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कोरोना संकट में मज़दूरों को ग़ुलामों में बदलता पूंजीवाद

किसी भी व्यवस्था का सही आंकलन संकट के समय ही होता है। विशेष तौर पर राजनीतिक सत्ता के वर्गीय चरित्र की पहचान का तो सही समय यही होता है।
मज़दूर
Image courtesy: Flickr

जब 7 मई की रात को यह लेख लिखा जाने लगा कि किस तरह वर्तमान में कोरोना संकट के दौर में पूँजीवाद का घिनौना चेहरा बेनकाब हो रहा है और प्रवासी मज़दूर बंधुआ मज़दूरों में बदल रहें है तो लिखते लिखते घर लौटते हुए प्रवासी मजूरों की मृत्यु के आंकड़े खोजने के चक्कर में यह अधूरा रह गया। फिर सोचा कि लेख अगले दिन पूरा होगा परन्तु जब सुबह हुई तो जालना से मध्य प्रदेश के लिए पैदल ही निकले प्रवासी मज़दूरों की औरंगाबाद के पास मालगाड़ी से कट कर मृत्यु की ख़बर और पटरी पर बिखरी पड़ी सूखी रोटियों की तस्वीर ने दिल दहला दिया। बार बार सोचने पर मज़बूर होना पड़ा क्या इसके बाद भी इस लेख की ज़रूरत है। क्या अभी भी देश में किसी को बताने की ज़रूरत है कि प्रवासी मज़दूरों का महत्व केवल तब तक है जब तक वह मुनाफा कमाने का साधन है। जब काम बंद तो उनकी जान की परवाह किसे।

कार्ल मार्क्स ने हमें बताया था कि पूंजीवाद में मज़दूर को उसके श्रम का उतना दाम तो मिलता है जिससे वह जीवित रह पाए, श्रम कर पाए और श्रम करने के लिए नए मज़दूर पैदा कर पाए। वर्तमान में बेरोज़गारी इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि पूंजी को श्रम की निरंतरता बनाये रखने के लिए मज़दूरों को जीवित रहने लायक सुविधा देने की भी आवश्यकता नहीं। कुछ मर जायेंगे तो उनकी जगह लेने के लिए दूसरे आ जायेंगे। परन्तु जब उनकी वजह से मुनाफे पर आंच आये तो उनको बंधुआ मज़दूर में भी तब्दील कर लिया जायेगा।

किसी भी व्यवस्था का सही आंकलन संकट के समय ही होता है। विशेष तौर पर राजनीतिक सत्ता के वर्गीय चरित्र की पहचान का तो सही समय यही होता है। ऐसा ही हुआ पूरे विश्व के साथ साथ भारत में भी।

वैसे तो पिछले 6 वर्षों से भारत में ‘रामराज्य’ है और ऐसा दिखाया जा रहा था जैसे सरकार और खुद सरकार के मुखिया गरीब जनता के सबसे बड़े हितेषी है। ख़ैर कोरोना के दौर में लॉकडाउन के चलते पहले से ही डूबती अर्थ व्यवस्था पाताल लोक की तरफ बढ़ने लगी तो गरीब और अमीर के हितों में भी सीधा टकराव होने लगा। सरकार की प्राथमिकताओं और नीतियों का पक्ष सबके सामने आने लगा। 

केंद्र सरकार के बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन ने देश की अधिकतर मेहनतकश जनता विशेष तौर पर खेत मज़दूर, ग्रामीण मज़दूर, शहरी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों और प्रवासी मज़दूरों को सड़क पर ला दिया। सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशन उपलब्ध करवाने की बात कहकर अपना पीछा छुड़ा लिया। हालांकि सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार देश के लगभग 20 करोड़ लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। लेकिन प्रवासी मज़दूर जो अपने घरों से दूर शहरों में फंस गए वह तो भूखे मरने के कगार पर आ गए।

उनके लिए न खाने की व्यवस्था और न घर वापसी की।शहर का मध्यम वर्ग जब टेलीविज़न पर रामायण और महाभारत देख कर धर्म और अधर्म पर चर्चा करते हुए टाइम पास कर रहा होता, उसी समय इन प्रवासी मज़दूरों का धर्म कर्म केवल भूख बन गया जो आस लगाए होते कि कोई सामाजिक संस्था आएगी और उनको खाना मिलेगा।

फेसबुक पर जहाँ हम अपने घरों में दूर दूर बैठ कर शारीरिक दूरी बनाने रखने के निर्देशों की पालना की शेखी बघार रहे होते, ठीक उसी समय यह मज़दूर छोटे छोटे कमरों में ठुसे पड़े होते या खाने की लम्बी लाइन में खड़े होतें जिनके पास आपस में दूरी बनाये रखने का कोई विकल्प ही नहीं है ।

हम तो अपने परिजनों के साथ घर बैठ यह जता रहे होते कि हम कोरोना के खिलाफ जंग में योगदान दे रहें है, बाहर न घूम कर, दोस्तो से न मिल कर, शॉपिंग न करके। क्योंकि हमें ऐसा ही बताया जा रहा है।  यह प्रवासी मज़दूर तो इंसान नहीं केवल समस्या है। कभी पैदल ही निकल पड़ते है हज़ारों किलोमीटर चल कर घर पहुँचने के लिए तो कभी सरकार की घोषणा सुन कर आ जाते है बस या ट्रेन की खोज में।  परन्तु अभी तक सरकारों के लिए इनका घर पहुंचना या न पहुँचाना गैरजरूरी ही था। असल में सरकार को यह पता ही नहीं है कि देश में कितने प्रवासी मज़दूर लॉकडाउन में फंसे है।

केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय के तहत मुख्य श्रम आयुक्त (सीएलसी) के कार्यालय के अनुसार सरकार के पास राज्य-वार और जिलेवार आंकड़े ही नहीं है। हमें पता ही नहीं है की कितने मज़दूर कहाँ है और उनके लिए कितने संसाधन चाहिए। यह तब है जब मुख्य श्रम आयुक्त (सीएलसी) ने अप्रैल के दूसरे सप्ताह में देश के 20 केंद्रों में स्थित क्षेत्रीय प्रमुखों को लॉकडाउन में फंसे हर प्रवासी मज़दूर की गणना निर्देश दिए थे। इसके लिए तीन दिन का समय दिया गया था परन्तु एक RTI के जबाब में यह बताया गया है कि सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा एकत्र ही नहीं हो पाया है। 

लेकिन तीन मई को लॉकडाउन के एक बार फिर बढ़ने के साथ इन प्रवासी मज़दूरों की अपने राज्यों में वापसी का मुद्दा ज्यादा ही गरमा गया। खैर सरकार ने निर्णय लिया कि इन मज़दूरों को घर वापस भेजा जायेगा पर कैसे इसका उत्तर था नहीं। पहले कहा- बस चलेगी, फिर कहा राज्यों को जिम्मेवारी लेनी होगी, अंतत: भारतीय रेल ने घोषणा की कि विशेष ट्रेन चलाई जाएगी परन्तु मज़दूरों को यात्री भाड़ा देना होगा। उन मज़दूरों से जो पिछले डेढ़ महीने से बिना काम और बिना पैसे के ज़िंदा रहने की जंग लड़ रहे थे, किराया वसूल करना अमानवीय ही नहीं, बल्कि आपराधिक भी है। दरअसल किराया मांगना मतलब अधिकतर मज़दूरों को यात्रा से महरूम करना। वर्तमान में पूंजीवाद ने प्रवासी मज़दूरों को बंधुआ मज़दूरों में तब्दील कर दिया है। यह वह गैर ज़रूरी लोग हैं जिनकी कोई परवाह नहीं करता परन्तु सच्चाई यह है कि इनके बिना हमारे शहर और आर्थिकी भी नहीं चलती।

कर्नाटक में तो भाजपा सरकार के निर्णय ने बड़ी ही नंगई से उपरोक्त बात को स्पष्ट किया। अभी तक सरकार को इन प्रवासी मज़दूरों से ज़्यादा लेना-देना नहीं था, वह केवल एक समस्या थी सरकार के लिए लेकिन जैसे ही बड़े बिल्डरों और रियल एस्टेट के कारोबारियों को उनके जाने से नुकसान होता दिखा तो अपना श्रम बेचने के लिए मज़बूर इन लोगो को सरकार ने यह महसूस करवा दिया कि उनके जीवन पर भी उनका अधिकार नहीं है। वह अपनी इच्छा से घर नहीं जा सकते चाहे परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हो, उनको इन पूंजीपतियों की दया पर ही जीना होगा।

कर्नाटक से भी दस ट्रेन चलने वाली थी परन्तु कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा ने  बड़े बिल्डरों और रियल एस्टेट के कारोबारियों के साथ बैठक के बाद 6 मई से चलने वाली इन रेलगाड़ियों को रद्द करवाने के लिए दक्षिण पश्चिम रेलवे को पत्र लिखा। रेलवे ने भी सभी रेलगाड़ियां रद्द कर दीं। यह निर्णय उस समय लिया गया जब दस हज़ार से ज्यादा प्रवासी मज़दूर इन गाड़ियों में सफ़र करने के लिए बंगलुरु के अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी केंद्र में पहुंच चुके थे। कर्नाटक के अंतरराज्य यात्रा के लिए नियुक्त नोडल अफसर श्रीमान एन. मंजुनाथ के मुताबिक ऐसा बिल्डरों और रियल एस्टेट के उद्यमियों की मांग के बाद किया गया है जिन्होंने चिंता जताई कि लॉकडाउन के बाद मज़दूर न होने की वजह से उन्हें घाटा उठाना पड़ेगा। उन्होंने कहा की वह प्रवासी मज़दूरों को समझायेंगे लेकिन फिर भी अगर वह जाना चाहें तो अपने वाहन से जा सकते है किसी को रोका नहीं जायेगा। 

यह एक बेहद ही भद्दा मज़ाक है मज़दूरों के साथ और सरकार की धूर्तता का परिचायक भी है। आप यह कैसे कह सकते है कि मज़दूरों को सिर्फ समझाया जायेगा और अगर वह जाना चाहे तो जा सकते हैं पर अपने साधन से। जितनी बेशर्मी से भाजपा सरकार ने मज़दूरों के खिलाफ निर्णय लिया भाजपा को उसी तरह इसे स्वीकार भी करना चाहिए कि ट्रेन रद्द करके दरअसल उन्होंने बंधुआ मज़दूरों की तरह इन प्रवासी मज़दूरों को घर जाने से जबरन रोक दिया है। 

बात स्पष्ट है न तो मज़दूर अपने श्रम की कीमत तय कर पाते है और न ही यह कि अपना श्रम कब और कहां बेचेंगे। इस संकट की घडी में एक तरफ सरकार उनके लिए जिम्मेवार नहीं है, उनको इंसान नहीं बल्कि समस्या के रूप में देखा जा रहा है, उनका जीवन घोर असुरक्षा से भरा है, एक तरफ कोरोना तो दूसरी तरफ भूख। कभी साहस करके पैदल ही घर की तरफ निकलते है तो पूरे देश को टेलीविज़न इनको अपराधियों की तरह दिखाते हैं। तिहाड़ में रह चुके जबरन पैसा वसूली वाले भी इन्हे देशप्रेम का पाठ पढ़ाते हैं, वहीं इन्हे मजबूर किया जा रहा है कि यह शहर में ही रहें, विशेष आकर्षक नाम वाली श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलने के बाद भी कभी किराया मांग कर और कभी कर्नाटक सरकार के निर्णयों की तरह। 

देखने की बात यह भी है कि सरकार संकट की घडी में भी अपने मित्र वर्ग के साथ किस मज़बूती के साथ खड़ी है। एक तरफ दिन रात प्रत्येक नागरिक को यह बताया जा रहा है कि यह एक अभूतपूर्व समय है, युद्ध की स्थिति है, सबको योगदान देना होगा। जनता को बलिदानों के लिए प्रेरित किया जा रहा है। लोग भी अपनी क्षमता से बढ़कर योगदान दे रहे है, कर्मचारियों और पेंशनरों से तो योगदान सरकार ने खुद ही ले लिया। ऐसे समय में भी सरकार अपने मित्र वर्ग पर आंच नहीं आने दे रही। जब राजस्व विभाग के कुछ अफसरों ने इस स्थिति से निकलने के सुझावों के तौर पर कुछ समय के लिए बहुत अमीर लोगों पर 'सुपर रिच' टैक्स का प्रस्ताव भर दिया तो उन पर कार्यवाही हो गई कि वह अपने कनिष्ट सहयोगियों को गुमराह कर रहें है। यह होती है निष्ठा। वैसे CII के अनुसार इस लॉकडाउन के चलते भारतीय पूंजीपतियों को उनके मुनाफे का केवल 10% नुकसान उठा पड़ेगा। वह इसके लिए भी तैयार नहीं है और अपने लाभ में इस कमी का बोझ भी जनता और मज़दूर वर्ग पर ही डालना चाहते हैं।

सरकार ने श्रम कानूनों में बड़े बदलाव कर दिए। मज़दूर वर्ग के अपार संघर्षो के बाद मिले आठ घंटे काम के अधिकार पर ही पहली चोट की गई और इसे बढ़ाकर 12 घंटे करने का प्रस्ताव आया। अब कई भाजपा शासित प्रदेशों ने कॉरपोरेट्स को 1000 दिनों के लिए श्रम कानून लागू करने की छूट दी है। मतलब श्रम की खुली छूट और मज़दूरों के लिए कोई सुरक्षा नहीं। जब ज़रूरत होगी उनको रखा जायेगा और जब मुनाफा कम होता दिखेगा उनको निकल दिया जायेगा। उनके जीवन से न तो उद्योगपति को और न ही सरकार को कोई सरोकार होगा। श्रम विभाग भी छुट्टी पर।? यह है पूंजीवाद का असली रूप। मुनाफे के लिए कुछ भी। इंसानी जीवन की तो क्या बिसात।

देश के विभिन्न राज्यों में फंसे लाखों प्रवासी मज़दूर, उनकी भूख, खाने के लिए उनकी लम्बी कतारें, अपने घर के लिए पैदल ही चल कर हजारों किलोमीटर तय करते बच्चे, गर्भवती महिलाएं औए इन यात्राओं में 42 (सेव लाइफ फाउंडेशन के अनुसार) मज़दूरों की मौत (ट्रेन के हादसे के बाद इनकी संख्या 58 हो गई है) इस व्यवस्था के सामने गंभीर सवाल खड़े करते हैं जिनके जवाब शायद किसी सरकार के पास नहीं हैं। कर्नाटक के मज़दूरों की सूनी आंखें सवाल पूछ रहीं हैं कि क्या वह मज़दूर है या ग़ुलाम जो अपने घर भी नहीं जा सकते?

(लेखक विक्रम सिंह अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। इससे पहले आप स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (SFI) के महासचिव रह चुके हैं।)  

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