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जलवायु संकट से निपटने के लिए हुए सीओपी 25 के संतोषजनक परिणाम नहीं!

इस बार के सीओपी के आयोजन-स्थल के दो बार बदले जाने के कारण पर्यावरण ऐक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग की मैड्रिड में उपस्थिति संभव नहीं हुई।
climate change

कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज यानी सीओपी या कॉप 25 स्पेन के मैडरिड में 3-14 दिसम्बर चला। 14 तारीख की रात तक बातचीत किसी नतीजे तक नहीं पहुंची, तो सत्र को और बढ़ाया गया।

उपस्थित देशों के बीच अपेक्षित समझौते तक पहुंचना संभव नहीं हो सका, खासकर ग्लोबल कार्बन ट्रेडिंग सिस्टम की स्थापना के सवाल पर और जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव झेलने वाले देशों को अनुदान देने की व्यवस्था करने के प्रश्न पर।

इसके बावजूद 14 दिसम्बर को 32 निर्णयों का मस्विदा तैयार हुआ। इनमें से अलग-अलग सवालों पर अलग-अलग देशों के मतभेद रह गए, इसलिए मस्विदा को सर्वसम्मति नहीं मिल सकी।

यू एन महासचिव को अंत में कहना पड़ा कि वे सीओपी के परिणाम से असंतुष्ट हैं। अंतर्राष्ट्रीय कम्यूनिटी ने जलवायु संकट से निपटने हेतु बढ़े हुए टार्गेट लेने के प्रति उत्साह दिखाने का एक महत्वपूर्ण अवसर गंवा दिया। वे बोले, ‘‘पर हमें हारना नहीं है। मैं भी हारा नहीं हूं।’’ तो लगता है सी ओ पी 26 का इंतेज़ार करना पड़ेगा।

इस बार के सीओपी के आयोजन-स्थल के दो बार बदले जाने के कारण पर्यावरण ऐक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग की मैड्रिड में उपस्थिति संभव नहीं हुई। जहां तक भारत की बात है, तो उसकी भूमिका विकसित देशों पर दबाव बनाने की रही कि वे पहले अपने लिए हुए टार्गेट पूरे करें, तभी भारत बढ़े हुए टार्गेट लेने की ओर बढ़ेगा।

दूसरी बात, कि भारत को कार्बन उत्सर्ग कम करने के लिए जो कार्बन क्रेडिट मिलने चाहिये थे वे भी नहीं दिये जा रहे हैं, यह स्वीकार्य नहीं है। जलवायु (क्लाइमेट चेंज) को लेकर विश्व भर के वैज्ञानिकों की चिंता नाजायज़ नहीं है।

आज का नारा है ‘‘वन पाॅइन्ट फाइव टू स्टे अलाइव’’, यानि यदि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से थोड़ा भी बढ़ा, तो विनाशकारी स्थितियां पैदा होंगी और करोड़ों लोग जलवायु परिवर्तन के खतरे व भुखमरी झेलेंगे। महामारी होगी; आप्लावन, सुखाड़, भूकम्प और जंगलों की आग से भारी तबाही मचेगी।  इसलिए लाखों छात्र सरकारों और व्यवसायों से मांग कर रहे हैं कि वे क्लाइमेट चेंज को रोकने की प्रतिबद्धता जताएं; यह आपात्कालीन स्थिति है, वरना धरती को बचाया नहीं जा सकता।

इस बाबत देखें, तो एक और वर्ष का समय खो दिया गया, जिसका भयानक दबाव सीओपी 26 पर पड़ेगा। वैज्ञानिकों की मानें तो इस शताब्दी के अंत तक विश्व का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा, यदि आपातकालीन कदम नहीं उठाए गये। अगले 10 साल इसके लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।

जिन्हें यह सच नहीं लग रहा वे देखें कि तेज़ी से बढ़ता जलवायु संकट का कई अन्य मेगा-पारिसिथतिक संकटों के बढ़ने के साथ अभिन्न संबंध है।

भारत के शहरों में अब कई दिनों तक गर्मी की लहर चलती है, जिसके कारण कई शहरों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस पार करता है और 50-60 दिनों तक नहीं घटता। पिछली गर्मी में चेन्नई पानी के संकट से जूझ रहा था और आई टी क्षेत्र ठप्प पड़ गया था। लोग शहर छोड़कर भागने को मजबूर भी हुए। फिर नीति आयोग ने चेतावनी दी है कि 5 साल के अंदर सभी मेट्रो शहरों में पानी का भयानक संकट होगा। देश के कई हिस्से अक्सर सूखाग्रस्त रह रहे हैं, और ऐसे क्षेत्रों का लगातार विस्तार होता जा रहा है।

महाराष्ट्र और कर्नाटक सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं। नतीजतन हर सुखाड़ किसान आत्महत्या की परिघटना को अधिक भयावह बनाता जाता है। दूसरी ओर, बाढ़ और चक्रवाती तूफानों के कारण जन-जीवन तबाह होता है। केरल की अर्थव्यवस्था को बादल फटने और अचानक आने वाली बाढ़ ने 10 साल पीछे धकेल दिया था और 2013 में उत्तराखण्ड में बादल फटने के असर से अब तक लोग उबर नहीं पाए।

तमिलनाडु के उर्वर कावेरी डेल्टा और कर्नाटक के मांड्या में भी किसान आत्महत्या की परिघटना भयावह है, जिसका मुख्य कारण है बेमौसम होने वाली भारी वर्षा और चक्रवाती तूफान, जिनके कारण फसल को भारी नुक्सान पहुंचा है। उत्तरी भारत में ओले पड़ने के कारण भी फसल को काफी नुक्सान पहुंचा। इस बार उत्तर प्रदेश और बिहार के कई हिस्से बाढ़ग्रस्त रहे और व्यापारियों को मंदी के दौर में दोहरी आर्थिक मार झेलनी पड़ी। तटवर्ती इलाकों के समक्ष भी खतरा गहराता जा रहा है। मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी है कि ज्वार की तेज़ लहरों के कारण विवेकानन्द की मूर्ति तक बहने की आशंका है।

अति विपन्न लोगों की संख्या, जो 1990 में 1.9 अरब थी, 2015 में घटकर 83 करोड़ 6 लाख तक गिर गई, और कम आय वाले देशों में रहने वाले कुपोषितों का प्रतिशत्, जो 1990 में 23 था, 2014 में घटकर 13 रह गया था, पर जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ने वाले सुखाड़ के कारण कुपोषितों की संख्या पुनः 1990-पूर्व आंकड़ों को छू सकती है।

यानि 3 दशकों के प्रयास मिट्टी में मिल जाएंगे; यह चिंताजनक स्थिति है। फिर, यूरोप और अमेरिका में प्रवासियों की समस्या मुंह बाए खड़ी है, और इसका कारण भी जलवायु परिवर्तन है। विश्व बैंक का मानना है कि विश्व भर के प्रवासियों की गणना करें, तो उनमें 14 करोड़ तो जलवायु प्रवासी  होंगे। यही नहीं, जलवायु परिवर्तन के कारण धरती की जैव-विविधतता को भारी खतरा है, क्योंकि पौधों व जानवरों की कई प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं।

 विश्व के कई हिस्सों में दावानल लग रहे हैं; इसकी वजह भी तापमान में वृद्धि है। अलास्का, इण्डोनेशिया, पश्चिम अमेरिका, स्पेन, चिली और पुर्तगाल में वन लगातार जल रहे हैं, और ऐमेज़ाॅन तो खास तौर पर। ऊंचे तापमान के कारण आग लम्बे समय तक जलते हैं और विस्तृत क्षेत्रों को अपने चपेट में ले लेते हैं। इनके कारण भी भारी कार्बन उत्सर्जन होता है। पेड़-पौधों और जानवरों की ढेरों प्रजातियां आग में खत्म हो जाती हैं।

आखिर करें क्या?

हम जान चुके हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है। इसके लिए देशों को काफी महत्वाकांक्षी टार्गेट लेने हैं। क्या विश्व भर के नेता इस बात को गंभीरता से ले रहे हैं? वैशविक संचित ग्रीनहाउस गैसों में 26 प्रतिशत के लिए सीधे अमेरिका जिम्मेदार है, और यूरोप अतिरिक्त 22 प्रतिशत के लिए।

दूसरी ओर हम अफ्रीका को देखें तो उसका हिस्सा केवल 3.8 प्रतिशत है। अब यदि धरती के तापमान-वृद्धि को 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो इसे एक ग्लोबल प्रयास होना होगा, जिसमें काफी धन खर्च होगा। 2009 में कोपेनहैगेन में जब सीओपी 15 का आयोजन हुआ था, उसमें यह तय हुआ था कि विकसित देश मिलकर प्रतिवर्ष 100 अरब यू एस डाॅलर का अनुदान देंगे, ताकि उत्सर्जन टार्गेटों को सीमित करने के लिए ठोस कदम उठाए जा सकें।

पर रिकाॅर्ड अच्छे नहीं रहे-ग्लोबल क्लाइमेट फंड के लिए केवल 10.3 अरब यू एस डाॅलर की प्रतिज्ञा की गई, जिसमें केवल 7.23 अरब यू एस डाॅलर जमा हुए, 4.60 अरब यू एस डाॅलर मंजूर हुए पर मात्र यू एस डाॅलर 0.39 अरब संवितरित किये गए, जिसमें भारत को 7 करोड़ 78 लाख डाॅलर ही मिले! इसके बरखिलाफ अमेरिका का सैन्य खर्च प्रति वर्ष 1.25 ख़रब यू एस डाॅलर है। और, तो और, ट्रम्प ने यू एस को 2015 के पैरिस जलवायु समझौते से (सीओपी 21) बाहर कर लिया।

नये समझौते के लिए संघर्ष

हमारे ग्रह और मानवजाति को बचाने के लिए कटिबद्ध सभी विवेकशील ताकतें सरकारों को एक नए ‘ग्रीन डील’ की ओर बढ़ने को बाध्य करना चाह रहे हैं। यह ‘न्यू ग्रीन डील’ कुछ उसी तरह का होगा जैसा पुराना ‘न्यू डील’ राष्ट्रपति रूसवेल्ट ने 1933 और 1938 के बीच घोषित किया था ताकि 1929 में शरू होने वाले ‘ग्रेट डिप्रेशन’ से विश्व को बचाया जा सके।

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