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चारधाम परियोजना: केदारनाथ आपदा से हमने एक भी सबक़ नहीं सीखा

क्या उच्च हिमालयी क्षेत्र के पहाड़, पेड़, जंगल और जंगल का जीवन इस विध्वंस से कुछ बचाया जा सकता है? क्या उच्च हिमालयी क्षेत्र में इंटरमीडिएट चौड़ाई यानी 8 मीटर चौड़ी सड़क बनेगी? या फिर यहां भी 12 मीटर चौड़ी सड़क ही बनाई जाएगी?
चारधाम परियोजना

राष्ट्रीय महत्व की और सीमा-सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण सड़क की कुल चौड़ाई अगर आठ मीटर है तो उसपर सेना का एक ट्रक और दो बड़ी कारें एक साथ एक समय में बिना किसी मुश्किल के गुज़र सकती हैं। चारधाम परियोजना राष्ट्रीय महत्व की परियोजना है, तो भी आठ मीटर सड़क की चौड़ाई पर्याप्त है। ज्यादा चौड़ी सड़क यानी ज्यादा पहाड़ काटे जाएंगे, ज्यादा पेड़ कटेंगे, ज्यादा मलबा पैदा होगा। काटे गए पहाड़ों की अस्थिरता बढ़ जाएगी यानी भूस्खलन का खतरा बढ़ जाएगा। उत्तराखंड मानसून के दौरान जगह-जगह भूस्खलन की चपेट में है। और ये सिर्फ प्राकृतिक आपदा नहीं है। सड़क चौड़ी करने के लिए गलत तरीके से काटे गए पहाड़ भी इसकी वजह हैं। ये मैन-मेड हिमालयन डिजास्टर भी है।

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चारधाम सड़क परियोजना का तकरीबन 75 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है। बाकी 25 प्रतिशत काम अपेक्षाकृत ज्यादा संवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्रों की पहाड़ियों और जंगलों के बीच होना है। सवाल ये है कि क्या उच्च हिमालयी क्षेत्र के पहाड़, पेड़, जंगल और जंगल का जीवन इस विध्वंस से कुछ बचाया जा सकता है? क्या उच्च हिमालयी क्षेत्र में इंटरमीडिएट चौड़ाई यानी 8 मीटर चौड़ी सड़क बनेगी? या फिर यहां भी 12 मीटर चौड़ी सड़क ही बनाई जाएगी?

जिस समय में पूरी दुनिया में क्लाइमेट चेंज, ग्लोबल वॉर्मिंग, बायो डायवर्सिटी जैसे मुद्दों पर आंदोलन हो रहे हैं। ठीक उसी समय में हमारे देश में अपने ही बनाए नियमों को ताक में रखकर, पर्यावरण को विकास की राह में बाधा मानकर मनमानी की जा रही है।

अपने ही बनाए नियम को भूल गया केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय

केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने वर्ष 2018 में एक सर्कुलर जारी किया था। ये सर्कुलर वर्ष 2012 में सड़कों को लेकर तय किए गए मानकों में संशोधन को लेकर था। उस समय पहाड़-मैदान को एक जैसा ट्रीट करते हुए दो लेन वाले सड़क की चौड़ाई 12 मीटर तय की गई। इसमें 8 से 8.5 मीटर सड़क की चौड़ाई होती, साथ ही सड़क के दोनों छोर पर ड्रेनेज और पैदल चलने वालों के लिए जगह। 2018 में जारी सर्कुलर में कहा गया कि 2012 में सड़कों को लेकर तय किए गए नेशनल स्टैंडर्ड का पहाड़ों में खराब अनुभव हुआ। उससे बहुत चुनौतियां पैदा हुईं। पहाड़ के ढलान इससे अस्थिर हुए। बड़ी संख्या में अनमोल पेड़ काटने पड़े जो सीधे तौर पर पर्यावरण के नुकसान से जुड़े हुए थे। इसके लिए ज्यादा ज़मीन का अधिग्रहण करना पड़ा। इसलिए 23 मार्च 2018 के सर्कुलर में कहा गया कि अब पर्वतीय क्षेत्रों में जो भी सड़कें बनेंगी वो इंटरमीडिएट चौड़ाई की होंगी। यानी 5-5.5 मीटर चौड़ी सड़क और उसके दोनों छोर पर एक-डेढ़ मीटर जगह पैदल चलने वालों के लिए, पानी की निकासी के लिए, पैरापिट लगाने के लिए छोड़ी जाएगी। इस तरह कुल चौड़ाई 8 मीटर से अधिक नहीं होगी।

इसके अलावा किसी जगह के ट्रैफिक को देखते हुए भी सड़क की चौड़ाई तय की जाती है। जैसे सड़क पर प्रतिदिन 3-5 हजार के बीच गाड़ियां गुजरती हैं तो वो सड़क इंटरमीडिएट चौड़ाई यानी कुल 8 मीटर की होगी। यदि सड़क पर पीसीयू यानी पैसेंजर कार यूनिट प्रतिदिन 10 हजार से ज्यादा है या 3-5 साल के भीतर इतना पहुंचने का अनुमान है तो सड़क अधिक चौड़ाई की बनायी जा सकती है। पर्वतीय क्षेत्रों में गाड़ियों की संख्या इतनी नहीं पहुंचती।

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पर्वतीय क्षेत्र में सड़क निर्माण के नए नियम पता चले तो भी कुछ नहीं बदला

चारधाम परियोजना को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनी हाई पावर कमेटी के एक सदस्य बताते हैं कि वर्ष 2012 के सड़क नियम के आधार पर चारधाम सड़क बनायी जा रही थी। नये नियम की बात दबा दी गई। इस वर्ष अप्रैल में जब सड़क की चौड़ाई को लेकर कमेटी के बीच मतभेद हुआ। तब हमें 2018 के नियमों का पता चला। ये पता चलने के बावजूद कमेटी के ज्यादातर सदस्य 12 मीटर चौड़ी सड़क बनाने के पक्ष में ही थे। ये वो 14 सदस्य थे जो सरकारी सेवाओं में हैं या सरकार से जुड़ी संस्थाओं में हैं। समिति के अध्यक्ष रवि चोपड़ा समेत 4 सदस्यों की राय अलग थी। समिति के इस धड़े के मुताबिक चारधाम परियोजना शुरू से अंत तक पर्यावरण को बेरहमी से दरकिनार कर की गई गलतियों की श्रृंखला है। इसके पर्यावरण पर पड़ने वाले असर से किसी को कोई मतलब नहीं।

सिर्फ़ नाम की हुई हाईपावर कमेटी

चारधाम परियोजना की हाईपावर कमेटी नाम भर की ही हाईपावर साबित हो रही है। पिछले वर्ष अगस्त में बनाई गई कमेटी की बातों को शुरू से आखिर तक अनसुना किया गया। पहाड़ों के स्लोप अवैज्ञानिक तरीके से काटे जा रहे थे। कमेटी इस पर सवाल उठा रही थी लेकिन कार्यदायी संस्थाएं अपना काम कर रही थीं। समिति के ये सदस्य बताते हैं कि उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ में कुछ जगहों पर मौजूदा सड़क को ही चौड़ा कर काम बन सकता था। लेकिन जंगल के अंदर से सड़क का रास्ता बनाया गया। फिर जंगल काटे गए। सैकड़ों पेड़ कटे। आखिर किसलिए? किसके फायदे के लिए?

चारधाम सड़कों का निरीक्षण करने के बाद आपत्तियों को लेकर 7 दिसंबर को हाई पावर कमेटी के अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने परियोजना के चीफ इंजीनियर को पत्र लिखा। 22 दिसंबर को कमेटी की तरफ से दूसरा पत्र लिखा गया।

16 फरवरी को तत्कालीन जनरल वीके सिंह आए, उनसे भी मुलाकात के दौरान कमेटी ने पर्यावरणीय कीमतों का हवाला देते हुए चार धाम परियोजना का काम रुकवाने को कहा।

इसके बाद अप्रैल-मई-जून में भी इस पर आपत्तियां जतायी गईं। कमेटी की आपत्तियां कहीं नहीं सुनी गईं।

पर्यावरण की क़ीमत पर अवैज्ञानिक सड़क

कार्यदायी एजेंसियों की मनमानियों का जगह-जगह लोगों ने भी विरोध किया। पिथौरागढ़ के सिरमुना और गंदौरा गांव के पास पहले से ही भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील पहाड़ी काटी जा रही थी। गांव के लोग विरोध कर रहे थे और सड़क बनती रही।

रुद्रप्रयाग में केदारनाथ के नजदीक बांसवाड़ा रूट की पहाड़ियां भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। वहां लगातार भूस्खलन की घटनाएं हो रही हैं। अप्रैल और उसके बाद वहां कई बड़े भूस्खलन हुए। कार्यदायी एजेंसियों को जगह चिह्नित कर बताया गया कि इन पर ध्यान दीजिए, यहां भूस्खलन हो रहा है लेकिन सड़क का निर्माण अपने तरीके से चलता रहा। कमेटी की सारी बातें अनसुनी की गई।

हाईपावर कमेटी कहती है कि इस परियोजना में सबसे ज्यादा फोकस पहाड़ों को काटने पर किया गया। पहाड़ों की सीधी ढलान काटी गई। जिससे पूरी हिमालयी श्रृंखला अस्थिर हुई है। ट्रीटमेंट के नाम पर बनी रिटेनिंग वॉल ज्यादातर जगहों पर पहाड़ को रीटेन करने लायक नहीं पायी गई।

सड़क के पहाड़ी छोर पर रेत-पानी की निकासी के लिए जगह नहीं छोड़ी गई। पैदल चलने वालों के लिए जगह नहीं बनायी गई। मलबा डंपिंग ज़ोन में न डालकर मनमाने तरीके से कहीं भी उड़ेल दिया गया।

चारधाम परियोजना में पहाड़ काटने से करीब 30-40 हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति किलोमीटर मलबा निकला। कमेटी के मुताबिक ज्यादातर मलबा डम्पिंग ज़ोन में नहीं बल्कि सीधा पहाड़ियों से नीचे घाटियों और नदियों में उड़ेला गया। उन घाटियों में भी हरी वनस्पतियां थीं, पेड़ थे। ऊपर से पेड़-पौधे-वनस्पतियां लेकर आया मलबा जहां गिरा वहां भी नुकसान दे गया। बहुत सी ऐसी वनस्पतियां भी थीं जो पर्वतीय क्षेत्र में नदियों किनारे ही उगती हैं। मलबे ने उनका अस्तित्व भी नष्ट कर दिया।

नीति आयोग प्राकृतिक जल स्रोत बचाने की रिपोर्ट देता है, चारधाम सड़क का मलबा प्राकृतिक जल स्रोत पर भी उड़ेला जाता है।

हाईपावर कमेटी के कुछ ज़रूरी प्वाइंट

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपनी रिपोर्ट में हाईपावर कमेटी ने सड़क की चौड़ाई को लेकर सवाल उठाए हैं। पहाड़ियों की सीधी कटान पर सवाल उठाए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि एनएच-125 पर 174 जगहों पर की गई पहाड़ की कटाई में से 102 भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील हैं। इनमें 44 स्लोप फेलियर (जहां पहाड़ काटे गए वहां से मलबा गिरना) दिसंबर-2019 में ही सामने आ गए थे। इस वर्ष के शुरुआती चार महीनों में 11 स्लोप फेलियर सामने आए।

पिथौरागढ़ के लोहाघाट में बनने वाले बायपास की जद में काली गांव वन पंचायत के देवदार और ओक के जंगल आएंगे। समय है, इन्हें बचाया जा सकता है।

इसी तरह एनएच-34/108, एनएच-109, जोशीमठ और खांकड़ा (एनएच-7/58) पर प्रस्तावित बायपास वहां के लोगों की व्यापारिक गतिविधियों को प्रभावित करेगा। जिसे लेकर स्थानीय लोगों में गुस्सा है।

गलत तरह से मलबा डंप करने से बहुत से प्राकृतिक जल स्रोत ब्लॉक हो गए हैं और खतरे में आ गए हैं। इससे जंगल, नदी और पानी की निकासी भी प्रभावित हुई है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि वन्यजीव, उनके निवास स्थान, कॉरीडोर और सुरक्षा को पूरी तरह नज़र अंदाज़ किया गया। पेड़ गिराने और जंगल के नुकसान से वहां की वनस्पतियां तो नष्ट हुई हीं, जंगली सूअर, साही और सांप जैसे वन्यजीव लोगों के घरों-खेतों की ओर जाने लगे।

नदियों के इको सिस्टम को भी नुकसान पहुंचा

गलत इंजीनियरिंग और गलत डिजायन के चलते पानी निकासी प्रभावित हुई। पहाड़ के ढलानों की सुरक्षा के जरूरी उपाय नहीं किये गए। ऐसी जगहें जो भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील हैं जैसे कुंजापुरी (एनएच-94), स्वाला और दिल्ली बेन्ड (एनएच-125), खाट और बांसवाड़ा (एनएच-109), लामबगड़ और बेनाकुली जैसे कई संवेदनशील जगहों पर ढलानों की सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किये गये।

तीर्थयात्रियों या पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ नहीं बनाया गया

रिपोर्ट में कहा गया है कि सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय सभी संवेदनशील ढलानों को चिह्नित कर उसका सही ट्रीटमेंट करें। ताकि भूस्खलन से बचा जा सके।

नरेंद्र मोदी के महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट के लिए कुछ भी

उत्तराखंड के महत्वकांक्षी चारधाम परियोजना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट है। इसलिए नितिन गडकरी से लेकर त्रिवेंद्र सिंह रावत तक सड़क की राह में आने वाली हर बाधा को तत्काल दूर करने के लिए प्रयासरत रहते हैं। पिछले महीने भी नितिन गडकरी ने इस परियोजना को लेकर मुख्यमंत्री के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये बैठक की थी। भूमि अधिग्रहण, वन और पर्यावरण के क्लीयरेंस से जुड़े मामलों को जल्द निपटाने को कहा। क्लीयरेंस से जुड़ी आपत्ति-अनापत्ति सब निपटायी जा रही है ताकि सड़क बनती रहे।

चारधाम सड़क परियोजना सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कही जाती है। तो सामरिक रूप से महत्वपूर्ण सड़क का अनावश्यक रूप से चौड़ा होना जरूरी नहीं है। सेना की गाड़ियां जिस सड़क पर सहूलियत के साथ आवाजाही कर सकें यही महत्वपूर्ण है। ये काम आठ मीटर की कुल चौड़ाई वाली सड़क में आसानी से हो जाता है।

हमारी हाईपावर कमेटी भी ये कहती है। ये भी बताती है कि आप उत्तराखंड को स्विटज़रलैंड बनाना चाहते हो, तो स्विटज़रलैंड की सड़कें भी आठ मीटर चौड़ाई के अंदर ही आती हैं। दुनियाभर में पर्वतीय क्षेत्र में 12 मीटर चौड़ी सड़क नहीं बनायी गई। ये परियोजना बताती है कि केदारनाथ आपदा से हमने एक भी सबक नहीं सीखा।

आख़िर में आपकी बात

इस समय उत्तराखंड में भूस्खलन से बंद सड़कों की खबरें आप पढ़ सकते हैं। प्रकृति के इस कहर को ऑल वेदर रोड ने बढ़ा दिया है। आए दिन इस सड़क निर्माण के चलते हादसे, भूस्खलन की खबरें बनी रहती हैं। लोगों के घर टूट रहे हैं। मलबे की चपेट में आने से मौतें हो रही हैं। आखिर में आपको ये तय करना है कि आप प्रकृति के साथ खड़े हैं या प्रकृति के ख़िलाफ़। आप हिमालय के साथ खड़े हैं या हिमालय के विरोध में। आपका विकास कुदरत की सुरक्षा के साथ है या कुदरत को ताक पर रख कर किए गए बेतरतीब निर्माण से। विकास शब्द की समझ भी मज़बूत करने की जरूरत है।

(वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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