‘जातिगत जनगणना’ बाबासाहेब अंबेडकर को होगी सच्ची श्रद्धांजलि!
देशभर में कई संगठनों ने 14 अप्रैल को देश के पहले कानून मंत्री और संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर की 132वीं जयंती मनाई। इस वर्ष का समारोह शायद पिछले वर्षों में आयोजित समारोह से ज़्यादा व्यापक स्तर पर मनाया गया। यह समारोह भारत की अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के उत्थान में अंबेडकर के योगदान के लिए मनाया गया जिनकी वजह से अन्य वंचित समुदायों को देश-विदेश में तेज़ी से पहचान मिल रही है। इस साल 150 से ज़्यादा देशों में उनकी जयंती मनाई गई। सामाजिक न्याय और समानता के लिए प्रतिबद्ध अधिकांश समूह, जो जन्म-आधारित पदानुक्रम और अन्याय का विरोध करते हैं, वे इस दिन को श्रद्धा और आशा के साथ मनाते हैं। अक्सर, यह उत्सव एक अर्ध-धार्मिक रंग ले लेता है, क्योंकि अंबेडकर के मूल्यों की तुलना में कर्मकांडों को अधिक स्थान दिया जाता है। इस संदर्भ में, जिन सपनों के लिए उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया, उन्हें पूरा करने के संघर्ष को फिर से शुरू किया जाना चाहिए और उसे बरक़रार रखा जाना चाहिए।
इसके अलावा कुछ अन्य संगठन, जैसे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और इसके हिंदू राष्ट्रवादी वंशज, जाति के उन्मूलन और अंबेडकर के सिद्धांतों का भारी विरोध करते हैं। इसके बजाय, वे जातियों के बीच सद्भाव की धारणा पेश करते हैं, हालांकि इसमें जाति आधारित व्यवस्था और जन्म आधारित पदानुक्रम को बदलना शामिल नहीं है। अंबेडकर ने समाज के वंचित वर्गों के लिए सकारात्मक कार्रवाई की वकालत की। आरक्षण की व्यवस्था शुरू में दस साल के लिए थी-शायद अंबेडकर और बाक़ी लोगों को उम्मीद थी कि हिंदू समाज से जाति के द्वेष को जड़ से खत्म करने के लिए एक दशक पर्याप्त होगा। हालांकि, आरक्षण नीति को लागू करना ही कुलीन जातियों के सदस्यों के हाथों में है, और उन्होंने इसे दरकिनार करने के तरीके खोजे। यही कारण है कि जाति के आधार पर भेदभाव और बहिष्कार जारी है, और इसे समाप्त करना सामाजिक न्याय की ओर अग्रसर होने की एक सीढ़ी है।
भारत के संविधान ने (अंबेडकर ने उस समिति की अध्यक्षता की जिसने इसका मसौदा तैयार किया) अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण प्रदान किया। हालांकि इसके तहत, समाज के एक महत्वपूर्ण घटक, पिछड़े वर्ग को मान्यता या आरक्षण नहीं मिला। 1990 के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने तक अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) एक कानूनी कैटेगरी नहीं थी।
इसके अलावा, भारत की जाति संरचना पर विचार करने वाली आखिरी दशक की जनगणना साल 1931 में जारी की गई थी। उस वक़्त पिछड़े वर्गों का अनुपात 52% था, जिस पर मंडल की रिपोर्ट निर्भर थी। यह 1990 के दशक में पिछड़े वर्गों को 27% आरक्षण सुनिश्चित करने का आधार बना। इन वर्गों की पहचान सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर की गई, इस प्रकार सकारात्मक कार्रवाई में भारत की आज़ादी के बाद की यात्रा शुरू हुई।
लेकिन भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग के लिए आरक्षण हमेशा से ही आंख की किरकिरी रहा है। "यूथ फॉर इक्वालिटी" जैसे समूह, जो आरक्षण हटाने के पक्ष में खड़े थे, ने इस धरना को फैलाया कि आरक्षण की वजह से 'अयोग्य' लोगों को 'योग्य' लोगों की कीमत पर नौकरियां मिल रही हैं। दलितों और ओबीसी के प्रति सामाजिक पूर्वाग्रह हाल ही में रोहित वेमुला और दर्शन सोलंकी की आत्महत्या से हुई मौतों के रूप में सामने आया। यह पूर्वाग्रह 1980 के दशक में अहमदाबाद में दलित-विरोधी हिंसा और 1985 में गुजरात में पिछड़े-विरोधी हिंसा का आधार बना।
इस बीच, भाजपा ने अपने हिंदुत्व के नारे का इस्तेमाल करते हुए समाज के सबसे वंचित वर्गों तक पहुंचने के लिए 'सामाजिक समरसता मंच' या 'सामाजिक सद्भाव मंच' जैसे संगठन बनाए। एक वैचारिक स्तर पर, हिंदू दक्षिणपंथियों ने 'आक्रमणकारी' मुस्लिम शासकों को जाति व्यवस्था की बुराइयों के लिए ज़िम्मेदार ठहराने का प्रयास किया है, यही हिंदुत्व का सार है। इस प्रयास ने इन्हें चुनावी लाभ ज़रूर पहुंचाया है लेकिन सबसे ग़रीब और सबसे हाशिये पर रहने वाले वर्गों की हालत में सुधार नहीं किया है। इसका एक परिणाम यह हुआ कि भाजपा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों से अपने नेताओं के लिए कई जीत हासिल करने में सफल रही है।
आरएसएस के प्रचारकों और स्वयंसेवकों ने जनजातीय क्षेत्रों में व्यापक रूप से सोशल इंजीनियरिंग अपनाई है।
इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि भाजपा और उसके सहयोगी भी अंबेडकर जयंती को धूमधाम से मनाते हैं। फिर भी वे जातिगत जनगणना की आवश्यकता को कम करके आंकते हैं जो नीतियों को संशोधित करने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है और इससे असल मायने में वंचित वर्गों को लाभ होगा।
यह पृष्ठभूमि, कांग्रेस नेता राहुल गांधी के हाल ही में कर्नाटक के कोलार में दिए गए भाषण को महत्वपूर्ण बनाती है। उन्होंने जनसंख्या-जनगणना की बात कही और कहा कि केंद्र सरकार की शीर्ष नौकरशाही में सकारात्मक कार्रवाई के परिणाम दिखाई नहीं दे रहे हैं क्योंकि यहां मुश्किल से महज़ 7% लोग ही सबसे वंचित या पिछड़े वर्ग से हैं। उन्होंने कहा कि 2011 की जाति जनगणना के निष्कर्ष को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, "अगर ओबीसी, दलितों और आदिवासियों का देश की राजनीति में उनकी आबादी के अनुपात में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो डेटा इस बात का सबूत देगा।" सत्ता में हिस्सेदारी और जनसंख्या में उनके हिस्से के अनुपात में प्रतिनिधित्व भारत के वंचित समुदायों का एक पुराना नारा और लंबे समय से चली आ रही मांग है।
इसके विपरीत भाजपा इस मुद्दे को टालने की कोशिश कर रही है। पार्टी जातिगत जनगणना नहीं चाहती और उसने 2021 में सुप्रीम कोर्ट में दलील दी थी कि ऐसी जनगणना "प्रशासनिक रूप से कठिन और बोझिल" होगी। इसने कहा कि यह "इस तरह की जानकारी को जनगणना के दायरे से बाहर करने के लिए एक सचेत नीतिगत निर्णय था।" सामाजिक न्याय को लेकर भाजपा की असली मंशा तब स्पष्ट हो जाती है जब वह महत्वपूर्ण निर्णय लेती है।
पिछले नौ वर्षों के दौरान इसने (भाजपा सरकार ने) आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग या ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण पेश किया, एक ऐसी श्रेणी जो गैर-अभिजात्य जातियों और सामाजिक समूहों के लिए प्रावधानों को कमज़ोर करती है। यह व्यापक रूप से स्पष्ट तौर पर समझा जाता है कि ईडब्ल्यूएस श्रेणी संपन्न जाति समूहों के बेहतर-संपन्न सदस्यों की मदद करेगी, जिनकी आय प्रति वर्ष 8 लाख रुपये के कट-ऑफ से कम है। भाजपा इस तथ्य पर पर्दा डालना चाहती है कि आर्थिक स्थिति कभी भी आरक्षण प्रदान करने या न करने का मानदंड नहीं थी। भारत में आरक्षण की व्यवस्था ऐतिहासिक भेदभाव (अनुसूचित जातियों के लिए), भौगोलिक दूरस्थता (अनुसूचित जातियों के लिए), और सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन (ओबीसी के लिए) पर आधारित हैं। लेकिन बीजेपी जाति को एक श्रेणी के रूप में खत्म करना चाहती है।
इन निर्मित पूर्वाग्रहों के कारण ही भाजपा पर यह आरोप लगता है कि अंबेडकर के सिद्धांत उसके लिए मायने नहीं रखते। हिंदू-राष्ट्रवादी राजनीति सटीक रूप से व्यापक पैमाने पर फैल सकी क्योंकि इसने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों की बढ़ती दावेदारी का विरोध किया। हमारी नीतियों को संशोधित करने और समाज के असमान विकास को समानता के रास्ते पर लाने के लिए विभिन्न वंचित वर्गों की जनसंख्या के वास्तविक आकलन की आवश्यकता है।
शीर्ष शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने वाले गैर-अभिजात वर्ग के छात्रों की लगातार होती मौतें और इन मौतों के लिए जाति-आधारित भेदभाव के आरोपों के कारण हमें इस जाति-आधारित भेदभाव का मुकाबला करने के लिए सतर्क रहना चाहिए। भारत को एक ऐसे भविष्य के लिए प्रयास करना चाहिए जहां 'जाति' का उन्मूलन समाज का मुख्य सिद्धांत हो।
(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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