Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

बजट 2025-26: मेहनतकश और मध्यवर्ग के बीच विभाजन की रणनीति

यह बजट, क्रय शक्ति का मेहनतकश गरीबों के हाथों से छीनकर वेतनभोगी तबके के पक्ष में पुनर्वितरण तो करता है, लेकिन अमीरों को छूता तक नहीं है। 
budget
फ़ोटो साभार : PTI

स्वतंत्र भारत के और किसी बजट में मेहनतकश जनता की विशाल संख्या की ज़िंदगियों के संबंध में ऐसा खुल्लमखुल्ला द्वेष या कुटिलता (cynicism) नहीं दिखाई गई होगी, जैसी इस बार 1 फरवरी 2025 को पेश किए गए बजट में दिखाई गई है। 

वित्त मंत्री से लेकर, नीचे तक, सभी पंडित इस पर सहमत हैं कि इस बजट की रणनीति, कर-कटौतियों के जरिए मध्य वर्ग के उपभोग को बढ़ाने के जरिए, अर्थव्यवस्था को उत्प्रेरित करने की है। 

बहरहाल, इस तरह की रणनीति की तब तो जरूर तुक बनती जब कर-कटौतियों के चलते मध्य वर्ग के उपभोग में होने वाली बढ़ोतरियों को, अर्थव्यवस्था में अन्यत्र खर्चों में कटौतियों के जरिए, बराबर ही नहीं किया जा रहा होता। जाहिर है कि उस सूरत में तो मध्य वर्ग के उपभोग में बढ़ोतरी से, सकल मांग का स्तर उठ गया होता और इसलिए, अर्थव्यवस्था को उत्प्रेरण मिला होता। लेकिन, इस बजट के अनुसार तो, इस तरह की कर कटौतियों के जरिए जिन संसाधनों को त्यागा जा रहा है, उनकी भरपाई सरकारी खर्चों में कटौतियों से ही की जाने वाली है। 

केंद्र सरकार का कुल खर्च, 2024-25 के संशोधित अनुमान की तुलना में रुपयों में सिर्फ 7.4 फीसद बढ़ने जा रहा है, जिसका मतलब यह है कि वास्तविक मूल्य के लिहाज से केंद्र सरकार के कुल खर्चे में शायद ही कोई बढ़ोतरी होने जा रही है। और देश के जीडीपी के अनुपात के रूप में तो इसमें गिरावट ही होने जा रही है।

मेहनतकशों के हिस्से की कटौतियां

केंद्र सरकार के कुल खर्च में से इन कटौतियों का अधिकांश हिस्सा, खाद्य सब्सीडी तथा मनरेगा जैसी मदों में ही होने जा रहा है। खाद्य सब्सीडी के मामले में तो 2024-25 के संशोधित अनुमान के मुकाबले, रुपयों में सिर्फ 3 फीसद की बढ़ोतरी हुई है, जबकि 2023-24 के वास्तविक खर्च की तुलना में तो शुद्ध गिरावट ही दिखाई देती है। 

इसी प्रकार, मनरेगा के मामले में, 2024-25 के संशोधित अनुमान के 86,000 करोड़ रुपये के आंकड़े को ही बनाए रखा गया है, लेकिन 2023-24 के 89,154 करोड़ रुपये के वास्तविक खर्च खर्च की तुलना में, शुद्ध गिरावट हुई है। याद रहे कि 25 जनवरी को, मनरेगा की मजदूरी का 6,950 करोड़ रुपये बकाया था, जिससे इस योजना के लिए साल भर के लिए वास्तविक आवंटन का आकार, 86,000 करोड़ रुपये से भी घट जाता है।

वास्तव में सामाजिक क्षेत्र को समग्रता में देखा जाए तो, इसके लिए आवंटनों में कटौती की गयी है। स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण मंत्रालय के लिए 2025-26 का आवंटन, 2024-25 के बजट आवंटन से रुपये में करीब 9.5 फीसद बढ़कर रहने की अपेक्षा है, लेकिन यह जीडीपी के अनुपात के हिसाब से गिरावट ही दिखाता है। इसी प्रकार स्कूली शिक्षा के बजट के लिए आवंटन में रुपयों में बढ़ोतरी हुई है और पिछले वर्ष के बजट अनुमान के 73,000 करोड़ रुपये से बढक़र यह इस साल 78,600 करोड़ रुपये हो गया है। यह भी स्कूली शिक्षा के लिए जीडीपी के हिस्से में गिरावट ही दिखाता है। 

ठीक यही बात सक्षम आंगनवाड़ी तथा पोषण-2 (जिसके मामले में पिछले साल के बजट अनुमान के मुकाबले सिर्फ 3.6 फीसद की बढ़ोतरी हुई है और पीएम-पोषण जैसी, कई अन्य योजनाओं के मामले में भी सच है। पीएम-पोषण का आवंटन तो रुपयों में भी पिछले साल के बजट अनुमान के स्तर पर ही रुका रहा है।

गरीबों से मध्यवर्ग की ओर क्रय शक्ति का पुनर्वितरण

अब, अगर वेतनभोगी तबके को कर रियायतें देने की भरपाई करने के लिए, सामाजिक क्षेत्र को निचोड़ा जाता है, अगर खाद्य सब्सीडी, मनरेगा तथा ऐसी ही अन्य मदों पर खर्च में कटौतियां की जाती हैं, तो इसका अर्थ यह भी है कि क्रय शक्ति को गरीबों तथा मेहनतकशों की विशाल संख्या के हाथों से छीनकर, जिन्हें उक्त योजनाओं का कुछ लाभ मिल सकता था, इस क्रय शक्ति का मध्य वर्ग के एक हिस्से के पक्ष में पुनर्वितरण किया जा रहा होगा। 

इस तरह, 2025-26 का बजट, समग्रता में अर्थव्यवस्था को कोई उत्प्रेरण तो नहीं ही देता है, उल्टे प्रकारांतर से मेहनत-मजदूरी करने वाले गरीबों की कीमत पर, वेतनभोगी तबके को रियायतें और देता है। 

यह बजट, क्रय शक्ति का मेहनतकश गरीबों के हाथों से छीनकर वेतनभोगी तबके के पक्ष में पुनर्वितरण तो करता है, लेकिन अमीरों को छूता तक नहीं है और राजकोषीय घाटे को कमोबेश जस का तस बनाए रखता है, ताकि वैश्वीकृत वित्त को खुश कर सके। 

हमारे कहने का आशय यह हर्गिज नहीं है कि अर्थव्यवस्था में चल रही मुद्रास्फीति की लहर के सामने, वेतनभोगी तबके को राजकोषीय मदद दी ही नहीं जानी थी। मुद्दा यह है कि वेतनभोगी तबके लिए इस तरह की मदद, कामगार गरीबों की कीमत पर नहीं दी जानी चाहिए थी, जबकि 2025-26 के बजट में ठीक यही रणनीति अपनायी गयी है।

बहरहाल, यह रणनीति अर्थव्यस्था की सुस्ती को दूर करने वाली नहीं है, लेकिन इसकी तीन विशेषताएं हैं जो इसे एनडीए सरकार की नजरों में आकर्षक बनाती हैं। पहली यह कि मेहनतकश गरीबों को निचोड़े जाने से, भांति-भांति के ऐसे मालों की मांग घटती है, जो मूलत: लघु उत्पादन क्षेत्र में बनते हैं। दूसरी ओर, वेतनभोगी तबके तथा आम तौर पर मध्य वर्ग के हाथों में अतिरिक्त क्रय शक्ति देना, आम तौर पर ऐसे मालों की ही मांग बढ़ाएगा, जो संगठित क्षेत्र में, मूलत: इजारेदारियों द्वारा बनाए जाते हैं। इस तरह यह रणनीति, मार्क्स ने जिस प्रक्रिया को ‘पूंजी का केंद्रीकरण’ कहा था, उसे ही बढ़ावा देता है। इस प्रक्रिया में, छोटी पूंजी की कीमत पर, बड़ी पूंजी फलती-फूलती है। 

चूंकि आज की भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की पहचान एक कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के वर्चस्व से होती है, एनडीए की सरकार ने इस बजट के जरिए, अपने समर्थन के कारपोरेट स्तंभ के स्वार्थों की ही सेवा की है।

छवि बनाने के लिए

दूसरे, हमारे सरकारी आंकड़ों में असंगठित क्षेत्र में मांग में तथा इसलिए उत्पाद में भी गिरावट को वैसे भी सही तरीके से हिसाब में नहीं लिया जाता है और वास्तव में जीडीपी के विभिन्न तुरंता तथा आरंभिक अनुमानों के लिए तो असंगठित क्षेत्र को हिसाब में लिया ही नहीं जाता है, उल्टे सांख्यिकीय तरीका यह है कि कारपोरेट क्षेत्र के लिए आंकड़ों को ही, समग्रता में पूरी अर्थव्यवस्था के लिए सच मान लिया जाता है। इसलिए, यह रणनीति अर्थव्यवस्था के संबंध में बेहतर आंकड़े दिखाएगी। 

दूसरे शब्दों में, हमारी सांख्यिकीय व्यवस्था की विचित्रताओं को देखते हुए, जहां कारपोरेटों के लिए अच्छे नतीजे, समग्रता में अच्छे आर्थिक प्रदर्शन के रूप में दिखाई देते हैं, सरकार इस तरह से अपने कारपोरेट समर्थकों को खुश रखने के साथ ही, अर्थव्यवस्था में नयी जान डालने के दावों के साथ खुद अपना चेहरा भी चमका सकती है। एक ऐसी सरकार के लिए जो अपनी छवि बनाने से ही सबसे ज्यादा ग्रस्त है, यही सबसे जरूरी है।

तीसरे, जहां मध्य वर्ग को दी जा रही कर रियायतें साफ दिखाई देती हैं तथा स्वत:स्पष्ट हैं, जबकि रियायतों के इसी सिक्के का दूसरा पहलू, कि इन रियायतों का बोझ डालकर किसे निचोड़ा जा रहा है, धुंधला ही बना रहता है। इसलिए, सरकार को यह लगता है कि वह इन कर रियायतों के लाभार्थियों से तो उल्लेखनीय समर्थन जुटा सकती है, जबकि जरूरी नहीं है कि कामगार गरीबों का समर्थन उससे दूर हो जाए क्योंकि उन्हें तो अपनी बदहाली के इतने सारे मूल कारण लगते हैं कि इसके लिए सरकार की राजकोषीय रणनीति के दोष को आसानी से छुपाया जा सकता है। वैसे भी हिंदुत्व का मंच तो है ही, जिससे कभी भी मदद ली जा सकती है, अगर इस राजकोषीय रणनीति की मार के चलते, एनडीए सरकार के लिए मेहनतकश गरीबों के समर्थन में कोई गिरावट नजर आती है।

मेहनतकशों और मध्यवर्ग के बीच विभाजन की रणनीति

कोई यह कह सकता है कि हम 2025-26 के बजट के पीछे जो छुपा हुआ है उसे एक ‘‘रणनीति’’ का नाम देकर, इस सरकार की करनी के पीछे कुछ ज्यादा ही सोच-विचार मानकर चल रहे हैं। लेकिन, एनडीए सरकार द्वारा बार-बार मध्य वर्ग की शान में जैसे कसीदे काढ़े जा रहे हैं, वह काफी ध्यान खींचने वाला है। वर्तमान बजट सत्र के आरंभ में, राष्ट्रपति मुर्मू के भाषण में, जो भाषण परंपरागत रूप से अनेक समसामयिक मुद्दों पर सरकार का दृष्टिकोण रखने का ही काम करता है, मध्य वर्ग की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है। वित्त मंत्री ने बार-बार मध्य वर्ग और अर्थव्यवस्था में नये प्राण फूंकने की उसकी क्षमताओं की तारीफें कीं। यह सब यही दिखाता है कि बजट में अपनाया गया रुख, नीतियों के किसी संयोग से बन गए मिश्रण का नतीजा नहीं है बल्कि यह एक ‘रणनीति’ का हिस्सा है। और यह रणनीति है मेहनतकश जनता और मध्य वर्ग के बीच एक विभाजन पैदा करने की, ताकि कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के लिए कुछ अतिरिक्त समर्थन जुटाया जा सके। इसके साथ ही साथ यह ‘रणनीति’, नव-उदारवादी दकियानूसियत से चिपके रहने के जरिए, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को भी खुश रखती है। इसमें न तो अमीरों पर कर लगाया जा रहा है और न जीडीपी के अनुपात के रूप में राजकोषीय घाटे में कोई बढ़ोतरी की जा रही है।

यहीं, सनकीपन आता है। यह सरकार, मध्य वर्ग के बीच अपने समर्थन को बढ़ाने के लिए, मेहनतकश गरीबों के हितों को कुर्बान करने के लिए तैयार है। यह सरकार अपना प्रदर्शन बेहतर बनाकर दिखाने के लिए, मेहनतकश गरीबों को चोट पहुंचाने के लिए तैयार है। बेशक, यह ऐसी चीज है जो किसी भी पूंजीवादी समाज में नियमत: होती रहती है। लेकिन, भारत के लिए यह एक नयी परिघटना है। भारत में सत्ताधारी पार्टियां हमेशा से इसी का दावा करती आयी हैं कि वे जो कुछ भी करती हैं, मेहनतकश गरीबों के भले के लिए ही करती हैं। लेकिन, अब देश में वाकई ऐसी एक सरकार आ चुकी है जो खुले आम मध्य वर्ग को प्राथमिकता देती है और ऐसा करते हुए, मेहनतकश गरीबों को सजा देती है।

आर्थिक संकट का इसमें नहीं कोई हल

इस ‘रणनीतिक नवाचार’ को छोड़ दिया जाए तो, 2025-26 का बजट अतीत के नव-उदारवादी बजटों की उसी घिसी-पिटी लीक पर चलता है। इसमें, स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप, समुचित दाम देने की किसानों की मांग को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। इसमें बीमा क्षेत्र के दरवाजे 100 फीसद विदेशी मिल्कियत वाली कंपनियों के लिए खोल कर, विदेशी कंपनियों के लिए लाल कालीन और आगे तक बढ़ा दिया गया है। इसमें घरेलू इजारेदार पूंजी के लिए उपदेश हैं कि ‘पशु भावनाओं’ का प्रदर्शन करें और कहीं ज्यादा उत्पादक निवेश करें। यह इसके बावजूद है कि इस बार के आर्थिक सर्वे में साफ तौर पर कहा गया है कि निवेश की कमी, उपभोक्ता मालों की मांग में सुस्ती का नतीजा है और यह मांग की सुस्ती आय के ज्यादा से ज्यादा असमानतापूर्ण होते वितरण का नतीजा है, जिसकी वजह यह है कि मजदूरियों में तो गतिरोध बना रहा है, जबकि मुनाफों का हिस्सा तेजी से बढ़ता रहा है।

बहरहाल, अगर सरकार ने सोचा था कि इस सबसे वह, विदेशी पूंजी को आकर्षित कर, रुपए को बैठने से बचा सकती है, तो विदेशी निवेशकर्ताओं की उसकी इस तरह की लल्लो-चप्पो की निरर्थकता, बजट के सिर्फ दो दिन में ही उजागर हो गयी। न सिर्फ यह कि रुपये की गिरावट नहीं रुकी, 3 फरवरी को इस गिरावट ने प्रपाती रूप ले लिया और उसे 87 रुपये में एक डालर से भी नीचे पहुंचा दिया। 

पूरे किस्से की सीख यह है कि सनकीपन से जनता के एक तबके को दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करना, अपनी छवि बनाने की कसरत में भले ही सरकार की मदद कर सकता हो, उससे आर्थिक संकट हल नहीं हो सकता है।  

(प्रभात पटनायक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफेसर एमेरिटस हैं। यह उनके निजी विचार हैं।) 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest