Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

"दाना मांझी भी एक जीवित आदमी का नाम है"

हरीश चंद्र जी अपने व्यक्तिव व उपस्थिति में अति साधारण कवि हैं। इसी तरह उनकी कविताएँ भी साधारण से अति साधारण संवेदनाओं, विषयों और साधारण भाषा से बुनी हुई हैं।
Kachhar Katha

यह काव्य पंक्ति हिंदी के वरिष्ठ कवि हरीश चंद्र पाण्डे के नवीनतम संग्रह "कछार-कथा" से है। हरीश चंद्र पाण्डे का नाम उनकी पीढ़ी तथा बाद की पीढ़ी द्वारा भी बड़े अदब और सम्मान से लिया जाता है। हरीश चंद्र जी अपने व्यक्तिव व उपस्थिति में अति साधारण कवि हैं। इसी तरह उनकी कविताएँ भी साधारण से अति साधारण संवेदनाओं, विषयों और साधारण भाषा से बुनी हुई हैं।

इस सद्यः प्रकाशित उनके काव्य संग्रह से गुज़रते हुए मैं कई कविताओं पर ठिठकी हूँ। जैसे- 'सहेलियाँ', 'कछार-कथा', 'प्रगति', 'डूबना एक शहर का', 'वहाँ एक बच्चा डूबता है', 'वेश्यालय में छापा', 'वजीरा पानी दे दे', 'फूलों के शहर में बच्चे' इसके अतिरिक्त कई अन्य कविताओं पर भी।

इन कविताओं पर ठहरते हुए बतौर पाठक मैं कह सकती हूँ कि ये सभी कविताएँ तलछटों, जिसे कवि ने ''कछार-कथा" कहा है कि कविताएँ हैं। संग्रह की लगभग कविताओं में कोई न कोई संदर्भ है। इस तरह यह कविता को ही नहीं बल्कि संदर्भों को भी दर्ज़ करता हुआ संग्रह है।

परन्तु मैं यहाँ इनकी एक कविता-'मैं इक्कीसवीं सदी का एक दृश्य हूँ' पर ही अपने को केंद्रित कर रही हूँ। इसी कविता की आख़िरी पंक्ति है कि -"दाना मांझी भी एक जीवित आदमी का नाम है।" इस पंक्ति का ही पीछा करते हुए मैं संग्रह तक पहुँची हूँ।

दरअसल 'कछार-कथा' के कवि से मेरी पहली मुलाक़ात 11-12 फरवरी को रायपुर में हुई। छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी ने रायपुर में दो दिवसीय विचार व साहित्य गोष्ठी का आयोजन 'घृणा के समय में प्रेम' शीर्षक से किया। जिसमें कवि ने अपनी इस कविता का पाठ किया था। उस समय दिल-दिमाग में कविता की एक-दो पंक्ति ही टिक पायी। जैसे-"हाथ-पाँव थे मगर उसमें गुंडई नहीं बहती थी।" या कि "दाना माझी एक जीवित व्यक्ति का नाम है।"

यह संग्रह की पहली ही कविता है और इतिहास-समय व सभ्यता की गहरी समीक्षा की तरह दर्ज़ हुई है। यह कविता हमारे देखे गए सबसे त्रासद दृश्यों में से एक, पत्नी के शव को अकेले कंधे पर ले जाते हुए दाना माझी को देखकर लिखी गयी है। इस दृश्य में शामिल है दाना माझी की बेटी चौला/चाँदनी भी। यही दृश्य इस कविता की अंतर्वस्तु बना है।

हिंदुस्तान के नक़्शे पर घटना 2016 में घटित हुई थी। जब 'सबका साथ सबका विकास' वाला नारा चारों ओर हरहरा रहा था। जैसे कि इस विकास से कोई छूटना भी चाहे तो नहीं छूट सकता। लेकिन इस विकास की धुरी से कैसे छिटक गए दाना माझी और उन जैसे तमाम-तमाम लोग?

आज 2023 तक मनुष्य के बेबसी की हूबहू ऐसी ही अनेक घटनाएँ घट चुकी हैं।

इस कविता के द्वारा फिर से याद कर पा रही हूँ वह दृश्य जब दाना माझी अपनी पत्नी का शव कंधे पर लेकर पैदल ही कोसों चले थे। साथ में चल रही थी उनकी बेटी। तब भोले-भाले और असहाय मनुष्य की बेबसी पर एक गहरी हूक उठी थी। कविता पढ़कर वही फिर से उठ रही है।

अनेक घटनाक्रमों और संदर्भों में से केवल यह एक घटना, यह एक कविता सरकार के विकास का असली चेहरा दिखाती है। यह एक कविता ही विश्व गुरु बनने की राह पर खड़े देश की असली शिनाख़्त भी करती है।

वे लिखते हैं-

"मैं बहुत देर तक अपने कंधे के विकल्प ढूँढता रहा
पर सारे विकल्पों के मुहाने पैसे पर ही जाकर गिरते थे

मेरे पास पैसों की ज़मीन थी न रसूख की कोई डाल
हाथ पाँव थे मगर उनमें गुंडई नहीं बहती थी।"

ये काव्य पंक्तियाँ हमारे सामने पैसे और गुंडई, भ्रष्टचार और बेशर्मी के बीच के संबंध को खोलकर रख देती हैं। विकास के आदिवासी, मज़दूर-किसान और गरीब विरोधी रुख़ को बेनक़ाब करती हैं। इतिहास के इस कालखंड में साधारण मनुष्य की बेबसी को दर्ज़ करती हैं। हमारे नागरिक व तथाकथित सभ्य समाज के कलुषित, अमानवीय चेहरे को भी उद्धाटित करती हैं।

इस कविता में कवि दाना माझी की ओर से लिखता है कि -

"मैं जैसे मणिकर्णिका पर खड़ा था किंकर्तव्यविमूढ़

और कोई मुझसे कहा रहा था तुम्हारे पास देने के लिए अभी देह के कपड़े बचे हुए हैं।"

यह 'मणिकर्णिका' एक संदर्भ है। यह मणिकर्णिका एक मिथक है, एक संस्कृति है, एक इतिहास है जो इस विस्तृत कालखंड में अभी भी गति कर रहा है। यहाँ कविता सत्ता-संस्कृति और आर्थिकी के उस मिलाप को रचती है, जहाँ दाना माझी जैसे चरित्र हमेशा ही शोषित होते रहे हैं।

इस पंक्ति से एक कथा याद आती है। वह आपको भी जरूर याद होगी। वह कथा है तारा-हरिश्चन्द्र-रोहित कुमार और मुनि विश्वामित्र की। वह कथा है हरिश्चंद्र की सत्य के प्रति अडिग आस्था की। जिसकी परिणति एक त्रासदी में होती है। कवि ने इन पंक्तियों के द्वारा सत्य और भोलेपन की उसी परिणति को दिखाया है। आज भी उस भोले-भाले मनुष्य को मजबूर किया जा रहा है कि अपनी बल-बुद्धि, अपना खेत-खलिहान, अपना जंगल-पहाड़, अपने देह का एक-एक वस्त्र ,अपने देह की एक-एक हड्डी,एक-एक रक्त बूँद ,अपना वर्तमान और अपना भविष्य और अपना सबकुछ उपभोग के लिए सरकार और उनके चंद थैलीशाहों को दे दे।

तारा-हरिश्चंद्र उस व्यवस्था द्वारा छले गए। दाना माझी उसकी पत्नी अमांग और पुत्री चौला/चाँदनी को इस व्यवस्था द्वारा छला जा रहा है। सरकार विकास के नाम पर चंद अमीरों का विकास कर रही है और देश के गरीब, मज़दूर-किसान,आदिवासी तथा दलितों को छल रही है।

इस देश का आदिवासी, गरीब, मज़दूर, असहाय व्यक्ति सरकारी व्यवस्था के किसी भी ढाँचे में फिट नहीं बैठता है। उसके लिए नहीं है यह चौतरफ़ा हाहाकारी विकास। उसके लिए नहीं है यह अस्पताल, उसके लिए नहीं है यह एंबुलेंस, उसके लिए नहीं है यह रेल और हवाई जहाज। उसे आज भी ढोना पड़ रहा है अपनों का शव, अपने कंधे पर ही।

डर तो इस बात का भी है कि कहीं यह सरकार कंधे पर भी शव ढोने का महसूल न वसूले। कि कैसे अभी इतने साबुत और मज़बूत बचे हैं तुम्हारे कंधे कि तुम ढो पा रहे हो अपनों का शव।

कवि आगे लिखता है-

"मेरी आँखों ने कहा तुमने मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही को
अपने हत साथी को शिविर की ओर ले जाते देखा है ना
मेरे हाथ पैर कंधे समवेत स्वर में बोल उठे थे
यह हमारा साख्य भार है बोझ नहीं।"

सरकार और सरकारी व्यवस्था ,उसके अस्पताल, उसकी पुलिस देश के किसी नागरिक को मार सकती है, मरने के लिए छोड़ सकती है लेकिन एक पति अपनी मरी हुई पत्नी को पुनः-पुनः मरने के लिए व्यवस्था के हाथों कैसे छोड़ सकता है!

तो वह स्मृतियों के सहारे अपनी पत्नी का शव उठाता है। वह अतीत में साथ बिताए गए पलों के सहारे उस शव को अपने कंधे पर श्मशान तक ढोएगा। वह उस क्षण को युद्ध भूमि के दृश्य में बदल देता है, जहाँ एक योद्धा अपने घायल योद्धा साथी को उपचार के लिए ले जाता है। जहाँ एक योद्धा अपने शहीद योद्धा साथी की मृत देह को सम्मान के लिए दुश्मन के खेमे से दूर सुरक्षित स्थान के लिए ले जाता है।

इस पूरे त्रासद दृश्य के बीच जो सबसे कमजोर है वही कविता में सबसे बड़ा संबल भी, वही हौसला है, वही भविष्य भी। जिसे इस व्यवस्था से बचाना भी है।

एक बाप अपनी बेटी की आँखों में शरण लेता है,जिसे इस दृश्य ने अचानक ही बड़ा कर दिया।

"मैं बादलों-सा फट सकता था
पर बिजली बेटी के ऊपर ही गिरनी थी
उसने भी अपने भीतर एक बाँध को टूटने से रोक रखा था
उसके टूटने ने मुझे जाने कहाँ बहा ले जाना था"

पिता-पुत्री ने मिलकर एक बड़े से तूफ़ान को एक दूसरे की सुरक्षा के लिए रोक रखा है। एक ने बिजली गिरने से रोक रखा है। लेकिन वह बिजली अपना कार्य कर ही रही है। वह सब कुछ जलाकर राख कर रही है भीतर ही भीतर। एक ने पानी के बाँध को टूटने से रोक रखा है लेकिन भीतर ही भीतर वह ख़ुद डूब रही है।

इस तरह अति विज्ञापन के समय में यह निःशब्द की यात्रा है। जहाँ बोलने से गिर पड़ेगी बिजली, टूट पड़ेगा जल का बाँध। लेकिन मौन भी तो बोलता है। यह कविता उसी मौन का वाचन है। उसी चुप्पी का प्रतिरोध है। इस मौन और चुप्पी की यात्रा में सरकारें नहीं हैं साथ, नागरिक नहीं हैं साथ लेकिन पेड़ की छायाएँ साथ हैं।

कवि कहता है कि - 'यह दृश्य सभ्यता के माध्यान्ह में सूर्यग्रहण का दृश्य है।' इस तरह यह कविता एक क्रूर व्यवस्था का भी दृश्य है। यह क्षीण होती मानवता और सूखती संवेदना का भी दृश्य है। यह नाकाम नागरिकता का भी दृश्य है। यह देश के नक़्शे मे होते हुए देश विहीन होने का भी दृश्य है। यह जीते जी मर जाने और मरकर भी जी उठने का दृश्य है। यह उस समय का भी दृश्य है जब अमीर लोग अपने लिए चाँद पर एय्याशी के नए अड्डे बना रहे हैं और गरीब अपनों का शव अपने कंधों पर लादकर, अपने पाँव घिसटते हुए आदिम सभ्यता की ओर, अंधकार की गुफाओं की ओर ढकेला जा रहा है।

कवि लिखता है-

"पता नहीं मैं पत्नी का शव लेकर घर की ओर जा रहा था या इंसानियत का शव लेकर गुफा की ओर।"

इस तरह यह पूरी कविता और संग्रह की अन्य कविताएँ भी सरकार, लोकतंत्र , मनुष्यता, नागरिकता, विकास, निर्माण-व्यवस्था सब की पुर्नसमीक्षा करती हैं। और अपना पक्ष भी चुनती हैं। कवि का पक्ष।

लेकिन इस कविता को पढ़ते वक्त अनेक स्थानों पर यह लगा कि कवि की किसी विषय को संवेदनशील बनाने की जितनी क्षमता है, उस क्षमता पूरा उपयोग इस कविता में नहीं हो सका है। जहाँ वाक्य अधिक लंबे हुए हैं वहाँ मार्मिकता और संवेदित करने की क्षमता कमज़ोर हुई है। इन्हीं चंद बातों के साथ बात यहीं समाप्त कर रही हूँ। आशा है कि आपकी राय मेरी राय से अलग होगी।
आप अपनी राय के लिए राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित 199 रुपये के इस संग्रह को अवश्य पढ़ें।

पूरी कविता यहाँ पढ़ें-

मैं बहुत देर तक अपने कंधे के विकल्प ढूँढता रहा
पर सारे विकल्पों के मुहाने पैसे पर ही जाकर गिरते थे

मेरे पास पैसों की ज़मीन थी न रसूख की कोई डाल
हाथ पाँव थे मगर उनमें गुंडई नहीं बहती थी
हाँ अनुभव था लठ्ठों को काट-काट कर कंधे पर ले जाने का पुराना
मेरी बेटी के पास यह सब देखने का अनुभव था

मुझे जल्दी घर पहुँचना था
अपने घर से बाहर छूट गए एक बीबी के प्राण
घर के जालों-कोनों में अटके मिल सकते थे


मेरा रोम-रोम कह रहा था यहाँ से चलो
मैं जैसे मणिकर्णिका पर खड़ा था किंकर्तव्यविमूढ़
और कोई मुझसे कहा रहा था तुम्हारे पास देने के लिए अभी देह के कपड़े बचे हुए हैं

मेरी आँखों ने कहा तुमने मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही को
अपने हत साथी को शिविर की ओर ले जाते देखा है ना
मेरे हाथ पैर कंधे समवेत स्वर में बोल उठे थे
यह हमारा साख्य भार है बोझ नहीं

मैंने पल भर के लिए अपनी बेटी की आँख में शरण ली
उपग्रह-सी नाचती वह लड़की अभी भी अपनी पृथ्वी को निहार रही थी

मैं बादलों-सा फट सकता था
पर बिजली बेटी के ऊपर ही गिरनी थी
उसने भी अपने भीतर एक बाँध को टूटने से रोक रखा था
उसके टूटने ने मुझे जाने कहाँ बहा ले जाना था

हम दोनों एक निःशब्द यात्रा पर निकल पड़े...
यात्रा लंबी थी मेरी बच्ची के पाँव छोटे
तितलियों के पाँव चलने के लिए होते भी कहाँ हैं
वे तो फूलों पर बैठते वक्त निकलते हैं बाहर
मेरी तितली मेरे कंधों की ओर देख रही थी बार-बार
पर ये सब तो वे घाव थे जिन्हें उजाले में देखा जा सकता है और अंधेरे में टटोला

हम दोनों चुप थे मौन बोल रहा था
मौन का कोई किनारा तो होता नहीं
सो कंधे पर सवार मौन भी बोलने लगा था

--महाराज! आज इतनी ऊँचाई पर क्यों सजाई गई मेरी सेज?
सबरी के लाड़ले क्या इसी तरह जताते हैं अपना प्यार?

आज ये कहाँ से आ गई इन बाजुओं में इतनी ताकत?
तुम्हारा गया हुआ अंगूठा वापस आ गया क्या?

सभी काल अभी मौन की जेब में थे
रास्ता बहुत लंबा था
मेरे हाथ पैर कंधे सब थक रहे थे
याद आ गए वे सारे हाथ
जो दान-पात्रों के चढ़ावों को गिनते समेटते थकते नहीं
मेरे जंगल के साथी ने मेरी थकान को समझ लिया था
उन सबने मेरे आगे अपनी-अपनी छायाएं बिछा दीं


मैं ग़मज़दा था मगर आदमी था अस्पताल से चलते समय
पर रस्ते में ये कौन कैसे आ गया
कि मैं दुनिया भर में एक दृश्य में बदल दिया गया

... हां मैं अब एक दृश्य था
मैं सभ्यता के मध्याह्न में सूर्य ग्रहण का एक दृश्य था
इस दृश्य को देखते ही आंखों की ज्योति चली जानी थी अनगिनत आंखों का पानी मर जाने पर एक ऐसा दृश्य उपजता है
यह आंखों के लिए एक अपच्य दृश्य था
पर इसे अपच भोजन की तरह उलटा भी नहीं जा सकता था बाहर

यह हमारी इक्कीसवीं सदी का दृश्य था
स्वजन-विसर्जन का आदिम कट पेस्ट नहीं
जब धरती पर कोई डॉक्टर था न अस्पताल न कोई सरकार

यह मंगल पर जीवन खोजने के समय में
पृथ्वी पर जीवन नकारने का दृश्य था

ग्रहों के लिए छूटते हुए रॉकटों को देख हमने तो यही समझा था
कि अपने दिन बहुरने की उल्टी गिनतियाँ शुरू हो गई हैं पर किसी भी दिन ने यह नहीं कहा कि मैं तुम्हारा कंधा हूँ पता नहीं मैं पत्नी का शव लेकर घर की ओर जा रहा था या इंसानियत का शव लेकर गुफा की ओर

मैंने सुना है नदियों को बचाने के लिए उन्हें जीवित आदमी का दर्जा दे दिया गया है
जिन्होंने ये काम किया है उन्हें बता दिया जाय
कि दाना मांझी भी एक जीवित आदमी का नाम है।

(लेखिका एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest