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किताबें : एक उपन्यास, एक कहानी संग्रह

वरिष्ठ कवि और लेखक अजय सिंह ने दो किताबों की चर्चा की है। एक है- महेश दर्पण का उपन्यास ‘दृश्य-अदृश्य’ और दूसरा है कंचन सिंह चौहान का कहानी संग्रह- ‘तुम्हारी लंगी’।
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इस बार जिन दो किताबों की चर्चा हो रही है, उनमें एक उपन्यास और एक कहानी संग्रह है। दोनों किताब हाल-फ़िलहाल की हैं।

(एक)

कहानीकार व पत्रकार महेश दर्पण (जन्म 1956) का उपन्यास ‘दृश्य-अदृश्य’ जुलाई 2021 में छपा। 374 पेज के इस उपन्यास को प्रलेक प्रकाशन, मुंबई ने छापा है।

यह हिंदी कवि, गद्यकार, संपादक व घुमक्कड़ विष्णुचंद्र शर्मा (1933-2020) के जीवन पर केंद्रित है। ख़ासकर उनके जीवन के आख़िरी एक-डेढ़ साल पर यह उपन्यास विशेष ध्यान देता है। यह जीवनीपरक रचना है। इनमें विष्णुचंद्र शर्मा विचंश के नाम से मौजूद हैं।

महेश दर्पण ने यह उपन्यास ‘अनथक यात्री विचंश की स्मृतियों को समर्पित’ किया है। यह रचना श्रद्धांजलि या ट्रिब्यूट है। इसे प्रशस्तिपत्र भी कहा जा सकता है।

अब इसे उपन्यास कहा जाये या नहीं, इस पर बहस की गुंजाइश है। इसमें निश्चित कथानक नहीं है, न घटनाक्रम है, न उसका विकासक्रम। एक कहानी या उपन्यास के जो तयशुदा मानक हो सकते हैं, वे यहां सिरे से ग़ायब हैं। औपन्यासिक शिल्प नदारद है। लगता है, लेखक ने जानबूझकर इन मानकों की उपेक्षा की है, और उसने अपनी अलग राह पकड़ी है। इसे साहस भी कहा जा सकता है, जहां दुर्घटना भी हो सकती है।

मुझे लगता है, यही इस उपन्यास की ख़ासियत है, और इस वजह से इसे पढ़ा जाना चाहिए। यह अलग ढंग का प्रयोग (experiment) लगता है। यह एक किरदार (विचंश) को विचारधारात्मक/कम्युनिस्ट परिदृश्य में पेश करता है, और विचारधारा के महत्व को रेखांकित करता है। इस नाते यह उपन्यास हमारा ध्यान खींचता है।

हालांकि उपन्यास, बीच-बीच में, उबाऊ और एकरस लगने लगता है। कई जगह ब्यौरे//विवरण लंबे, अनावश्यक हैं। अगर इसे अधिकतम 200 पन्नों में समेट लिया गया होता, तो बेहतर रहता।

यह कथाकृति एक वास्तविक व्यक्ति और उसके वास्तविक क्रियाकलाप को लेकर लिखी गयी है। अब इसमें कितनी हक़ीक़त और कितना अफ़साना है, यह तय कर पाना/बता पाना कुछ मुश्किल है।

उपन्यास में महिला पात्रों की अच्छी-ख़ासी संख्या है। यह इसकी एक और ख़ासियत है। वे विद्रोही नहीं हैं, लेकिन पारंपरिक फ़्रेमवर्क के तहत उन सबका अपना-अपना अलग व्यक्तित्व है। इन महिला पात्रों की वजह से उपन्यास भरा-पूरा लगता है।

(दो)

सभी उसे लंगी कहकर बुलाते थे। लंगी, यानी जो लंगड़ा कर चले। चूंकि वह चलते समय लंगड़ाती थी, इसलिए उसका नाम ही लंगी पड़ गया। उसका असली नाम कुछ और था। लेकिन वह ख़ुद भी अपना असली नाम भूल चुकी थी। वह अपना परिचय लंगी कह कर ही देती थी। उसके माता-पिता, नाते-रिश्तेदार, दोस्त—सब उसका असली नाम भूल चुके थे। सभी के लिए वह लंगी थी, सिर्फ़ लंगी...

कहानीकार कंचन सिंह चौहान (जन्म 1975) ने ‘तुम्हारी लंगी’ शीर्षक से मर्मस्पर्शी, पाठक को बेचैन कर देनेवाली कहानी लिखी है। यह भिन्न तरीक़े से समर्थ व्यक्ति (differently abled person) की कहानी है, जो आत्महत्या का निषेध करती है। यह उस महिला (लंगी) की कहानी है, जो तिरस्कार व अपमान झेलती हुईं संघर्ष, जिजीविषा व प्रेम का प्रतीक बन जाती है।

हालांकि इस कहानी में कंचन हिंदू पुराणकथा की भूलभुलैया (भागवत पुराण, कृष्ण, कुब्जा, त्रिविका) में घूमने भी लगती हैं। यह मुझे ग़ैर-ज़रूरी—‘हिंदूपना’ को बढ़ावा देनेवाला—लगा। इसके बग़ैर भी कहानी प्रभावशाली तरीक़े से कही जा सकती थी। ‘हिंदूपना’ और हिंदुत्ववाद ने देश का बेड़ा ग़र्क कर दिया है। इस बात को समझना चाहिए।

‘तुम्हारी लंगी’ शीर्षक से कंचन सिंह चौहान का पहला कहानी संग्रह 2020 में राजपाल, दिल्ली से छपा। 160 पेज के इस संग्रह में नौ कहानियां हैं।

संग्रह की कहानियां बताती हैं कि कंचन को कहानी कहने/बरतने की कला आती है। उनके पास कहानी लिखने का हुनर व कौशल है। यह संग्रह कहानीकार के रूप में कंचन की संभावना का पता देता है। साथ ही, यह उनकी वैचारिक सीमा की भी निशानदेही करता है।

संग्रह में शामिल ‘ईज़’ कहानी ढंग से लिखी गयी है। जिस तरह से यह कहानी आगे बढ़ती है, वह दिलचस्प व पठनीय है। कहानी दो पात्रों के बीच बहस के रूप में लिखी गयी है।

लेकिन मैं इस कहानी की थीम से सहमत नहीं हूं। यह वेश्यावृत्ति को क़ानूनी दर्ज़ा दिलाने और उसे अन्य रोज़गार की तरह ही एक रोज़गार माने जाने की मांग से जुड़ी है। वेश्यावृत्ति को दंडनीय अपराध की श्रेणी से ज़रूर बाहर किया जाना चाहिए। लेकिन उसे रोज़गार या काम (work) कैसे माना जा सकता है? इस पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है।

संग्रह में शामिल ‘बदज़ात’ शीर्षक कहानी संग्रह की सबसे अच्छी कहानी है। दमदार ढंग से लिखी गयी दमदार कहानी, जो पाठक को झकझोर देती है। इस कहानी के लिए कंचन सिंह चौहान मुबारकबाद की हक़दार हैं।

यह कहानी ज़ोरदार तरीक़े से वैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठाती है। यह बताती है कि विवाह संस्था के अंदर बलात्कार होते हैं—शौहर अपनी बीवी के साथ अक्सर बलात्कार करता है।

भारत का क़ानून व अदालतें बेशक वैवाहिक बलात्कार के अस्तित्व से इनकार करें, उसे अपराध न मानें, लेकिन हक़ीक़त इसके ठीक उलट है। कंचन की कहानी इस हक़ीक़त को सामने लाती है।

(लेखक कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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