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‘कॉमन मैन’ को केंद्र में लाने वाले कार्टूनिस्ट 'आर.के.लक्ष्मण'

आर.के.लक्ष्मण ने अपने कार्टूनों के ज़रिए न सिर्फ़ कॉमन मैन के रोज़मर्रा की मुश्किल भरी ज़िंदगी, समस्याओं को देश के सामने रखा, बल्कि सियासी-समाजी मसलों पर उनकी कभी मासूम, तो कभी तीखी टिप्पणी सियासतदानों को सोचने पर मजबूर करती थी।
‘कॉमन मैन’ को केंद्र में लाने वाले कार्टूनिस्ट 'आर.के.लक्ष्मण'

रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण यानी आर.के.लक्ष्मण, आम आदमी की मुख़र आवाज़ थे। उन्होंने अपने कार्टूनों के ज़रिए न सिर्फ़ कॉमन मैन के रोज़मर्रा की मुश्किल भरी ज़िंदगी, समस्याओं को देश के सामने रखा, बल्कि सियासी-समाजी मसलों पर उनकी कभी मासूम, तो कभी तीखी टिप्पणी सियासतदानों को सोचने पर मजबूर करती थी। ख़ास तौर पर राजनीतिक मामलों पर बनाए गए उनके कार्टून, लोगों को बेहद आकर्षित करते थे। लक्ष्मण ने अपने काटूर्नों में मुल्क के सियासतदानों की जमकर ख़बर ली और उन पर तंज़ कसने के लिए कॉमन मैन के नज़रिये से सोचा। यही उनके कार्टूनों की असल ताक़त थी। उन्होंने सामाजिक बुराइयों और हुक्मरानों के जन विरोधी कामों-फ़ैसलों को हर दम निशाना बनाया और देशवासियों के बीच बेदारी फैलाई। आर.के.लक्ष्मण के कॉमिक किरदार ‘कॉमन मैन’ ने देश की कई पीढ़ियों को मुताअस्सिर किया। साधारण से दिखने वाले उनके कार्टून चरित्र में एक अलग ही नैतिक ताक़त थी, जो ताक़तवरों को भी अपने आगे झुका देती थी। आर.के.लक्ष्मण के कार्टूनों को गर ग़ौर से देखें, तो उनमें हमेशा एक फ़लसफ़ा, एक विचार मिलता है, जो लोगों को सोचने पर मजबूर करता है। उनके कार्टूनों में सिर्फ़ हास्य नहीं, ज़बर्दस्त विट् और व्यंग्य होता था। एक छोटा सा कार्टून, अपने समय पर एक सशक्त टिप्पणी है।

मैसूर (कर्नाटक) के रासिपुरम में एक साधारण परिवार में 24 अक्टूबर, 1921 को जन्मे आर.के.लक्ष्मण को बचपन से ही चित्रकला का शौक था। पढ़ाई शुरू करने के पहले ही वे चित्र बनाने लगे थे। छोटी उम्र से ही उन्होंने घर की दीवारों, दरवाज़ों और फ़र्श को अपने केरिकेचर से रंग दिया था। स्कूल में जब उन्होंने एक बार पीपल की पत्ती का चित्र बनाया, तो उनके शिक्षक बहुत प्रभावित हुए और उन्हें पेंटिंग व ड्राइंग में करियर बनाने की सलाह दी। बहरहाल लक्ष्मण ने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद, मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में दाख़िले के लिए आवेदन किया। लेकिन अफ़सोस, कॉलेज के डीन ने उनके आवेदन को यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि, ‘‘उनकी ड्राइंग में वो प्रतिभा नहीं है, जिससे उन्हें कॉलेज के स्टूडेंट के तौर पर दाख़िला दिया जा सके।’’ अपने मनपसंद कॉलेज में दाख़िला ना मिलने के बाद भी लक्ष्मण निराश नहीं हुए। उन्होंने बाद में मैसूर यूनीवर्सिटी से ग्रेजुएशन पूरा किया। इस दौरान उन्होंने अपनी कलात्मक गतिविधियां बंद नहीं कीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से अपनी यह कला जारी रखी। ‘स्वराज्य’ और ‘ब्लिट्ज’ जैसी अपने दौर की मशहूर मैगज़ीन के लिए कार्टून बनाते रहे।

आर.के.लक्ष्मण ब्रिटिश कार्टूनिस्ट सर डेविड लॉव से काफ़ी प्रभावित थे। अंग्रेज़ी दैनिक ‘द हिंदू’ में प्रकाशित उनके कार्टून के तो वे जैसे दीवाने ही थे। दीवानगी ऐसी कि जब उन्होंने पढ़ाना-लिखना भी नहीं सीखा था, तब भी वे उनके कार्टूनों को ग़ौर से देखा करते। फिर ठीक उसी तरह से उन्हें दीवारों पर बनाने की मासूम कोशिश करते। कभी कामयाब हो जाते, तो कभी कोशिश अधूरी रह जाती। मगर ये सिलसिला बदस्तूर यूं ही चलता रहता।

पढ़ाई पूरी करने के बाद आर.के.लक्ष्मण ने अपनी पहली फ़ुलटाइम नौकरी मुंबई के ‘फ्री प्रेस जर्नल’ में एक राजनीतिक कार्टूनिस्ट के तौर पर की। बाद में वे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ से जुड़ गए। यहीं से पाठकों पर उनका जादू चढ़ने की शुरुआत हुई। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के पहले पन्ने पर आर.के.लक्ष्मण के ‘यू सेड इट’ यानी ‘आपने कहा’ कैप्शन वाले पॉकेट कार्टून का सुहाना सफ़र बीसवीं सदी के पचास के दशक में शुरू हुआ। यह सिलसिला पूरे छह दशक तक चला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को यदि छोड़ दें, तो उन्होंने देश के सारे प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह का ज़माना देखा और उस दौर को बड़े ही ज़िम्मेदारी से अपने कार्टूनों में चित्रित किया। आज़ादी के बाद वे भारतीय राजनीति में हर बदलाव के गवाह रहे।

देश में इतिहास बनाने वाली अहम घटनाओं को उन्होंने अपने कार्टूनों से दर्शाया, तो सरकार की जन विरोधी नीतियों की भी आलोचना की। अपने कार्टूनों में वे सत्ता और समाज की गड़बड़ियों, राजनीतिक विचारधाराओं की विषमता को निशाना बनाने में कभी नरमी नहीं बरतते थे। वे अक्सर कहा करते थे, ‘‘नेता भले ही देश के लिए बुरे हो सकते हैं, लेकिन उनके पेशे के लिए वे काफ़ी अच्छे रहे हैं।’’ राजनेता भी उनके व्यंग्य और कटाक्ष का कभी बुरा नहीं मानते थे। दरअसल आर.के.लक्षमण राजनीतिज्ञों में भी उतने ही लोकप्रिय थे, जितने की अपने पाठकों में। ख़ुद पंडित जवाहरलाल नेहरू तक उनके कार्टूनों और बेमिसाल सलाहियत के प्रशंसक थे। लक्ष्मण ही थे जिन्होंने नेहरू के बिना टोपी के कई केरिकेचर बनाए। जब इस बारे में नेहरू ने उनसे सवाल पूछा, तो लक्ष्मण की कैफ़ियत थी, ‘‘आप बिना टोपी के ज़्यादा अच्छे लगते हैं।’’ देश में इमरजेंसी का दौर आया, तो प्रेस पर कई तरह की सेंसरशिप लग गई। आर.के.लक्षमण मीडिया की आज़ादी को लेकर काफ़ी संवेदनशील थे। वे इस संबंध में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले और उन्होंने श्रीमती गांधी को आग़ाह किया कि वे ग़लत कर रही हैं। देश में लक्ष्मण ही एक अदद ऐसे कार्टूनिस्ट थे, जिनके कार्टून इमरजेंसी के दौरान भी लगातार प्रकाशित होते रहे। उनके कार्टूनों पर पाबंदी लगाने की कभी किसी ने हिम्मत नहीं की। उनमें सच को सच और ग़लत को ग़लत कहने का साहस औरों से कहीं ज़्यादा था।

आर.के.लक्ष्मण के कार्टून का मुख्य किरदार ‘कॉमन मैन’ था। इस किरदार को बनाने में उन्हें थोड़ी सी जद्दोजहद करनी पड़ी। वज़ह, वे एक ऐसी शख़्सियत को गढ़ना चाहते थे, जिसमें किसी ख़ास मज़हब, जाति, नस्ल और वर्ग का अक्स न दिखे। वह पूरे देश के आम नागरिकों की नुमाइंदगी करे। बहरहाल, थोड़ी सी कोशिशों में इस किरदार ने जो शक्ल इख़्तियार कर ली, उसका ख़ाका कुछ इस तरह से है-धोती, चैक वाला बंद गले का कोट, पांव में सस्ते जूते और गांधी चश्मा। यह कॉमन मैन, आगे चलकर पूरे देश में किसी जीती-जागती हस्ती की तरह मशहूर हुआ। ग़रज़ कि यह गंजा कॉमन मैन देश के किसी भी हिस्से में रहने वाले मामूली आदमी की नुमाइंदगी करता था। इस ‘कॉमन मैन’ में हर आम आदमी अपना अक्स देखता। सिस्टम के ख़िलाफ़ कॉमन मैन का प्रतिरोध उसे सच्चा लगता। आम आदमी को लगता यही तो वह बात है, जो वह कहना चाहता है। कार्टूनिस्ट के अलावा आर.के.लक्ष्मण बेहतरीन लेखक भी थे। अपने बड़े भाई उपन्यासकार आर.के. नारायण की तरह वे भी साहित्यिक लेखन करना चाहते थे, लेकिन उनकी पहचान कार्टूनिस्ट के रूप में ही रही। लक्ष्मण ने ‘होटल रिवेरा’ और ‘द मैसेंजर’ नामक दो उपन्यास लिखे। ‘द टनल ऑफ टाइम’ शीर्षक से उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी। दूरदर्शन पर प्रसारित टीवी धारावाहिक ‘मालगुड़ी डेज’ को भला कौन भूल सकता है, जिसमें उनके स्केच बहुत कुछ कह जाते थे। क़िस्सा कोताह यह है कि बच्चों में इस धारावाहिक की तरह उनके कार्टून भी काफ़ी लोकप्रिय हुए। ‘मिस्टर ऐंड मिसेज 55’ नाम के सीरियल में लक्ष्मण के कार्टूनों का इस्तेमाल हुआ। यही नहीं ‘सब टीवी’ चैनल पर प्रसारित उनके कार्टूनों पर केंद्रित सीरियल ‘वागले की दुनिया’ को दर्शकों ने ख़ूब पसंद किया। यानी एक वक़्त आर.के.लक्ष्मण की मक़बूलियत का आलम यह था कि वे जिस क्षेत्र में उन्होंने काम किया या जहां उनके कार्टूनों का इस्तेमाल हुआ, वह कामयाब हुआ। कामयाबी ने हमेशा उनके पैर चूमे।

अपनी धारदार कला के लिए आर.के.लक्ष्मण देश के कई पुरस्कार-सम्मानों से नवाज़े गए। इंडियन एक्सप्रेस का ‘बीडी गोयनका अवार्ड’, हिंदुस्तान टाइम्स का ‘दुर्गा रतन गोल्ड मेडल’ के अलावा भारत सरकार ने उन्हें देश की कार्टून कला में बेमिसाल योगदान के लिए अपने सर्वक्षेष्ठ नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ और फिर उसके बाद ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। लक्ष्मण को पत्रकारिता, साहित्य और सृजनात्मक संवाद कला के लिए साल 1984 में प्रतिष्ठित ‘रेमन मैगसेसे पुरस्कार’ भी प्रदान किया गया। वे भारत के पहले कार्टूनिस्ट थे, जिनके कार्टून लंदन में प्रदर्शित किए गए। साल 1985 में लंदन में आर.के.लक्ष्मण के कार्टूनों की प्रदर्शनी लगाई गई, जिसे वहां काफ़ी वाह-वाही मिली। आर.के.लक्ष्मण की विलक्षण कार्टून कला अपने देश तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने दुनिया भर के मशहूर लोगों के केरिकेचर भी बनाए। इसके लिए वे बाक़ायदा लंदन पहुंचे और छह महीने तक वहीं रहकर उन्होंने टी.एस. इलियट, ग्राहम ग्रीन, बर्नार्ड रसेल, डेविड लॉव आदि के शानदार केरिकेचर बनाकर सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। उनकी यह सीरीज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत चर्चित हुई। ब्रिटेन के अलावा आर.के.लक्ष्मण ने यूरोप के अन्य देशों की भी यात्राएं कीं और मशहूर लोगों के केरिकेचर बनाए। ख़ास तौर पर दुनिया की ताक़तवर सियासी शख़्सियतों विंस्टल चर्चिल, फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट, जोसेफ़ स्टालिन वग़ैरह किसी को भी नहीं छोड़ा। उनकी चुटीली टिप्पणियों से कोई नहीं बच पाया। आर.के.लक्ष्मण द्वारा बनाए गए कार्टून किरदार ‘कॉमन मैन’ को देश में असाधारण लोकप्रियता मिली।

इस ‘कॉमन मैन’ की लोकप्रियता इस बात से आंकी जा सकती है कि साल 1988 में जब ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के 150 साल पूरे हुए, तो भारतीय डाक विभाग ने एक डाक टिकट जारी किया। डाक टिकट की ख़ासियत यह थी कि इस पर लक्ष्मण के कॉमन मैन का चित्र ही प्रकाशित किया गया। मुंबई के वर्ली तट पर भी इस कॉमन मैन की एक आदमकद प्रतिमा समुद्र के किनारे लगी पत्थर की बेंच पर बैठकर समुद्र को निहारती देखी जा सकती है। यही नहीं पुणे के सिम्बिओसिस इंस्टीट्यूट के परिसर में लक्ष्मण के ‘कॉमन मैन’ किरदार की दस फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा स्थापित है। आर.के.लक्ष्मण की अंगुली हमेशा देश की नब्ज़ पर रही। अपने बेजोड़ हास्य-व्यंग्य और सामाजिक, राजनीतिक रूप से प्रासंगिक संदेशों के ज़रिए उन्होंने लाखों देशवासियों की ज़िंदगी को छुआ। उनके दुःख-दर्द को बांटा। विपरीत परिस्थितियों में भी किस तरह से मुस्कराया जा सकता है, उन्होंने यह अपने पाठकों को सिखाया। आर.के.लक्ष्मण लंबी उम्र जिये। 26 जनवरी, 2015 को 94 साल की उम्र में उन्होंने इस दुनिया से अपनी आख़िरी सांस ली। आज भले ही कार्टूनिस्ट आर.के.लक्ष्मण हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके कार्टून और कार्टून किरदार ‘कॉमन मैन’ देशवासियों के दिलों में हमेशा ज़िंदा रहेगा।

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