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बिहार वाकई ‘बदलाव’ की ओर बढ़ रहा है!

ज़मीनी रपटें बता रही हैं कि NDA के आधार में चुनाव को लेकर उदासीनता और passivity दिखी है, जो नीतीश-भाजपा राज से नाराज़गी, NDA के बिखराव, आपसी भितरघात और mistrust से पैदा हालात में बहुत स्वाभाविक है।
बिहार चुनाव
Image Courtesy: NDTV

बिहार में अब सबकी निगाहें 3 नवम्बर को होने वाले दूसरे चरण के चुनाव की ओर लगी हुई हैं।

पहले चरण में चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़ों के अनुसार महामारी के बावजूद  55.69% मतदान हुआ जो पिछले 20 वर्षों का रिकार्ड है, यह 2015 के 54.94%, 2010 के 52.73%, 2005 नवम्बर के 45.85%, 2005 फरवरी के 46.5% से अधिक है, यह 2019 के लोकसभा चुनाव के 53.5% से भी अधिक है।  

स्वाभाविक रूप से जानलेवा महामारी के साये में हो रहे चुनाव में मतदाताओं का एक हिस्सा भीड़-भाड़ में निकलने से बचा होगा, वरना वोटिंग परसेंटेज और अधिक होता।

वैसे तो आम तौर पर मतदान का बढ़ना सत्ता परिवर्तन का संकेत माना जाता है, इस पैमाने से Covid-19 के बावजूद 20 वर्षों का रिकॉर्ड मतदान बदलाव की ओर इशारा कर रहा है।

लेकिन सही आंकलन के लिए यह अध्ययन करना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि किस दल या गठबंधन के समर्थक आधार में कैसा रुझान रहा। केवल मतदान प्रतिशत के घटने या बढ़ने के आधार पर आंकलन misleading हो सकता है। 

उदाहरण के लिए 2000 की तुलना में 2005 के चुनावों में मत प्रतिशत बढ़ा नहीं था बल्कि उसमें 16% के आसपास की भारी गिरावट हुई थी, फिर भी यह लालू प्रसाद की 15 वर्ष की सत्ता को बदलने का चुनाव बना। इसके विपरीत 2005 की तुलना में 2010 में 6% अधिक मतदान हुआ लेकिन यह किसी बदलाव के लिए नहीं, वरन नीतीश कुमार को पुनः सत्ता में ले आने के लिए था।

दरअसल, सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच वोटों की shifting तथा दोनों ही पक्षों के मतदाताओं की उदासीनता अथवा आक्रामकता से मतदान प्रतिशत और चुनाव की तकदीर तय होती है। 

कभी सत्ता परिवर्तन के लिए मतदान प्रतिशत बढ़ सकता है, तो कभी सरकार को सत्ता में बनाये रखने के लिए भी मतदान प्रतिशत बढ़ सकता है।

ठीक इसी तरह कभी यह हो सकता है कि सरकार के समर्थक उदासीन होकर बैठ जाँय और बदलाव के लिए विपक्ष के लिए मतदान भी बढ़े।

लगता है अबकी बार ट्रेंड ऐसा ही है जिस पर महामारी ने विपरीत असर डाला है, फिर भी पहले चरण में मतप्रतिशत 20 सालों में सर्वाधिक है।

जमीनी रपटें बता रही हैं कि NDA के आधार में चुनाव को लेकर उदासीनता और passivity दिखी है, जो नीतीश-भाजपा राज से नाराजगी, NDA के बिखराव, आपसी भितरघात और mistrust से पैदा हालात में बहुत स्वाभाविक है।

शहरों की तुलना में गांवों में, सम्भ्रांत तबकों की तुलना में गरीबों में, सबसे बढ़कर युवाओं में मतदान प्रतिशत अधिक रहा जो महागठबंधन के अनुकूल है, वहीं महिलाएं जिनमें नीतीश कुमार की पकड़ बेहतर हुआ करती थी, अबकी बार कम निकलीं।

चुनाव के ठीक पहले मुंगेर में पुलिस की बर्बरता ने भी चुनाव पर असर डाला है। नीतीश-भाजपा सरकार की बेलगाम निर्दयी पुलिस ने दीन दयाल उपाध्याय चौक पर दुर्गा मूर्ति विसर्जन के जुलूस पर गोली चलाकर JMS कालेज के पहले साल के मासूम छात्र 20 वर्षीय अनुराग पोद्दार की जान ले ली। 

लोहारपट्टी निवासी उनके पिता अमरनाथ पोद्दार बिलख रहे थे कि चौक से घर न आ गया होता तो बेटा मरता भी तो मेरी बाहों में होता !

जाहिर है इसने जनता को नीतीश-भाजपा सरकार के खिलाफ जबरदस्त गुस्से से भर दिया, इस बात ने आग में घी का काम किया कि वहाँ की पुलिस कप्तान लिपि सिंह नीतीश कुमार के सबसे करीबी जदयू नेता,पूर्व नौकरशाह RCP Singh की पुत्री हैं। सम्भवतः इसी कारण दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई में देरी हुई। हालांकि चुनाव के समय कार्रवाई का अधिकार चुनाव आयोग के पास होता है। जनता के भारी आक्रोश प्रदर्शन और विपक्ष के आक्रामक रुख के बाद भी कार्रवाई के नाम पर महज DM व SP का तबादला हुआ, too little, too late !

पहले चरण में मुंगेर में राज्य के अन्य इलाकों की तुलना में करीब 10% कम मतदान हुआ, अनेक लोगों ने बहिष्कार किया। इसने मुंगेर की 3 सीटों पर सत्ता पक्ष की सम्भावनाओं पर विपरीत असर डाला।

लोगों को यह बात हजम नहीं हुई कि हिन्दू-हित की बात करने वाली भाजपा-नीतीश सरकार के राज में दुर्गामूर्ति विसर्जन के लिए निकले नौजवानों के साथ ऐसी बर्बरता कैसे हो सकती है?

जाहिर है चुनाव के बचे दोनों चरण के चुनाव इस त्रासदी के साये में ही होंगे।

चुनावों को unethical ढंग से प्रभावित करने के लिए पहले की तरह फिर मोदी जी ने ठीक चुनाव के दिन, चुनाव क्षेत्रों के आसपास 3 रैलियां कर डालीं।

बहरहाल, बिहार की ग्राउंड रिपोर्ट्स के अनुसार जैसी की उम्मीद थी, महागठबंधन ने पहले राउंड में निश्चित बढ़त बना ली है। जाहिर है मोदी जी की 2 राउंड की रैलियों का कोई असर नहीं पड़ा है, अब उनकी रैलियों का एक राउंड और बाकी है, और वह भी ठीक अगले चरण के चुनाव के दिन है!

ऐसी रिपोर्ट्स हैं कि दो नावों की खतरनाक सवारी में मोदी जी संतुलन साधने के लिए कड़ी मशक्कत कर रहे हैं।  पहले राउंड की रैलियों में उन्होंने अपने मित्र रामविलास जी को याद करके तथा चिराग की कोई आलोचना न करके एक संदेश दे दिया। उन्होंने  नीतीश के 15 साल में से महज 3 वर्षों से अपने को जोड़ते हुए, उनके लंबे शासन की सारी नाकामियों का ठीकरा उनके सर फोड़ दिया और जो कुछ भी उपलब्धि बतायी जा रही है, उसका श्रेय खुद ले लिया।

नीतीश को बौना बना दिया गया, अब पूरा चुनाव मोदी जी की मंदिर बनाने, धारा 370 खत्म करने जैसी कथित उपलब्धियों तथा 500/- जनधन खाते में एवं 5 किलो अनाज जैसी लोकलुभावन योजनाओं के नाम पर लड़ा जा रहा है, मोदी जी तो कह ही रहे हैं कि सरकार बनी तो बिहार को IT hub बना देंगे, नीतीश भी अपनी 15 साल की उपलब्धियों की बजाय मोदी के कार्यक्रमों के नाम पर वोट मांग रहे हैं और लोगों को आश्वस्त कर रहे हैं कि अबकी बार सरकार बन गयी तो मोदी जी बिहार को विकसित राज्य बना देंगे!

संघ-भाजपा को मिट्टी में मिलाने के बड़बोलेपन को छोड़ भी दिया जाय, तो, जो नीतीश कुमार कभी शेखी बघारते थे कि राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों को पीछे रखने के लिए हमने भाजपा को मजबूर किया, उन्हीं के मुँह पर रैली में मोदी जी मजाक उड़ा रहे थे, कुछ लोग पूछते थे "मंदिर कब बनेगा, तारीख बताइए"! 'हमने बना दिया, जो कहा सो किया' और नीतीश जी बगल में बैठे ताली बजा रहे थे। 

बिहार के लोग भूले नहीं हैं कि यह सवाल सबसे ज्यादा नीतीश कुमार ही उठाते थे, जब वे पिछले विधानसभा चुनाव के समय भाजपा से अलग लड़ रहे थे। 

यह किसी विशाल वटवृक्ष के धराशायी होने की, उसके पतन की कारुणिक कहानी है!

एक ओर अंदर से यह भितरघात, जमीनी स्तर पर गहराता आपसी mistrust है, दूसरी ओर ऊपर से जोर जोर से एकता का नारा और "वर्तमान व भावी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं" का कलरव है।

यह देखना रोचक होगा कि बिहार की जनता इस पर कैसे respond करती है। बहरहाल, इस रणनीति से नीतीश कुमार का खेल तो बिगड़ ही गया है, भाजपा भी शायद ही वैतरणी पार कर पाए।

दरअसल, इस समय जो सवाल बिहार की जनता को मथ रहे हैं, वे अलग ही हैं। रोजगार का सवाल जो अब चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बन गया है, उस पर कहने के लिए कोई सटीक, ठोस बात न नीतीश के पास है, न मोदी जी के पास। बल्कि कई बार वे एक दूसरे की विरोधी बातें बोल रहे हैं। 

महागठबंधन द्वारा 10 लाख सरकारी नौकरियों के ठोस वायदे के सामने कोई बड़ी लकीर खींच पाने में नाकाम मोदी जी ने उसकी काट करने के लिए "जंगलराज के युवराज" का हव्वा खड़ा करते हुए कहा कि "सरकारी नौकरियों की बात छोड़िये, जो प्राइवेट कम्पनियां बिहार में लगी हुई थीं वे छोड़कर भाग जाएंगी"। पर कम्पनियां थीं कहाँ जो भाग जायेंगी? यह तो स्वयं नीतीश कुमार कह चुके हैं कि बिहार में कम्पनियाँ और रोजगार इसलिए नहीं है कि यह समुद्र किनारे नहीं है।

यह तो वैसी ही जुमलेबाजी हो गयी कि जो वैक्सीन बनी ही नहीं वह बिहार वालों को मुफ्त में दी जाएगी, जो कम्पनियाँ लगी ही नहीं, वे जंगल राज के डर से भाग जाएंगी!

आज 20 से 25 लाख प्रवासी मजदूर मोदी-नीतीश की नीतियों के चलते अकथनीय यातनाएं सहते हुए अपने गाँव वापस आकर बेरोजगार बैठे हुए हैं। 2 करोड़ रजिस्टर्ड मनरेगा मजदूरों में से मात्र 36.5% को काम मिला।

महामारी के एक साल पहले ही फरवरी 2019 में बेरोजगारी 10% के ऊपर थी जो अब 46 % के अकल्पनीय स्तर पर है, युवा बेरोजगारी 55% थी। जिन्हें रोजगार मिला भी था, उनमें से 87% के पास कोई नियमित नौकरी या रोजगार नहीं था।

वर्तमान मूल्य पर, प्रति व्यक्ति आय (per capita income ) का राष्ट्रीय औसत जहाँ 1 लाख 34 हजार रुपये वार्षिक है, वहीं बिहार में यह मात्र 46 हजार 664 रुपये वार्षिक या 3888 रुपये मासिक है, यह राष्ट्रीय औसत का मात्र तिहाई है। 

इतनी कम आमदनी में नीतीश-भाजपा राज में गरीबों की जीवन-स्थितियों का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह अनायास नहीं है कि 42% बच्चे कुपोषित हैं और 15 से 29 वर्ष के सन्तानोतपत्ति के crucial आयुवर्ग में 58% महिलाएं Anemic हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य-व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त है।

बिहार में कृषि पर सरकारी खर्च मात्र 3.5% है जो 7.1% के राष्ट्रीय औसत के आधे से भी कम है। 

जिस APMC Act को मोदी जी ने पूरे देश में अब खत्म किया है, और जिसके खिलाफ किसान राष्ट्रीय स्तर पर लड़ रहे हैं, वह बिहार में नीतीश ने बहुत पहले ही खत्म कर दिया था।  फसल बीमा योजना (PMFBY) से भी बिहार अलग हो गया था।

इसी सब का परिणाम है कि 42.5%  किसान परिवार कर्ज में डूबे हैं, 86.7% सीमांत किसान कर्ज में हैं।

सरकारी कर्ज 2005 में 46 हजार करोड़ से बढ़कर अब 1 लाख 62 हजार करोड़ हो गया है और CAG की रिपोर्ट के अनुसार 85% नया कर्ज़, पुराने कर्ज का  ब्याज और मूल  चुकाने में खर्च हो जा रहा है।

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि  न संसाधन हैं, न पूंजी है, न रोजगार है, प्रशासनिक ढांचा ध्वस्त है, ऋण के जाल (Debt -Trap ) में उलझे बिहार की विकास-यात्रा एक अंधी गली में फंस गई है।

इसीलिए चुनाव की इस निर्णायक घड़ी में बिहार की फिज़ाओं में हर ओर एक ही नारा है "बदलाव"! और हर बीतते दिन के साथ यह और मुखर होता जा रहा है।

यह आज बिहारी जनता के सामूहिक विवेक की पुकार है। आज Generational shift के दौर से गुजरती बिहार की राजनीति में युवा पीढ़ी की आवाज है,  "बदलो सरकार, नया बिहार" !

महागठबंधन में भाकपा (माले) व अन्य वामपंथी ताकतों की मौजूदगी ने सार्थक बदलाव के एजेन्डा को और धार दी है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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