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'उफ़! टू मच डेमोक्रेसी': तीखे व्यंग्य बाणों के ज़रिये लोकतंत्र को बचाने की कोशिश

डॉ. द्रोण कुमार शर्मा का व्यंग्य संग्रह उम्मीद बंधाता है, साथ ही बताता है कि तानाशाह को जनता के हंसने से क्यों डर लगता है।
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मुझे लगता है कि व्यंग्य लिखना और खासतौर से राजनीतिक व्यंग्य लिखना एक कठिन विधा है। व्यंग्यों को राजनीतिक धार के साथ पेश किया है डॉ. द्रोण कुमार शर्मा ने। डॉ. द्रोण कुमार शर्मा का यह पहला व्यंग्य संग्रह उफ़! टू मच डेमोक्रेसी (प्रकाशकः गुलमोहर किताब) बहुत उम्मीद बंधाता है। उन्होंने एक बेहतरीन साहसिक किताब लिखी है। यह किताब हमारे समय के बेहद जरूरी-ज्वलंत सवालों पर तीखे व्यंग्य बाणों से हस्तक्षेप करती है।

डॉ. द्रोण कुमार शर्मा को हम सब लोग मेडिकल डॉक्टर के रूप में ही जानते रहे हैं। पेशे से चिकित्सक, डॉ. द्रोण आम जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हैं। हम सब उनके इलाज से बराबर ठीक होते रहे हैं। जितनी गहरी पकड़ उन्हें हमारे शरीर की व्याधि की है, उतनी ही गहरी नज़र समाज की व्याधियों-बीमारियों पर भी है। इस बात का जीता-जागता उदाहरण इस किताब में मौजूद है। इस किताब में राजनीतिक फलक पर लिखे गए उनके चुटीले शब्दों से लैस व्यंग्य सीधे-सरस वाक्यों से सजे हुए हैं, जो सहज ढंग से दिल को छूते हैं। इसमें दिल को छूने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण है—जो व्यंग्यात्मक पैनेपन के साथ सत्ता का झूठ बेनकाब करता है। व्यंग्य में मारक शक्ति होती है—तानशाह को कठघरे में खड़ा करने की और जनता के बीच उसके झूठ का पर्दाफाश करते हुए, उसे हंसाने की। यही वजह है कि तमाम तानाशाही सत्ताएं व्यंग्य-व्यंग्यकार और आज के दौर में स्टैंड-अप-कॉमेडियन से डरती हैं। इस किताब में कई व्यंग्य सत्ता के छल-कपट पर घनी चोट करते हैं।

चूंकि इस किताब के लेखक यानी डॉ. द्रोण की राजनीतिक दृष्टि साफ है—कहीं कोई भ्रम या दुविधा नहीं है, इसलिए वह मजबूती से नफरती राजनीति और सत्ता व कॉरपोरेट लूट को निशाने पर लेते हैं। लेखक किन विषयों को लेखन के लिए चुनता है—इससे उसकी पॉलिटिक्स—राजनीति समझी जा सकती है। किस तरह से अकूत बहुमत वाली उन्मादी फासीवादी सत्ता ने लोकतंत्र के सारे खंभों को गिरा दिया है या यूं कहें कि उन पर कब्जा कर लिया है, इसे उफ़! टू मच डेमोक्रेसी शीर्षक वाले लेख में बेहद रोचक ढंग से पेश किया गया है। यही इस किताब का शीर्षक भी है और यह बेहद मौजूं है। वाकई लोकतंत्र को खत्म करने वाले लोग-उनकी विचारधारा, लगातार यही दुहाई देते फिरती है कि कितना ज्यादा लोकतंत्र है। लोकतंत्र कितना ज्यादा है—सत्ता अपने लोगों को किस तरह बेतहाशा छूट देती है, कैसे सार्वजनिक मंचों से नफरती उद्घोष करने वालों को हरी झंडी दिखाई जाती है और अगर मजबूरी में कार्रवाई करनी भी पड़े तो इस बात की गारंटी की जाती है कि वे जल्द से जल्द छूट जाएंगे—इन तमाम विडंबनाओं को इस व्यंग्य में बुना गया है। यही हमारे दौर की सबसे बड़ी कड़वी सच्चाई है। जब उनके आका ही सिपहसलार हैं तो बस एक इशारा काफी है—सारा सिस्टम नतमस्तक हो जाता है।

इस किताब की एक और खासियत है इरफान के कार्टून। इरफान के कार्टूनों का इस्तेमाल इस किताब को बेहतरीन लुक दे रहा है। व्यंग्य की धार और मारक क्षमता को एक साकार विजुअल लुक मिला। अलग-अलग माध्यमों में जो पैनी नजर है—वह पाठक/दर्शकों को आकर्षित करती है। गुलमोहर किताब ने व्यंग्य के साथ कार्टूनों को छापकर एक नई परिपाटी बनाई है और मौजूदा दौर पर चोट को मूर्त रूप दिया है। न्यूज़ पोर्टल न्यूज़क्लिक ने इन व्यंग्यों को जो प्लेटफॉर्म दिया, वह भी सराहनीय है। हममें से कई लोग डॉ. द्रोण के न्यूज़क्लिक में नियमित पाठक हैं—तिरछी नज़र से प्रकाशित उनके व्यंग्यों का किताब के रूप में सामने आना बेहद अहम हस्तक्षेप है गुलमोहर किताब का। किताब के रूप में व्यंग्यों को पढ़ना एक समग्रता का भाव पैदा करता है और इनकी मार को और तीखा करता है। साथ ही साथ एक पुख्ता जमीन भी पैदा करता है, जहां पर झंडा लहरा रहा है—उफ़! टू मच डेमोक्रेसी।

उफ़! टू मच डेमोक्रेसी संग्रह में 53 व्यंग्य संकलित हैं। सबके शीर्षक बड़े दिलचस्प हैं। पहला लेखः वाकई दाग़ भी अच्छे हैं—जिसमें स्विसबैंक और उसमें जमा पैसों के इर्द-गर्द घूमती भारतीय राजनीति की जमकर मरम्मत की गई है। इसी तरह से, शौक़ बड़ी चीज़ है, जी भर कर कीजिए मोदीजी—में प्रधानमंत्री मोदी के घिनौने आडंबर-बेपनाह खर्चें को निशाने पर अच्छे ढंग से लिया गया है, तो हर शाख पे उल्लू बैठा है—में लोकतंत्र की विडंबना पर जमकर तंज किया गया। मोदी जी के जुमलों की तो चीर-फाड़ की गई है, वह चौबीस घंटे के उनके प्रचार की पोल खोलती है।

इन व्यंग्यों की खूबसूरती यह है कि ये मोदी जी के तमाम जुमलों को उन्हीं की सत्ता के मुंह पर मारते हैं। ये सारे जुमले बेहद लोकप्रिय है—प्रचारतंत्र रोज इनका भौंपू बजाता है, इसलिए पाठक सीधे-सीधे इनसे जुड़ जाता है और सारा खेल उसके आगे खुल जाता है। जैसे आंदोलनजीवी, बेटी बचाओ, वंशवाद से लेकर शाहीनबाग़-किसान आंदोलन—सब पर लेखक की निगाह गई है।

डॉ. द्रोण की निगाह दरअसल एक सचेत भारतीय नागरिक की निगाह है—जो लोकतंत्र पर हो रहे हमलों को भांप लेती है। आंदोलनजीवी में द्रोण कुमार किसान आंदोलन पर किए गये मोदी जी के तंज को रक्त जीवी से जोड़ते हैं—वे लोग जो दंगा कराते हैं।

सेल पर है देश...में द्रोण कुमार देश बेचने के सिलसिले को बेहद बारीकी से क्रोनोलॉजी के साथ पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं। दरअसल भारत में जनविरोधी नीतियों को ही अच्छा बताने का जो नया नॉर्मल शुरू हुआ है—जिसने मध्यम वर्ग को भक्त –नहीं अंध भक्त में तब्दील कर दिया है, यह किताब उन लोगों के ठस्स दिमाग को खटखटाने की कोशिश करती है।

व्यंग्य की एक और बड़ी खासियत होती है कि वह खौफ-डर के माहौल को चीर देता है। खौफ में जहां हमारे जेहन सिकुड़ जाते हैं, वहीं व्यंग्य में हंसी से ये डर फानी हो जाता है। मैंने हरिशंकर परसाई व शरद जोशी के व्यंग्य पढ़े हैं। उनके चुटीले अंदाज को बहुत इन्जॉय किया। इन तमाम लोगों ने बेहद सधी हुई लंबी लकीर खींची है—जो तमाम लेखकों को राह दिखाती रहती है।

आज के दौर में डॉ. द्रोण की यह किताब एक ज़रूरी हस्तक्षेप है। बेहद मेहनत के साथ लिखे हुए उनके व्यंग्य हमारे सामने एक किताब के रूप में सामने आए हैं। इस किताब का पाठ होना, व्यंग्यों पर चर्चा होना उसी तरह से जरूरी है, जैसे लोकतंत्र को बचाने वाली हर आवाज के साथ खुद को खड़ा करना।

किताब

उफ़! टू मच डेमोक्रेसी

लेखक डॉ. द्रोण कुमार शर्मा

प्रकाशकः गुलमोहर किताब

वर्षः 2022

मूल्यः 200 रुपये

अमेज़न लिंकः Uff-Too-much-democracy/dp/8194717728

(लेखिका एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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