का मार्ग राजनीतिक क्षेत्र में प्रतिनिधित्व के साथ-साथ समुदाय की मांगों को पूरा करने के लिए निरंतर जुड़ाव और दबाव से होकर जाता है।

नंदलाल कहते हैं- "बिहार भर में हमारे समुदाय से हमारे कोई विधायक नहीं हैं। न ही ओबीसी आरक्षण हमारी मदद कर पाया है। नन्द लाल कहते हैं, 20 प्रतिशत आरक्षण को विशेषाधिकार प्राप्त ओबीसी जैसे तेली, साहूकार, कोएरी, हलवाई और कई अन्य लोगों द्वारा हथिया लिया गया है," "देहात में एक पुरानी कहावत चलती है: एक बढ़ई, दो लोहार, और कुम्हार के पूरे परिवार को कमाई के लिए लगना पड़ता है।"

उनका कहना है कि यह उन लोगों की स्थिति की ओर इशारा करता है जो अपना उत्थान नहीं कर पाए हैं, जो अपने पूरे परिवार के साथ इस गिरते पेशे में जीवित रहने की कोशिश करते रहते हैं।

जिले में 100 विद्युत चाक वितरण के बाद पूर्व में कई मांगों को लेकर वह दबाव बना चुके हैं। कुछ मांगों में सरकार द्वारा कुम्हार समुदाय के हकदार होने के लिए गैर-मजरुआ भूमि (भूमि जो खेती के लिए उपयोग नहीं की जाती है) की व्यवस्था के माध्यम से कुम्हारों के लिए मुफ्त मिट्टी उपलब्ध कराने का प्रावधान भी शामिल है। अन्य कच्चे माल के वितरण की भी मांग की गई है। "हम एक मिट्टी कला मंच भी चाहते हैं, एक निकाय जिसे यूपी, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में स्थापित किया गया है। नंदलाल ने कहते हैं, इसका उद्देश्य कुम्हारों की कला को बढ़ावा देना और समस्याओं पर ध्यान देना और समुदाय की समस्याओं का समाधान प्रत्यक्ष रूप से खोजना और सरकार से धन लेना है।”

सबसे ऊपर, नंदलाल को उम्मीद है कि कुछ किया जा सकता है। समिति न केवल कुम्हार समाज के व्यवसाय में मदद करने का काम करती है बल्कि कुम्हार समुदाय के भीतर विभिन्न उपजातियों को एक साथ भी लाती है। नंदलाल कहते हैं- "कुम्हारों की कुछ उपजातियों के बीच भेदभाव हुआ करता था, अर्थात कन्नौजिया को अछूत माना जाता था क्योंकि वे अपने घरों में गधों को पालते थे। समिति सक्रिय रूप से सभी को एक साथ लाई है, उम्मीद लगाई जा रही है कि हर कोई एक साथ प्रगति कर सके।"

अंग्रेजी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें

Bihar: Kumhar Labourers in Gaya Struggle as Market Declines

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