Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

बोडो शांति समझौता : क्या बीजेपी 'फूट डालो-राज करो' की नीति अपना रही है?

शांति वार्ताओं से आदिवासियों और मुस्लिमों को बाहर रखा गया है। राज्य में बीजेपी का मुख्य मतदाता, अब नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शनों से पार्टी से दूर हो रहा है। विश्लेषकों का कहना है कि इन वजहों से बीजेपी बोडो समुदाय के क्षेत्रों से 15-20 सीटें निकालने की जुगत भिड़ा रही है।
Exclusion of Muslims
Image Courtesy : New Indian Express

सच के कई पहलू होते हैं, इसलिए राजनेता हमेशा वह पक्ष दिखाते हैं, जिससे उन्हें फ़ायदा हो सके। प्रधानमंत्री ने असर के कोकराझार में राज्य के इतिहास की सबसे बड़ी जनसभाओं में से एक को संबोधित किया। यह जनसभा 'ऐतिहासिक' बोडो शांति समझौते के बाद हुई है। दिलचस्प यह रहा कि इस सभा में किसी ने ''नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध नहीं किया। बता दें यह रैली दिल्ली विधानसभा चुनाव के ठीक पहले, 7 फरवरी को हुई थी। कई लोगों ने इस रैली के पीछे की वजह पर सवाल उठाए थे। दरअसल इसका जवाब जटिल और बहुआयामी है।

भले ही 2020 के बोडो शांति समझौते को ऐतिहासिक कहा जा रहा हो, लेकिन 1993 के बाद से इलाके में  दो समझौते और हो चुके हैं। पहले और दूसरे समझौते वाकई में ऐतिहासिक थे। पहले समझौते से असम के बोडो लोगों को स्वायत्ता दी गई, वहीं 2003 में हुए दूसरे समझौते के ज़रिए उन्हें ''स्वायत्त प्रशासनिक इकाई'' का दर्जा मिला।

इस बार समझौते से केवल बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (BTC) के इलाके में महज़ इज़ाफा किया गया है। इसके बावजूद बीजेपी के सहयोगी और बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ) के मुखिया, हाग्रमा मोहिलारी ने  रैली में खुलकर साफ शब्दों में कहा कि बीजेपी, 2021 में होने वाले विधानसभा चुनावों में जीत रही है। हाग्रमा 2003 से ही BTC की शुरूआत से ही इसके प्रमुख हैं। अब उन्होंने बीजेपी की मदद करने के इरादे साफ कर दिए हैं।

दिलचस्प बात है कि जब 2000 के शुरूआती दशक में मोहिलारी हाग्रमा विद्रोही हुआ करते थे, तब अटल बिहारी सरकार ने ही दूसरा बोडो शांति समझौता किया था। इसके बाद मोहलारी ने अपना विद्रोही उपनाम बासुमातारी हटा दिया था और वे 2003 में BTC के पहले चीफ बने थे। उन्होंने बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर फोर्स (बीएलटीएफ) से चलाई जा रही अपनी विद्रोही गतिविधियां छोड़कर राजनीति में प्रवेश किया था। बीएलटीएफ एक उग्रवादी संगठन था।

बोडो लोगों के साथ किए गए सभी समझौतों में, उनके इलाकों में रहने वाले आदिवासी, मुस्लिम और दूसरे लोगों को नजरंदाज किया गया। इन लोगों को 1990 से शुरू हुए बोडो आंदोलन की शुरूआत से ही सबसे ज्यादा खून-खराबा झेलना पड़ा है।

BTC जोन में रहने वाले मुस्लिमों और आदिवासियों के कई नरसंहार हुए। लेकिन सात फरवरी को ऐतिहासिक बोडो शांति समझौते का जश्न मनाते हुए प्रधानमंत्री ने इनपर एक भी शब्द नहीं बोला, जबकि उनके भाषण में सत्य, अहिंसा और शांति जैसे शब्दों का खूब जिक्र किया गया था।  हालांकि मोहिलारी ने साफ किया कि BTAD इलाके में रहने वाले सभी लोगों को अब BTR बुलाया जाएगा।

अब बोडो शांति समझौते पर कई सवाल खड़े होते हैं। इनमें सबसे अहम है: क्या अब नए समझौते के तहत मुस्लिम और आदिवासियों को सुरक्षित महसूस हो रहा है? क्या BTAD (जिसे अब बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन या BTR बुलाया जाएगा) में बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट के 17 साल के शासनकाल में उनके दुख कम हुए हैं? 

उस अलग बोडोलैंड की मांग का क्या हुआ, जो ऑल बोडो स्टूडेंट यूनियन (ABSU) ने 1980 के दशक के आखिर में उठाई थी? सबसे ज्यादा अहम बात कि यह समझौता 2020 के अप्रैल महीने में होने वाले  BTC चुनावों के ठीक पहले क्यों हुआ? आखिर इस बोडो समझौते और आने वाले BTC चुनावों से बीजेपी को क्या फ़ायदा हुआ? बता दें BTC में न केवल असम का एक बड़ा इलाका शामिल है, बल्कि इसमें कई विधानसभा सीटें भी हैं।

कई लोग इन BTC चुनावों को 2021 में होने वाले विधानसभा चुनावों के पहले का सेमीफाइनल मान रहे हैं, खासकर तब, जब असम के लोगों ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ मुहिम का नेतृत्व किया है, जिससे बीजेपी एक कोने में सिमट गई है।

मौजूदा राजनीतिक स्थिति

राजनीति के गलियारे में चक्कर लगाना बेहद ज़रूरी होता है। सात फरवरी को अपने भाषण के शुरूआती दो मिनट में ही प्रधानमंत्री ने साफ कहा था कि ''आज़ादी के बाद से यह अब तक की सबसे बड़ी राजनीतिक रैली है''। 

बोडो शांति समझौता-2020 से क्या इलाके में शांति आएगी? इस सवाल का जवाब देते हुए असम के जाने-माने पत्रकार हैदर हुसैन पूरी राजनीतिक स्थिति को कुछ इन शब्दों में बयां करते हैं- ''ईमानदारी से बताऊं, तो अभी तक किसी भी बोडो शांति समझौते ने समाज के सभी तबकों, यहां तक कि सभी बोडो लोगों को भी संतुष्ट नहीं किया है। इस हालिया बोडो समझौते से खाई बनी है। खुद सरकार इन दूरियों को बनाने के लिए जिम्मेदार है। अब वो लोग प्रमोद बोरो को प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्या हाग्रमा चुपचाप यह देखेंगे? इसलिए बोडो लोगों में फिलहाल बंटवारा हो गया है, जो आगे और भी तेज होगा। कुछ लोग इस उथल-पुथल का फ़ायदा उठाना चाहते हैं और कम से कम राजनीति के लिए ही, बोडोलैंड की मांग को दोबारा उठाना शुरू करेंगे।''

समझौते के राजनीतिक परिणाम को समझाते हुए हुसैन कहते हैं,''अब यह सब केवल राजनीतिक सहूलियत के लिए हो रहा है।  कुछ विकास भी हो सकता है। इस मुद्दे के आसपास अब और राजनीति होगी। लेकिन मेरी आशा है कि ग़ैर-बोडो लोगों को भी विकास का लाभ मिले, क्योंकि दो लोकसभा चुनावों से साफ हो गया है कि इन दिनों ग़ैर बोडो लोगों को नजरंदाज करना नामुमकिन है। ग़ैर-बोडो लोग अब चुनावों के नतीज़े तय करने में एक अहम किरदार निभा रहे हैं।''

हुसैन ने जो कहा, वह ज़मीन पर नज़र आ रहा है। BTC के निर्वतमान मुखिया मोहिलारी ने शांति समझौते पर दस्तख़त करने के महज़ 15 दिनों के भीतर इसे खुद ही असफल करार दे दिया। मोहिलारी के मुताबिक़, उन्हें और नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (NDFB) के नेताओं को ABSU के नेताओं, खासकर प्रमोद बोरो ने समझौते की बारीकियों के प्रति अंधेरे में रखा।  हालांकि मोहिलारी ने जब प्रमोद बोरो और ABSU पर हमला किया, तो वे सरकार पर निशाना साधने से बचते दिखे। मोहिलारी के मुताबिक़ बोरो ने बोडो समुदाय से विश्वासघात किया है। 

दूसरी तरफ प्रमोद बोरो ने कहा कि ''समझौते को असफल करार देकर मोहिलारी ने प्रदर्शनकारियों और बोडो शहीदों का अपमान किया है।'' पूर्व लोकसभा सांसद संसुमा खुंग्गूर बिश्वामुतिआरी ने बोडो समझौते को ''बोडो लोगों के लिए आत्मघाती'' करार दिया है।  बिश्वामुतिआरी ने ''CAA के खात्मे या पूरे पूर्वोत्तर, खासकर असम, त्रिपुरा और मेघालय में इनर लाइन परमिट (ILP) सिस्टम लाने की बात कही।''

रिपोर्टों के मुताबिक़, इस बीच ABSU ने फरवरी से अपनी अलग बोडोलैंड की मांग से अनंतकाल के लिए किनारा कर लिया है। 

लेकिन बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन में आपसी द्वंद तेज होता जा रहा है। BTC में सत्ताधारी पार्टी का मुख्य विपक्षी दल पूर्व राज्यसभा सांसद उरखाओ ग्वारा ब्रह्मा की अध्यक्षता वाला यूनाईटेड पीपल्स पार्टी लिबरल (UPPL) है। UPPL अब स्थिति का फ़ायदा उठा रही है। असम के अख़बार ''नियोमिया वार्ता'' ने 16 फरवरी को एक रिपोर्ट में बताया कि ब्रह्मा ने बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल होने की इच्छा जताई है।

ब्रह्मा ने कहा,''BTR समझौता असम सरकार और केंद्र सरकार की कोशिश से संभव हुआ है। इन दिनों बीजेपी दोनों जगह सत्ता में है। इसलिए BTR समझौते को बेहतर तरीके से लागू करने के लिए हम स्वाभाविक तौर पर बीजेपी का नेतृत्व स्वीकार करेंगे। हम उनके साथ गठबंधन के इच्छुक हैं, लेकिन इस मामले पर कोई फैसला बीजेपी की मर्जी पर निर्भर करता है।''

अख़बार के एक आर्टिकल में बताया गया कि असम बीजेपी यूनिट के अध्यक्ष रणजीत दास पहले ही अपने गठबंधन में सहयोगी BPF के अलावा दूसरे स्थानीय नेतृत्व वाले संगठनों को साथ लाने की इच्छा जता चुके हैं। इनमें ABSU छोड़कर सक्रिय राजनीति में आने वाले प्रमोद बोरो भी शामिल हैं।

दिलचस्प है कि नियोमिया वार्ता असम के मंत्री हेमंत बिस्वा शरमा की पत्नी रिनिकि भुयन सरमा के समूह का हिस्सा है। इसमें न्यूज़ लाइव टीवी चैनल और दूसरे प्रकाशन भी शामिल हैं।

UPPL को BTC चुनावों के पहले बीजेपी अपने साथ गठबंधन में शामिल कर सकती है, क्योंकि BPF मानकर चल रही है कि 17 साल के शासन के बाद, इस बार चुनावों में उसे एक बेहद प्रबल एंटी-इंकंबेंसी लहर का सामना करना पड़ेगा। लोग बड़ी संख्या में UPPL ज्वाइन कर रहे हैं। इसके चलते मोहिलारी ने UPPL प्रमुख ब्रह्मा को राज्यसभा की सीट देने का प्रस्ताव भी दिया था, जिसे उन्होंने लेने से इंकार कर दिया था।

रिपोर्टों के मुताबिक़, ABSU ने लोकसभा चुनावों में UPPL का समर्थन किया था, इसे देखेत हुए कुछ लोग प्रमोद बोरो के भी UPPL में जाने की संभावना जता रहे हैं।

UPPL फिलहाल BTR के चिरांग जिले के बिजनी में दो दिवसीय पार्टी बैठक का आयोजन कर रही है। यह आयोजन 20 और 21 फरवरी को किया जाएगा। इसमें प्रमोद बोरो पार्टी में शामिल हो सकते हैं।

हालांकि बोरो ने अभी तक अपने विकल्प खुले रखे हैं।  जब उनसे राजनीति में आने का सवाल पूछा गया तो उन्होंने 18 फरवरी को न्यूज़क्लिक से कहा, ''मैं इस बारे में सोच रहा हूं। मैं पिछले 30 सालों से आंदोलन से जुड़ा हुआ हूं। इसलिए समाज के प्रति मेरा कुछ दायित्व हैं। कुछ आधे सुलझे मुद्दे भी हैं। हाल ही में हमने बोडो मुद्दों पर समझौता किया है। इसलिए मैं इस सवाल का जवाब देने के लिए वक्त लूंगा कि क्या मैं निर्दलीय चलूं या किसी पार्टी में शामिल हो जाऊं। फिलहाल मेरे लिए बेहद कठिन सवाल है।''

बोरो से जब आने वाले BTC चुनावों में हिस्सा लेने का सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा, ''अगर मैं किसी भी पार्टी को ज्वाइन करता हूं, तो यह पार्टी का फ़ैसला होगा कि मुख्य प्रत्याशी कौन होगा।'' भले ही बोरो जो भी कहें, लेकिन उनकी प्रतिक्रियाओं से साफ नज़र आता है कि वे जल्द ही राजनीति और किसी पार्टी में शामिल होने वाले हैं।

इस बीच ग़ैर-बोडो लोग भी इकट्ठे हो रहे हैं। इनका नेतृत्व कोकराझार सांसद नबा कुमार सारनिया कर रहे हैं। उन्होंने बोडो शांति समझौते को ''भेदभावकारी'' करार दिया था। 18 फरवरी को छपे नियोमिया वार्ता के मुताबिक़, ग़ैर-बोडो लोगों ने अमित शाह से अपनी मांगें सुनने की अपील की है। कथित तौर पर हेमंत बिस्वा शरमा ने उन्हें अमित शाह के साथ बैठक का भरोसा दिया है।

सारनिया, 2014 और 2019 में निर्दलीय लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं। इसकी मुख्य वज़ह ग़ैर बोडो लोगों का वोट बैंक है। उन्होंने चुनाव में बीजेपी के सहयोगी BPF की प्रत्याशी प्रमिला रानी ब्रह्मा को हराया। ब्रह्मा फिलहाल असम सरकार में समाजिक कल्याण और मृदा संवर्धन मंत्री हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शाह और सारनिया की बैठक में बीजेपी फ़ायदे की स्थिति में रहेगी।

इस तरह की राजनीतिक उठापटक, BTR समझौते के आसपास घूम रहे मुद्दों और आने वाले BTC चुनावों के बीच ऐसा नज़र आता है जैसे आखिर में बीजेपी ही फ़ायदे में रहेगी।

बोडो समझौता सिर्फ़ बीजेपी के राजनीतिक फ़ायदे के लिए : आदिवासी

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए ऑल आदिवासी स्टूडेंट्स एसोसिएशन ऑफ असम (AASAA) के अध्यक्ष स्टीफन लकरा ने बीजेपी पर BTR समझौते से फ़ायदा उठाने का आरोप लगाया। उन्होंने इस पूरी कवायद को अलग राज्य के लिए एक आखिरी बोडोलैंड आंदोलन की रणनीति करार दिया।

लकरा ने कहा, ''मोदी के आने पहले हेमंत बिस्वा शरमा लगातार कर रहे थे और यह समझौते में भी यह बात है कि यह समझौता आखिरी और अपने आप में पूर्ण है। लेकिन हम ऐसा नहीं मानते, क्योंकि हमें लगता है कि यह एक अंतिम बोडोलैंड आंदोलन की रणनीति का हिस्सा है।''

पहले की कुछ घटनाओं का उदाहरण देते हुए लकरा कहते हैं, ''अगर आप पुराना इतिहास देखें, तो याद आएगा कि जब पहला समझौता- BAC समझौता हुआ था, तब राम विलास पासवान, राजेश पायलट और एक अन्य मंत्री वहां थे। अब मोदी अकेले आए हैं। BAC समझौते के वक्त कांग्रेस के मंत्रियों और सरकार की एक बड़ी मशीनरी उस काम में लगी थी। यह बिलकुल सही है कि उनके पास ऐसी राजनीतिक शक्ति है। उस समझौते से बड़े आंदोलन के लिए ज़मीन बनाई गई। आंदोलन की पृष्ठभूमि मजबूत और संगठित की गई। जो मैं कहना चाह रहा हूं, वह यह है कि यह पूरी कवायद बोडो नेतृत्व, खासकर ABSU की रणनीति है। BTR से बोडो आंदोलन खत्म नहीं होगा।''

नए बोडो समझौते की आलोचना करते हुए लकरा कहते हैं, ''इस बार समझौता अपने आप में पूर्ण नहीं है, क्योंकि इसमें सभी को शामिल नहीं किया गया। बिना सभी समुदायों को शामिल किए, आप कैसे शांति और प्रेम स्थापित कर सकते हैं? बल्कि यह शांति स्थापित करने की दिशा में बीजेपी सरकार के लिए एक बड़ा मौका था, लेकिन वह चूक गए।''

नया समझौता, नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि में हुआ है। ऐसे में आदिवासी नेता को इसमें राजनीतिक और चुनावी चाल समझ में आती हैं। 

वे कहते हैं, ''राज्य भर में नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, ऐसे में बीजेपी के मूल मतदाता का पार्टी से मोहभंग हो चुका है।  इसलिए उनके चुनावी नुकसान की भरपाई बोडो समुदाय की 15-20 सीटों से होगी। इसलिए यह समझौता किया गया है, जिसमें महज़ बीजेपी का चुनावी लाभ है। जब मैं उनके लाभ की बात कहता हूं, तो मेरा मतलब वोट बैंक की राजनीति से है।''

लकरा आगे कहते हैं, ''हम भी शांति चाहते हैं, हम चाहते हैं उग्रवाद-अतिवाद खत्म हो। लेकिन असल बात यह है कि जब बीजेपी ने बोडो अतिवादियों, ABSU और दूसरे बोडो नेताओं-संगठनों से समझौते के लिए मुलाकात की, तो उन्होंने बांटो और राज करो की नीति अपनाई। उन्होंने केवल बोडो नेताओं से बात की। जब आप दूसरे नेताओं और समुदायों को नजरंदाज करते हैं, तो कैसे कोई समझौता समावेशी और पूर्ण हो सकता है। बीजेपी ने आदिवासी नेताओं, अल्पसंख्यक नेताओं, राजबोंगशी नेताओं, नाथ योगी नेताओं या दूसरे समुदायों से कोई बात ही नहीं की।'' 

लकरा आरोप लगाते हैं कि इस समझौते के ज़रिए बीजेपी दरअसल असमिया राष्ट्रवाद पर चोट करना चाहती है। ''क्योंकि यह असमिया राष्ट्रवाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधार के ख़िलाफ़ है।''

लकरा कहते हैं, ''असम के लोग इस बात से सहज महसूस नहीं करते कि बीजेपी, RSS की विचारधारा से खुद को संचालित करती है। इसलिए बीजेपी इन भावनाओं को बांटना चाहती है। अगर असम बंट जाता है, तो बीजेपी को कोई भी राजनीतिक, वैचारिक या भौगोलिक नुकसान नहीं होगा।''

लकरा बताते हैं कि कैसे बीजेपी नए समझौते के ज़रिए राज्य के एक हिस्से को अलग कर रही है। अब बोडो नेतृत्व CAA के ख़िलाफ़ नहीं जाएगा और बीजेपी कह सकेगी कि आधा असम उनके साथ है।

लकरा पूरी तरह साफ करते हैं कि आदिवासी समुदाय किसी भी तरीके से शांति के ख़िलाफ़ या बोडो लोगों द्वारा अपने अधिकार लेने के ख़िलाफ़ नहीं है। वे कहते हैं, ''हम बस इस समझौते में शामिल होना चाहते थे। इसलिए हम नाखुश हैं।''

बीजेपी सरकार ने RAW के एक पूर्व अधिकारी ए के माथुर को बोडो शांति समझौते समेत पूर्वोत्तर में अन्य उग्रवादी समूहों के लिए सरकारी वार्ताकार नियुक्त किया है। माथुर का नाम 2009 में उछला था, जब कई वरिष्ठ अधिकारियों को नजरंदाज कर उन्हें RAW का एडिशनल सेक्रेटरी बना दिया गया था। फ़ैसले के विरोध में हड़ताल भी हुई थी।

हमें कोई आशा नहीं : अल्पसंख्यक

ऑल बोडोलैंड माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (ABMSU) की BTR समझौते पर आदिवासियों जैसी ही भावनाएं हैं। उन्हें लगता है कि इस समझौते में समावेश की कमी है और यह भेदभावकारी है। जबकि 1990 से 2014 के बीच इलाके में हुई हिंसा के सबसे ज्यादा शिकार समुदायों में मुस्लिम भी एक हैं। इस दौरान लाखों  मुस्लिमों ने जान गंवाई और उन्हें राहत कैंप में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा।

बोडो शांति समझौते पर जिस तरीके से दस्तख़त किए गए हैं, उस पर नाराज़गी जताते हुए ABMSU की जनरल सेक्रेटरी तायसन हुसैन कहते हैं, ''असल में हमें BTR या बोडो शांति समझौते से कोई अपेक्षा ही नहीं थी। यह पहला समझौता नहीं है। 1993 में BAC समझौता हुआ, उसके बाद भी कई समझौते हुए। BTAD में ग़ैर बोडो लोगों की संख्या 70 फ़ीसदी से ज्यादा है, इसके बावजूद  सरकारों ने अलग-अलग समझौते सिर्फ़ बोडो संगठनों की मांगों पर आधारित होकर किए हैं। इन संगठनों में स्टूडेंट ऑर्गेनाइजेशन भी हैं और हथियारबंद संगठन भी।''

हुसैन का कहना है कि अभी तक सरकार ने ग़ैर बोडो संगठनों, जिनमें 2005 से संघर्ष कर रहा ABMSU भी शामिल है, उनसे एक भी बार बातचीत नहीं की। ABMSU का दावा है कि वो BTAD क्षेत्र के सात लाख धार्मिक अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करता है, जिनमें मुस्लिम भी शामिल हैं।

हुसैन कहते हैं, ''बोडो आंदोलन की शुरूआत से ही मुस्लिमों को मारा जा रहा है, उनके घर जला दिए जाते हैं, उन्हें धुबरी, बोंगईगांव जिलों में शरण लेनी पड़ती है। आज तक एक भी आदमी को न्याय नहीं मिला। अगर आप ज़मीन पर जाएंगे तो रोड, स्कूल, हॉस्पिटल की स्थिति देखेंगे, यह धार्मिक अल्पसंख्यकों के क्षेत्र में और भी खराब है। केवल बोडो इलाकों को जोड़ने वाली कुछ सड़कों की ही स्थिति बेहतर है।''

हुसैन कहते हैं कि BTAD इलाके में शांति की सबसे ज्यादा जरूरत मुस्लिमों को है- ''अगर BTAD इलाकों में स्थायी तौर पर शांति बहाल हो जाती है, तो हम इस समझौते का स्वागत करेंगे। अगर यह अवैध हथियारों आवाजाही, हिंसा, हत्या, अपहरण रोकता है, तो हम इस समझौते का स्वागत करेंगे। लेकिन इस समझौते के पहले सरकार ने हमसे कोई बात ही नहीं की। इसलिए हम वंचित महसूस करते हैं और इस समझौते के लागू होने के बाद हमें भेदभाव का शिकार होना पड़ेगा।''

हुसैन कहते हैं कि ''समझौते में एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है, जो इस बात का इशारा करे कि वे अल्पसंख्यक इलाकों में कुछ कॉलेज बनाएंगे या कुछ नए पुलों का निर्माण होगा। कुछ भी नहीं है! अब जब यह समझौता हो चुका है, तो हम एक आयोग की मांग कर रहे हैं, जो छठवीं अनुसूची के 14 वें अध्याय के अंतर्गत स्थापित हो। इस आयोग में हमारा प्रतिनिधित्व होना चाहिए। ABMSU, AKRSU और हर समुदाय से इसमें एक प्रतिनिधि होना चाहिए।''

लेखक असम आधारित इंडिपेंडेट कंटेंट मैनेजमेंट कंसलटेंट हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Bodo Peace Accord: Is BJP Playing Divide-and-Rule ?

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest