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बिहार से पता चलता है कि अगर कृषि-व्यापार को 'मुक्त बाज़ार' के हवाले छोड़ दिया जाये तो क्या होगा

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2006 में बिहार में एपीएमसी अधिनियम को ख़त्म कर दिया था और अब किसानों पर इसके विनाशकारी प्रभाव को देखा जा सकता है।
बिहार

नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही में कृषि व्यापार को विनियमित करने के कानूनों को पारित करके जो कुछ किया है, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उस काम को 14 साल पहले ही, यानी 2006 में पूरा कर दिया था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ गठबंधन वाली सरकार में मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद उन्होंने बिहार की कृषि उपज विपणन समिति (APMC) अधिनियम को समाप्त कर दिया था। इसके साथ ही उस समय यह ऐलान भी किया गया था कि इससे कृषि को लेकर आधारभूत संरचना में निजी निवेश बढ़ेगा, किसानों को अपने उत्पाद की बेहतर क़ीमतें मिलेंगी और बिचौलिये ख़त्म हो जायेंगे। इन्हीं सब बातों को अब प्रधानमंत्री मोदी भी नये क़ानूनों में दोहरा रहे हैं। लेकिन,सवाल है कि इससे पहले इस लिहाज़ से बिहार का अनुभव क्या रहा है ?

बिहार के लोगों के लिए तक़रीबन ज़रूरी 80% खाद्यान्न अब अन्य राज्यों से मंगाया जाता है। सरकार की तरफ़ से घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से बहुत कम दाम पर किसानों को अपनी उपज को बेचने के लिए मजबूर किया जाता है। मूल्य अस्थिरता का स्तर बहुत उच्च है। सरकारी ख़रीद बेहद कम है।

खाद्यान्न और फल-सब्ज़ियों के थोक बाज़ार अब बिना किसी ज़रूरी बुनियादी ढांचे के निजी तौर पर चलाये जा रहे हैं,किसानों की आपूर्ति को बड़े व्यापारियों की दया पर छोड़ दिया गया है। यहां इस बात को याद रखना ज़रूरी है कि बिहार के तक़रीबन 91% किसान छोटे और सीमांत हैं। ऐसे में ये हालात उनके लिए बेहद ख़ौफ़नाक हो गये हैं। इसके अलावा, राज्य की अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक कृषि पर निर्भर होने के चलते किसानों का यह संकट राज्य के आर्थिक पिछड़ेपन को बनाये रखता है।

कोई ख़रीदारी नहीं, कोई एमएसपी नहीं

नीचे दिये गये चार्ट चावल और गेहूं की राज्य की तरफ़ से की जा रही खरीद की गंभीर स्थिति को साफ़ तौर पर दिखाते हैं। किसी भी साल में चावल की यह ख़रीद, कुल उत्पादन के 20% से ज़्यादा नहीं हुई है, ज़्यादातर सालों में तो यह ख़रीद बहुत ही कम रही है। इसका मतलब यह है कि बहुत ही कम किसानों को एमएसपी मिल पाता है। राज्य सरकार ने चावल के लिए एमएसपी 1,815 रुपये प्रति क्विंटल तय किया हुआ है, लेकिन किसानों को व्यापारियों के हाथों केवल 1,350 से 1,400 रुपये प्रति क्विंटल पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

औरंगाबाद के रघुनाथपुर गांव के किसान फज़लू ख़ान ने न्यूज़क्लिक संवाददाता मो. इमरान ख़ान को बताया, “सरकारी एजेंसियों की तरफ़ से की जाने वाली धीमी गति से ख़रीद और PACS (प्राथमिक कृषि साख समिति) की ओर से की जाने वाली बहुत ज़्यादा कागज़ी कार्रवाई और भुगतान में देरी के चलते हमें धान के लिए एमएसपी का फ़ायदा कभी नहीं मिल पाया।

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गेहूं के लिहाज़ से तो हालात और भी बदतर हैं। जैसा कि नीचे दिये  गये चार्ट में दिखाया गया है कि राज्य को गेहूं की ख़रीद किये हुए कई साल हो गये। पटना ज़िले के पालीगंज ब्लॉक के तहत आने वाले इज़र्ता गांव के सीमांत किसान,रघुवेंद्र सिंह ने न्यूज़क्लिक को बताया कि उन्हें इस साल भी गेहूं को जैसे तैसे बेचना पड़ा है।

सिंह ने बताया, “मैंने गेहूं 1,800 रुपये प्रति क्विंटल पर बेचा है, हालांकि एमएसपी 1,925 रुपये है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है और ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं हूं, सच तो यही है कि किसानों को अपनी रबी और ख़रीफ़ की उपज के लिए उचित दर कभी  नहीं मिल पाती है।”

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बिहार की एक और मुख्य फ़सल मक्का है। चालू वर्ष में किसानों को मक्का के लिए 1,000-1,300 रुपये प्रति क्विंटल का मूल्य मिल रहा था, जबकि आधिकारिक एमएसपी 8,850 रुपये तय किया गया है।

रिपोर्टों के मुताबिक़, सरकार की तरफ़ से संचालित अनाज ख़रीद केंद्रों की संख्या 2015-16 में क़रीब 9,000 था, जो घटकर 2019-20 में सिर्फ़ 1,619 रह गये है। अनाज ख़रीद केन्द्रों की संख्या में आयी यह कमी मुक्त बाज़ार’ और यह सोच कि किसान अपनी उपज को उच्चतम बोली लगाने वालों को बेचेंगे,उसका प्रत्यक्ष नतीजा है। व्यवहारिक तौर पर इसका मतलब तो यही है कि किसान अपना अनाज सिर्फ़ उन्हीं व्यापारियों को बेच पा रहे हैं, जिनमें से ज़्यादातर एमएसपी से नीचे की क़ीमतों की पेशकश करते हैं।

असल में बताया तो यह भी जाता है कि वे बड़ी कंपनियां,जो आटे या बिस्कुट जैसे आटे के उत्पादों को बनाने और बेचने के लिए गेहूं का इस्तेमाल करती हैं, उनमें से ज़्यादातर कंपनियां गेहूं की ख़रीद एमएसपी से नीचे कर रही हैं। दूसरे राज्यों से ख़रीदार इसलिए बिहार आते हैं, क्योंकि उन्हें कम क़ीमतों पर गेहूं मिल जाता है। बिहार के उप-मुख्यमंत्री और भाजपा नेता, सुशील मोदी गर्व से बताते हैं,“ यह प्रत्यक्ष विपणन मॉड्यूल वाला तरीक़ा ही है कि आईटीसी, आशीर्वाद के निर्माता किसानों से सीधे सालाना 2-3 लाख टन गेहूं ख़रीद रहे हैं।”

विनियमित फल और सब्ज़ी बाज़ार

उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद बिहार फलों और सब्ज़ियों (F & V) का देश में तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। सरकारी नियमन और निगरानी से किसान फ़ायदेमंद हो सकते थे। लेकिन, थोक बाज़ारों और कोल्ड चेन इंफ़्रास्ट्रक्चर-जिसे कि निजी क्षेत्र को स्थापित करना था-दोनों की ग़ैरमौजूदगी और ‘मुक्त बाज़ार’ का मतलब तो यही है कि ग़रीब किसानों को जल्द से जल्द ख़राब होने वाले उन उत्पादों का निपटान करना होता है,जिन्हें चाहे जिस किसी भी क़ीमत पर कोई ख़रीद ले।

हिंदू बिज़नेसलाइन में लिखने वाले आईआईएम,अहमदाबाद में प्रोफ़ेसर सुखपाल सिंह के मुताबिक़, निजी व्यापारियों ने राज्य के सभी प्रमुख फलों और सब्जियों के छोटे-छोटे इलाक़ों में सड़क के किनारे थोक बाज़ार स्थापित किया हुआ है, वे किसानों से 2% शुल्क और ख़रीदारों से मात्रा पर आधारित शुल्क वसूलते हैं। कोई तराजू या वस्तु को उठाने वाली मशीन तक नहीं है, कोई शेड या रिकॉर्ड भी नहीं है, गुणवत्ता या क़ीमतों के लिए कोई क़ायदा-क़ानून नहीं है। हालांकि सिंह का कहना है कि किसान तब भी खुश इसलिए हैं कि उन्हें अपने उत्पाद को बहुत दूर नहीं ले जाना पड़ता है। मगर,दुखद है कि वे ऐसी फ़ीस का भुगतान कर रहे हैं, जिसे पहले एपीएमसी में नहीं लिया जाता था, और उनके उत्पाद की क़ीमतें व्यापारी तय करते हैं। किसी भी तरह के विवाद या कदाचार के मामले का कोई निवारण तक नहीं है।

मूल्य अस्थिरता और कृषि में गिरावट 

नीतीश कुमार और उनके सहयोगी भाजपा ने ‘सब के लिए खुले बाज़ार वाला जंगल राज’ वाली जिस व्यवस्था को बिहार में पेश किया हुआ है, उसे ही अब पूरे देश में लागू करने किये जाने की बात की जा रही है, सही मायने में इसे लेकर जिस फ़ायदे के दावे किये जा रहे हैं, वास्तविकता उससे उलट है। क़ीमतों में लगातार अनिश्चितता और उसमें आते निराधार उतार-चढ़ाव ने कई किसानों को बर्बाद कर दिया है और उत्पादकता में गिरावट आ गयी है। वे कृषि में निवेश करने में असमर्थ हैं या संसाधन जुटाने के कोशिश में क़र्ज़दार हो गये हैं। बिहार, ख़ासकर गंगा के उत्तर में पड़ने वाले बिहार के इलाक़े में बाढ़ हर साल पेश आने वाली एक समस्या है, और जैसा कि पहले चार्ट के चावल उत्पादन आंकड़ों में देखा जा सकता है कि इससे कृषि उत्पादन में असुरक्षा पैदा होती है और उत्पादन में उतार-चढ़ाव की आशंका बढ़ जाती है।

नवंबर 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन में नेशनल काउंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (NCAER) ने बताया कि 2008-09 से 2011-12 में 3% और 2000-01 से 2007-08 में 2% के मुक़ाबले वर्ष 2012-13 से 2016-17 की अवधि में कृषि विकास दर घटकर मात्र 1.3% प्रति वर्ष रह गयी थी। इस संकट के कारणों के बारे में इस रिपोर्ट में कुछ इस तरह बताया गया है,

“2006 में कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) अधिनियम को समाप्त करने के बावजूद बिहार में नये बाज़ारों के निर्माण और मौजूदा बाज़ारों की सुविधाओं के बढ़ाने में निजी निवेश नहीं हुआ है, जिसके चलते बाज़ार के घनत्व में कमी आयी है। इसके अलावा, ख़रीद में सरकारी एजेंसियों की भागीदारी और अनाज की ख़रीद की मात्रा लगातार कम हो रही है। इस तरह, किसानों को उन व्यापारियों की दया पर छोड़ दिया गया है, जो किसानों से ख़रीदे जाने वाले कृषि उत्पादों की क़ीमत बेशर्मी के साथ कम निर्धारित करते हैं। कम क़ीमत पाना और क़ीमतों की अस्थिरता के लिए अपर्याप्त बाज़ार सुविधायें और संस्थागत प्रबंधन ज़िम्मेदार हैं।”

एपीएमसी उन्मूलन के बाद बिहार के इस परिदृश्य पर एक अन्य अध्ययन 2011-12 में सरकार संचालित राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान (NIAM) की तरफ़ से किया गया था। यह अध्ययन अपेक्षाकृत असंतोषजनक निष्कर्ष पर पहुंचा था,

“विनियामक तंत्र से मुक्त बाज़ार व्यवस्था की ओर बढ़ने वाला यह क़दम एक सही भावना से उठाया गया है, ताकि किसानों के लिए इस प्रणाली को ज़्यादा कुशल और अनुकूल बनाया जा सके। हालांकि, उसी प्रणाली ने बाज़ारों के कामकाज को संचालित करने के लिए संस्थागत प्रणाली के सिलसिले में एक शून्य भी पैदा कर दिया है। छोटे स्तर के किसानों के पास व्यापारी वर्चस्व वाली मौजूदा प्रणाली का इस्तेमाल करने के अलावा विपणन का कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं है।”

आगामी विधानसभा चुनावों में प्रस्तावित नये कृषि क़ानून सहित व्यापक किसान संकट और उनके असंतोष की लगातार ख़बरें आ रही हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा है कि वे बिहार में इन क़ानूनों को लागू नहीं करने वाले हैं, हालांकि एपीएमसी उन्मूलन वाला हिस्सा राज्य में पहले से ही लागू होने वाला एक निर्विवाद तथ्य है। सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड)-बीजेपी गठबंधन की तरफ़ से इस क़ानून को लेकर आग बुझाने की जो कोशिश की जा रही है, वह किसानों के ग़ुस्से की सीमा को दर्शाती है, और इसका चुनाव नतीजों पर निर्णायक असर पड़ना तय है

(इस आलेख को तैयार करने में पटना से मोहम्मद इमरान ख़ान ने योगदान दिया है)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bihar Shows What Happens if Agri-Trade is Left to ‘Free Market’

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