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ब्राज़ील: लूला की जीत के गहरे मायने हैं

यह जीत दुनियाभर की वाम लोकतांत्रिक ताकतों के लिए एक बड़ा सुकून देने वाली है। यह मध्य व दक्षिण अमेरिका में वाम रुझान वाली पार्टियों के जीतकर सरकार बनाने की श्रृंखला की एक और कड़ी है, और शायद सबसे महत्वपूर्ण भी।
 Lula da Silva

दुनिया भर की: दो लगातार कार्यकाल तक राष्ट्रपति रहने के बाद भ्रष्टाचार के शरारतपूर्ण आरोपों में 580 दिन जेल में बिताने वाले लुइज़ इंसियो लूला डी सिल्वा को तीसरी बार ब्राजील का राष्ट्रपति बनने के लिए मिली जीत उनके लिए व्यक्तिगत तौर पर तो एक राजनीतिक पुनर्जीवन है ही, लैटिन अमेरिका और बाकी दुनिया के लिए भी इस जीत की खासी अहमियत है।

सबसे पहले तो मौजूदा दक्षिणपंथी राष्ट्रपति जायर बोलसोनारो पर दूसरे दौर के बाद मिली जीत राहत देने वाली है। पिछले साल लूला के मैदान में उतरने की घोषणा करने के बाद से ही वह तमाम रायशुमारियों के मुताबिक मुकाबले में आगे तो बराबर चल रहे थे, लेकिन इस महीने के शुरू में पहले दौर के मतदान की तारीख के नजदीक आते-आते बोलसोनारो ने काफी खोई जमीन फिर से हासिल कर ली थी। यही वजह थी कि पहले दौर में लूला को उम्मीदों के विपरीत सीधी जीत नहीं मिल पाई और दोनों के बीच दूसरे दौर का मतदान रविवार को हुआ। इसमें भी दोनों के वोटों में दो फीसदी से भी कम का अंतर होना यह बतलाता है कि लड़ाई कितनी नजदीकी हो गई थी।

यह जीत दुनियाभर की वाम लोकतांत्रिक ताकतों के लिए एक बड़ा सुकून देने वाली है। यह मध्य व दक्षिण अमेरिका में वाम रुझान वाली पार्टियों के जीतकर सरकार बनाने की श्रृंखला की एक और कड़ी है, और शायद सबसे महत्वपूर्ण भी। क्यूबा और वेनेजुएला तो पहले से वामपंथी राजनीति के केंद्र हैं। निकारागुआ में 2007 से ही डेनियल ओर्टेगा के नेतृत्व में क्रांतिकारी वाम सत्ता में है। मेक्सिको में पहले ही 2018 में वामपंथी राष्ट्रपति चुने गए थे। अर्जेंटीना में मध्य-वाममार्गी अल्बर्टो फर्नांदेज़ 2019 में राष्ट्रपति बने। बोलिविया में वाम रुझान वाले लुइस अलबर्टो आर्स 2020 में राष्ट्रपति बने। पिछले साल चिली, पेरु व होंडुरास में वामपंथी राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इस साल कोलंबिया में पहली बार वाम सत्ता में आया, और अब ब्राजील में उसकी वापसी हुई।

यह स्थिति यूरोप के उलट तस्वीर पेश करती है, जहां हाल में दक्षिणपंथी ताकतें मजबूत होती दिखाई दी हैं। मध्य व दक्षिण अमेरिका का बदलता रंग उन लोगों के चेहरे पर भी करारा तमाचा है जो वाम राजनीति का मर्सिया गाहे-बेगाहे पढ़ते रहते हैं। इस राजनीति की अपनी चुनौतियां व कमजोरियां हो सकती हैं, लेकिन यह सामयिक व प्रासंगिक है और चुनावी मैदान में भी जीतने का माद्दा रखती है।

जब 76 साल के लूला 1 जनवरी 2023 को ब्राजील की कमान संभालेंगे तो उनके लिए 2003 से 2010 तक रहे अपने पिछले दो कार्यकालों की तुलना में बिलकुल अलहदा चुनौतियां होंगी। पिछले दो साल ब्राजील जैसे तमाम उन देशों के लिए कोविड की वजह से गहरी यातना वाले रहे हैं, जहां सामाजिक असमानता गहरे तक धंसी हुई है। ब्राजील में 2019 से 2021 के बीच तकरीबन एक करोड़ और लोग गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिए गए। वहां श्रमिक बेहाल हैं और स्कूलों में जाने वाले बच्चे कम हुए हैं, जिसका असर साक्षरता दर पर भी पड़ा है।

लूला से इस सारी तस्वीर को बदलने की उम्मीद रहेगी। दुनिया भर में क्रांतिकारी आंदोलनों से निकलकर आने वाली वाम सरकारों के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी रहती है कि उन्हें जमीनी स्तर पर तो बदलाव लाने ही होते हैं, एक धारणागत लड़ाई भी निरंतर लड़ते रहनी होती है कि ये सरकारें निवेश व विकास के प्रतिकूल होती हैं। उन्हें लगातार यह साबित करना होता है कि किसी देश की तरक्की कमजोर लोगों की भलाई और सार्वजनिक सेवाओं की बेहतरी से बाधित नहीं होती बल्कि उससे ही सुनिश्चित व मजबूत होती है। लूला का यह कहना भी इसी बात का उदाहरण है कि वे कांग्रेस में इस तरह का कर सुधार लाएंगे जिससे कम आय वाले लोगों को आयकर अदा करने से छूट दी जा सके।

लूला पहले ही मध्य व मध्य-वाम दलों के साथ एक अच्छा तालमेल बना चुके हैं, जिनमें कई वे पार्टियां भी हैं जो ऐतिहासिक रूप से उनकी विरोधी रही हैं। इनमें पहले दौर के मतदान में तीसरे स्थान पर रही सिमोन तेबेत भी शामिल हैं जिनका कृषि क्षेत्र में अच्छा दखल रहा है। लूला ने उनके सारे सुझावों को अपने अभियान में शामिल कर लिया और उनका समर्थन हासिल कर लिया। निवेशकों के बीच अच्छा सम्मान रखने वाले कई अर्थशास्त्री भी लूला के प्रति समर्थन जता चुके हैं। हालांकि यह कभी किसी नेता को कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन जीत के बाद लूला कह ही चुके हैं के वे सभी 21 करोड़ ब्राजीली लोगों के नेता होंगे, केवल अपने मतदाताओं के नहीं। हकीकत यह भी है कि तमाम लोग लूला के पिछले दो कार्यकालों के दौरान आम लोगों के लिए बेहतर रहे आर्थिक दिनों को अब भी याद करते हैं, जो बोलसोनारो के कार्यकाल में कभी देखने को न मिले।

लूला के लिए कांग्रेस एक बड़ी चुनौती होगी क्योंकि वहां अब भी दक्षिणपंथी हावी हैं। निचले सदन और सीनेट, दोनों में बोलसोनारो की पार्टी की सीटें ज्यादा हैं। लूला की वर्कर्स पार्टी की सीटें बढ़ी हैं, लेकिन विश्लेषकों के अनुसार पारंपरिक दक्षिणपंथियों की भी काफी जमीन धुर दक्षिणपंथियों ने कब्जा ली है जो वाम सत्ता से किसी तालमेल के हक में नहीं हैं।

लेकिन रोचक बात यही है कि वामपंथ से मिलने वाली तमाम चुनौतियों के बावजूद बाकी दुनिया भी कमोबेश लूला की ही जीत की उम्मीदें लगाए हुए थे। उनके कई हित हैं जो लूला से ही सध सकते हैं, बोलसोनारो से नहीं। इन्हीं में एक है पर्यावरण का मुद्दा, जिसपर विस्तार से हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं। जब हम यह कहें कि लूला की जीत से दुनिया भर के पर्यावरण प्रेमियों ने राहत की सांस ली है तो इसका वाकई मतलब एक ठंडी, ताजी सांस से है क्योंकि ब्राजील का राजनीतिक नेतृत्व दुनिया के सबसे बड़े वनक्षेत्र का भी भविष्य तय करता है। लूला व बोलसोनारो इस मामले में एक-दूसरे से एकदम उलट धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।

ब्राजील के एमेजन वर्षावनों का विनाश बोलसोनारो के शासन में रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया था। वहीं लूला ने जंगलों की कटाई का हमेशा से विरोध किया है। इन जगंलों की बदौलत ब्राजील को जो प्राकृतिक संपदा हासिल है, उसी के बूते लूला चाहते हैं कि जलवायु परिवर्तन की बहस का नेतृत्व ब्राजील जैसे देश करें। इसी दिशा में लूला की टीम की एक योजना यह भी है कि वह एशिया में इंडोनेशिया और अफ्रीका में कांगो के साथ मिलकर घने जंगलों वाले देशों का एक समूह खड़ा करे ताकि जंगलों की हिफाजत के लिए अमीर देशों पर दबाव बनाया जा सके। इससे लूला के नेतृत्व में ब्राजील के लिए वैश्विक रिश्तों का एक नया दौर भी शुरू हो सकता है, और एक नई नेतृत्वकारी भूमिका भी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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