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बजट 2021: प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री जी, स्मार्ट सिटी और शहरी रोज़गारी गारंटी योजना का क्या हुआ?

इस साल शहरी विकास के लिए कुल बजट ख़र्च 54,581 करोड़ रुपये है, जो 2020-21 के बजट अनुमानों (BE) से महज़ 9% ज़्यादा है।
बजट 2021

वित्तीय साल 2021-22 के बजट को विनाशकारी महामारी की पृष्ठभूमि में पेश किया गया और उम्मीद की गयी थी कि इस बजट में उन शहरी केंद्रों का ख़्याल रखा जायेगा, जिन शहरों ने हाल के दिनों में पलायन की उल्टी धारा बहते देखी थी। हालांकि, यह केंद्रीय बजट ग़रीबों, ख़ासकर शहरी ग़रीबों की उम्मीदों पर पूरी तरह खरा नहीं उतरता है और कॉर्पोरेट दिग्गजों के एक बड़े वर्ग से अभिभूत दिखता है।

इंडियन इंफ़ोलाइन (IIFL) के अध्यक्ष, निर्मल जैन ने इस बजट के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा, "आर्थिक सुधार को फिर से पटरी पर लाने वाला वाला बजट है यह”; इस बजट पर ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए 2,315 अंक की बढ़त के साथ आसमान छूता संसेक्स"; हिंदुजा समूह ने कहा, "बेमिसाल मौक़ा, असाधारण बजट"; बिरला ने कहा,"देश के लिए एक विज़न स्टेटमेंट"; एचडीएफ़सी के एमडी कर्नाड ने कहा, "आर्थिक विस्तार को प्रोस्ताहन देने वाला और साहसिक बजट”; CRISIL प्रमुख, मेहता ने कहा "बेहतर गुणवत्ता के विकास को लक्ष्य की ओर ले जाने वाला बजट"; अपोलो अस्पताल की उपाध्यक्ष, प्रीता रेड्डी ने कहा "आत्मानिर्भर हेल्थकेयर"; चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष, उदय कोटक ने कहा, "ऐसा ऐतिहासिक बजट, जिसके केंद्र में विकास।” इन टिप्पणियों से बहुत कुछ ज़ाहिर हो जाता है। लेकिन, उनमें से तक़रीबन सभी अतीत में बजट को लेकर इसी तरह के बयान देते रहे हैं। तो, सवाल है कि इस बजट में फिर अलग और नया क्या है?

विभिन्न मदों, ख़ासकर सामाजिक कल्याण क्षेत्र, जो बजटीय आवंटन और सब्सिडी में होने वाली कमी से प्रभावित हुए हैं, इनके अलावा शहरी विकास एक और ऐसा क्षेत्र है, जिसकी अनदेखी की गयी है। हालांकि, जैसा कि ध्यान दिलाया गया है कि 9,000 से ज़्यादा शहरी केंद्र, जिनमें उन शहरी क्षेत्र से जुड़ी बस्तियां शामिल हैं; टियर 1, 2 और 3 शहरों; छोटे शहरों और अन्य अवैधानिक शहरी बस्तियां, जहां तक़रीबन 34% भारतीय आबादी रहती है- उनके लिए माना गया था कि इस बजट में ख़ासकर महामारी से सबक लेते हुए बजटीय मदद के ज़रिये उनकी आर्थिक चुनौतियों से निपटने को प्राथमिकता दी जानी थी।

हालांकि, इस तरह की तमाम उम्मीदें धरी की धरी रह गयी हैं। मुझे याद है कि वेंकैया नायडू जब शहरी विकास मंत्री थे, तो उन्होंने किसी कॉंफ़्रेंस में शिकायत करते हुए कहा था कि शहरों के पास पैसे नहीं है, इसलिए वे राज्यों से संपर्क करते हैं, राज्य भी आर्थिक तौर पर बेबस होते हैं, इसलिए वे केंद्र की ओर देखते हैं और केंद्र भी वित्तीय परेशानियों में दो-चार रहता है, इसलिए वे यह बहुपक्षीय एजेंसियों की तरफ़ देखते हैं। इस बजट में यह बात ज़्यादा साफ़ तौर पर सामने आयी है। केंद्र ने शहरों में निवेश करने और वहां की समस्याओं को दुरुस्त करने के लिए विदेशी और घरेलू, दोनों ही तरह के निजी पूंजी पर ज़्यादा भरोसा दिखाया है। मगर, सवाल है कि क्या ऐसा हो पायेगा ? ऐसा अतीत में तो नहीं हो पाया है और इसके होने की कोई संभावना भी नहीं है !

इस साल शहरी विकास के लिए कुल बजट ख़र्च 54,581 करोड़ रुपये का है, जो 2020-21 के बजट अनुमानों (BE) से महज़ 9% ज़्यादा है। हालांकि, पिछले वर्ष के लिए संशोधित अनुमान (RE) भी 46,791 करोड़ रुपये से बहुत नीचे आ गया था। 2021-22 के बजट अनुमानों के पूरे होने की भी कोई संभावना और गुंजाइश नहीं दिखती है। तो फिर इतने कम पैसों से क्या होगा? यह कुल बजटीय आवंटन का सिर्फ़ 1.5% है। हालांकि 34% लोग इन शहरी केंद्रों में रहते हैं और इन शहरों का योगदान सकल घरेलू उत्पाद के तक़रीबन 67% और कुल सरकारी राजस्व में 90% का योगदान है। इस पूरी राशि में 2021-22 का बजट अनुमान देश के चार महानगरों के बजट से भी कम है। ऐसे में आगे क्या होगा, इसे हम आसानी से समझ सकते हैं।

इस बजट में शहरी स्थानीय निकायों के कुल अनुदान परिव्यय में भी कमी की गयी है। इसमें 25,098 करोड़ रुपये से 22,114 करोड़ रुपये की कमी आयी है, जो तक़रीबन 11% की गिरावट है। इसका मतलब यह है कि शहरी निकायों को विभिन्न जनोपयोगी सेवाओं पर या तो उपभोक्ता शुल्क के ज़रिये अपने संसाधन जुटाने के लिए मजबूर किया जायेगा, या अन्य लोगों पर ज़्यादा कर लगाया जायेगा।

मोदी सरकार के बहुप्रचारित प्रमुख कार्यक्रम, स्मार्ट सिटी पर तो इस बजट में एक शब्द तक नहीं है। कहां तो इन स्मार्ट सिटी को देश के दूसरे शहरों के लिए प्रकाशस्तंभ माना गया था और कहां यह बजट इस मामले में पूरी तरह चुप है, ऐसा इसलिए है कि यह मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी शर्मिंदगी में से एक का कारण बन गया है। इसी तरह, AMRUT (अटल मिशन फॉर कायाकल्प और शहरी परिवर्तन) को लेकर यह बजट 13,780 करोड़ रुपये पर ठहर गया है।

वित्त मंत्री का भाषण शहरी विकास को लेकर ज़्यादा था। उन्होंने कहा, “हम मेट्रो रेल नेटवर्क और सिटी बस सेवा के विस्तार के ज़रिये शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक परिवहन की हिस्सेदारी बढ़ाने की दिशा में काम करेंगे…यह योजना निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों को 20,000 से ज़्यादा बसों मे पैसे लगाने,अधिग्रहण,संचालन और रखरखाव करने के लिए एकदम से नये पीपीपी (सार्वजनिक निजी भागीदारी) मॉडल के संचालन की सुविधा प्रदान करेगी। इस योजना से ऑटोमोबाइल क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा, आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा, हमारे नौजवानों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा होंगे और शहर मे रहने वालों की आवाजाही की सहूलियतें बढ़ेंगी।”

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि यह विकास मॉडल वही पीपीपी वाला है,जो अतीत में शहरी विकास क्षेत्र में पूरी तरह से नाकाम रहा है। शहरी ग़रीबों को आवास और श्रमिक आवास मुहैया कराने के बजाय शहरी किराये के आवास के लिए इसी तरह के मॉडल का सुझाव दिया जा रहा है।

लॉकडाउन और इसके नतीजे के तौर पर सामने आये उलटे पलायन ने लोगों को एहसास दिला दिया है कि शहरी विकास और प्रशासन का यह वर्तमान मॉडल टिकाऊ नहीं हो सकता, और इसीलिए पूरे सेक्टर में सार्वभौमिक रूप से दो महत्वपूर्ण हस्तक्षेपों की मांग की गयी थी। ये क्षेत्र हैं-शहरी क्षेत्रों में रोज़गार की गारंटी और आवास; और किराए के आवास और श्रमिक आवास।

इस बजट में किराए के आवास पर महज़ एक पंक्ति भर है, जो इस तरह है, "हम प्रवासी श्रमिकों के लिए सस्ते किराये के आवास की आपूर्ति को बढ़ावा देने को लेकर प्रतिबद्ध हैं। इसके लिए, मैं अधिसूचित सस्ते किराये के आवास की परियोजनाओं के लिए कर में छूट की अनुमति देने का प्रस्ताव रखती हूं।” इस तरह, इन परियोजनाओं के लिए महज़ कर में छूट की बात की गयी है, और इस सरकार की चिंता इतनी ही भर है। सवाल है कि वे कौन लोग हैं, जो इन परियोजनाओं का निर्माण कर रहे हैं? एक बार फिर इस काम को पीपीपी मॉडल के ज़रिए ही अंजाम दिया जायेगा, जबकि सरकार को उसी तरह इन श्रमिक आवास और किराये के आवास बनाने के लिए फ़ंड का इस्तेमाल करना चाहिए था, जिस तरह केरल की राज्य सरकार ने किया है या शिमला में तक़रीबन एक सदी पहले किया गया था।

शहरी रोज़गार गारंटी योजना महामारी के दौरान एक ऐसे क्षेत्र के रूप में सामने आयी थी, जिसे सीधे-सीधे हल किये जाने की ज़रूरत थी। ऐसा नहीं है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इसके बारे में नहीं बोलती रही है। हक़ीक़त तो यही है कि 2009 के चुनाव अभियान के बाद से भाजपा रोज़गार गारंटी योजना का वादा करती रही है। हालांकि, इस बजट ने इस पर चुप्पी साध रखी है।

विभिन्न समूह और शहरी विशेषज्ञ महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना की तरह शहरी रोज़गार गारंटी योजना की मांग करते रहे हैं। सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडिया इकोनॉमी के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत इस समय बेरोज़गारी के संकट के सबसे ख़राब दौर से गुज़र रहा है। महामारी के दौरान बेरोज़गारी दर 24% को पार कर गयी थी और श्रम भागीदारी दर भी कम है, और महामारी के पहले के स्तर तक भी नहीं पहुंच पायी है। अनुमान है कि महामारी के दौरान तक़रीबन 20 मिलियन लोगों की नौकरी चली गयी थी। महामारी के पहले भी रोज़गार के हालात अच्छे नहीं थे।

ऐसे हालात में सरकार से उम्मीद की गयी थी कि वह सीधे नक़द हस्तांतरण को सुनिश्चित करती और क़स्बों में रोज़गार गारंटी योजना का प्रावधान करती, ताकि अर्थव्यवस्था में भारी मांग पैदा हो पाती। इससे भी बड़ी बात यह है कि इससे कई ऐसे मसलों का हल मिल जाता, जिनका सामना शहरी केंद्रों के नागरिक निर्माण कार्यों से लेकर प्रशासनिक कार्यों तक कर रहा है। इससे शहरी केंद्रों में परिसंपत्तियों के निर्माण में भी मदद मिली होती, हालांकि, सरकार की दिलचस्पी उन चुनौतियों को कम करने में नहीं है, जिनका सामना ग़रीबों और ख़ास तौर पर शहरी ग़रीब कर रहे हैं।

वित्तमंत्री की तरफ़ से प्रस्तुत इस बजट में जिस तरह की बात कही गयी है, वह इस सरकार के नज़रिये और मानसिक रुख़ को दर्शाता है। उन्होंने कहा " राजा/शासक वह है, जो धन का सृजन करता है और उसे हासिल करता है, फिर लोगों के कल्याण के लिए उसकी सुरक्षा करता है और उनमें ही उसे बांट देता है।" कही गयी ये बातें सुनने में भले ही अच्छी लगती हों, लेकिन ‘शासक-शासित’ का यह मिश्रण उस ‘नागरिकता’ की अवधारणा के बजाय इस सरकार की मंशा में स्वाभाविक रूप से गहरी जमी हुई है, जिसे नागरिकों के लिए वैध अधिकार हासिल है। शासित इसलिए ज़िंदा है, क्योंकि शासन परोपकारी है। और यही वह दावा है, जिसे ज़ाहिर किया जा रहा है और यही जताने की क़वायद भी की जा रही है।

(लेखक शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर हैं। इनके विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Budget 2021: Where Are the Smart Cities and Urban Employment Guarantee, FM and PM?

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