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बिहार का घटनाक्रम: खिलाड़ियों से ज़्यादा दर्शक उत्तेजित

नीतीश और तेजस्वी 2015 की भांति ही एक बार फिर एक साथ आए हैं। यह वैसा ही गठजोड़ है जिसे 2015 की तरह मजबूत एवं परिवर्तन का संवाहक माना जा सकता है लेकिन जो 2017 में हुए अलगाव की भांति कमजोर और अल्पजीवी सिद्ध हो सकता है।
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मैच के दौरान कई बार ऐसा होता है कि मैदान पर खेल रहे खिलाड़ियों से ज्यादा मैच देख रहे दर्शक उत्साहित-उत्तेजित हो जाते हैं; खिलाड़ी तो सौहार्द-संतुलन बनाए रखते हैं किंतु दर्शक आपस में उलझ पड़ते हैं, कभी कभी तो तनाव, आनंद या दुःख के अतिरेक के कारण उनकी धड़कनें हमेशा के लिए रुक जाती हैं।

राजनीति की दृष्टि से यह कोई असाधारण घटना नहीं थी कि  नीतीश और तेजस्वी 2015 की भांति ही एक बार फिर एक साथ आए। यह वैसा ही गठजोड़ है जिसे 2015 की तरह मजबूत एवं परिवर्तन का संवाहक माना जा सकता है लेकिन जो 2017 में हुए अलगाव की भांति कमजोर और अल्पजीवी सिद्ध हो सकता है।

बीजेपी की अपराजेयता और उससे भी अधिक देश के संवैधानिक ढांचे और सेकुलर चरित्र को तहस नहस करने के उसके खतरनाक इरादों से चिंतित मुझ जैसे अनेक बुद्धिजीवी इतने भर से खुशी के मारे सचमुच दीवाने हो गए और कल्पनालोक में विचरण करते करते कुछ असंभव दृश्यों की कल्पना करने लगे। उनकी इस हिस्टिरियाई प्रतिक्रिया को देखकर उन पर दया ही आई।

नीतीश के व्यक्तिगत गुणों की खूब चर्चा-प्रशंसा होने लगी और उन्हें परिवारवाद और भ्रष्टाचार जैसे अवगुणों से मुक्त, जातिवादी और साम्प्रदायिक राजनीति के धुर विरोधी, सबको साथ लेकर चलने में सक्षम सर्वस्वीकार्य नेता के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। उन्हें देश के भावी प्रधानमंत्री और तेजस्वी को बिहार के भावी मुख्यमंत्री के रूप में भी प्रस्तुत किया गया।

नीतीश की राजनीतिक यात्रा को देखते हुए कोई सामान्य व्यक्ति भी यह बड़ी आसानी से कह सकता है कि वे  व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को सर्वोपरि रखने वाले राजनेता हैं और इसकी पूर्ति के लिए वे बड़ी आसानी से विचारधारा और नैतिकता के साथ समझौते कर सकते हैं।

यदि सबको साथ लेकर चलने का अर्थ किसी को भी साथ लेकर चलने जैसा लचीला बना दिया जाए तो हम अवसरवादियों को बड़ी आसानी से सर्वसमावेशी कह सकते हैं। नीतीश सबको साथ लेकर चलते रहे हैं लेकिन किसी व्यापक लक्ष्य अथवा परिवर्तन के लिए नहीं बल्कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए।

भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में दो प्रकार के नेता देखने में आते हैं। एक वे जो राजनीति के पारंपरिक ढांचे और प्रचलित मुहावरे को आत्मसात कर उसमें कुशलता अर्जित करते हैं। दूसरे वे जो राजनीति का नया मुहावरा गढ़ते हैं और एक नई राजनीति का प्रारंभ करते हैं। नीतीश पहली श्रेणी में जबकि लालू दूसरी श्रेणी में आते हैं। लालू जैसा करिश्मा न रखते हुए भी नीतीश ने अपने राजनीतिक चातुर्य के बल पर उनसे कहीं लंबी पारी खेली है। राजनीति में चातुर्य और धूर्तता अथवा कुटिलता समानार्थी हो सकते हैं, यह हम सभी जानते हैं। 

बिहार का हालिया घटनाक्रम भारतीय राजनीति में एक बड़े बदलाव का सूत्रपात कर सकता था यदि नीतीश तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपते और स्वयं राष्ट्रीय राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हो जाते। तेजस्वी की आरजेडी संख्याबल में नीतीश की जेडीयू से काफी आगे है तो है ही लेकिन जिस तरह से पिछले विधानसभा चुनावों में कुटिल राजनीति के जरिए तेजस्वी से जीत छीनी गई और लोगों में उनके प्रति सहानुभूति का भाव उत्पन्न हुआ वह उन्हें मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बनाता था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इतने वर्षों तक बिहार का शासन संभालने वाले नीतीश मुख्यमंत्री पद का मोह नहीं छोड़ पाए। 

यह कहना कि नीतीश सभी दलों को स्वीकार्य और लोकप्रिय हैं परिस्थितियों को कुछ अधिक सरलीकृत करना है। दरअसल भाजपा को सत्ता से बाहर रखने और इससे भी अधिक उसे यह एहसास दिलाने की इच्छा ने कि जो कुछ वह विरोधी दलों के राज्यों में करती रही है वह कितना अनुचित और तकलीफदेह है, कांग्रेस, वाम दलों और आरजेडी को नीतीश का समर्थन करने के लिए विवश कर दिया। शायद ये पार्टियां विपक्षी एकता का संदेश भी देना चाहती थीं। नीतीश भाग्यशाली हैं कि उन्हें बिना मांगे अनेक विपक्षी दलों का समर्थन परिस्थितिवश मिल रहा है।

नीतीश किसी ऐसे विपक्षी गठबंधन का चेहरा बन चुके हैं या बन सकते हैं जिसमें कांग्रेस शामिल है, यह आशा बहुत आसानी से यथार्थ रूप में परिणत होती नहीं लगती। कांग्रेस भाजपा के बाद एकमात्र ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है जिसकी उपस्थिति पूरे देश में है और स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री पद पर उसका नैसर्गिक अधिकार बनता है।

किंतु बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस सचमुच राष्ट्रीय पार्टी की भांति चुनाव लड़ेगी और इतनी सीटों पर विजय प्राप्त करेगी कि वह उसे ऐसे किसी गठबंधन के सबसे बड़े दल का दर्जा दिला सकें? ऐसा तभी संभव है जब किसी एक चेहरे को सामने रखकर कांग्रेस चुनाव लड़े और वह भी कांग्रेसवाद को आधार बनाकर। नेतृत्वविहीन और भाजपा के नक्शेकदम पर चलने को लालायित कांग्रेस को चुनावी सफलता मिलना कठिन है। और यदि ऐसा हो गया तब भी इसके टूटने बिखरने की संभावना अधिक रहेगी। बीजेपी की मानसिकता वाले कांग्रेसी नेताओं को बीजेपी का चुम्बक अवश्य अपनी ओर खींचेगा।

कांग्रेस का अनिर्णय खत्म होता नहीं दिखता। यदि उत्तरप्रदेश में राहुल और अखिलेश का एक साथ आना एक भूल थी जिसे प्रियंका ने सुधारा तो फिर बिहार में कांग्रेस की भावी रणनीति क्या होनी चाहिए? क्या चुनावों में भी वह इसी गठबंधन के साथ जाएगी और पार्टी कार्यकर्ताओं के व्यापक असंतोष को आमंत्रित करती हुई एक जूनियर पार्टनर के रूप में चंद सीटों पर चुनाव लड़कर संतोष कर लेगी? क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन का कांग्रेस को कोई फायदा मिला हो ऐसा कोई उदाहरण देखने में नहीं आता बल्कि गठबंधन के बाद उसका सिकुड़ता जनाधार और सीमित हुआ है। यह देखा गया है कि चुनावी गठजोड़ के बाद वोट ट्रांसफर अंकगणित के सवालों की तरह नहीं होता, राजनीति का गणित ठीक उल्टा होता है।

क्षेत्रीय दलों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वे "केंद्र में कांग्रेस और राज्य में क्षेत्रीय दल" फॉर्मूले को कभी स्वीकारेंगे, हर क्षेत्रीय पार्टी संसद में मजबूत प्रतिनिधित्व चाहती है ताकि वह केंद्र पर दबाव बना सके। और फिर आजकल तो हर क्षत्रप प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले है-चाहे वह शरद पवार हों या ममता बनर्जी हों या के. चंद्रशेखर राव हों या फिर आजकल चर्चित नीतीश कुमार हों।

राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव ने यह सिद्ध किया है कि अनेक विपक्षी दल कांग्रेस के साथ सहयोग करना नहीं चाहते। ऐसी परिस्थिति में विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस की अतिशय उदारता कहीं उसके लिए नुकसानदेह न हो जाए।

क्षेत्रीय राजनीति में सफलता अर्जित करने वाले क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं तीसरा मोर्चा बनने के मार्ग में बाधक हैं। यह देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे समय में जब भाजपा देश का मूल चरित्र बदलने की ओर अग्रसर है तब विपक्षी दल तुच्छ निजी स्वार्थों और महत्वाकांक्षाओं में उलझे हुए हैं। लगता ही नहीं कि कभी कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम अथवा मुद्दों के आधार पर विपक्षी एकता की बात करेगा।

जुलाई 2017 से जुलाई 2022 वह कालखंड रहा है जब  भाजपा सरकार ने अनेक ऐसे निर्णय लिए जो किसान और मजदूर विरोधी थे। भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। सबसे बढ़कर इन पांच सालों में देश के संवैधानिक ढांचे और साम्प्रदायिक सौहार्द को कमजोर करने वाले कितने ही सफल-असफल प्रयास हुए हैं। नीतीश की इनमें मौन सहभागिता रही है। इन 5 सालों में भाजपा ने प्रतिपक्षी दलों के अवसरवादी, भीरू,पदलोलुप, भ्रष्ट और महत्वाकांक्षी राजनेताओं को प्रलोभन अथवा दबाव के बल पर अपने वश में लेकर अनेक राज्य सरकारों को अस्थिर किया है और जनादेश का निरादर करते हुए अपनी पसंदीदा सरकारों का गठन किया है, कोई आश्चर्य नहीं है कि भाजपा के हाथों की कठपुतली बने ये नेता नीतीश को अपना आदर्श मानते रहे हों।

पूर्व के अनेक उदाहरणों की भांति नीतीश फिर अपनी कुर्सी बचाने के लिए एक नए गठबंधन में हैं,यह कोई असाधारण घटना नहीं है। असाधारण है परिवर्तनकामी बुद्धिजीवियों का उल्लास जो उन्माद की सीमा को स्पर्श कर रहा है। फासिस्ट विचारधारा के प्रसार को रोकना हम सबकी की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, किंतु इसके लिए पहली शर्त यह है कि हमारे पैर यथार्थ की जमीन पर टिके हों।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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