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बिहार एक बार फिर देश को रास्ता दिखा सकता है, रोज़गार बन रहा है चुनाव का केंद्रीय सवाल

पहले चरण के मतदान के 10 दिन पूर्व अब परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। विपक्ष एक ताकतवर गठबंधन बनाकर सामने आ चुका है और  NDA के सामाजिक आधार के अंदर  जबरदस्त confusion और आपसी mistrust पैदा हुआ है। 
बिहार

बिहार चुनाव में मोदी जी की सीधी एंट्री 23 अक्टूबर से होने जा रही है। पहले चरण के चुनाव के एक सप्ताह पूर्व। वैसे उनके नम्बर दो के स्टार प्रचारक योगी जी 20 अक्टूबर से मैदान में उतर रहे हैं। (अपना हाथरस, बलिया वाला रामराज का UP मॉडल लेकर! )

सवाल यह है कि NDA के हाथ से जो बाजी निकलती जा रही है, क्या वे इसे पलट पाएंगे?

चुनाव की घोषणा होने के पूर्व तक यह माना जा रहा था कि चुनाव एकतरफा होगा। आम तौर पर नीतीश कुमार की पुनर्वापसी तय मानी जा रहा थी। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा था कि सामाजिक-राजनीतिक समीकरण पूर्ववत बने हुए हैं, विपक्ष बिखरा हुआ और निष्प्रभावी है, जबकि NDA सुगठित है और सर्वोपरि नीतीश कुमार के खिलाफ थोड़ी बहुत anti-incumbency के बावजूद मोदी जी की लोकप्रियता बरकरार है। 

बहरहाल, पहले चरण के मतदान के 10 दिन पूर्व अब परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। विपक्ष एक ताकतवर गठबंधन बनाकर सामने आ चुका है और  NDA के सामाजिक आधार के अंदर  जबरदस्त confusion (उलझन) और आपसी mistrust (अविश्वास) पैदा हुआ है। 

यह एक आम धारणा बन चुकी है कि चिराग पासवान मोदी-अमितशाह के लिए बैटिंग कर रहे हैं, भाजपा के कई पुराने दिग्गज LJP के टिकट पर लड़ रहे हैं, चिराग ने अपने को मोदी जी का हनुमान घोषित किया है और वे नीतीश के खिलाफ आग उगल रहे हैं। रहस्यमय शुरुआती चुप्पी के बाद अब भाजपा इस पर सफाई दे रही है, लेकिन शायद अब देर हो चुकी है। LJP को अभी भी NDA से निकाला नहीं गया है और चिराग BJP-LJP सरकार बनाने की बात कर रहे हैं।

माना जा रहा है कि भाजपा नीतीश का कद छोटा कर उनसे किनारा करने और खुद कमान हाथ में लेने की रणनीति पर काम कर रही है। भाजपा के रणनीतिकारों को लग रहा है कि मंडल युग की राजनीति और नेतृत्व का दौर खत्म हो रहा है और बिहार की राजनीति का एक नया चरण शुरू हो रहा है। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद के दौर में राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के अलगाव को तोड़ने, उसे पुनः राजनैतिक वैधता दिलाने तथा पिछड़ों, दलितों, सोशलिस्ट खेमे आदि के एक हिस्से में स्वीकार्यता दिलाने में नीतीश कुमार ने जरूर ऐतिहासिक भूमिका निभाई पर अब नए दौर में उनकी उपयोगिता  खत्म हो चली है।

बीजेपी का सामाजिक आधार नीतीश से पहले से ही नाराज बताया जा रहा था, अब इस नए माहौल में वह नीतीश के खिलाफ LJP की ओर शिफ्ट हो सकता है, जाहिर है नीतीश कुमार के सामाजिक आधार में होने वाली इसकी जवाबी प्रतिक्रिया भाजपा को भारी पड़ सकती है।

मोदी जी अपने दोस्त रामविलास पासवान की मृत्यु के साये में हो रहे चुनाव में, जब शोकाकुल चिराग उनके हनुमान बनकर पूरे माहौल को गमगीन बनाये हुए हैं, रैलियों में आखिर क्या दिशा देंगे और इस भारी आपसी अविश्वास को दूर कर पाएंगे या वह और बढ़ जाएगा, इस पर सबकी निगाह रहेगी।

आज जिस तरह रोजगार और पलायन का मुद्दा विमर्श के केंद्र में आता जा रहा है, वह मोदी-नीतीश के लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित होने जा रहा है।

मोदी जी के स्वघोषित हनुमान चिराग पासवान ने एक खुली चिट्ठी के माध्यम से बिहार की जनता से मार्मिक अपील किया है कि नीतीश कुमार के लिए एक भी वोट कल आपके बच्चे को पलायन के लिए मजबूर करेगा।

ऐसा लगता है कि युवापीढ़ी के बीच रोजगार, पलायन, बिहार की विकासहीनता के मुद्दों पर सरकार से नाराजगी की एक गहरी अंडरकरंट (undercurrent) चल रही है। नीतीश-भाजपा के 15 साल लंबे शासन के दौरान  वोटर बने युवा जिनकी उम्र आज 18 से 33 साल के बीच हैं, कुल मतदाताओं के आधे से अधिक हैं। उनके मन में 15 साल पहले के अपने बचपन के किसी शासन की शायद ही कोई स्मृतियां बची हों,  पर नीतीश-भाजपा राज में जवान होते हुए जिस तरह अपने लिए एक अदद अच्छी नौकरी, रोजगार, सुन्दर जीवन के सपने को धूलधूसरित होते उन्होंने देखा है, उसकी घनीभूत पीड़ा आज उन्हें मथ रही है। 

इसीलिए नीतीश कुमार 15 साल पूर्व के लालू राज के पुराने भूत के नाम पर जब आज वोट मांग रहे हैं, तो वह बिहार की यह जो aspirational युवा पीढ़ी है, उससे शायद ही connect कर पा रहे हैं।

महागठबंधन ने 17 अक्टूबर को जारी 'बदलाव के लिए संकल्प पत्र' में सरकार बनते ही 10 लाख नौकरियाँ देने का एलान करके नौजवानों की इस दुखती रग पर हाथ रख दिया है और perception के स्तर पर बढ़त हासिल कर ली है।

नीतीश-भाजपा जबरदस्त दबाव में हैं और सुरक्षात्मक मुद्रा में हैं।

दरअसल, यह एक ऐसा सवाल है जिसका न नीतीश कुमार के पास कोई जवाब है, न जिस मोदी जी से कुछ लोग चमत्कार की उम्मीद लगाए हैं, उन के पास। कोरोना काल में देश में 2 करोड़ white collar नौकरियों समेत 12 करोड़ रोजगार खत्म होने और जीडीपी (-24% ) पहुंचाने का सेहरा तो उन्हीं के सर है! अभी एक महीना भी नहीं बीता है जब देशभर के नौजवानों ने उनके जन्मदिन को बेरोजगारी दिवस के रूप मनाया और ताली थाली पीटा।

NDA के नेता अब इस सवाल को address करने से बच नहीं पा रहे, पर उन्हें कोई सटीक जवाब सूझ नहीं रहा, स्वाभाविक रूप से उनकी प्रतिक्रिया उन्हें और बेनकाब ही कर रही है।

नीतीश कुमार ने तो यह अजीबोगरीब बयान देकर अपने को हास्यास्पद ही बना लिया कि बिहार में बेरोजगारी का कारण यह है कि यहां समुद्र नहीं है! फिर इस तर्क से तो बिहारी नौजवानों को कभी भी रोजगार मिलेगा ही नहीं, क्योंकि अब बिहार समुद्र किनारे तो पहुंचने से रहा!

उनके उपमख्यमंत्री भाजपा के सुशील मोदी ने कहा है कि सरकार बनी तो प्रदेश में उद्योग धंधों का जाल बिछाएंगे, नौजवानों को रोजगार देंगे! लोग उचित ही यह सवाल पूछ रहे हैं कि 15 साल तक किस बात का इंतज़ार कर रहे थे? लोग समझ रहे हैं कि दिल्ली वाले बड़े मोदी से प्रेरणा लेकर उनके 2 करोड़ प्रति वर्ष रोजगार और 15 लाख हर खाते में डालने वाले जुमले का ही यह बिहार संस्करण है।

यह अनायास नहीं है कि भाजपा अध्यक्ष नड्डा को अब वामपंथी उग्रवाद का भूत सता रहा है और गोदी मीडिया की मदद से चुनाव में आतंकवाद और जिन्ना की entry करवाई जा रही है! यह दोनों ही मुद्दे ऐसे अवसरों पर असली सवालों से जनता का ध्यान भटकाने तथा नकली खतरे का हौवा खड़ा करके वोटों के ध्रुवीकरण की पुरानी घिसीपिटी चाल है, जिससे जनता अब बखूबी वाकिफ हो चुकी है और लोग शायद ही इसको नोटिस भी लें।

वैसे तो यह समूचे विपक्ष को deligitimise करने की चाल है, पर वामपंथ के खिलाफ इनकी नफरत समझी जा सकती है। वामपंथ राष्ट्रीय स्तर पर इनके फासीवादी मिशन के खिलाफ लोकतंत्र के लिए जनता के उभरते प्रतिरोध का सबसे सुसंगत और दृढ़ विचारधारात्मक हिरावल (Vanguard) है। 

बिहार में वामपंथ ने नागरिकता कानून के प्रश्न पर संविधान के धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक ढांचे की हिफाजत के लिए पूरे जोशोखरोश के साथ राज्यव्यापी अभियान चलाया था जिसने नीतीश कुमार को रक्षात्मक मुद्रा में ला खड़ा किया और विधानसभा मे बिहार में NRC न लागू करने का प्रस्ताव पास करना पड़ा।  

नड्डा इसलिए परेशान हैं कि वामपंथ की उपस्थिति ने चुनाव को मुद्दाविहीन नहीं बनने दिया है।  धनबल, बाहुबल और मीडिया के जोर से चुनाव अभियान को साम्प्रदयिक व जातिवादी उन्माद की लहर में तब्दील कर जनता के सवालों को गुम कर देने की साजिश को वाम ने कामयाब नहीं होने दिया। गरीब-गुरबों के लिए अपने संघर्षों और राजनीति के साथ नीतीश-भाजपा राज के खिलाफ वामपंथ लगातार आंदोलन का झंडा बुलंद किये रहा तथा गरीबों, मेहनतकशों, खेत मजदूरों, किसानों,आशा बहुओं, सहायता समूह की महिलाओं, छात्र-युवा बेरोजगारों के हितों को लेकर, उनके सम्मान और सुरक्षा को लेकर, प्रवासी मजदूरों और बाढ़ के सवाल पर वह सड़क से सदन तक डटा रहा।

मुख्यधारा दलों के दबंग-माफिया प्रत्याशियों के विपरीत भाकपा (माले) जैसे वामपंथी दलों के समाज के हाशिये के तबकों से आने वाले बेदाग, संघर्षशील युवा प्रत्याशी सुखद आश्चर्य की तरह हैं और जनमानस में उम्मीद जगाते हैं।

नड्डा जैसों की कोई भी साज़िश उन्हें जनता से अलग नहीं कर पायेगी।

सच्चाई यह है कि नीतीश का 15 साला राज उनकी विराट असफलताओं का स्मारक है।  सामाजिक न्याय, अतिपिछड़ों-महादलितों के हितैषी की अपनी बहुप्रचारित छवि के विपरीत वे न तो डी बंद्योपाध्याय की अध्यक्षता में स्वयं बनाये गये भूमि सुधार आयोग की संस्तुतियों को लागू कर सके, और न दलितों गरीबों के जनसंहारों की जांच के लिए, उनमें राजनेताओं की भूमिका पर केंद्रित, जस्टिस अमीर दास आयोग को वे अंजाम तक पहुंचा सके, उसे उन्होंने बीच मे ही भंग कर दिया।

कथित डबल इंजन की सरकार के बावजूद वे बिहार को special package तक न दिलवा सके। यहां तक कि मोदी से बार बार request के बावजूद वे पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय तक न बनवा सके। 15 साल शासन के बावजूद वे बिहार को BIMARU राज्य की नियति से निकालकर कृषि विकास और औद्योगिक प्रगति पर आधारित, रोजगरसम्पन्न आधुनिक विकसित राज्य न बना सके।  आज भी प्रगति के तमाम सूचकांकों के हिसाब से बिहार देश का फिसड्डी राज्य है जहाँ हर साल करोड़ों बिहारी नौजवान, मेहनतकश रोजी रोटी की तलाश में यातनादायी पलायन को मजबूर हैं।

अनुभव सिन्हा निर्देशित और अभिनेता मनोज वाजपेयी के रैप किये गाने ‘बंबई में का बा’ की तर्ज पर हाल के दिनों में युवा गायिका नेहा सिंह राठौर के गाये, " बिहार में का बा? " की अपार लोकप्रियता दरसल बिहारी जनता की इसी हताशा, पीड़ा और बदलाव की आकांक्षा का आईना है, बिहार के पॉपुलर मूड की अभिव्यक्ति है।

बिहार अनादि काल से अनगिनत मुक्तिकामी  प्रयोगों की भूमि रहा है--प्राचीन भारत के गणतंत्र, बुद्ध की तपो भूमि, गाँधी का चंपारण, सन् 74 आंदोलन, कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट-नक्सल आंदोलन, जगदेव बाबू का त्रिवेणी संघ, शोषित समाज दल, अर्जक संघ, भोजपुर.....

उममीद है वामपंथ के साथ बिहार की बहुरंगी लोकतांत्रिक ताकतें एक मजबूत राजनैतिक ध्रुव बनकर उठ खड़ी होंगी तथा रैडिकल लोकतांत्रिक सुधार, आर्थिक पुनर्जीवन और सांस्कृतिक जागरण के कार्यक्रम के साथ चुनाव में सशक्त  हस्तक्षेप करते हुए बिहार के चिरप्रतीक्षित पुनर्जीवन का, नए लोकतांत्रिक बिहार के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेंगी ।

संकट की घड़ी में एक बार फिर पूरे देश के लिए Bihar shows the way चरितार्थ हो सकता है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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