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कोविड-19: पहुँच से बाहर रेमडेसिवीर और महाराष्ट्र में होती दुर्गति

खुदरा दुकानदार रेमडेसिवीर की बिक्री नहीं कर रहे हैं। देश में इस दवा की उपलब्धता का गंभीर संकट बना हुआ है और मरीजों के रिश्तेदार और परोपकारी लोग इसे हासिल करने के लिए दिन भर मारामारी कर रहे हैं।
कोविड-19: पहुँच से बाहर रेमडेसिवीर और महाराष्ट्र में होती दुर्गति

भारत ने पिछले 6 महीनों में करीब 11 लाख रेमडेसिवीर इंजेक्शन का निर्यात किया, जिसमें घरेलू उत्पादन पर न के बराबर ध्यान दिया गया। उल्टा सारा ध्यान निर्यात पर बनाये रखा गया। यह संभवतः हमारे आदरणीय प्रधान मंत्री की अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना अर्जित करने की भव्य योजना का एक हिस्सा रहा हो। इस दवा का घरेलू उत्पादन एक माह में 39 लाख ईकाई के करीब है, और हाल ही में जब केंद्र सरकार ने इसके निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया तो मीडिया द्वारा कुछ इस प्रकार की छवि पेश की गई कि हमारे पास स्थानीय बाजार के लिए अचानक से सत्तर लाख ईकाइयां उपलब्ध हो सकती हैं। हालांकि दुखद पहलू यह है कि यह तथ्य सच्चाई से कोसों दूर है।

इस दवा का निर्यात करने वाली इकाइयों ने फिलहाल अपने स्टॉक की जमाखोरी करनी शुरू कर दी है क्योंकि केंद्र ने उनके इसकी साथ कीमतों को लेकर किसी भी प्रकार की वार्ता नहीं की है। अधिकांश राज्यों में स्थनीय खुदरा कीमतों पर सीमा तय की हुई है (मुंबई में इसकी कीमत 1100 रूपये से लेकर 1400 रूपये के बीच में है), लेकिन ये कीमतें निर्यातकों को मंजूर नहीं हैं। केंद्र को इस बारे में पहल करनी चाहिए थी और इसके बेहतर नतीजे निकलते। लेकिन मोदी सरकार के सभी सच्चे मास्टरस्ट्रोक की तरह ही, यह निर्यात प्रतिबंध भी सिर्फ सुर्खियाँ बटोरने तक ही सीमित साबित हुआ है; उन्हें अच्छे परिणामों की कोई चिंता नहीं रहती, जिसके जरिये वास्तव में उपलब्धता को सुगम बनाया जा सकता है।

दुःखद पहलू यह है कि प्रतिष्ठित डाक्टरों और यहाँ तक कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारियों द्वारा जारी किये गए बयानों के आधार पर देखें तो रेमेडेसिविर, कोविड-19 का उपचार है - यह मात्र फेफड़े संबंधी कुछ मामलों में ही कारगर है। इसके बावजूद मुंबई में और यहाँ तक समूचे भारत में मामलों को देखें तो, डॉक्टरों द्वारा इसे पहला मौका लगते ही सुझाया जा रहा है, संभवतः अपने जोखिमों पर पर्दादारी के लिए।

वर्तमान नियमों के मुताबिक इसे खुदरा बाजार में नहीं बेचा जा सकता है। अस्पताल इसे एफडीए (फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) के जरिये हासिल कर सकते हैं। मुंबई में एफडीए ऐसे फार्मूले पर काम कर रही है जिसमें कोविड अस्पतालों को अस्पताल की क्षमता और दवा की उपलब्धता के आधार पर दवा जरी की जा रही है। अस्पताल को क्षेत्रीय दवा निरीक्षकों के पास अपनी मांग भेजनी पड़ती है, जो तब उन्हें अपने फार्मूले के मुताबिक दवा का आवंटन करते हैं।

अब मुंबई में वास्तव में हो यह रहा है कि बीएमसी और कुछ बड़े निजी अस्पतालों के पास पहले से ही अपने पास स्टॉक रखने को लेकर आवश्यक दूरदर्शिता और धन उपलब्ध था, लेकिन अधिकांश निजी अस्पतालों के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं था। वास्तव में देखें तो बीएमसी कमिश्नर को ऊँचे दामों पर रेमडेसिविर की खरीद करने के लिए आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, लेकिन उनके समय पर निर्णय लेने के कारण वास्तव में कई लोगों की जान बचाई जा सकी है। अब मसला यहाँ पर यह बना हुआ है कि कैसे बीएमसी सुविधा केन्द्रों में खुद को भर्ती कराया जाये।

आदर्श प्रक्रिया तो यह है कि जिस क्षण आप जांच में पॉजिटिव पाए जाते हैं, तो 240 बीएमसी की ग्राउंड टीमों में से कोई एक आकर आपसे मिले, आकलन करे और भर्ती कराये। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है। लोगों की स्थिति जब गंभीर होने लगती है तो वे खुद को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना शुरू कर देते हैं। जब तक वे भर्ती नहीं हो जाते, तब तक वे बेतहाशा हर दरवाजे को खटखटाते रहते हैं। 20 अप्रैल के दिन, एक मरीज जिसका ऑक्सीजन लेवल 73 से 80 के बीच में उपर-नीचे हो रहा था, को दो बार बीकेसी जंबो कोविड सेंटर ने भर्ती करने से इंकार कर दिया था, और आखिर में तभी दाखिला दिया, जब मामला काफी गंभीर हो गया था। इसके अलावा, बीएमसी क़ानूनी तौर पर अपने स्टॉक को किसी भी निजी अस्पताल या नागरिक के साथ साझा भी नहीं कर सकता, यहाँ तक कि किसी अन्य नगरपालिका निकाय के साथ तक भी साझा नहीं कर सकता। इसलिए जहाँ एक तरफ बीएमसी के पास रेमडेसिविर का भारी स्टॉक पड़ा हुआ है, वहीँ जिन रोगियों को इसकी जरूरत है वे इसे हासिल नहीं कर सकते हैं।

जिन निजी अस्पतालों के पास रेमडेसिविर का स्टॉक मौजूद नहीं है, वे एफडीए ड्रग इंस्पेक्टर की दया पर निर्भर हैं जो काफी हद तक गैर-जिम्मेदार हैं। ऐसे में अस्पताल अक्सर दवा की एक या दो खुराक देने के बाद रोगियों के रिश्तेदारों को रेमडेसिवीर की बाकी डोज को उपलब्ध कराने के लिए कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप रोगी के परिवार वालों को भयानक संत्रास का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उनके उपर 24 घंटे के भीतर अगली डोज कहीं से भी लाकर उपलब्ध कराने का दबाव बना रहता है, वर्ना उपचार स्थगित हो जाने की तलवार उनके उपर लटकी रहती है। अक्सर देखा गया है कि अस्पताल के कर्मचारी खुद ही मरीज के रिश्तेदारों के पास जाकर उन्हें ब्लैक मार्केट से अनाप-शनाप दामों पर इसकी शीशियों को उपलब्ध कराने का प्रस्ताव दे रहे हैं।

सरकार, नागरिकों को यह दिखाने के प्रयास में है कि उसकी ओर से उन अस्पतालों के खिलाफ कार्यवाही की जायेगी, जो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर रहे हैं। इसके लिए महाराष्ट्र के लिए 1800222365 पर एफडीए हेल्पलाइन शुरू की गई है। लेकिन कोई भी इस हेल्पलाइन पर जवाब देने के लिए उपलब्ध नहीं रहता। ज़ोनल ड्रग इंस्पेक्टरों की एक सूची सार्वजनिक की गई थी, लेकिन इन इंस्पेक्टरों में से 80% ने हमारे काल पर कभी जवाब नहीं दिया। इसलिए हमारी टीम ने बांद्रा ईस्ट में एफडीए के कार्यालय का दौरा करने का फैसला लिया। हमने पाया कि दूसरी मंजिल पर बने खाली काल सेंटर में तथाकथित हेल्पलाइन को चलाया जा रहा है, और जब हमने इस बाबत उनसे पूछताछ की तो उनका जवाब था कि रिसेप्शन पर सभी कॉल्स का जवाब दिया जा रहा है। रिसेप्शन पर दो टेबल लगी हुई थीं, पूरे महाराष्ट्र के लिए मात्र दो लाइन! कॉल्स अनुत्तरित क्यों रह जा रहे थे, इसको लेकर कोई आश्चर्य नहीं रहा।

हमने कमिश्नर अभिमन्यु काले से मुलाक़ात करने की कोशिश की जिन्होंने हमें एक घंटे तक इंतजार कराया, लेकिन आखिरकार वे हमसे नहीं मिले। बाद में उस दिन उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया था, इसकी वजह या तो उनकी अक्षमता रही हो या ज्यादा संभावना इस बात की है कि दवा के अस्पतालों तक पहुँचने से पहले ही भाजपा नेताओं को रेमडेसीविर के स्टॉक के बारे सूचित करने के कारण यह फैसला लिया गया। तत्पश्चात हमने श्री तिरपुडे से मुलाक़ात की, जो समूची मुंबई में रेमडेसिविर के प्रबंधन का प्रभार संभाल रहे हैं। ये महाशय अपनी कुर्सी पर बैठे रहे, किंतु इन्होंने हमसे बैठने तक के लिए नहीं कहा। उन्होंने हमें बताया कि अस्पतालों में क्या चल रहा है या नागरिकों की शिकायतों के मामले में उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। उनका एकमात्र काम अस्पतालों को यह बताना था कि उनके फार्मूले के मुताबिक उनके लिए कितनी आपूर्ति उपलब्ध है और इसे किस वितरक से हासिल किया जा सकता है। एफडीए ने स्पष्ट और पर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया और उनके उनींदे कार्यालय से जाहिर होता था कि महामारी और मुंबई वासियों की पीड़ा को लेकर वे किस हद तक असम्बद्ध बने हुए हैं।

आदर्श स्थिति तो यह होती कि राज्य सरकार इन अस्पतालों की निगरानी का काम करती, लेकिन उनकी ओर से इस संबंध में कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है। जबसे ब्रुक फार्मा और देवेंद्र फड़नवीस वाला मामला सामने आया है, तबसे राज्य पुलिस द्वारा संभावित जमाखोरों के खिलाफ छापेमारी की जा रही है, लेकिन निगरानी के इस काम को अब अस्तपाल स्तर पर किये जाने की जरूरत है। राज्य के स्वास्थ्य मंत्रालय को तत्काल हरकत में आने की आवश्यकता है – किसी अस्पताल को रेमडेसिविर को उसी स्थिति में सुझाना चाहिए, अगर वाकई में उसकी जरूरत हो और साथ ही साथ अस्पताल में यह दवा उपलब्ध हो। कोई भी अस्पताल यदि उन दवाओं को सुझाता है, जो उसके स्टॉक में उपलब्ध नहीं हैं, तो उन्हें अपने लाइसेंस के रद्द होने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह समय ढिलाई बरतने का या माफ़ कर देने का नहीं है। आज शहर टूटन की कगार पर खड़ा है, और समय की मांग है कि तत्काल कार्यवाई हो।

लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

COVID-19: The Elusive Remdesivir and a Catastrophe in Maharashtra

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