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वे नायाब औरतें

मृदुला गर्ग की वे नायाब औरतें (वाणी प्रकाशन, 2023) क़िताब को हम संस्मरण-स्मरण-रेखाचित्र या आत्मकथा जैसे रवायती फ़ॉर्मेट में फ्रेमबद्ध नहीं कर सकते। क्योंकि इसमें बे-सिलसिलेवार, लातादाद ‘यादों के सहारे चल रही आपबीती है’
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मृदुला गर्ग की वे नायाब औरतें (वाणी प्रकाशन, 2023) क़िताब को हम संस्मरण-स्मरण-रेखाचित्र या आत्मकथा जैसे रवायती फ़ॉर्मेट में फ्रेमबद्ध नहीं कर सकते। क्योंकि इसमें बे-सिलसिलेवार, लातादाद ‘यादों के सहारे चल रही आपबीती है’- जिसका हर पात्र या उसके तफ़सील का सिरा एक मुकम्मल क़िस्सागोई का मिज़ाज रखता है। यह उनका एक ऐसा अनूठा प्रयोग है जो अब तक के सारे घिसे-पिटे अदब की आलोचना के औज़ारों को परे कर मौलिक विधा के रूप में नज़र आता है। दरअस्ल, ये यादों से सराबोर क़िरदारों की ऐसी कहानी है जो लीक, वर्जनाओं, सहमतियों के बरअक्स अपनी निजी धारणाओं को बेलौस बेबाकी से व्यक्त कर पाठक को प्रभावित करते हैं।

इसमें शुमार औरतें, चाहे क्रान्तिकारी नादिया हो या अपढ़-भदेस आया स्वर्णा, बादलों से बनी माँ हो या सौतेली दादी चन्द्रावती, पिता की लाड़ली बेटियाँ हों या माँ-पिता की सखियाँ-मुख़्तसर सी बात ये है कि सभी उसूलों के मिलन पर, मुख्तलिफ़ मिज़ाज रखते हुए भी, यकसाँ हैं। ये क़िताब उत्सुकता से भरा ऐसा तिलिस्म है, जिसमें जाये बगैर आप रह नहीं सकते। ‘मैं सहमत नहीं हूँ’- इस कृति में आये एक क़िरदार का जुमला ही वह सूत्र है जिसे लगाकर सारी वे नायाब औरतें के वैचारिक-चारित्रिक गणित को हल किया गया है। एक और दिलचस्प पहलू, इसमें पुरुषों के बज़रिये ही क़िस्सागोई के काफी कुछ हिस्से को अंजाम दिया है, यानि औरतों के मार्फत पुरुष भी दाखिल हैं। इसमें देश-विदेश में मिलीं वे सब औरतें हैं जो सनकी, ख़ब्ती और तेज़तर्रार तो हैं पर उसूलन अडिग और रूढ़ियों, वर्जनाओं को तोड़ती या कारामुक्त होती हुई-निडर, दुस्साहसी, बेख़ौफ़ लेखिकाएँ भी शामिल हैं, परन्तु लेखन की लोकप्रियता के चलते नहीं बल्कि अपनी किसी खासियत के कारण।

किताब का कुछ अंश प्रस्तुत है।

चित्र साभार वाणी प्रकाशन, 2023

माँ का खिसका घर

उसके अलावा माँ में दो और सिफ़त थी, जिसकी वजह से ससुराल वाले उनके मुरीद हो गये थे। पहली, वे शायद ही कभी झूठ बोली होंगी।दूसरी, परनिंदा का उन्हें शौक़ नहीं था और अपने देवर-ननदों से खासा प्यार था। इसलिए परिवार में हर काम को अंजाम देने के लिए उनकी राय अहम मानी जाती। कभी-कभी तो तमाम परिजन एक राय रखते और वे अकेली, मुख्तलिफ़। पर आख़िर में उन्हीं की राय को तरजीह दी जाती। चाहे बीच के वक़्त में दादाजी कितनी ही बार उनके कमरे में डले पर्दे के बाहर, यह कहते क्यों न गुज़रें, “अपनी राय  बदली नहीं तो एक दिन पछताएगी रविकान्ता।” जी हाँ,उन दिनों माँ, बहू होने के नाते ससुर से पर्दा करती थीं। दादाजी तक उनकी राय पहुँचाने में ज़्यादातर फूफाजी वाहक बनते, जिन्हें दामाद के लिहाज़ में, वे डाँट न पाते। पर न रविकान्ता राय बदलतीं, न दादा घर की रिवायत। यानी फ़ैसला माँ के मशविरे की ताईद करता। 

पर माँ की जिस तीसरी सिफ़त से हम बच्चे दो-चार हुए, वह थी,छह बच्चों को जन्म देने के बावजूद, बच्चों से न हो कर क़िताबों से, जुनून की हद तक लगाव होना। हमसे लगाव न होने से हमें कोई परेशानी इसलिए नहीं हुई, क्योंकि उसकी कसर पिताजी और स्बर्णा आया ने बख़ूबी पूरी की।और खाने के मामले में तो माँ की जगह शेफ़ दादी ने कहें गागर छलक जाने तक कमी पूरी की।

क़िताबों से लगाव या तीन ज़ुबानों, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में लिखे अदब के लिए जुनून ने भी हमें कोई नुकसान नहीं पहुँचाया, बल्कि नफ़ा ही दिया। हमें शौक़ से होते हुए लत की तरह पढ़ने और रफ़्ता रफ़्ता अदब पर अपना हाथ साफ़ करने लायक़ बनाया। ज़ुबानों के मामले में वे पिताजी से इक्कीस नहीं थीं तो इसलिए कि जहाँ पिताजी को हिन्दी नहीं आती थी, वहाँ माँ को उनकी तरह फ़ारसी नहीं आती थी। यानी दोनों बराबर के पायदान पर खड़े थे। हमारे मामाजी ने बतलाया था, माँ ने पर्दे के पीछे बैठ कर, उस मौलवी से चोरी छिपे उर्दू सीखी थी,जो मामा को पढ़ाने आते थे। उन दिनों लड़कियों को उर्दू सिखलाने का रिवाज नहीं था। नाना उसूल के पक्के थे, इसलिए अपने तमाम साहबीपन के बावजूद रिवायत तोड़ी न थी। पर माँ उर्दू बख़ूबी सीख गई थीं। यहाँ तक कि चचाजान के बराबर खड़े हो कर, उनकी सुनाई चीज़ों पर दाद देने क़ाबिल बन गई थीं।

नाज़ुक माँ छह बच्चों की जचगी बर्दाश्त नहीं कर पाई; काफ़ी बीमार रहने लगीं, लिहाज़ा  अपना ज़्यादा वक़्त बिस्तर पर गुज़ारने लगीं। पर क़िताबों के खब्त में फ़र्क़ नहीं आया। उनके बिस्तर पर लेटे रहने से गुरेज़ न करके, कई नामी-गिरामी लेखक और संगीतकार हमारे घर आते और, कई और श्रोताओं के रहते, उनके बिस्तर के पास बैठ कर अपनी रचनाएं सुनाते। जैनेन्द्र जी, माँ की अदब की समझ के खास क़ायल थे। वे कोई बात कहते, शायद ही किसी के पल्ले कुछ पड़ता, फिर बेहद मासूमियत से हाथ फ़ैला कर कहते, बात बिल्कुल सीधी है। लोग नज़रें चुरा कर मुस्कराते क्योंकि बात और जो हो सीधी क़तई नहीं होती।पर माँ इस इत्मिनान से हामी भरतीं कि पता नहीं चलता वे बात की सिधाई की दाद दे रही थीं या  जैनेन्द्रजी की मासूमियत की।

माँ जितनी अदब की फ़ैन थीं उतनी ही गज़ल गायकी की, सो जब-तब महफ़िल सज जाती। मुझे याद है कि उनकी महफ़िलों में गाने वालों में, औरतों का ज़्यादा दख़ल रहता था। उनमें बहुत सी गायिकाएं उनकी दोस्त थीं, जो जब-तब अकेले में भी संगीत से उनका दिल बहला जाती थीं। यूँ किसी नई बंदिश के असर की आज़माइश भी कर लेतीं। माँ ख़ुद गाती भले न थीं पर पसन्द उनकी वज़न रखती थी। खुशगुलु नूरें, मराठी, पंजाबी, पहाड़ी, बंगाली, कई ज़ुबानों की जानकार; जगह जगह से आई रहतीं। माँ, मज़हब, रिहाइश या खानपान को ले कर तंगदिल न थीं पर अपने जीने का अंदाज़ भी किसी के कहने पर, तिल भर बदलने को तैयार न थीं। मक्खन किसी सूरत नहीं, फ़ल का ताज़ा निकला जूस ज़रूर, शाकाहारी मानी अन्डा तक क़ुबूल नहीं। तली चीज़ों से परहेज़ और तनिक मुटाई की तरफ़ रुख़ किया फ़ुल्का गले से न उतरना।

महफ़िल से एक और वाक़या याद आ गया। उस ज़माने में शादियों में बाईजी के मुजरे का आम चलन था। पर होता सिर्फ़ मर्दों की बैठक में। एक बार हमारी माँ अड़ गईं कि हम औरतें इतनी पायेदार मौज़िकी से क्यों महरूम रहें, वे भी बाईजी को सुनेंगीं। सो बड़े अदब-क़ायदे से बाईजी को ज़नानखाने में तशरीफ़ लाने की दावत दी गई। नाज़ोनखरे के साथ आईं और मीराबाई के दो आला भजन, क्लासिक अंदाज़ में गा दिये। चचाजान वाली चाची ने माँ की तरफ़ इस अंदाज़ से देखा कि उनकी शह मिलेगी और तुनक कर कहा, “यह क्या, कोई फ़ड़कती हुई चीज़ सुनाइए न?” 

माँ चुप रहीं। बाईजी ने कानों को हाथ लगा कर कहा, “ये तो रूहानी मसर्रत की चीज़ है, इससे बेहतर सुनाने की हमारी ताब नहीं।”

वे बोलीं, “वही गज़ल गाईए न, जो मर्दों की महफ़िल में सुनाती हैं। चिलमन के पीछे से हम भी सुना करती हैं … आह,पर दूर से … ” 

उन्होंने सख्त पर मीठी आवाज़ में जवाब दिया, “आप ख़ानदानी बीवियाँ हैं, जो चाहे करें पर हमारी भी कोई इज़्ज़त है। औरतों के बीच हम वह नहीं गाया करतीं।” 

तब जाकर माँ ने कहा, “सुब्हान अल्लाह! आप की मौज़िकी और मोजिज़बयानी, दोनों की जितनी तारीफ़ की जाए कम है, वाह!” चाची से कहा,” ये एक अज़ीम  फ़नकार हैं, ख़ुद्मुख़्तार; आपकी मर्जी की ताबेदार नहीं।”  

कह कर, बिस्तर से कम उठने वाली माँ बाईजी के पास गईं और झुक कर उनके दोनों हाथ अपने हाथों में सहेज लिये। बाईजी कम न थीं; सीधी खड़ी हुईं और उनका हाथ थाम, चूम लिया। माँ ने उन्हें गले लगा लिया। 

चाची उनसे दिनोंदिन नाराज़ रहीं। फिर कभी माँ ने किसी बाईजी को ज़नानखाने में आने की दावत देने के लिए नहीं कहा।

यह वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित मृदुला गर्ग की किताब वे नायाब औरतें से एक अंश है। प्रकाशक की अनुमति से यहाँ पुनः प्रकाशित किया गया है।

मृदुला गर्ग जानी-मानी द्विभाषी लेखिका हैं। उन्होंने अंग्रेजी और हिंदी में उपन्यास, कहानी, नाटक, निबन्ध, यात्रा संस्मरण, और कटाक्ष लिखे हैं, और अपने उपन्यासों का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है। उन्हें साल 2013 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।

साभार : ICF 

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