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अमेरिका द्वारा रेमडेसिवीर के सभी स्टॉक को ख़रीद लेने के बाद गिलियड के पेटेंट को तोड़ दिया जाना चाहिए

ट्रम्प अब तक कोविड-19 महामारी को लेकर अपने विध्वंसक रवैये पर पर्दा डालने के लिए रेमडेसिवीर के पूरे गिलियड स्टॉक को सुरक्षित रखकर अपने कमज़ोर होते चुनावी अवसरों को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
Remdesivir Gilead

अमेरिका ने गिलियड से रेमडेसिवीर का पूरा स्टॉक ही ख़रीद लिया है, जिससे इस दवा का दुनिया में कहीं और उपलब्ध होना नामुकिन हो गया है। अमेरिका को फिर से रोगी बना देने के बाद, ट्रम्प अमेरिका के लिए अगले तीन महीनों के लिए गिलियड का उत्पाद ख़रीदकर अपने प्रशासन की नाकामी की भरपाई करने की कोशिश कर रहे हैं, और ऐसा करते हुए बाक़ी दुनिया के लिए कुछ भी नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसे में यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि हम गिलियड के पेटेंट को तोड़ दें और दवा बनाने के लिए भारतीय कंपनियों को अनिवार्य लाइसेंस जारी कर दें। भारतीय पेटेंट अधिनियम, 2005, जिसके लाने में वामपंथियों ने बहुत अहम भूमिका निभायी थी, इसमें स्वास्थ्य आपातकाल या महामारी के दौरान अनिवार्य लाइसेंस के लिए स्पष्ट प्रावधान हैं। कोविड-19 साफ़ तौर पर स्वास्थ्य आपातकाल या महामारी दोनों है।

24 घंटों में 50,000 नये मामले, दुनिया भर में सभी नये मामलों का लगभग 25%, यह आंकड़ा कोविड-19 महामारी से लड़ने वाले इस देश (अमेरिका) को आख़िर कैसे नहीं वैश्विक नेता बनाये। नये मामलों को लेकर ब्राजील और भारत क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।

रेमडेसिवीर एकमात्र ऐसी दवा है, जो दवा परीक्षण में वायरस के संक्रमण से लड़ने में कुछ फ़ायदा पहुंचाती दिखायी देती है। रेमडेसिवीर मानव शरीर में वायरस की पुनरावृत्ति को कम करते हुए काम करती है, और इससे मरीज के अस्पताल में रहने के समय में लगभग 15-20% तक की कमी आती है। अगर मरीज़ की हालत ज़्यादा गंभीर होती जाती है, तो उसे ऑक्सीजन सपोर्ट या वेंटिलेशन की ज़रूरत होती है, ऐसी स्थिति में रेमडेसिवीर बहुत कम मदद कर पाती है। फिर तो डेक्सामेथासोन जैसी दवायें, जो शोथरोधी(anti-inflammatory) हैं, महत्वपूर्ण हो जाती हैं। एक दूसरी दवा डेक्सामेथासोन है,जो नैदानिक परीक्षणों(clinical trials) में असर दिखाती है, संक्रमण से पैदा होने वाली फेफड़ों की सूजन को कम करती है, और ख़ुद भी संक्रमण का कारण नहीं बनती है। डेक्सामेथासोन पेटेंट से बाहर है और कम लागत पर व्यापक रूप से उपलब्ध है।

लेकिन भले ही रेमडेसिवीर संक्रामक अवधि को कम कर देता है, रोगियों को लाभ के अलावा, यह समाज के लिए भी उपयोगी है। रोगी की संक्रामक अवधि को कम करके यह वायरस संचरण की दर को कम कर देती है।

अगली बड़ी लड़ाई

हम इन कॉलमों में लगातार यह तर्क देते रहे हैं कि एड्स की सस्ती दवाओं तक पहुंच बनाने की लड़ाई के बाद अगली बड़ी लड़ाई अब कोविड-19 दवाओं और टीकों पर लड़ी जायेगी। विश्व स्वास्थ्य सभा में अमेरिका ही एकमात्र ऐसा देश था,जिसने इस प्रस्ताव का विरोध किया था कि सभी दवाओं और टीकों को एक आम पेटेंट पूल में रखा जाना चाहिए, और सभी देशों में उचित लागत पर इन्हें उपलब्ध होना चाहिए। अब तो हमें इस अमेरिकी विरोध का कारण के बारे में पता है। असल में अमेरिका इस महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए दवाओं और टीकों पर अपना नियंत्रण चाहता है। अमेरिकी नागरिकों को यह महसूस कराने की एक वजह है और वह यह है कि ट्रम्प दवायें उपलब्ध कराकर संदेश देना चाहते हैं कि वह अमेरिकी नागरिकों की देखभाल कर रहे हैं, भले ही उनका प्रशासन कोविड-19 महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में बुरी तरह से नाकाम रहा हो। इसका दूसरा कारण यह है कि दुनिया के बाक़ी हिस्सों के लिए दवा को नियंत्रित करके ट्रम्प उनके साथ सौदेबाज़ी कर सकते हैं और अमेरिका द्वारा खोये गये वैश्विक आधिपत्य वाली हैसियत को फिर से हासिल करने की कोशिश कर सकते हैं।

इस उठाये गये क़दम के साथ ही अमेरिका ने टीके को लेकर भी अपना इरादा साफ़ कर दिया है। टीके के विकास में सहायता के लिए अमेरिका ने 13 बिलियन डॉलर की रक़म के साथ पांच कंपनियों का समर्थन किया है। इन पांच कंपनियों में से एक अमेरिकी बायोटेक कंपनी, मोडर्ना है, और मौजूदा वैक्सीन परीक्षणों में सबसे आगे चलने वालों में से एक है। अमेरिका द्वारा समर्थित अन्य चार कंपनियां हैं: एस्ट्रा ज़ेंका-ऑक्सफ़ॉर्ड विश्वविद्यालय, जॉनसन एंड जॉनसन; मर्क; और बायोएनटेक के साथ पीफाइज़र। अगर इनमें से कोई भी टीका कामयाब होता है और अन्य नहीं कामयाब होते हैं, तो वैक्सीन के लिए भी ऐसी ही स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। दुनिया के लिए सौभाग्य की बात है कि डब्ल्यूएचओ की चल रही नैदानिक परीक्षणों की सूची में कुल 17 ऐसे टीके हैं, और जो टीके विकास क्रम में हैं, उनकी संख्या 132 है।

अमेरिका द्वारा रेमडेसिवीर के पूरे स्टॉक को ख़रीद लेने के अलावा, दूसरा मुद्दा वह मूल्य है,जिस पर गिलियड इस दवा को बेच रहा है। अमेरिकी रोगियों के लिए, पांच दिवसीय कोर्स के लिए यह लागत  3,000 डॉलर (भारतीय रुपये में ढाई लाख रुपये) है। भारत के लिए गिलियड ने सिप्ला, हेटेरो और जुबिलेंट नामक तीन भारतीय दवा निर्माताओं को एक पूरे कोर्स के लिए 30,000 रुपये (या  400 डॉलर) में बेचने के लिए लाइसेंस दिया था। भारतीय दवा कंपनियां मूल दवा घटक गिल्ड आपूर्ति एपीआई का इस्तेमाल अनिवार्य रूप से करेंगी और इसे भारत में बिक्री के लिए इंजेक्शन के रूप में परिवर्तित कर देंगी।

रेमडेसिवीर की लागत

सवाल है कि रेमडेसिवीर के कोर्स की वास्तविक लागत आख़िर क्या है? उद्योग के सूत्रों के मुताबिक़, इस कोर्स के लिए सक्रिय घटक की क़ीमत 100 रुपये से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। अगर हम इसे बदलकर बनाये जाने वाले पांच इंजेक्शन कोर्स की लागत को भी जोड़ दें, तो कुल लागत 300 रुपये से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए; या भारत में 5 डॉलर से कम होनी चाहिए। अमेरिका के इंस्टीट्यूट फ़ॉर क्लिनिकल एंड इकोनॉमिक रिव्यू के दो लेखकों द्वारा की गयी गणना से पता चलता है कि अमेरिका में उपचार के पूर्ण कोर्स के लिए रेमडेसिवीर की क़ीमत 10 डॉलर से कम होना चाहिए।

फिर तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि अगर एक पूर्ण कोर्स की लागत 10 डॉलर से कम होनी चाहिए, तो इसकी क़ीमत 3,000 डॉलर, या उत्पादन की लागत से 300 गुना अधिक क्यों होनी चाहिए? भारत के लिए 400 डॉलर की "रियायती" क़ीमत पर यह अभी भी अपनी उत्पादन लागत का 40 गुना है! गिलियड का तर्क है कि इसकी दवाइयां लगभग 12,000 डॉलर के अस्पताल बिलों का बचत करती हैं और जबकि केवल एक-चौथाई ही वसूलती हैं, भले ही यह इसके उत्पादन लागत का 300 गुना हो, इस क़ीमत पर भी यह दवा ग्राहकों पर एक बड़ा एहसान कर रही है।

मगर,जैसा कि हम नैदानिक परीक्षणों के नतीजों से जानते हैं कि रेमडेसिवीर जीवन को नहीं बचाता है। नहीं तो गिलियड की क़ीमत रेमडेसिवीर द्वारा बचायी गयी ज़िंदगी भर की कमाई की बचत वाली होती, और ऐसे में इसकी क़ीमत शायद 10 गुना अधिक होती!

यह साफ़ नहीं है कि अमेरिका द्वारा गिलियड के पूरे स्टॉक को ख़रीद लेने के बाद इसके पास दुनिया के बाक़ी हिस्सों के लिए कोई एपीआई बचेगा या नहीं। अगर ऐसा होता है, तो भी यह राशि अन्य देशों के लिए पूरी तरह से नाकाफ़ी होने वाली है।

आगे की लंबी लड़ाई

तो सवाल पैदा होता है कि ऐसी स्थिति में बाक़ी दुनिया क्या कर सकती है? बाक़ी दुनिया ठीक उसी तरह की एक लंबी लड़ाई लड़े,जैसा कि हमने अमेरिका और स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे उसके दवा उत्पादक संघ सहयोगियों के ख़िलाफ़ एड्स महामारी के दौरान लड़े थे?  जब अमेरिका और यूरोप में एक वार्षिक कोर्स के लिए एड्स दवाओं की क़ीमत क़रीब 10,000-15,000 डॉलर तक होती थी, जबकि ग़रीब देशों के लिए 4,000 डॉलर की रियायती क़ीमत होती थी?

इस लड़ाई को 10 वर्षों तक लड़ा गया था, जबतक कि इस लड़ाई को 2001 में विश्व व्यापार संगठन के दोहा दौर में नहीं जीता जा सका था। दोहा घोषणा ने आख़िरकार इस बात को मंज़ूरी दे दी थी कि स्वास्थ्य आपातकाल या महामारी के मामले में किसी भी देश को ऐसी दवाओं के उत्पादन के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी करने का अधिकार है। और इस दवा का उत्पादन करने का ऐसी लाइसेंस देश की सीमाओं से बाहर की कंपनी को भी जारी की जा सकती है। भारतीय जेनेरिक दवा निर्माता सिप्ला तब एड्स की दवाओं को 350 डॉलर प्रति वर्ष के कोर्स के लिए कई देशों में आपूर्ति कर सका था, जो अन्यथा तो वह पूरी तरह दिवालिया हो चुका होता; या देखा जाए तो उनके एड्स रोगी बिना दवा के बड़ी संख्या में मर गये होते।

हम पहले ही एड्स की दवाओं पर लड़ाई जीत चुके हैं और एक मिसाल कायम कर चुके हैं। कोविड-19 से दुनिया भर में पहले ही क़रीब पांच लाख लोग मारे जा चुके हैं और एक करोड़ से ज़्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं। इस बात पर किसी की भी दो राय नहीं हो सकती है कि इस समय स्वास्थ्य आपातकाल और महामारी दोनों है। इसलिए अनिवार्य लाइसेंस का इस्तेमाल करने का उपाय हमारे पेटेंट अधिनियम और दोहा घोषणा में पहले से मौजूद है।

रेमडेसिवीर एक छोटा रासायनिक कण है और इसका निर्माण आसान है। एक पूर्व संस्करण, जिसे गिलियड द्वारा पेटेंट भी कराया गया था, लेकिन उसका उत्पादन कभी नहीं किया जा सका था, जबकि उसे कोरोनावायरस संक्रमण में प्रभावी माना जाता है। चूंकि गिलियड ने इसका उत्पादन कभी नहीं किया, यह केवल अविश्वसनीय या ग़ैर-ज़िम्मेदार संचालकों द्वारा ही उपलब्ध कराया जाता है, दिलचस्प बात यह है कि इसे बेसमेंट या गैराज जैसे वर्कशॉप में उत्पादित किया जाता है। इससे पता चलता है कि रेमडेसिवीर का उत्पादन कितना आसान है, क्योंकि पहले के पेटेंट में मामूली हेर-फेर से इसे ऐसा किया जा सकता है। न्यूनतम रासायनिक बुनियादी संरचना वाला कोई भी देश इस दवा का उत्पादन कर सकता है।

फिर तो सवाल है कि दूसरे देश रेमडेसिवीर का निर्माण क्यों नहीं शुरू कर रहे हैं? क्या ये देश यह बात की उम्मीद कर रहे हैं कि गिलियड और अमेरिका पहले जिस तरह से एड्स महामारी के दौरान व्यवहार किया था, उससे बेहतर व्यवहार करेंगे? या कि वे अमेरिका से डरते हैं?  यूएसटीआर 301 के तहत व्यापार प्रतिबंधों का ख़तरा है,जिससे अमेरिका भारत सहित कई देशों को डराता है। भारत का पेटेंट अधिनियम अमेरिकी क़ानूनों के अनुरूप नहीं होने के चलते भारत अमेरिकी सुपर 301 सूची में हर साल प्रमुखता से रहता है, और इसके बावजूद 2012 के बाद भारत ने कैंसर की दवा, नेक्सावर को लेकर नैटको को अनिवार्य लाइसेंस जारी करने की हिम्मत दिखायी थी। बायर एक साल के कोर्स के लिए 65,000 डॉलर की क़ीमत पर नेक्सावर बेच रहा था, जिसे नाटको ने बायर की कीमत के 3% से कम पर बेचना शुरू किर दिया था।

प्रधानमंत्री मोदी, ट्रम्प की धमकी के जाल में बुरी तरह फ़ंस गये थे और अमेरिका को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का निर्यात कर दिया था, जबकि यह दवा उस समय निर्यात प्रतिबंध के तहत थी। क्या मोदी रेमेडिसवीर पर अमेरिका के साथ खड़े होने के लिए तैयार होंगे? भारत द्वारा नेक्सावर पर अनिवार्य लाइसेंस जारी करने के बाद, बायर के सीईओ मार्जन डेकर ने कहा था, "हमने भारतीयों के लिए इस दवा को विकसित नहीं किया है...हमने तो इसे उन पश्चिमी देशों के रोगियों के लिए विकसित किया है,जो इसे ख़रीदने की क्षमता रखते हैं।" क्या मोदी, ट्रम्प से इस बात को लेकर सहमत होंगे कि रेमडेसिवीर सिर्फ़ अमेरिकी रोगियों के लिए आरक्षित होना चाहिए? भले ही हमारे पास अपने लोगों के लिए इसके उत्पादन की क्षमता क्यों न हो? या फिर चीन के साथ अमेरिका का व्यापार युद्ध, कोविड-19 मोर्चे पर अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण करने की मांग करता है ?

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें-

Break Gilead’s Patent Since US has Bought all Stock of Remdesivir

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